जीव का विभावरूप स्वभाव रागादि रूप परिणमने का और कर्म का स्वभाव तद्रूप परिणमाने का है। इसमें जीव का अस्तित्व अर्हं प्रत्यय से होता है तथा कर्म का अस्तित्व जीव में ज्ञान की वृद्धि और हानि से सिद्ध होता है क्योंकि आवरण कर्म के बिना तरतमता नहीं हो सकती।
सामान्य से कर्म एक प्रकार का है, द्रव्य भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का है। पुद्गलिंपड को द्रव्यकर्म कहते हैं तथा उसमें जो फल देने की शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैंं।
सामान्य से कर्म आठ प्रकार का भी है अथवा एक सौ अड़तालीस या असंख्यात लोक प्रमाण भी उसके भेद हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये कर्म के मूल भेद हैं। इनमें चार घातिया तथा चार अघातिया कर्म हैं। गोत्रकर्म अघातिया कर्म है।
संताणकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा।
उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं।।
संतान क्रम से चले आये जीव के आचरण को गोत्र कहते हैं। उच्च व नीच आचरण से उच्च व नीच गोत्र होता है। धवला की टीका के अनुसार—‘‘उच्चं-नीचं गमयतीति गोत्रम्’’ अर्थात् जो उच्च और नीच गोत्र का आचरण कराता है अथवा उच्च या नीच कुल को प्राप्त कराता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं।
धवला टीका के अनुसार—‘‘न च निष्फलं गोत्रम्, दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारै: कृतसंबंधानां आर्यप्रत्ययाभिधान—व्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां सन्तान: उच्चैर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिकर्माप्युच्चैर्गोत्रम्। …. तद्विपरीतम् नीचैर्गोत्रम्’’। अर्थात् गोत्र कर्म निष्फल है, यह बात नहीं है क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है, साधु आचार वालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो ‘‘आर्य’’ इस प्रकार के ज्ञान और वचन व्यवहार के निमित्त हैं उन पुरुषों की परम्परा को उच्चगोत्र कहा जाता है तथा उनमें उत्पत्ति का कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है। उससे विपरीत कर्म नीच गोत्र है।
उमास्वामी आचार्य तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में लिखते हैं—‘‘उच्चैर्नीचैश्च’’ अर्थात् उच्च गोत्र और नीच गोत्र ये दो भेद गोत्र कर्म के हैं।
उच्चगोत्र—जिसके उदय से लोकमान्य कुल में जन्म हो उसे उच्चगोत्रकर्म कहते हैं।
नीचगोत्र—जिस कर्म के उदय से लोकनिन्द्य कुल में जन्म हो उसे नीच गोत्रकर्म कहते हैं।
आठ कर्मों के क्रम में पूज्यता की अपेक्षा ज्ञानगुण पूज्य होने से उसे सबसे पहले रखा, पश्चात् सम्यक्त्व। वीर्य शक्ति रूप है, वह जीव—अजीव दोनों में पाया जाता है अत: उसे सबसे अन्त में कहा है। आयु कर्म के निमित्त से भव में स्थिति होती है इसलिए नामकर्म से पूर्व आयुकर्म को कहा है और भव के आश्रय से ही नीचपना अथवा उच्चपना होता है इसलिए नामकर्म को गोत्रकर्म के पहले कहा है।
इस गोत्र कर्म का उदाहरण देते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो ‘‘गमयति’’ अर्थात् जीव के उच्च-नीचपने का ज्ञान करावे अथवा प्राप्त करावे वह गोत्रकर्म है। जैसे—कुम्भकार मिट्टी के छोटे-बड़े बर्तन बनाता है वैसे ही गोत्रकर्म भी जीव की उच्च-नीच अवस्था की प्राप्ति कराता है।
‘‘परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।।’’
(१) दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना।
(२) दूसरे के मौजूद गुणों को ढंकना।
(३) अपने झूठे गुणों को प्रकट करना।
इन खोटी क्रियाओं से जीव को नीच गोत्र कर्म का आस्रव होता है।
‘‘तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य।।’’
(१) परप्रशंसा तथा आत्मनिन्दा करना।
(२) नम्रवृत्ति रखना।
(३) मद का अभाव।
इन क्रियाओं से जीव को उच्चगोत्र कर्म का आस्रव होता है।
गोत्र कर्म की स्थिति—
‘विंशतिर्नामगोत्रयो:’’—गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर की है। ‘‘नामगोत्रयोरष्टौ’’ जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त की है।
यह आगम सम्मत तथ्य है कि रजोवीर्य का संस्कार अवश्य आ जाता है, चाहे वह कैसे भी विद्यादि गुणों से सहित क्यों न हो, उस पर्याय में संस्कार नहीं मिटता क्योंकि जैसे रज वीर्य से शरीर, मस्तिष्क व मन का निर्माण होता है वैसे ही जीव के विचार होते हैंं। खानपान व बाह्य वातावरण का भी प्रभाव विचारों पर पड़ता है।
अमृतचन्द्राचार्य लिखते हैं—
एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना
दन्य: शूद्र: स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव।
द्वावप्येतौ युगपद्दुरान्निर्गतौ शूद्रिकाया:,
शूद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्रमेण।।
किसी शूद्री स्त्री के उदर से एक ही समय दो पुत्र पैदा हुए। उनमें से एक तो ब्राह्मण के घर पला, उसको बाह्मणत्व का अभिमान हुआ कि ‘‘मैं ब्राह्मण हूँ’’ उस अभिमान से मद्य को दूर से ही त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता तथा दूसरा ‘मैं स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर नित्य मदिरा से ही स्नान करता है, उसे पवित्र मानता है। यदि इसका परमार्थ विचारा जाय तब दोनों ही शूद्री के पुत्र हैं क्योंकि दोनों ही शूद्री के उदर से जन्मे हैं, इस कारण साक्षात् शूद्र हैं। वे जातिभेद के भ्रम से आचरण करते हैं।
विचारणीय तथ्य यह है कि जब भ्रमवशात् भी जीवों के आचरण में स्वाभाविक अन्तर पाया जाता है तब साक्षात् नीच—उच्च गोत्र में उत्पन्न हुए जीवों के आचरण में अन्तर होगा ही।
अत: अपने कुल व वंश की मर्यादाओं की रक्षा करना मानव मात्र का कर्तव्य है।
जगत् के जीवों की जीवन चर्या, रहन-सहन आदि का अवलोकन करें तो हमें विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। कोई धनाढ्य है, कोई सर्वरूप से सम्पन्न है, कोई सुन्दर रूपवान है और कोई कुरूप, कोई आराम से बैठकर खाता है तो कोई परिश्रम करके भी दो जून (समय) की रोटी पेट भर भी नहीं खा पाता, कोई सड़क पर सोता है तो कोई महलों में। एक कवि ने कहा भी है—
एक महल में सुख से खेले, एक सड़क पर सोता है।
जीवन चलता साथ किसी के, कोई जीवन ढोता है।।
कुछ व्यक्ति जन्मत: दारिद्रय की मूर्ति होते हैं, कुछ धनाढ्य होने पर भी बाद में दरिद्र हो जाते हैं। इस प्रकार पाँच बातों से विषमता आती है। आचार्य श्री उमास्वामी ‘मोक्षशास्त्र’ में उन पाँच बातों का उल्लेख करते हैं—
‘‘विघ्नकरणमन्तरायस्य।’’
(त. सू. अ. ६ सू. २७)
‘‘दानादिपरिणामव्याघातहेतुत्वात्तद्व्यपदेश:।’’
अर्थात् दानादि परिणाम के व्याघात का कारण होने से यह अर्थात् अन्तराय संज्ञा प्राप्त होती है।
‘‘अन्तरमेति गच्छेतीत्यन्तराय:।’’ जो अन्तर अर्थात् मध्य में आता है वह अन्तराय कर्म है।
‘‘दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्।’’ अर्थात् वह अन्तराय कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग आदिकों में विघ्न करने में समर्थ है।
दानादि अन्तराय कर्मों के लक्षण—
‘‘यदुदयाद्दातुकामोऽपि न प्रयच्छति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते, उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपि नोपभुङ्क्ते, उत्सहितु-कामोऽपि नोत्सहते त एते पञ्चान्तरायस्य भेदा:।’’
जिनके उदय से देने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्त करने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्त करता है, भोगने की इच्छा करता हुआ भी भोग नहीं सकता है, उपभोग करने की इच्छा करता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है इस प्रकार ये पाँच अन्तराय के भेद हैं।
१. दानान्तराय—इस कर्म के उदय से मनुष्य के आहार, औषध, शास्त्र व अभयदान देने के भाव ही नहीं होते हैं अर्थात् त्याग के भाव जागृत नहीं हो पाते हैं यद्यपि वह जानता है कि सम्पत्ति की तीन दशा होती हैं—भोग, दान एवं नाश। कार्नगी नामक एक अमेरिकन विद्वान् लिखते हैं— ‘‘A Man who dies rich dies in disgrace.’’ जो व्यक्ति धनवान् होकर मरता है वह अभिशाप में मरता है अर्थात् परिग्रह का संचय करना, उसका व्यय नहीं करना। यदि कोई दान आदि की प्रेरणा देता है तो वह उसे शत्रुवत् देखता है। वह यह भूल जाता है कि लक्ष्मी पुण्यानुसारिणी होती है। जब लक्ष्मी नष्ट होने को होगी तो संचित करते हुए भी नष्ट हो जाती है।
२. लाभान्तराय—इस कर्म का उदय होने पर मनुष्य कितना ही प्रयत्न करे उसे लाभ तो होता ही नहीं वरन् हानि ही होती है। जब लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है तब आसपास ही सुख सामग्री प्राप्त हो जाती है। इस कर्म का उदय एवं क्षयोपशम समझने के लिए धन्यकुमार का जीवन चरित दिशा प्रदान करता है। जब वह अकृतपुण्य के रूप में था तब दिये गये मोती के दाने अंगार रूप परिणत होते थे, जब वह धन्यकुमार के रूप में था तब पग—पग पर धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती थी। आज भी हम देखते हैं जिनको लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है उसे लॉटरी के माध्यम से धन प्राप्त हो जाता है, भूगर्भ आदि से भी मिल जाता है। जिनके पाप कर्म का उदय होता है उसका धन भी मिट्टी रूप में परिणत हो जाता है।
३. भोगान्तराय—भोग के अन्तर्गत वे सामग्रियाँ आती हैं जो एक बार भोगी जाती हैं।
४. उपभोगान्तराय-वे सामग्रियाँ जो बार—बार भोगी जाती हैं, उपभोग कहलाती हैं। चक्रवर्ती के १४ रत्न, ९ निधि, ९६ हजार रानियाँ, १८ करोड़ घोड़े, ८४ लाख हाथी आदि सम्पत्ति अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से ही मिलते हैं।
५. वीर्यान्तराय-इस कर्मोदय के कारण शरीर इतना बलहीन होता है कि वे भोगों को भोग नहीं सकते। जैसे एक महाशय के यहाँ उत्तमोत्तम भोज्य सामग्री तैयार रखी है, घर के सभी सदस्य खा रहे हैं किन्तु वह महाशय पेट की बीमारी के कारण मूँग की दाल व रोटी ही खाते हैं। वीर्यान्तराय कर्म से ग्रसित व्यक्ति श्रावक या मुनि के व्रतों को ग्रहण नहीं कर पाता। सम्यग्दृष्टि होने पर भी क्षुधा, तृषा, शीतादि की वेदना को सहन नहीं कर पाता।
अन्तराय कर्म का कार्य-‘‘अन्तराय कर्म के उदय से जीव चाहे सो नहीं होय है। बहुरि तिसही का क्षयोपशमते किंचित् मात्र चाहा भी होय।’’
‘‘तद्विस्तरस्तु विव्रियते—ज्ञानप्रतिषेधसत्कारोपघात—दानलाभभोगोपभोग—वीर्यस्नानानुलेपनगन्ध—माल्याच्छादन—विभूषणशयनासन—भक्ष्य—भोज्यपेयलेह्यपरिभोग—विघ्नकरण—विभवसमृद्धि—विस्मय—द्रव्यापरित्याग—द्रव्यासप्रयोग-समर्थना—प्रमादावर्णवाद—देवता-निवेद्यानिवेद्यग्रहण—निरवद्योपकरणपरित्याग—परवीर्यापहरण—धर्मव्यवच्छेदनकरण-कुशलाचरणतपस्वि—गुरुचैत्यपूजाव्याघात—प्रव्रजित कृपण दीनानाथवस्त्रपात्रप्रतिश्रयप्रतिषेधक्रिया—परनिरोधबन्धनगुह्याङ्-छेदन—कर्ण—नासिकोष्ठकर्तन—प्राणिवधादि:। (रा. वा. ६/२७)
ज्ञान प्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गन्ध, माल्य, आच्छादन, भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदि में विघ्न करना; विभवसमृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग न करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, अवर्णवाद करना, देवता के लिए निवेदित या अनिवेदित द्रव्य का ग्रहण करना, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरे की शक्ति का अपहरण, धर्म व्यवच्छेद करना, कुशल चरित्र वाले तपस्वी गुरू त्ाथा चैत्य की पूजा में व्याघात करना, दीक्षित, कृपण, दीन, अनाथ को दिये जाने वाले वस्त्र, पात्र, आश्रय आदि में विघ्न करना, परनिरोध, बन्धन, गुह्य अंगच्छेद, कान, नाक, ओठ आदि का काट देना, प्राणिबध आदि अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण हैं।
प्रश्न-अन्तराय कर्म घातिया है तथापि उसे अघातिया के अन्त में क्यों रखा ? इसका उत्तर है—
घादीदि अघािंद वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो।
णामतियणिमित्तादो विग्घं पडिदं अघादिचरिमह्मि।।
अन्तराय कर्म यद्यपि घातिया है तथापि अघातिया कर्मों के समान जीव के गुणों को पूर्ण रूप से घातने में समर्थ नहीं है। नाम, गोत्र और वेदनीय के निमित्त से ही अन्तराय कर्म अपना कार्य करता है इसी कारण उसे अघातिया कर्मों के अन्त में कहा है।
अन्तराय कर्म का स्वभाव ‘‘भंडारी’’ के समान है। जैसे—दान देने के लिए तत्पर सेठजी को मुनीम के द्वारा रोक देना। कहा भी है—‘‘दाता दान दे भंडारी का पेट फूटे’’।
‘‘आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिशंत्सागरोपमकोटीकोट्य: परास्थिति:।।१४।।’’ आदि के तीन कर्म व अन्तराय कर्म की स्थिति उत्कृष्ट से तीस कोटाकोटि सागरोपम है। अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
इस प्रकार अन्तराय कर्म के कार्य को देखकर मनुष्य जीवन में कदम—कदम पर विचार करके कार्य करना चाहिए।