गीता छंद
गणपति गणीश गणेश गणनायक गणीश्वर नाम हैं।
गणनाथ गणस्वामी गणाधिप आदि नाम प्रधान हैं।।
उन इंद्रभूति गणीन्द्र गौतम स्वामि गणधर को जजूँ।
स्थापना करके यहाँ सब कार्य में मंगल भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक-नन्दीश्वर पूजन चाल
रेवानदि का शुचि नीर, बाहर मल धोवे।
तुम चरणन धारा देत, अंतर्मल खोवे।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयज चंदन घनसार, तन का ताप हरे।
तुम पद पूजा तत्काल, अंतर्ताप हरे।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल सित मुक्तारूप, धोकर भर लीने।
तुम पद आगे धर पुंज, आतम गुण चीन्हे।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपक वर हरसिंगार, सुरतरु सुमन लिया।
तुम कामजयी पद पूज, निजमन सुमन किया।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू बरफी पकवान, सुवरण थाल भरे।
निज क्षुधा निवारण हेतु, तुम पद पूज करें।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर शिखा प्रज्वाल, दीपक ज्योति जले।
तुम पद पूजत तत्काल, अंतर ज्योति जले।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, खेवत धूम्र उड़े।
निज अशुभ करम हों भस्म, उसकी धूम्र उड़े।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम सुपारी सेव, उत्तम फल लाऊँ।
गणनाथ चरण युगपूज, वांछित फल पाऊँ।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।८।।
ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक वसु द्रव्य, लेकर अर्घ्य करूँ।
अनुपम निजपद के हेतु, तुम पद भक्ति करूँ।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु चरणन जल की धार, देकर शांति करूँ।
सब जग में शांती हेतु, शांतीधार करूँ।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
वकुलादिक कुसुम मंगाय, पुष्पांजलि कर मैं।
सब विघ्न अमंगल दोष, नाशूँ इक पल में।।
श्री गौतम गणधर देव, पूजूँ मन लाके।
सब ऋद्धि सिद्धि भरपूर, होवें तुम ध्याके।।११।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य-ॐ ह्रीं श्रीगौतमस्वामिने नमः (१०८ या ९ बार)।
दोहा
परमब्रह्म परमात्मा, परमानंद निलीन।
गाऊँ तुम गुणमालिका, होवे भवदुखक्षीण।।१।।
रोला छंद
जय जय गणधर देव, जय जय गुण गण स्वामी।
महावीर जिनदेव, समवसरण में नामी।।
जय जय विघ्न समूह, नाशक विश्व प्रसिद्धा।
सप्तऋद्धि परिपूर्ण, चार विज्ञान समृद्धा।।२।।
इन्द्रभूति तुम नाम, महाविभूति प्रदाता।
ब्राह्मण कुल अवतंस, गौतम गोत्र विख्याता।।
शास्त्र महोदधि तीर्ण, पांच शतक तुम छात्रा।
तुम सम ही दो भ्रात, गर्वित सहित सुछात्रा।।३।।
छ्यासठ दिन पर्यंत, प्रभु की खिरी न वाणी।
सौधर्मेंद्र उपाय, कीनो अति सुखठानी।।
गौतमशाला माहिं, वृद्धरूप धर आया।
तुम सब विद्याधीश, इससे तुम तक आया।।४।।
मेरे गुरु महावीर, आतम ध्यान लगाये।
भूल गया मैं अर्थ, जो जो श्लोक पढ़ाये।।
यदि दो अर्थ बताय, तो तुम शिष्य बनूँ मैं।
नहिं तो होवो शिष्य, मुझ गुरु के ये चहूँ मैं।।५।।
त्रैकाल्यं इत्यादि, जब यह श्लोक पढ़ा है।
अर्थ बोध से हीन, मन आश्चर्य बढ़ा है।।
चलो गुरू के पास, मैं शास्त्रार्थ करूँगा।
तुम हो छात्र अजान, गुरु से अर्थ कहूँगा।।६।।
उभय भ्रात के साथ, सब शिष्यों को लेके।
चले इंद्र के साथ, समवसरण अवलोके।।
मानस्तंभ निहार, मान गलित हुआ सारा।
वचन ‘‘जयतु भगवान्’’ स्तुति रूप उचारा।।७।।
निज मिथ्यात्व विनाश, जिनदीक्षा को लीना।
दिव्यध्वनि तत्काल, प्रगटी भवि सुख दीना।।
द्वादशांग मय ग्रंथ, गौतम गुरु ने कीने।
गणधर पद को पाय, सब ऋद्धी धर लीने।।८।।
वीर प्रभू निर्वाण, के दिन केवल पायो।
इन्द्र सभी मिल आय, गंधकुटी रचवायो।।
केवलज्ञान कल्याण, पूजा इन्द्र रचे हैं।
केवलज्ञान महान, लक्ष्मी को भी जजे हैं।।९।।
इसी हेतु सब लोग, दीपावली निशा में।
गणपति लक्ष्मी देवि, पूजें धनरुचि मन में।।
बारह वर्ष विहार, भवि उपदेश दिया है।
पुनः अघाति विनाश, मोक्ष प्रवेश किया है।।१०।।
गणधर पूजा सत्य, सर्वसंपदा देवें।
धन धान्यादिक पूर, मोक्ष संपदा देवें।।
इस हेतू हम आज, गणधर चरण जजे हैं।
‘‘केवलज्ञान’’ प्रकाश, हेतू आप भजे हैं।।११।।
दोहा
चौबीसों जिनराज की, गणधर गणना जान।
चौदह सौ बावन कही, तिनपद जजूँ महान् ।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरपरमेष्ठिने जयमाला अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
जो पूजें गणधर चरण, करें विघ्नघन हान।
जग के सब सुख भोग के, क्रम से लें निर्वाण।।
इत्याशीर्वादः।