पडिक्कमामि भंते! एक्के भावे अणाचारे, वेसु रायदोसेसु, तीसु दंडेसु, तीसु गुत्तीसु, तीसु गारवेसु, चउसु
कसाएसु, चउसु सण्णासु, पंचसु महव्वएसु, पंचसु समिदीसु, छसु जीवणिकाएसु, छसु आवासएसु,
सत्तसु भएसु, अट्ठसु मएसु, णवसु बंभचेरगुत्तीसु, दसविहेसु समणधम्मेसु, एयारसविहेसु
उवासयपडिमासु, वारसविहेसु भिक्खुपडिमासु, तेरसविहेसु किरियाट्ठाणेसु, चउदसविहेसु भूदगामेसु,
पण्णरसविहेसु पमायठाणेसु, सोलसविहेसु पवयणेसु, सत्तारसविहेसु असंजमेसु, अट्ठारसविहेसु
असंपराएसु, उणवीसाए णाहज्झाणेसु,ि वीसाए असमाहिट्ठाणेसु, एक्कवीसाए सबलेसु, बावीसाए
परीसहेसु, तेवीसाए सुद्दयडज्झाणेसु, चउवीसाए अरिहंतेसु, पणवीसाए भावणासु, पणवीसाए
किरियट्ठाणेसु, छव्वीसाए पुढवीसु, सत्तावीसाए अणगारगुणेसु, अट्ठावीसाए आयारकप्पेसु, एउणतीसाए
पावसुत्तपसंगेसु, तीसाए मोहणीयठाणेसु, एक्कत्तीसाए कम्मविवाएसु, बत्तीसाए जिणोवएसेसु, तेत्तीसाए
अच्चासणदाए, संखेवेण जीवाणं अच्चासणदाए, अजीवाणं अच्चासणदाए, णाणस्स अच्चासणदाए,
दंसणस्स अच्चासणदाए, चरित्तस्स अच्चासणदाए, तवस्स अच्चासणदाए, वीरियस्स अच्चासणदाए,
तं सव्वं पुव्वं दुच्चरियं गरहामि, आगामेसीएसु पच्चुपण्णं इक्कंतं पडिक्कमामि, अणागयं पच्चक्खामि,
अगरहियं गरहामि, अणिंदियं णिंदामि, अणालोचियं आलोचेमि, आराहणमब्भुट्ठेमि, विराहणं
पडिक्कमामि इत्थ मे जो कोई देवसिओ (राईओ) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं१।।९।।
हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करूँ, है एक भाव जो अनाचार।
दो रागद्वेष त्रय गुप्ति त्रिदंड, त्रिगारव और कषाय चार।।१।।
चउ संज्ञा पांच महाव्रत पण, समिती छह जीव निकाय कहे।
छह आवश्यक भय सात आठ-मद ब्रह्मचर्यगुप्ती नव हैं।।२।।
दश श्रमण धर्म ग्यारह प्रतिमा, बारहविध भिक्षू प्रतिमा हैं।
तेरह विध क्रियास्थान चतुर्दश, भूत व प्रमाद पंद्रह हैं।।३।।
सोलह प्रवचन सत्रहों असंयम असंपराय अठारह हैं।
उन्नीस नाथ अध्ययन कथा असमाधिस्थान सुबीस कहें।।४।।
इक्कीस सबल बाइस परिषह तेईस सूत्रकृत अध्ययन हैं।
चौबिस अरहंतदेव पचीस भावना पृथ्वी छब्बिस हैं।।५।।
सत्ताइस विध अनगार सुगुण अरु मूलसुगुण अट्ठाइस हैं।
उनतीस पापसूत्रं प्रसंग मोहनीय थान भी तीस कहे।।६।।
इकतीसहिं कर्मोदय विपाक बत्तिस विध जिन उपदेश कहे।
तेतिस अत्यासादना दोष इन सबमें जो कुछ दोष हुए।।७।।
संक्षेप से आसादना सात में जीवों के आसादन से।
अजीव के आसादन ज्ञानासादन दर्शन सादन से।।८।।
चारित आसादन तप का आसादन वीर्यासादन से भी।
मैं सबकी गर्हा करता हूँ दुश्चरित किये पहले जो भी।।९।।
मैं वर्तमान के दोषों को प्रतिक्रमण विधी से दूर करूँ।
आगे होने वाले दोषों का भी मैं प्रत्याख्यान करूँ।।१०।।
जिन दोषों की गर्हा निंह की, मैं उनकी गर्हा करता हूूँ।
जिन दोषों की निंदा नहिं की, अब उनकी निंदा करता हूँ।।११।।
जिनका आलोचन नहीं किया, उनका आलोचन करता हूँ।
आराधन चउ स्वीकार करूँ विराधन का प्रतिक्रम करता हूँ।।१२।।
मुझ से इन सबमें जो कुछ भी दिनभर में (रात्री में) अतीचार हुए हों।
या अनाचार भी हुए प्रभो! वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१३।।
।।इति श्री गौतमगणधरवाण्यां अष्टमोऽध्याय:।।