ये रचनाएँ श्री गौतमस्वामी प्रणीत हैं, इनके प्रमाण देखिए- चैत्यभक्ति के प्रारंभ में टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य कहते हैं–‘‘श्री वर्धमानस्वामिनं’’ प्रत्यक्षीकृत्य गौतमस्वामी स्तुतिमाह-श्रीवर्धमान को प्रत्यक्ष देखकर-उनका प्रथम दर्शन प्राप्तकर श्री गौतम स्वामी स्तुति करते हुए कहते हैं- हरिणी छंद-‘‘जयति भगवान्’’……इत्यादि।‘श्रीगौतमस्वामीदैवसिकादिप्रतिक्रमणादिभिर्निराकर्तुमशक्यानां दोषानां निराकरणार्थं वृहत्प्रतिक्रमण—लक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलाद्यर्थमिष्ट-देवता-विशेषं नमस्कुर्वन्नाह णमो जिणाणमित्यादि’’।ये ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं’’ आदि ४८ मंत्र गणधरवलय मन्त्र कहे जाते हैं।। बृहत्प्रतिक्रमणपाठ में प्रतिक्रमणभक्ति में इनका प्रयोग है। इन मंत्रों का मंगलाचरण धवला की नवमी पुस्तक में है—एवं दव्वट्ठिय जणाणुग्गहट्ठं णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्म—पयडिपाहुडस्स आदिम्हि काऊण पज्जवट्ठियाणुग्गहट्ठमुत्तर सुत्ताणि भणदि। दूसरे सूत्र की उत्थानिका में विशेष स्पष्टीकरण हो रहा है— इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय आश्रित जनों के अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिकनय युक्त शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तरसूत्रों को कहते हैं— णमो ओहिजिणाणं।।२।।ऐसे ही पाक्षिक प्रतिक्रमण में एक स्थल पर स्वयं श्रीगौतमस्वामी ने अपने नाम को संबोधित किया है। यथा—‘‘जो सारो सव्वसारेसु, सो सारो एस गोदम। सारं झाणं त्ति णामेण, सव्वबुद्धेिंह देसिदं।। हे गौतम ! सर्वसारों में भी जो सार है वह सार ‘ध्यान’ इस नाम से कहा गया है ऐसा सभी सर्वज्ञ भगवंतों ने कहा है। दैवसिक प्रतिक्रमण की टीका करते हुए श्री प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं—‘‘श्री गौतमस्वामी मुनीनां दुष्षमकाले दुष्परिणामादिभि: प्रतिदिन-मुर्पािजतस्य कर्मणो विशुद्ध्यर्थं प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलार्थमिष्टदेवताविशेषं नमस्करोति— ‘श्रीमते वर्धमानाय नमो’’ इत्यादि।इन उद्धरणों से भी ये रचनायें श्रीगौतमस्वामी के मुखकमल से विनिर्गत हैं। ऐसा स्पष्ट हो जाता है। श्री गौतम स्वामी की मूल रचनाएँ चार हैं- १. श्री चैत्यभक्ति २. दैवसिक प्रतिक्रमण ३. पाक्षिक प्रतिक्रमण ४. श्रावक प्रतिक्रमण इसमें चैत्यभक्ति स्वतंत्र है। पुन: तीन रचनाओं से ९ रचनाएँ उद्धृत की गई हैं। १. कृतिकर्म विधि (सिद्धभक्ति) २. निषीधिका दण्डक ३. पडिक्कमामि भंते! ४. वीरभक्ति ये चार रचनाएँ दैवसिक प्रतिक्रमण से उद्धृत हैं। ५. गणधरवलय मंत्र ६.सुदं मे आउस्संतो! (श्रावकधर्म) ७. सुदं मे आउस्संतो!(मुनिधर्म) ८. इच्छामि भंते! ये चार रचनाएँ पाक्षिक प्रतिक्रमण से उद्धृत हैं। ९. एकादश प्रतिमा यह रचना श्रावक प्रतिक्रमण से उद्धृत है।