बाल विकास के अनुसार
गोत्र कर्म के दो भेद –उच्च गोत्र ओर नीच गोत्र ।
उच्चगोत्र- जिसके उदय से जीव लोकमान्य उच्चकुल में जन्म लेवे वह उच्चगोत्र है।
नीचगोत्र- जिसके उदय से जीव लोकनिद्य नीचकुल में जन्म लेवे, वह नीच गोत्र है।
आदिपुराण के अनुसार- जैन धर्म में एक गोत्र नाम का कर्म माना गया है जिसके उदय से यह जीव उच्च-नीच कुल में उत्पन्न होता है। उस गोत्र के उदय ससे उच्च कुल में नीच गोत्र के उदय से नीच कुल में उत्पन्न होता है। देवों के हमेशा उच्च गोत्र का तथा नारकियों और तिर्यंच्चों के नीच गोत्र का ही उदय रहता है। मनुष्यों मे भी भोगभूमिज मनुष्य के सदा उच्चगोत्र का ही उदय रहता है, परन्तु कर्मभूमिज मनुष्यों के दोनो गोत्रो का उदय पाया जाता हे किन्ही के उच्च गोत्र का और किन्ही के नीच गोत्र का । अपनी प्रशंसा दूसरे के विद्यमान गुणों का अपलाप तथा अहंकार वृत्ति से नीच गोत्र का और इससे विपरीत परिणति के द्वारा उच्च गोत्र का बन्ध होता है। गोत्र की परिभाष गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इस प्रकार लिखा है।
संताणकमेणागय जीवायरणस्य गोदमिदि सण्णा।
उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं।
अर्थात् सन्तानक्रम से चले आये जीव के आचरण की गोत्र संज्ञाा है। इस जीव का जो उच्च-नीच आचरण है वही उच्च-नीच गोत्र है। विचार करने पर ऐसा विदित होता है कि यह लक्षण सिर्फ कर्मभूमिज मनुष्यों को लक्ष्य कर ही लिखा गया हैं। क्योंकि गोत्र का उदय जिस प्रकार मनुष्यों के है उसी प्रकार नारकियों तिर्यच्चों और देवों के भी है, तथापि इन सबके सत्तति का क्रम नही चलता । यदि संतान का अर्थ सन्तति न लेकर परम्परा या आम्नाय लिया जाये और ऐसा अर्थ किया जाये कि परम्परा या आम्नाय से प्राप्त जीव का जो आचरण अर्थात् प्रकृति है वह गोत्र कहलाता हेै वह गोत्र कर्म की उक्त परिभाषा व्यापक हो सकती है क्योकि देवों और नारकियों के भी पुरातन देव और नारकियों की परम्परा सिद्ध है।
गोत्र सर्वत्र है। परन्तु वर्ण का परियवहार केवल कर्मभूमि में है। इसलिए दोनों का परस्पर सदा संबन्ध रहता हे यह मानना उचित नही प्रतीत होता है। निग्रंथ साधु होने पर कर्मभूमि में भी वर्ण का व्यवहार छूट जाता है, पर गोत्र का उदय विद्यमान रहा आता है। कितने ही लोग सहसा ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य को उच्च गोत्री और शुद्र को नीच गोत्री कह देते है। परन्तु इस युग में जब कि सभी वर्णो में वृत्ति-सम्मिश्रण हो रहा है। तब क्या कोई विद्वान दृढ़ता के साथ यह कहने को तैयार है कि अमुक वर्ग अमुक वर्ण है। कही-२ ब्राहमणों में एक दो नही, पचासो पीढ़ियों से मांस-मछली खाने की प्रवृत्ति चल रही है। उस ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने के कारण उच्च गोत्री माना जाय। और बुन्देलखण्ड की जिन बढ़ई, लुहार, सुनार, नाई, आदि जातियों में पचासों पीढ़ियो से मास- मदिरा का सेवन न किया गया हो उन्हे शूद्र वर्ण मे उत्पन्न होने से नीच गोत्री कहा जाय वह बात बुद्धिग्राहय नही दिखती । जिन लोगो में स्त्री का करा-धरा होवे शुद्र है, नीच है । और जिन में यह बात न ही वे त्रिवर्ण द्विज है, यह बात भी आज जमती नही है क्योंकि स्पष्ट नही तो गुप्त रूप से यह करे – धरे की प्रवृत्ति त्रिवर्णो द्विजो में भी हजारों वर्ष पहले से चली आ रही है।