प्रश्न: वास्तु में गृह क्लेश के कौन-कौन से कारण माने जाते हैं? मेरे घर में झगड़े बहुत ज्यादा होते हैं। शांति का क्या उपाय हैं?
उत्तर: गृह क्लेश के एक नहीं, अनेक कारण हो सकते हैं। कई बार इसके सूत्र वास्तु की दहलीज से निकलकर गृह नक्षत्रों के दामन में छिपे नजर आते हैं, जो हमारे ही पूर्व कर्मों की उपज होते हैं। वास्तु शास्त्र में आग्नेय कोण पर जल या जलीय पदार्थों या रंगों की उपस्थिति धन नाश के साथ क्लेश को भी जन्म देती है। पर उत्तर-पूर्व यानी ईशान्य कोण में अग्नि, आग्नेय पदार्थ या अग्नेय वर्ण की मौजूदगी नि:संदेह घरेलू झमेलों की जनक होती है। इसके अलावा उत्तर-पूर्व में गंदगी, घर के मुख्य द्वार पर सूखे हुए तोरण या सफाई की कमी, द्वार वेध, पश्चिम दिशा में खुला स्थान और उत्तर-पूर्व में भारी वस्तु का होने में भी घर की किच-किच के सूत्र छिपे हो सकते हैं। इसका निवारण, कटु वचनों पर नियंत्रण, मधुर वचनों का प्रयोग, बुजुर्गों और असहायों की सहायता, घर की पूर्ण सफाई, घर में पिरामिड और बांसुरी की मौजूदगी जैसे कुछ कदम घर में शांति की बीज बो सकते हैं, पर धैर्य, शांति व आनंद के लिए अनिवार्य शर्त है। प्रश्न: मैंने कहीं पढ़ा है कि पश्चिम दिशा का संबंध लक्ष्मी से है। तो क्या धन प्राप्ति के लिए पश्चिम में सर रखकर सोना शुभ फल देगा?
उत्तर: कर्मकांड, तंत्र और वास्तु ये सब अलग-अलग विधाएं हैं। पर, इन्हें मिला देने से कभी-कभी विपरीत फल भी प्राप्त हो सकते हैं। तंत्र शास्त्र और कर्मकांड में लक्ष्मी की विशिष्ट साधना के लिए पश्चिमाभिमुख होकर अर्चना का उल्लेख मिलता है। वास्तु में पश्चिम की तरफ पीठ करके यानी पूर्वाभिमुख होकर बैठना ज्ञान प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ माना जाता है। बही वास्तु में सोने के लिए दक्षिण में सिर रखकर सोने का विवरण प्राप्त होता है और इसे ही धन प्राप्ति के लिए उत्तम माना जाता है। क्योंकि, चुंबकीय ऊर्जा दक्षिण से उत्तर की तरफ प्रवाहित होती है। पश्चिम की तरफ सिर करके सोना सर में भारीपन व स्वास्थ्य समस्याओं के साथ अनेक अवांछित परिस्थितियों को जन्म देने वाला होता है। प्रश्न: पूजा करने की सही दिशा क्या है?
उत्तर: सामान्यत: पूर्वाभिमुख होकर अर्चना करना ही श्रेष्ठ स्थिति है। इसमें देव प्रतिमा (यदि हो तो) का मुख और दृष्टि पश्चिम दिशा की ओर होती है। इस प्रकार की गई उपासना हमारे भीतर ज्ञान, क्षमता, सामर्थ्य और योग्यता प्रकट करती है, जिससे हम अपने लक्ष्य की तलाश करके उसे आसानी से हासिल कर लेते हैं। पर विशिष्ट उपासनाओं में पश्चिमाभिमुख रहकर पूजन का वर्णन भी मिलता है। इसमें हमारा मुख पश्चिम की ओर होता है और देव प्रतिमा की दृष्टि और मुख पूर्व दिशा की ओर होती है। यह उपासना पद्धति सामान्यत: पदार्थ प्राप्ति या कामना पूर्ति के लिए अधिक प्रयुक्त होती है। उन्नति के लिए कुछ ग्रंथ उत्तरभिमुख होकर भी उपासना का परामर्श देते हैं। दक्षिण दिशा सिर्फ षट्कर्मों के लिए इस्तेमाल की जाती है।