गोम्मटसार जीवकाण्ड में प्रतिपादित षट्लेश्या और पर्यावरण
पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है—चारों ओर का आवरण / घेरा/मंडल। पर्यावरण अपने शाब्दिक अर्थ के अनुरूप मात्र समीपस्थ वातावरण/बाह्य जगत तक ही सीमित नहीं है वरन् इसमें मन, विचार, व्यवहार, तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण भी समाहित है। चाँद, सूरज, नक्षत्र, तारे, पर्वत, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पतियाँ, पशु—पक्षी, मनुष्य, घर परिवार, रीति—रिवाज, परम्पराएँ, दिन—रात, वर्षा आदि चेतन—अचेतन से निर्मित पर्यावरण में उसके प्रत्येक घटक की निश्चित भूमिका होती है। जब तक घटकों में सामंजस्य रहता है, पर्यावरण सन्तुलित रहता है। किन्तु आज कल हर देश, हर समाज आधुनिकता और विकास के नाम पर अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु प्रकृति के घटकों का अनुचित रूप से प्रयोग कर रहा है। स्वार्थ—लिप्सा के कारण मानव का मन प्रदूषित हो गया है। वह भोगवादी संस्कृति की ओर कदम बढ़ा रहा है, व्यसनों में डूबता जा रहा है, वनों की अवैध कटाई, कत्लखानों, कारखानों, उद्योग धंधों की स्थापना, प्राणघातक रसायनों, कीटनाशकों एवं अस्त्र—शस्त्री के निर्माण, विकास और प्रयोग, प्रदर्शन/शौक के लिए सौन्दर्य प्रशाधन व चमड़े से बनी वस्तुओं के प्रमोद्यों द्वारा निरन्तर प्रकृति का दोहन कर रहा है जिससे पर्यावरण असन्तुलित हो गया है फलस्वरूप कहीं कभी अल्प—वृष्टि, अनावृष्टि, असमय वर्षा, कभी तूफान तो कभी दुर्भिक्ष, नित्य नयी—नयी बीमारियाँ आदि जटिल समस्यायें उत्पन्न हो गयी हैं जिससे पृथ्वी पर स्वस्थ जीवन जीना भी कठिन हो गया है। आज की प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रकृति को सन्तुलित बनाये रखने का, स्वस्थ जीवन जीने का क्या उपाय हो सकता है ? हम इस बात पर मनन करें, विचार करें, सन्तों, ऋषि—महर्षियों द्वारा प्रणीत आगम ग्रंथों का अवलोकन करें तो समस्याओं का यथोचित समाधान मिलता है। उन्होंने सुख शांतिपूर्ण जीवन जीने हेतु अहिंसात्मक सद्विचार और सदाचार के पालन का संदेश/प्रेरणा दी है। विचार और आचार एक दूसरे से परस्पर आश्रित हैं। निर्मल विचारवान व्यक्ति का ही आचरण जीव दया से परिपूर्ण एवं सन्तोषजनक होता है। ऐसे व्यक्ति ही सर्वांगीण रूप से स्वस्थ होते हैं और पर्यावरण को सन्तुलित और विशुद्ध बनाते हैं। इसके विपरीत हिंसात्मक अशुभ विचार—आचार से जीवन तो प्रदूषित होता ही है पर्यावरण भी असन्तुलित होता है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ में मार्गजा प्रकरण में लेश्या प्रकरण के अन्तर्गत ६८ गाथाओं में जीव के विचारों का विस्तृत विवेचन किया है। शुभाशुभ विचारों / परिणामों को ‘‘लेश्या’’ शब्द से अभिहित किया है। ग्रंथकार के अनुसार जिन परिणामों के द्वारा जीव अपने को लिप्त करता है या आत्मा को कर्मों से लिप्त करता है, वह लेश्या है—
लिंपइ अप्पीकीरई एदीए णियअप्पुण्पुण्णं व।
जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा।।
इसी को और स्पष्ट करते हुए कहा है— कषाय के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काय की प्रवृत्ति लेश्या है–जोगपउत्ती लेस्सा कसाय उदयाणुरंजिया होई।।लेश्या के दो भेद हैं—भाव लेश्या और द्रव्य लेश्या। सामान्यतया लेश्या के छह भेद हैं—कृष्ण लेश्या नील लेश्या, कपोत लेश्या, तेजो/पीत लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या। इनमें प्रथम तीन लेश्यायें अशुभ तथा शेष तीन शुभ मानी गयी हैं। ये लेश्यायें पर्यावरण को प्रदूषित करने एवं प्रदूषण मुक्त करने में किस प्रकार सहायक हैं, इसे एक दृष्टान्त द्वारा सरलतया समझ सकते हैं—
पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारण्ण मज्झदेसम्मि।
फलभरियरुक्खमेगं पेक्खित्ता से विंचतंति।।
णिम्मूलखंधसाहुवसाहं छित्तुं चिणित्तु पडिदाइं।
खाउं पलाइ इति जं मणेण वयणं हवे कम्मं।।
छह पुरुष वन में भ्रमण करते हुए रास्ता भूल जाते हैं। वन के मध्य में फलों से लदे वृक्ष को देखकर वे क्षुधा मिटाने का विचार करते हैं। एक मन में विचारता है कि मैं वृक्ष को जड़ से उखाड़ कर इसके फल खाऊँगा। दूसरा वृक्ष के स्कन्ध को काट कर फल खाने की सोचता है। तीसरा विचार करता है इसकी बड़ी शाखा काटकर फल खा लूँगा। चौथा वृक्ष की छोटी शाखा/ उपशाखा को काटकर फलों के भक्षण का निश्चय करता है। पांचवां वृक्ष को हानि न पहुँचा कर उसके मात्र फलों को तोड़कर उनसे अपनी क्षुधा शान्त करना चाहता है और छठवें पुरुष के मन में वृक्ष से स्वत: गिर हुए जमीन पर स्थित पके फलों के भक्षण का भाव आता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सब का लक्ष्य है क्षुधा मिटाना, पर लक्ष्य तक पहुँचने/कार्य सम्पन्न करने में सब के भाव भिन्न—भिन्न हैं। मन/भावों के अनुसार जो वचन होता है वह लेश्याओं का कार्य होता है। इनको ही क्रमश: कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या कहा जाता है। अंतरंग भावों के अनुसार ही बहिरंग में कार्य होता है। आंतरिक मनोभाव बाहर में प्रकट होने के विविध द्वार है। पथिकों के उदाहरण से आचार्य ने उनके अन्तर्मन के भाव, वचन एवं कार्यों का दिग्दर्शन कराया है। वृक्ष को समूल उखाड़ कर खाने का भाव कलुषतम परिणाम है। ऐसे परिणाम वाले को कृष्ण लेश्यावान कहा जाता है। यह तीव्र क्रोधी होता है, निरन्तर शत्रुता बनाये रखता है। लड़ाई, झगड़ा करने वाला दयाधर्म से रहित, दुष्ट निर्दय होता है, किसी के वश में नहीं आता। इस कृष्ण लेश्याधारी का एकमात्र लक्ष्य होता है—दूसरों का समूल विनाश करके अपने स्वार्थ को सिद्ध करना। इनमें संवेदनशीलता नाम मात्र की नहीं होती। रावण, कंस, हिटलर, सद्दाम हुसैन जैसे व्यक्तियों का इस श्रेणी में अन्तर्भाव होता है। इन्होंने राज्य सत्ता के लिए खून की नदियाँ बहायीं और देश को तहस नहस कर दिया। यह बुद्धिहीन, पंचेन्द्रिय विषयों में लम्पट, अभिमानी, कुटिल वृत्ति वाला, मायाचारी होता है। ग्रंथकार ने कलुषतर परिणाम वाले को नील लेश्या कहा है। इसके मन में तनिक संवेदना होती है इसलिए वह वृक्ष को समूल नष्ट नहीं करना चाहता, तने को काटकर खाना चाहता है। वह दूसरों को कुछ कम क्षति पहुँचा कर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए अधिक प्रयत्नशील रहता है। यह दूसरों को ठगने वाला एवं धन—धान्य के प्रति तीव्र लालसा रखता है। अकबर, हुमायूँ आदि इस श्रेणी में अन्तर्निहित हैं। इस वर्ग के व्यक्ति भी अपनी इच्छापूर्ति के लिए अनुचित कार्य करने में, प्रकृति का दोहन करने में झिझकते नहीं है। कलुषित मनोभाव वाले की कपोत लेश्या होती है। इसके परिणाम कृष्ण और नील लेश्या वाले की अपेक्षा कुछ निर्मल होते है।। इसलिए वह वृक्ष की बड़ी शाखा काटकर अर्थात् दूसरों को कुछ कम क्षति पहुँचा कर अपनी आकांक्षा पूर्ण करना चाहता है। इसके मन में परनिन्दा और आत्म प्रशंसा का भाव होता है। यह अपनी और पर की हानि वृद्धि की परवाह नहीं करता। मांसाहारी पशु को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। कृष्ण आदि अशुभ लेश्यायें ही मानव के मानसिक प्रदूषण/पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण है। मानव मन के विकृत विचार और मानवता के प्रतिकूल आचरण से प्रकृति का सन्तुलन डगमगा गया है। कारखानों, उद्योगों जैसे कागज, स्टील, वनस्पति घी, चमड़ा शोधन आदि एवं शराब उद्योग, वस्त्र रंगाई उद्योग से निकलने वाली गन्दगी, कूड़ा कचरा, और दूषित पानी के कारण जल प्रदूषित हुआ है/ हो रहा है। कारखानों आदि से निकलने वाली गैसों, वाहनों से निकलने वाले धुएं से, वनों की कटाई आदि से वायु मण्डल तेजी से दूषित हो रहा है। मोटर आदि वाहनों, कारखानों, मनोरंजन के साधनों आदि का तीव्र शोर पर्यावरण को अपने कम्पनों द्वारा दूषित करता है जिससे ध्वनि प्रदूषण फैल रहा है। कारखानों से निष्कासित, गन्दगी, उर्वरकों, कीटनाशक दवाओं के प्रयोग से पृथ्वी प्रदूषित हो रही है। वनों की कटाई से मिट्टी का क्षरण एवं कत्लखानों के कारण पृथ्वी प्रदूषित हुई है भूकम्प भी आ रहे हैं। विस थ्योरी के आधार पर अणु, परमाणु, हाइड्रोजन बम आदि के कारण रेडियोधर्मी प्रदूषण बढ़ रहा है। हमारे लिए रक्षा कवच का कार्य करने वाली ओजोन परत में छिद्र हो गये हैं और उसका क्षरण भी हो रहा है। इन प्रदूषणों के फलस्वरूप अनेक रोगों ने मानव/प्राणी को घेर लिया है। इन सब की जड़ है मानव की अर्थ लिप्सा। उसके सिर पर मात्र पैसा कमाने का भूत सवार है माध्यम चाहे कैसा भी हो। इसी के कारण हम अपने खान—पान, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक संस्कृति को भूल गये हैं। हमारी धार्मिक भावनायें मात्र बाह्य आचरण का प्रतीक बन गयी है, आदर्श जीवन समाप्तप्राय है। पर्यावरण के दुष्परिणामों से बचने के लिए सर्वप्रथम मानसिक शुद्धि आवश्यक है। यह तभी संभव है जब अशुभ लेश्याओं के स्वरूप को समझ कर निर्मल भाव रखते हुए उसी के अनुसार आचरण करें। अत: सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य द्वारा निरूपित पर्यावरण सन्तुलन में सहायक शुभ लेश्याओं के स्वरूप को जानने का प्रयास करें। पीत लेश्यावान् वृक्ष को अल्प क्षति पहुंचा कर / लघु शाखा तोड़कर उसके फलों से अपनी भूख मिटाना चाहता है। अत: वह विशुद्ध परिणामी एवं अधिक संवेदनशील होता है। ऐसे व्यक्ति दयालु, कार्य—अकार्य, सेवनीय—असेवनीय पदार्थों के जानकार होते हैं। ये सोच विचार कर दूसरों का ध्यान रखते हुए कार्य करते हैं। अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूसरों को विशेष क्षति पहुँचाना अनैतिक मानते हैं। गृहस्थ नागरिक को इस श्रेणी में सम्मिलित किया जा सकता है। इनसे पर्यावरण की नगण्य हानि होती है। पद्म लेश्याधारी के विशुद्धतर परिणाम होते हैं। ये वृक्ष को क्षति पहुँचाये बिना अर्थात् अन्य को कष्ट पहुँचाये बिना ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। अत: ऐसे मानव भद्र परिणामी, सरल स्वभावी, शुभ कार्य में उद्यमी, कष्ट एवं अनिष्ट उपद्रवों को सहन करने में समर्थ, त्यागी मुनि और गुरुजन की पूजा में प्रीति रखते हैं। आदर्श श्रावक, आदर्श नागरिक, शाकाहारी प्राणी को इस श्रेणी में अन्तर्निहित कर सकते हैं। इस श्रेणी के व्यक्ति ‘‘जीओ और जीने दो’’ के सिद्धान्त का आचरण करते हुए अपना जीवन बिताते हैं और पर्यावरण को सन्तुलित तथा सुरक्षित बनाते हैं। विशुद्धतम परिणाम वाले की शुक्ल लेश्या होती है। वह वृक्ष को रंचमात्र भी क्षति न पहुँचाते हुए स्वत: जमीन पर पड़े पके फल का सेवन कर अपनी क्षुधा को शान्त करना चाहता है। वृक्ष पर चढ़ना, उसके अवयव/फल आदि तोड़ना भी उसकी दृष्टि में हिंसात्मक तथा अनैतिक कार्य है अत: वह हर प्रकार की हिंसा से बचते हुए अिंहसात्मक रीति से अपने प्रयोजन को साधता है। यह पक्षपात रहित, समताभावी, रागद्वेष रहित, अत्यन्त उदार, परोपकारी, उन्नतिशील होता है। इस श्रेणी में हम भगवान महावीर, बुद्ध, राम, युधिष्ठिर, दिगम्बर जैन साधु आदि की गणना कर सकते हैं। ये ‘‘बसुधैव कुटुम्बकम्’’ की भावना से सम्पन्न होने के कारण प्रकृति/पर्यावरण के सन्तुलन, संरक्षण में पूर्ण योगदान प्रदान करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि पीत/तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्यावान् आत्म संयमी होते हैं। अपने जीवन/परिवार के सुख शांतिपूर्ण संचालन हेतु प्रकृति से मात्र अपनी आवश्यकतानुसार ग्रहण करते हैं, उसका दोहन नहीं। इससे प्रकृति का सन्तुलन बना रहता है। षट्लेश्या के विषय में वनस्पति विज्ञान एवं जैनाचार की दृष्टि से विचार करना भी उचित होगा क्योंकि ये पर्यावरण के सन्तुलन, विकास और संरक्षण हेतु सर्मिपत है। वनस्पति विज्ञान में पौधे के छह अंग माने गये हैं—जड़, तना, पत्ती, फूल, फल एवं बीज। इनमें जड़, तना तथा पत्ती को बंर्धी अंग (बेजीटेटिव पार्टस्) और फूल, फल, बीज को प्रजनन अंग (रिप्रोडिक्टिव पार्टस्) कहा जाता है। इनमें जड़ का कार्य पौधे का स्थितिकरण, जल व खनिज पदार्थों का अवशोषण है। तना पौधे को सहारा देता है तथा जड़ एवं पत्ती द्वारा अवशोषित/ निर्मित पदार्थों का संवहन करता है। पत्तियाँ भोजन निर्माण, श्वसन एवं वाष्पोत्सर्जन का कार्य करती हैं। फूल प्रजनन अंगों का निर्माण, फल तथा बीज जनन क्रिया द्वारा जाति का चिरजीवन बनाये रखते हैं। इनमें कुछ ऐसे विशिष्ट पौधे होते हैं जिनके बर्धी अंग—जड़, तना आदि रूपान्तरित होकर अपने कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करते हैं। उदाहरणार्थ कुछ पौधों की जड़े रूपान्तरित होकर भोजन संग्रह का कार्य करती हैं जैसे गाजर, मूली, शलजम आदि रूपान्तरित जड़ें हैं। इन्हें रूपान्तरित जड़ (मोडिफिइड) कहा जाता है। इसी प्रकार कुछ तने भी रूपान्तरित होकर भोजन संग्रह का कार्य करने लगते हैं। इसे रूपान्तरित तना (मोडिफिइड) कहते हैं जैसे आलू, अरबी आदि। जैन दर्शन/ जैनाचार में गाजर, मूली, अरबी, आदि जमीकंद को न खाने का संदेश मिलता है। इसका मूल प्रयोजन गृहस्थ/श्रावक को कृष्ण लेश्या, नील लेश्या से विरत करना है। क्योंकि मूली, गाजर आदि पौधों की जड़ें हैं। भोजन के रूप में एक मूली उसी समय खाई जा सकती है जब उसे जड़ से उखाड़ें अर्थात् एक मूली के लिये एक पौधे को नष्ट करें। जड़ से पौधा उखाड़ने/काटने वाला कृष्ण लेश्या का धारी/कलुषतम परिणाम वाला होता है। इसी प्रकार आलू, अरबी आदि तने के रूपान्तर होने से उन्हें खाने के लिए तने से वृक्ष का क्षय करना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति नील लेश्या का धारी/कलुषतर परिणामी होता है। वह एक मूली आदि खाने के लिए पौधे के साथ जमीन खोदता है इससे पृथ्वी का क्षरण तथा वहाँ स्थित जीवों की हिंसा होती है। इसमें प्रयास अधिक और लाभ कम मिलता है। इसीलिए जैनाचार्यों ने जमीकंद खाने का निषेध कर हमें कलुषतम और कलुषतर परिणामों से बचाने का, वनस्पति, पृथ्वी और जीवों की रक्षा करने का सफल प्रयास किया है जो सम्पूर्ण पर्यावरण के सन्तुलन एवं संरक्षण में सहायक है। पत्तियों का अग्रभाग पौधे की वृद्धि करता है। पत्तियाँ भोजन निर्माण, वाष्पोत्सर्जन के साथ बाहरी वातावरण में प्राणियों द्वारा छोड़ी गयी कार्बन डाईआक्साइड को ग्रहण कर तथा उन्हें सांस लेने के लिए शुद्ध आक्सीजन प्रदान कर पर्यावरण को शुद्ध एवं सन्तुलित बनाती है। उन्हें तोड़ने से पौधों की हानि के साथ पर्यावरण प्रदूषित होता है। पुष्प पौधे का प्रजनन अंग है जिसमें पुंकेशर (नर जननांग) तथा स्त्री केशर (मादा जननांग) होते हैं। इनसे परागण की क्रिया द्वारा भ्रूण का निर्माण एवं विकास होता है और फल व बीज बनते हैं। यदि पौधे से पुष्प तोड़ा जाता है तो भ्रूण हत्या का दोष लगता है। इस दोष से बचने के लिए ही दिगम्बर जैन तेरापंथी आम्नाय के मंदिरों में पूजन में पुष्प का प्रयोग नहीं किया जाता। इसलिए जैनाचार में सब्जी के रूप में पुष्प के प्रयोग का निषेध है। जैनाचार की ये क्रियायें मात्र र्धािमक ही नहीं, वरन् पूर्णत: विज्ञान समस्त अहिंसामय एवं पर्यावरण को स्वच्छ, निर्मल बनाने में सहायक हैं। वृक्ष के शुष्क बीज और फलों का प्रयोग पर्यावरण को सन्तुलित बनाये रखता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा गोम्मटसार जीवकाण्ड में प्रतिपादित षट् लेश्या का प्रकरण प्रकृति/पर्यावरण के प्रदूषित होने के कारणों को स्पष्ट कर उसे सन्तुलित बनाने के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है। कवि ने लेश्याओं के माध्यम से अशुभ भावों के दुष्परिणामों का बोध कराया है और उससे विरत होकर शुभ भाव रखकर उसके अनुरूप आचरण करने की प्रेरणा दी है। इसे अन्य शब्दों में कहें तो तामसिक और राजसिक प्रवृत्तियों को त्याग कर सात्विक बनने हेतु निर्देशित करता है। संक्षेप में कहें तो लेश्यायें अहिंसात्मक ढंग से सभी प्रकार के पर्यावरणों को सन्तुलित करने का विधान प्रस्तुत करती है। इन्हें वर्तमान पर्यावरणीय समस्याओं के सन्दर्भ में समझ कर आचरण में उतारने की आवश्यकता है।
आराधना जैन
व्याख्याता, शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, उदयपुर (विदिशा) म. प्र.