विभा बंसल एवं अनुपम जैन
सारांश दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी ई. के आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत यह ग्रंथ अपने पूर्ववर्ती ग्रंथों जैसे षट्खण्डागम, कषायप्राभृत, धवला, जयधवला आदि पर आधारित माना गया है।जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साधिदं अविग्घेण। तह मइ चक्केण मया छक्खंडं साधिदं होदि।।३९७।।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड की इस गाथा से स्पष्ट विदित होता है कि जैसे चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न के द्वारा भरतक्षेत्र के छह खण्डों को बिना विघ्न—बाधा के साधित करता है उसी प्रकार मैंने अपने बुद्धिरूपी चक्र के द्वारा सिद्धान्त के छह खण्डों को साधा है। ग्रंथ के दो भाग, पूर्व भाग ‘‘जीवकाण्ड’’ और उत्तर भाग ‘‘कर्मकाण्ड’’ हैं। जीवकाण्ड में ७३४ गाथाएँ हैं जिसमें जीव की अनेक अशुद्ध अवस्थाओं का और भावों का वर्णन है एवं कर्मकाण्ड में ९७२ गाथाएँ हैं, जिनमें कर्मों की अनेक अवस्थाओं का वर्णन है। सम्पूर्ण जैन साहित्य को विषय के अनुसार चार भागों में विभाजित किये जाने पर प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग में से, यह ग्रंथ करणानुयोग के अन्तर्गत आता है। इस करणानुयोग रूप शास्त्र के अभ्यास के लिए गणित का ज्ञान आवश्यक है। ग्रंथ में जीवों और कर्मों की गणना के रूप में सर्वत्र गणित से प्राप्त होता है। यहाँ इसी ग्रंथ के गणित का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है।
गोम्मटसार नाम का प्रथम पद गोम्मट सुनने में कुछ विचित्र—सा लगता है। यह शब्द न तो संस्कृत भाषा के कोशों में मिलता है और न प्राकृत भाषा के, अत: यह शब्द विद्वानों के विवाद का विषय रहा है, इस गोम्मट नाम से सम्बन्धित बहुत सारी अवधारणाएँ सामने आई हैं। यदि हम गोम्मटसार की कुछ अन्तिम गाथाओं को ध्यानपूर्वक पढ़ें तो एक बात निर्विवाद सिद्ध होती है कि चामुण्डराय—जो वीर मार्तण्ड की उपाधि से शोभित थे, का एक नाम गोम्मट था और वे गोम्मटराय भी कहे जाते थे। आचार्य नेमिचन्द्र ने ओजपूर्ण शब्दों में उनकी विजय की भावना की है। जैसा कि निम्न दो गाथाओं से प्रकट है—
अज्जज्जसेण गुणगणसमूह संघारि अजियसेण गुरु।
भुवणगुरु जस्स गुरु सो राओ गोम्मटो जयउ।।
‘जेण विणिम्मिय—पडिमा—वयणं सव्वट्ठ सिद्धिदेवेहिं।
सव्वपरमोहिजोगिहिं दिट्ठं सो राओ गोम्मटो जयऊ।।
पहली गाथा में कहा है कि वह राय गोम्मट जयवन्त हों, जिनके गुरु वे अजितसेन गुरु हैं जो भुवनगुरु हैं। दूसरी गाथा में कहा है कि वह राजा गोम्मट जयवन्त हों, जिनकी निर्माण करायी हुई प्रतिमा (बाहुबली की मूर्ति) का मुख सर्वार्थसिद्धि के देवों और सर्वावधि तथा परमावधि के धारक योगियों के द्वारा देखा गया है।
डॉ. उपाध्ये ने अपने लेख में लिखा है कि भारत की आधुनिक भाषाओं में मराठी ही ऐसी भाषा है जिसमें यह शब्द प्राय: व्यवहृत हुआ है और आज भी इसका व्यवहार होता है। आगे वह लिखते हैं— ‘गोम्मट शब्द मराठी में एक विशेषण है और उसका अर्थ है साफ, सुन्दर, आकर्षक, अच्छा आदि। कोंकणी भाषा में गोम्टो शब्द है और उसका वही अर्थ है जो मराठी में है।’ अन्त में वह लिखते हैं, अक्षरश: गोम्मट शब्द का अर्थ है,उत्तम आदि।
== ग्रंथ रचना आचार्यश्री द्वारा चन्द्रगिरि पर चामुण्डराय के द्वारा निर्मापित जिनालय में इन्द्रनीलमणि निर्मित नेमीश्वर जिन के सानिध्य में ही हुई है। जब चामुण्डराय अपनी माता के साथ गोम्मटेश्वर की मूर्ति के दर्शन के लिए पोदनपुर गये थे, तो नेमिचन्द्र भी उनके साथ थे। गोम्मटसार कर्मकाण्ड की प्रशस्ति में इस जिनालय में स्थित बिम्ब का नाम निर्देश है तथा जीवकाण्ड,कर्मकाण्ड की आद्य मंगल गाथाओं में नेमि जिन को भी नमस्कार किया गया है। गोम्मटसार की अन्तिम प्रशस्ति में राजा गोम्मट अर्थात् चामुण्डराय का जयकार करते हुए उनके द्वारा निर्मित दक्षिण कुक्कुटजिन—बाहुबली की मूर्ति तथा चन्द्रगिरि पर निर्मित जिनालय का उल्लेख किया है। इससे यह प्रकट है कि उक्त निर्माणों के पश्चात् या उनके समयकाल में ही गोम्मटसार की रचना वि. सं. १०३७-४० अर्थात् ९८०-८९३ ई. में हुई है।
क्रमचय—संचय:—जैन आगम ग्रंथों में संचय का विषय अति प्राचीन काल से यथेष्ट महत्व एवं विस्तार के साथ भंग शब्द के माध्यम से प्राप्त होता है। आचार्यजी ने संचय के परिपूर्ण विकास को गोम्मcटसार (जीवकाण्ड) में प्रस्तुत किया है उनके इस अद्वितीय संचय cन्धी ज्ञान की सराहना करते हुए विभूतिभूषणदत्त ने लिखा है कि—
“If we remember that Nemichandra was essentially a philosopher and a saint, the so much knowledge of an abstract secular science, as displayed by him, will appears very commendable. Some of his results in combinations we have not so far found in any Hindu work before the fourteenth century of the Christain era.”
जीवकाण्ड ग्रंथ में संयोगी भंगों की संख्या ज्ञात करने से लेकर संयोगी भंगों के क्रम, एक भंग से दूसरे भंग तक पहुँचने का क्रम, संख्या द्वारा भंग की संरचना ज्ञात करना और दी गई संरचना वाले भंग की स्थिति ज्ञात करना आदि विषय वस्तु इसमें उपलब्ध होती हैं।
संखा तह पत्थारो परियट्ण णट्ठ तह समुद्दिट्ठं।
एदे पंच पयारा पमदसमुक्कित्तणे णेया।।
गाथार्थ :- प्रमाद के आलाप की उत्पत्ति में निमित्त अक्षसंचार के विशेष हेतुकों की संख्या को संख्या कहते हैं। इनके स्थापन का नाम प्रस्तार है। अक्षसंचार का नाम परिवर्तन है। संख्या रखकर अक्ष लाना नष्ट है। अक्ष रखकर संख्या निकालना उद्दिष्ट है। इस तरह संख्या, प्रस्तार, परिवर्तन, नष्ट तथा उद्दिष्ट ये पाँच प्रकार प्रमाद के व्याख्यान में जानना चाहिए। इस गाथा में आचार्यश्री ने संचय के पांच पदों को उद्घाटित किया है। अगली गाथाओं में संख्याओं की उत्पत्ति का क्रम, प्रस्तार का क्रम, प्रथम और द्वितीय प्रकार से, प्रथम प्रकार के सापेक्ष, द्वितीय प्रकार के सापेक्ष परिवर्तन ज्ञान करना, नष्ट को लाने की विधि, आलाप को रखकर उसकी संख्या लाने के लिए आगे का सूत्र, प्रथम प्रस्तार के अक्ष संचार को लेकर नष्ट—उद्दिष्ट के गूढ़ यन्त्र, दूसरे प्रस्तार के सापेक्ष नष्ट—उद्दिष्ट गूढ़ यन्त्र बतलाते हैं।
सव्वे वि पुव्वभंगा उवरिमभंगेसु एक्कमेक्केसु।
मेलंति त्ति य कमसो गुणिदे उप्पज्जदे संखा।।
गाथार्थ :- पूर्व के प्रत्येक समुच्चय के सभी अवयव एक के बाद एक आगे के समुच्चय के अवयवों के साथ मिलते हैं और समुच्चयों के अवयवों की संख्या के उत्तरोत्तर गुणन (Successive Multiplication) से संख्या (Number of the Combinations) मिलती है।
पढमं पमदपमाणं कमेण णिक्खिविय उवरिमाणं च।
पिंडं पडि एक्केक्कं णिक्खिते होदि पत्थारो।।
गाथार्थ :- पहले समुच्चय के अवयवों का विरलन (placement) कीजिये तथा प्रत्येक अवयव के ऊपर दूसरे समुच्चय को पिण्ड रूप में स्थापित कीजिये। प्राप्त नूतन समुच्चय के अवयवों का पुन: विरलन कीजिये, प्रत्येक संयोगी अवयव के ऊपर यथाक्रम समुच्चय को निक्षेपित कीजिये। इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति अंतिम समुच्चय तक कीजिये। उपरोक्त गाथाओं को उदाहरण से समझे तो यदि n समुच्चयों की संख्या m१ , m२ , ……. mn__हैं तथा संख्याs द्वारा प्रदर्शित की जाती है, तो
S= माना कि चार समुच्चय A,B,C और D है। A ={a१ , a२ , a३ , a४} B ={b१} C = {C१ , C२ , C३} D = d१ , d२} तो संख्या ४x१x३x२ = २४ अनन्तर, पहले समुच्चय A के अवयवों का विरलन कीजिए। a१ , a२ , a३ , a४ समुच्चय A को पिण्ड रूप में स्थापित कीजिए। a१ B, a२ B, a३ B, a४ B पुन: विरलन कीजिए।
a१ b१, a२ b१, a३ b१, a४ b१ समुच्चय C को निक्षेपित कीजिए। a१ b१ C१ , a२ b१ पुन: विरलन करने पर a१ b१ c१, a१ b१ c२, a१ b१ c३, a२ b१ c१, a२ b१ c२, a२ b१ c३, a३ b१ c१, a३ b१ c२, a३ b१ c३, a४ b१ c१, a४ b१ c२, a४ b१ c३, अंतत: D को निक्षेपित कर विरलन कीजिए। a१ b१ c१ d1 , a१ b१ c२ d१, a१ b१ c३ d१, a१ b१ c१ d२, a१ b१ c२ d२, a१ b१ c३ d२, a२ b१ c१ d१, a२ b१ c२ d१, a२ b१ c३ d१, a२ b१ c१ d१, a२ b१ c२ d२, a२ b१ c३ d२, a३ b१ c१ d१, a३ b१ c२ d१, a३ b१ c३ d१, a३ b१ c१ d२, a३ b१ c२ d२, a३ b१ c३ d२, a४ b१ c१ d१, a४ b१ c२ d१, a४ b१ c३ d१, a४ b१ c१ d२, a४ b१ c२ d२, a४ b१ c३ d२, इसी प्रकार से
णिक्खितु बिदियमेत्तं पढमं तस्सुवरि बिदियमेक्केक्कं।
पिंडं पडि णिक्खेवो एवं सव्वत्थ कायव्वो।
तदियक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि विदियक्खो।
दोण्णिवि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि पढमक्खो।।
पढमक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि बिदियक्खो।
दोण्णि वि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो।।
सगमाणेहि विभत्ते सेसं लक्खितु जाण अक्खपदं।
लद्धे रूवं पक्खिव सुद्धे अंत्ते ण रुवपक्खेवो।।
संठाविदूण रूवं उवरीदो संगुणित्तु सगमाणे।
अवणिज्ज अणंकिदयं कुज्जा एमेव सव्वत्थ।।
इगिवितिचपणखपणदसपण्णरसं खवीसतालसठ्टी य।
संठविय पमदठाणे णट्ठुद्दिट्ठं च जाण तिट्ठाणं।।
इन गाथाओं में हमें संचय का वर्णन प्राप्त होता है।
आचार्य नेमिचन्द्र ने अक्षर संकेतों द्वारा संख्या की अभिव्यक्ति की है। अक्षरों द्वारा व्यक्त की गई संख्या को अक्षर संख्या (Number in Alphabets) कहा जाता है। उन्होंने अक्षर संख्या की रचना कट्पयादि पद्धति (कूट भाषा) द्वारा की है। अक्षर संख्याओं की रचना में निहित अंकों की गति के आधार पर नेमिचन्द्र के ग्रंथों में अक्षर संख्याओं के दो वर्ग स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं। ‘वाम गति वर्ग (Left word move word) इसमें वे अक्षर संख्याएँ संग्रहीत की गई है, जिनकी रचना दाहिनी (Right) से बांयी (Left) ओर के क्रम से की गई है, एवं दक्षिण गति वर्ग (Right word move cless) इसमें वे अक्षर संख्याएँ संग्रहीत की गई हैं, जिनकी रचना बांयी (Left) ओर से दाहिनी (Right) ओर के क्रम से की गई है।’ गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में वाम गति वर्ग की दो गाथाएँ मिलती हैं जो निम्नवत् हैं :
इगिवितिचखचडबारं खसोलरागट्ठदाल चउसट्ठिं।
संठविय पमदठाणे णदूद्धिदट्ठं जाण तिट्ठाणे।।
इस गाथा में ३२ को शब्द ‘राग’ से व्यक्त किया है। इसमें अक्षर ‘रा’ और ‘ग’ को संख्या २ और ३ से व्यक्त किया है, जिसे Right से Left पढ़ने पर वह ३२ बना है। यह जो संख्याओं को अक्षरों द्वारा व्यक्त करने का तरीका है, उसे लक्ष्मीचन्द्र जैन ने संकलन (Symbolism) के अन्तर्गत अक्षरों से अंकों का बोध सरलता से निम्न सारणी द्वारा कराया है। ! 1 !! 2 !! 3 !! 4 !! 5 !! 6 !! 7 !! 8 !! 9 “- ” क् “” ख् “” ग् “” घ् “” ड् “” च् “” छ् “” ज् “” झ् “- ” ट् “” ठ् “” ड् “” ढ् “” ण् “” त् “” थ् “” द् “” ध् “- ” प् “” फ् “” ब् “” भ् “” म् “” “” “” “” “- ” य् “” र् “” ल् “” व् “” श् “” ष् “” स् “” ह् “” “- ” ० “” ०”” ० “” ० “” ०”” “” “” “” “- ” अ “” आ “” इ “” ई “” उ “” “” “” “” “- ” ऊ “” ऋ “” ऋ “” ऌ “” ऌ “” “” “” “” “- ” ए “” ऐ “” ओ “” औ “” अं “” “” “” “” “- ” अ: “” ञ “” न
तललीनवधुगबिमलं धूमसिलागाविचाेर भयमेरू।
तटहरिखझसा होंति हु माणुसपज्जत्त संखंका।।
इस गाथा में अक्षर संख्या ७ ९ २ २ ८ १ ६ २ ५ १ ४ २ ६ ४ ३ ३ ७ ५ ९ ३ ५ ४ ३ ९ ५ ० ३ ३ ६ को व्यक्त किया गया है। इसी प्रकार दक्षिण गति वर्ग की तीन गाथाएँ प्राप्त होती हैं, जो निम्नवत् हैं—
वापणनरनोनानं एयारंगे जुदी हु वादम्भि।
कनजतजमताननमं जनकनजयसीम बाहिरे वण्णा।।
गतनम मनगं गोरम मरगत जवगातनोननं जजलक्खा।
मननन धममननोनननामं रनधजधरानन जलादी।।
याजकनामेनाननमेदाणि पदाणि होंति परियम्मे।
कानवधिवाचनानमेसो पुण चूलियाजोगो।।
इसका उदाहरण बताओ”
मापन पद्धति : काल अरूपी एवं अजीव द्रव्य हैं। आचार्य ने काल के दो भेदों को श्वेताम्बर परम्परा की भाँति माना है- निश्चयकाल और व्यवहारकाल”‘समय’ काल का अविभागी मान है”‘समय के बाद के क्रमवार छ: कालमापों को कालमान सहित नेमिचन्द्र ने निरूपित किया है—
आवलि असंखसमया संखेज्जावलिसमूहमुस्सासो।
सत्थुस्सासो थावो सत्तत्थोवो लवो भणियो।।
अर्थात् असंख्यात समय = एक आवली असंख्यात आवली = एक उच्छ्वास असंख्यात उच्छवास = एक स्तोक असंख्यात स्तोक = एक लव
अट्ठत्तीसद्धलवा नाली बे नालिया मुहुत्तं तु।
एगसमयेण हीणं भिण्णमुहुत्तं तदो सेसं।।14
अर्थात् ३ १/२ लव = एक नाली दो नाली = एक मुहूर्त
दिवसो पक्खो मासो उडु अयणं वस्समेवमादी हु।
संखेज्जासंखेज्जाणंततवो होदि ववहारो।।15
अर्थात् दिवस (Day & Night) पक्ष (Fortnight), मास, ऋतु, अयन, वर्ष इत्यादि व्यवहार काल के संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त भेद हैं। ‘उच्छवास’ काल—मापन की जैन इकाई है। इसे ‘प्राण’ भी लिखा गया है। जे. एल. जैनी ने ‘उच्छवास’ का अर्थ ‘एक नाड़ी धड़कन’ किया है।16 इसी प्रकार अनेकों अनेक मापन इकाइयाँ गोम्मटसार के ग्रंथ में पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त गणितीय संकेतन (Mathematical Symbols) अथवा प्रतीक एवं श्रेणी व्यवहार आदि विषय भी गोम्मटसार में वर्णित हैं। विशेषत: कर्मकाण्ड में कर्म की प्रकृतियों के भेद, प्रभेद, उनके उत्कर्षण अपकर्षण का विषय विवेचित है, जो लोकोत्तर गणित का विषय है। संक्षिप्तत: गोम्मटसार भारतीय गणित का दिग्दर्शक एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, किन्तु इसका सम्यक् मूल्यांकन अभी शेष है।
संदर्भ ग्रंथ एवं लेख की सूची :
१. आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती रचित गोम्मटसार (जीवकाण्ड), भाग १, २ एवं (कर्मकाण्ड) भाग १, २, सम्पादक—डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली, १९८७
२. Gommatsara Jiva-Kanda (The Soul), The Sacred books of the Jainas, Vol. V, Edited by Rai Bahadur J. L. Jaini, The Central Jaina Publishing House, Ajitashram, Lucknow (India), 1927.
३. श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित त्रिलोकसार, हिन्दी टीकाकर्त्री : आर्यिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी, साहित्य भारती प्रकाशन, गन्नौर (हरियाणा) २००६।
४. दीपक जाधव ‘गोम्मटसार,(जीवकाण्ड) में संचय का विकास एवं विस्तार’, अर्हत् वचन (इन्दौर), ८ (४), पृ. ४५-५१, १९९६.
५. दीपक जाधव ‘नेमिचन्द्राचार्य कृत संचय के विकास का युक्तियुक्तकरण’, अर्हत् वचन (इन्दौर), ९ (३), पृ. १९-३७ १९९७. ६. दीपक जाधव एवं अनुपम जैन`On Prastara and Number of Srutajnanaksara of Nemicandra, Tulsi Prajna, Ladnun (Rajasthan), 103, 23 (3), P.P. 103-110, 1997.
७. दीपक जाधव ‘नेमिचन्द्राचार्य कृत ग्रंथों में अक्षर संख्याओं का प्रयोग ‘अर्हत् वचन (इन्दौर) १० (२) पृ. ४७-५९, १९९८
८. दीपक जाधव एवं अनुपम जैन ‘गोम्मटसार (जीवकाण्ड) में काल और उसका मापन’ अर्हत् वचन (इन्दौर), १० (३), पृ. ४७- ५४, १९९८.
९. दीपक जाधव “Exploration of Representation of Numbers in Nemicandrcaryas Works” Arhant Vacana, (Indore), 11 (3), PP. 53-63, 1999.
१०. दीपक जाधव ‘गोम्मटसार का नामकरण’ अर्हत् वचन (इन्दौर), ११ (४), पृ. १९-२४, १९९९
११. अनुपम जैन ‘गणित के विकास में जैनाचार्यों का योगदान’ विद्यावाचस्पति गणित, शोध प्रबंध, पृ. १०६-११५, १९९०.
१२. अनुपम जैन, ‘आचार्य नेमिचन्द्र का गणितीय अवदान, श्रीफल (पीपलगोन)’ पृ. ६९-७२, नवम्बर २००५ १३. एल. सी. जैन, ‘गोम्मटसार ग्रंथ की गणितात्मक प्रणाली’ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, भाग—२ भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली, पृ. १३९७- १४३६. १४. विभूतिभूषणदत्त, “Mathematics of Nemicandra”, The Jaina Antiquary, PP. 38-44, 1935.
१. संदर्भ—१ एवं १०, गोम्मटसार, जी. का. भाग—२, ७३४ २. संदर्भ—१ गोम्मटसार, कर्म. का., भाग—२, ९६९. ३. गोम्मटसार, जी. का. भाग—१, प्रस्तावना, पृ. ८. ४. वही पृ. ११ ५. संदर्भ—१४ ६. संदर्भ—१ गोम्मटसार, जी. का. भाग—१, ३५ एवं एल. सी. जैन“The Labdisara of Nemicandra Siddhanta Cakravarti, P. 68-70. ७. देखें संदर्भ—१, गोम्मटसार, जी. का. भाग—१, ३६ ८. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—१, १-३७ ९. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—१, ३८-४३ १०. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—१, १-४४ ११. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—१, १-५८ १२. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—२, ३६०, ३६३, ३६४ १३. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—२, ५७४ १४. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—२, ५७५ १५. वही, गोम्मटसार, जी. का. भाग—२, ५७६ १६. संदर्भ—७, पृ. ५२ १७. संदर्भ—१३