आचार्य देव की वंदना के बाद साधुवर्ग गोचार प्रतिक्रमण करें। जिनके घर में आहार हुआ है उनका नाम आदि बताकर आहार में जो कुछ अतिचार आदि लगे हों उनको कहना चाहिए। किन्हीं-किन्हीं संघ में आहार में जो कुछ ग्रहण किया है उन सब वस्तुओं को भी बतलाते हैं यह भी अच्छी परम्परा है। इससे शिष्यों के स्वास्थ्य के अनुकूल-प्रतिकूल वस्तु की जानकारी हो जाने से गुरु उसे अनुकूल वस्तु लेने व प्रतिकूल वस्तु न लेने आदि की शिक्षा भी देते हैं।
गोचार प्रतिक्रमण का अर्थ है-
‘‘पडिक्कमामि भंते! अणेसणाए पाणभोयणाए……’’
इत्यादि दण्डक का प़ढ़ना किन्तु ‘‘अनगारधर्मामृत’’ में इन लघु प्रतिक्रमणों को ‘दैवसिक प्रतिक्रमण’ में ही अन्तर्भूत माना गया है अतः इस समय पृथक् इस दण्डक को पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।
यथा-‘‘तथा स प्रतिक्रमो निषिद्धिकेर्यालुंचाशदोषार्थश्चांतर्भवति। क्व? अपरे आह्निकादौ प्रतिक्रमे।’’
निषिद्धिका, ईर्यापथ, लोच, गोचार और स्वप्नदोष ये लघु प्रतिक्रमण दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण में अंतर्भूत हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि लोच, रात्रिक, दैवसिक, गोचार, निषेधिकागमन, ईर्यापथ और दोष ये सात लघु प्रतिक्रमण होते हैं। इनमें से ईर्यापथशुद्धि प्रतिक्रमण जो कि त्रिकाल देववंदना में आता है उसमें निषेधिकागमन प्रतिक्रमण गर्भित हो जाता है। दोष प्रतिक्रमण-निद्रा संबंधि प्रतिक्रमण रात्रिक में एवं लोच और गोचार प्रतिक्रमण दैवसिक में अंतर्भूत हो जाते हैं।
अनगार धर्मामृत में एक प्रश्न हुआ है कि साधु गुरु के परोक्ष में ही चौके में ही प्रत्याख्यान क्यों ले लेते हैं ? उसका समाधान दिया है कि ‘‘दैवयोग से यदि कदाचित् गुरु के पास आते समय मार्ग में ही आयु समाप्त हो गई हो प्रत्याख्यान के बिना मृत्यु हो जाने से वह साधु विराधक-असमाधि से मरण करने वाला हो जावेगा अतः शीघ्र ही प्रत्याख्यान स्वयं ले लेना चाहिए फिर आकर गुरु के पास भी लेना चाहिए।विशेष ज्ञातव्य-आजकल किन्हीं संघों में साधु आहार के पहले ही गुरु के पास प्रत्याख्यान निष्ठापन की भक्ति पढ़ लेते हैं और गुरु के पास ही प्रत्याख्यान का त्याग करके आहार को जाते हैं। सो यह परम्परा वैâसे चालू हुई कौन जाने? यह आगमोक्त नहीं है। आचारसार में भी लिखा है कि ‘‘साधु दातार द्वारा पड़गाहन आदि नवधाभक्ति के पूर्ण हो जाने के बाद ही सिद्धभक्ति करके प्रत्याख्यान का निष्ठापन करे पुनः आहार ग्रहण करे।’’
क्रियाकलाप में पंडित पन्नालाल जी सोनी ने भी यही विधि लिखी है। यथा-‘‘भोजन के पहले लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास का त्याग-निष्ठापन करें और भोजन के बाद शीघ्र ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण करें। यह तो आचार्य की असमक्षता में करें। आचार्य के समीप में लघु सिद्धभक्ति, लघु योगिभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान अथवा उपवास धारण करें। अनन्तर लघु आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें।’’