सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदि-महावीरेण महा-कस्सवेण सव्वण्हुणा सव्वलोगदरिसिणा सदेवासुर-माणुसस्स लोयस्स आगदि-गदि-चवणो-ववादं बंधं मोक्खं इिंड्ढ ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं मणो-माणसियं भूतं कयं पडिसेवियं आदिकम्मं अरुह-कम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणंता पस्संता विहरमाणेण समणाणं पंचमहव्वदाणि राइभोयणवेरमण-छट्ठाणि सभावणाणि समाउग-पदाणि सउत्तर-पदाणि सम्मं धम्मं उवदेसिदाणि।
वद-समिदिंदिय-रोधो लोचो आवासय-मचेल-मण्हाणं।
खिदिसयण-मदंतवणं ठिदिभोयण-मेयभत्तं च।।१।।
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
एत्थ पमादकदादो अइचारादो णियत्तो हं।।२।।
छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं।
चूलियं तु पवक्खामि भावणा पंचविंसदी।
पंच पंच अणुण्णादा एक्केक्कम्हि महव्वदे।।१।।
मणगुत्तो वचिगुत्तो इरिया – कायसंयदो।
एसणा – समिदि – संजुत्तो पढमं वदमस्सिदो।।२।।
अकोहणो अलोहो य, भय – हस्स – विवज्जिदो।
अणुवीचि-भास-कुसलो, विदियं वदमस्सिदो।।३।।
अदेहणं भावणं चावि, उग्गहं य परिग्गहे।
संतुट्ठो भत्तपाणेसु, तिदियं वदमस्सिदो।।४।।
इत्थिकहा इत्थिसंसग्ग – हास – खेड – पलोयणे।
णियमम्मि ट्ठिदो णियत्तो य, चउत्थं वदमस्सिदो।।५।।
सचित्ताचित्त – दव्वेसु, बज्झंब्भंतरेसु य।
परिग्गहादो विरदो, पंचमं वदमस्सिदो।।६।।
धिदिमंतो खमाजुत्तो, झाणजोग-परिट्ठिदो।
परीसहाणउरं देंत्तो, उत्तमं वदमस्सिदो।।७।।
जो सारो सव्वसारेसु, सो सारो एस गोयम।
सारं झाणंति णामेण, सव्वं बुद्धेहिं देसिदं।।८।।
इच्चेदाणि पंचमहव्वयाणि राईभोयणादो वेरमणछट्ठाणि सभावणाणि समाउग्ग-पदाणि सउत्तर-पदाणि सम्मं धम्मं अणुपा-लइत्ता समणा भयवंता णिग्गंथादोओण सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणियंति सव्वदुक्खाण-मंतं करेंति परिविज्जाणंति१।
(मुनिधर्म)
हे आयुष्मन्तों! वीर प्रभु की ध्वनि से मैंने सुना यहीं।
वे महाश्रमण भगवान महति, महावीर महाकाश्यपगोत्री।।१।।
सर्वज्ञ सर्वलोकदर्शी, युगपत् सबको जानते हुए।
सब देव असुर मानवयुत इस तिहुंजग को भी देखते हुए।।२।।
सबकी आगति गति च्यवन जन्म, अरु बंध मोक्ष ऋद्धी स्थिति।
द्युति अनुभाग अरु तर्कशास्त्र, सब कला मनो अरु मानसीक।।३।।
अनुभूत भूत कृत प्रतिसेवित, कृषि आदिकर्म अकृतिमकर्म।
सम्पूर्ण लोक सब जीव सर्व भावों को भी युगपत् जानन्।।४।।
वे श्री विहार करते भगवन् जब समवसरण में राजे हैं।
मुनियों के लिए धर्म सम्यक् उसको उनने उपदेशा है।।५।।
व्रत समिती इंद्रियनिरोध छह, आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंत-धावन स्थितिभुक्ती भक्तैक।।१।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार।
इनसे दूर हुआ हूूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ।।२।।
पच्चीस भावना है जिसमें ऐसी चूलिका कहूँगा मैं।
मानी हैं पाँच पाँच ये भी जो हैं एक एक महाव्रत में।।१।।
मनगुप्ति वचनगुप्ति ईर्यासमिती व कायसंयत रखना।
एषणसमिती ये पाँच भावना प्रथम महाव्रत की धरना।।२।।
क्रूध लोभ और भय हास्य त्याग अनुवीचीभाषा कुशल कही।
आगम अनुकूलवचन दूजे व्रत की ये पाँच भावना ही।।३।।
अदेहनं-यह तन ही धन है यह देह अशुचि आदी भावन।
अवग्रह-गतपरिग्रह अशन पान में संतुष्टी व्रत की तृतियन।।४।।
स्त्री की कथा व संसर्ग अरु हास्य व क्रीडा अवलोकन।
इन सबको राग से निंह करना चौथे व्रत में स्थिरीकरण।।५।।
सचित्त अचित्त द्रव्य अरु बाह्य अभ्यंतर द्रव्य व परिग्रह से।
विरती ये पांच भावनाएं, पाँचवें महाव्रत की ही हैं।।६।।
उत्तमव्रत है वो ही जो धैर्य सहित अरु क्षमायुक्त होता।
जो ध्यान योग मेें स्थित परिषह सहने में अभिमुख रहता।।७।।
सब सारों में जो सार अहो गौतम! वह सार सर्व उत्तम।
जो ‘‘ध्यान’’ नाम से कहा वही है सार सर्वकेवलि भणितं।।८।|
ये पांच महाव्रत रात्रीभोजनविरति छठे अणुव्रतयुत हैं।
भावनासहित मातृकापदों युत उत्तरपदयुत-गुणयुत हैं।।९।।
इस सम्यक् धर्म का अनुपालन करके भगवान श्रमण मुनिवर।
निग्र्रंथलिंग से सिद्ध बुद्ध होते व मुक्त होते सुखकर।।१०।।
परिनिर्वृत होते सर्वदुखों का अंत करें त्रिभुवन जानें।
यह श्रमणधर्म ही शिवप्रद है इसको धारें भव दुख हाने।।११।।
इति श्री गौतमगणधरवाण्यां सप्तमोऽध्याय:।।७।।