कसायपाहुड़ आदि ग्रन्थों में श्रावक के चार धर्म-कर्तव्य माने हैं—‘‘दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो।’’अर्थात् दान, पूजा, शील और उपवास में चार श्रावकों के धर्म हैं। रयणसार ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी श्रावक के ४ धर्म बताए हैं—
दानं पूजा शीलं उपवासः बहुविधमपि क्षपणमपि। सम्यक्त्वयुतं मोक्षसुखं सम्यक्त्वं बिना दीर्घसंसारः।।१।।
भावार्थ — सम्यग्दर्शन से युक्त मनुष्य के लिए दान, पूजा, शील, उपवास तथा अनेक प्रकार के व्रत कर्मक्षय के कारण तथा मोक्षसुख के हेतु हैं। सम्यग्दर्शन (विवेक की जाग्रति) के बिना ये ही दीर्घ संसार के कारण होते हैं। उमास्वामी श्रावकाचार में श्री उमास्वामी आचार्य ने श्रावकों की षट्क्रियायें मानी है—
अर्थ — जो पुरुष देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छहों कर्मों के करने में तल्लीन रहता है, जिसका कुल उत्तम है और जो देवपूजा आदि कर्मों से ही चूला, उखली, चक्की, बुहारी, परण्डा, घर की मरम्मत, घर के नित्य होने वाले पापों को नष्ट करता रहता है वही उत्तम श्रावक कहलाता है।
भावार्थ — देवपूजा आदि श्रावकों का आवश्यक कर्म है। इस प्रकरण में ग्रंथकार ने ‘कुलसत्तमः’ ऐसा एक श्रावक का विशेषण दिया है। इससे यह सूचित होता है कि जिसकी कुल और जाति उत्तम है उसी को देवपूजा आदि षट्कर्म करने का अधिकार है। जिसकी जाति वा कुल हीन है उसको देवपूजा आदि करने का कोई अधिकार नहीं है। हाँ, अपनी योग्यता के अनुसार ऐसे लोग दर्शन आदि कार्य कर सकते हैं।