भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य श्री गौतम गणधर स्वामी ने भगवान की दिव्यध्वनि को आज से २५७० वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा एकम् के दिन द्वादशांग श्रुत के रूप में निबद्ध किया था। वर्तमान में वह सम्पूर्ण श्रुत उपलब्ध नहीं है किन्तु उनका अंश विभिन्न ग्रंथों के माध्यम से प्राप्त हो रहा है।
उस प्राप्त श्रुत के अनेक ग्रंथों में श्री गौतम गणधर स्वामी के मुख से विनिर्गत वाणी को संग्रहीत करके पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने दश अध्यायों में लघु एवं वृहत् टीका के रूप में प्रदान किया है। उसी में से यहाँ अति संक्षिप्तरूप में श्रावकधर्म एवं मुनिधर्म को प्रस्तुत किया जा रहा है। जिसे गौतम स्वामी ने ‘‘सुदं मे आउस्संतो’’ अर्थात् ‘‘हे आयुष्मन्तों! मैंने साक्षात् वीर प्रभु की दिव्यध्वनि में सुना है’’ के माध्यम से प्रिय शब्दोंं में श्रावक एवं मुनियों को संबोधित किया है।
यहाँ संक्षेप में उनकी वाणी का रसास्वादन प्राप्त करें तथा विस्तृत जानकारी बड़े ग्रंथों से प्राप्त करें-
पढमं ताव सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदि-महावीरेण महा-कस्सवेण सव्वण्ह-णाणेण सव्वलोय-दरसिणा सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेण पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारसविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसियाणि। तत्थ इमाणि पंचाणुव्वदाणि पढमे अणुव्वदे थूलयडे पाणादि-वादादो वेरमणं, विदिए अणुव्वदे थूलयडे मुसावादादो वेरमणं, तदिए अणुव्वदे थूलयडे अदत्ता-दाणादो वेरमणं, चउत्थे अणुव्वदे थूलयडे सदारसंतोस-परदारा-गमणवेरमणं कस्स य पुणु सव्वदो विरदी, पंचमे अणुव्वदे थूलयडे इच्छाकद-परिमाणं चेदि, इच्चेदाणि पंच अणुव्वदाणि।
तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि, तत्थ पढमे गुणव्वदे दिसिविदिसि पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविध-अणत्थ-दण्डादो वेरमणं, तदिए गुणव्वदे भोगोपभोग-परिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि।
तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे सामाइयं, विदिए पोसहो-वासयं, तदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिम-सल्लेहणा-मरणं, तिदियं अब्भोवस्साणं चेदि।
से अभिमद-जीवाजीव-उवलद्ध-पुण्णपाव-आसव-संवर-णिज्जर-बंधमोक्ख-महिकुसले धम्माणु-रायरत्तो पिमाणु-रागरत्तो (पेम्माणुरागरत्तो) अट्ठि-मज्जाणुरायरत्तो मुच्छिदट्ठे गिहिदट्ठे विहिदट्ठे पालिदट्ठे सेविदट्ठे इणमेव णिग्गंथपावयणे अणुत्तरे सेअट्ठे सेवणुट्ठे-
णिस्संकिय-णिक्कंखिय, णिव्विदिगिंछी य अमूढदिट्ठी य।
उवगूहण ट्ठिदिकरणं, वच्छल्ल-पहावणा य ते अट्ठ।।१।।
सव्वेदाणि पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि वारसविहं गिहत्थधम्म-मणुपाल-इत्ता-
दंसण वय सामाइय, पोसह सचित्त राइभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह, अणुमण-मुद्दिट्ठ देसविरदो य।।१।।
महु-मंस-मज्ज-जूआ, वेसादि-विवज्जणासीलो।
पंचाणुव्वय-जुत्तो, सत्तेहिं सिक्खावएहिं संपुण्णो।।२।।
जो एदाइं वदाइं धरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय खुड्डियाओ वा अट्ठदह-भवण-वासिय-वाणविंतर-जोइसिय-सोहम्मीसाण-देवीओ वदिक्क-मित्तउवरिम-अण्णदर-महड्ढियासु देवेसु उव्वज्जंति।
तं जहा-सोहम्मी-साण-सणक्कुमार-माहिंद-बंभबंभुत्तर-लांतवकापिट्ठ-सुक्क-महासुक्क-सतार-सहस्सार-आणत-पाणत-आरण-अच्चुत-कप्पेसु उववज्जंति।
अडयंबर-सत्थधरा, कडयंगद-बद्धनउड-कयसोहा।
भासुर – वर – बोहिधरा, देवा य महड्ढिया होंति।।१।।
उक्कस्सेण दोतिण्णि-भव-गहणाणि जहण्णेण सत्तट्ठभव-गहणाणि तदो सुमणु-सुत्तादो सुदेवत्तं सुदेवत्तादो सुमाणुसत्तं तदो साइहत्था पच्छा णिग्गंथा होऊण सिज्झंति बुज्झंति मुंचंति परिणिव्वाणयंति सव्व-दुक्खाणमंतं करेंति।
अर्थ—हे आयुष्मन्तों! मैंने (गौतम ने) महाकाश्यप गोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर से श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के लिए पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म सुना है। उसमें ये पांच अणुव्रत हैं—पहले अणुव्रत में स्थूल प्राणातिपात से विरमण—त्याग है, दूसरे अणुव्रत में स्थूल मृषावाद से विरमण—त्याग है, तीसरे अणुव्रत में स्थूल अदत्तादान से विरमण—त्याग है, चौथे अणुव्रत में स्वदार सन्तोष है तथा परदार गमन से विरमण—त्याग है और पांचवें अणुव्रत में स्थूल इच्छाकृत परिमाण करना है, ये पांच अणुव्रत हैं।
उनमें ये तीन गुणव्रत हैं—पहला गुणव्रत दिशा और विदिशा का प्रत्याख्यान—मर्यादारूप नियम है, दूसरे गुणव्रत में विविध अनर्थदंडों से विरमण—त्याग है और तीसरे गुणव्रत में भोग और उपभोग वस्तुओं का परिसंख्यान—संख्या हैं ये तीन गुणव्रत हैं।
उनमें ये चार शिक्षाव्रत हैं—पहले में सामायिक, दूसरे में प्रोषधोपवास, तीसरे में अतिथिसंविभाग और चौथे शिक्षाव्रत में अन्तिम सल्लेखनापूर्वक— मरण और तीसरा अभ्रावकाश का है।
उपर्युक्त बारह व्रतों के धारक—जिसने जीव—अजीव तत्त्व को समझ लिया है तथा जिसने पुण्य—पाप, आस्रव—संवर, निर्जरा-बंध और मोक्ष इन तत्त्वों को उपलब्ध कर लिया है ऐसे नव पदार्थों के विषय में अभिकुशल—निपुण व्यक्ति में धर्मानुराग से अनुरक्त होकर भी लक्ष्मी के अनुराग में अनुरक्त है। (गृहस्थ होने से परिग्रह का त्यागी नहीं है) एवं अस्थिमज्जा के समान धर्म के अनुराग से अनुरक्त है। (जिस प्रकार सात धातुओं में अस्थि—हड्डी मज्जा नामक धातु से निरन्तर संलग्न रहती है, उसी तरह सहधर्मियों के साथ प्रीति का होना, ऐसी सघन प्रीति को अस्थिमज्जा प्रीत्िा कहते हैं।) ऐसा गृहस्थ मूर्च्छितार्थ—ममतापूर्वक ग्रहण किये गये पदार्थ में, गृहीतार्थ—सामान्यरूप से ग्रहण किये गये पदार्थ में, विहितार्थ—अपने द्वारा किये गये पदार्थ में, पालितार्थ—अपने द्वारा पालन किये गये पदार्थ में, सेवितार्थ—अपने द्वारा सेवित—उपयोग में आने वाले पदार्थ में, निर्ग्रंथ प्रवचन—मुनियों के प्रवचन में, अनुत्तर—सर्वश्रेष्ठ, श्रेयो—कल्याणकारी पदार्थ में, सेवितार्थ—सेवन प्रवृत्तिरूप क्रिया में (प्रमाद से जो हुआ हो वह मिथ्या होवे) ऐसा अभिप्राय है।
नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं।
ये पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत सब मिलकर बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का अनुपालन कर दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त विरमण, रात्रिभक्त विरमण, ब्रह्मचर्य, आरंभ निवृत्ति, परिग्रह विरति, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये देशव्रत के ग्यारह स्थान हैं।
मधु, मांस, मद्य, जुआ, वेश्या आदि व्यसन इनका त्यागी पांच अणुव्रतों से और सात शीलों से परिपूर्ण श्रावक होता है।
जो श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका इन व्रतों को धारण करते हैं वे अठारह स्थानों में, भवनवासी, वाण व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म—ईशान स्वर्ग की देवियों का व्यतिक्रम कर उपरिम अन्यतर महर्द्धिक देवों में उत्पन्न होते हैं।
यही बताते हैं—सौधर्म—ईशान कल्प, सनत्कुमार—महेन्द्र, ब्रह्म—ब्रह्मोत्तर, लान्तव—कापिष्ठ कल्प, शुक्र—महाशुक्र कल्प, सतार—सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प में उपजते—उत्पन्न होते हैं।
ऐसे देदीप्यमान ज्ञान के धारक महर्द्धिक देव होते हैं। जो उत्कर्षपने से दो, तीन भव ग्रहण करते हैं। जघन्य से सात—आठ भव ग्रहण करते हैं। पश्चात् वे सुमनुष्यत्व से सुदेवत्व और सुदेवत्व से सुमनुष्यत्व को उससे साइहत्थ—साधितार्थ अथवा सद्गृहस्थ होकर पश्चात् निर्ग्रन्थ मुनि होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं और परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, सब दु:खों का अन्त करते हैं।
इच्छामि भंत्ते! देवसियं आलोचेउं। तत्थ-
दंसण-वय-सामाइय-पोसह-सच्चित्त-रायभत्ते य।
बंभारंभ-परिग्गह-अणुमण-मुद्दिट्ठ देसविरदे य।।
पंचुंबर—सहियाइं सत्त वि वसणाइं जो विवज्जेइ।
सम्मत्त—विसुद्धमई सो दंसण—सावओ भणियो।।१।।
पंच य अणुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि।
सिक्खावयाइं चत्तारि जाण विदियम्मि ठाणम्मि।।२।।
जिणवयण—धम्म—चेइय—परमेट्ठि—जिणालयाणं णिच्चं पि।
जं वंदणं तियालं कीरइ सामाइयं तं खु।।३।।
उत्तम—मज्झ—जहण्णं तिविहं पोसह—विहाण—मुद्दिट्ठं।
सगसत्तीए मासम्मि चउसु पव्वेसु कायव्वं।।४।।
जं वज्जिजदि हरिदं तय—पत्त—पवाल—कंद—फल—बीयं।
अप्पासुगं च सलिलं सच्चित्त—णिव्वत्तिमं ठाणं।।५।।
मण—वयण—काय—कदकारिदाणुमोदेिंह मेहुणं णवधा।
दिवसम्मि जो विवज्जदि गुणम्मि सो सावओ छट्ठो।।६।।
पुव्वुत्त—णवविहाणं णि (वि) मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो।
इत्थिकहादि—णिवित्ती सत्तम—गुणबंभचारी सो।।७।।
जं किं पि गिहारंभं बहु थोवं वा सया विवज्जेदि।
आरंभ—णिवित्तमदी सो अट्ठम—सावओ भणिओ।।८।।
मोत्तूण वत्थमित्तं परिग्गहं जो विवज्जदे सेसं।
तत्थ वि मुच्छं ण करदि वियाण सो सावओ णवमो।।९।।
पुट्ठो वापुट्ठो वा णियगेिंह परेिंह सग्गिह—कज्जे।
अणु—मणणं जो ण कुणदि वियाण सो सावओ दसमो।।१०।।
णवकोडीसु विसुद्धं भिक्खा—यरणेण भुंजदे भुंजं।
जायण—रहियं जोग्गं एयारस सावओ सो दु।।११।।
एयारसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविहो।
वत्थेयधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ।।१२।।
तव—वय—णियमा—वासय—लोचं कारेदि पिच्छ गिण्हेदि।
अणुवेहा— धम्मझाणं करपत्ते एयठाणम्मि।।१३।।
इत्थ मे जो कोई देवसिओ अइचारो अणाचारो तस्स भंते! पडिक्कमामि पडिक्कमंत्तस्स मे सम्मत्तमरणं समाहिमरणं पंडियमरणं वीरियमरणं दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
ग्यारह प्रतिमाओं के नाम-(१) दर्शन (२) व्रत (३) सामायिक (४) प्रोषधोपवास (५) सचित्तत्याग (६) रात्रिभुक्ति त्याग अर्थात् दिवा मैथुन त्याग (७) ब्रह्मचर्य (८) आरंभ त्याग (९) परिग्रह त्याग (१०) अनुमति त्याग (११) उद्दिष्ट त्याग।
(१) दर्शन प्रतिमा-जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त, शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारी, पंचपरमेष्ठी के चरण कमलों की शरण ग्रहण करने वाला और सच्चे मार्ग पर चलने वाला है, वह दर्शन प्रतिमाधारी कहलाता है। वह श्रावक पंच- उदुम्बर और सप्तव्यसनों का तथा रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्यागी होता है।
(२) व्रत प्रतिमा-जो शल्यरहित होकर निरतिचार पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है, वह व्रत प्रतिमाधारी कहलाता है। इस प्रतिमा में सामायिक व्रत में दो समय सामायिक और विधिवत् देव- पूजन करना आवश्यक है।
(३) सामायिक प्रतिमा-जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पंचपरमेष्ठी और कृत्रिम—अकृत्रिम जिनालयों की प्रतिदिन प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल इन तीनों कालों में कम से कम दो घड़ी तक विधिपूर्वक वन्दना करना सामायिक प्रतिमा कहलाती है।
(४) प्रोषधोपवास प्रतिमा-प्रत्येक महीने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी, ऐसे चारों पर्वों में अपनी शक्ति को न छिपाकर धर्मध्यान में लीन होते हुए प्रोषध को अथवा उपवास को अवश्य करना प्रोषध प्रतिमा का लक्षण है। प्रोषध का अर्थ एक बार भोजन करना होता है।
उत्कृष्ट प्रोषध प्रतिमा में सप्तमी और नवमी को एक बार शुद्ध भोजन और अष्टमी को उपवास होता है। जघन्य में अष्टमी को एक बार भोजन होता है। मध्यम में कई भेद हो जाते हैं।
(५) सचित्तत्याग प्रतिमा-कच्चे फल-फूल, बीज, पत्ते आदि नहीं खाना, इन्हें छिन्न-भिन्न करके, लवण आदि मिलाकर या गरम आदि करके प्रासुक बनाकर खाना, पानी भी प्रासुक करके पीना सचित्तत्याग प्रतिमा कहलाती है।
(६) रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा-रात्रि में ही स्त्री सेवन करने का व्रत लेना अर्थात् दिन में ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा लेना रात्रिभक्तव्रत प्रतिमा है। रात्रि भोजन त्याग के अतिचारों का भी त्याग करना रात्रिभक्त व्रत कहलाता है। ऐसा कथन चारित्रसार ग्रंथ में आया है।
पुनश्च वसुनन्दि श्रावकाचार के अनुसार-जो मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना इन नौ प्रकारों से दिन में मैथुन का त्याग करता है वह प्रतिमारूप गुणस्थान में छठा श्रावक है अर्थात् छठी प्रतिमाधारी है।
अथवा रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस छठी प्रतिमा का नाम ‘‘रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा’’ दिया है और इसका अर्थ इस प्रकार किया है कि-
जो दयालु श्रावक रात्रि में अन्न, खाद्य, लेह्य, पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग कर लेता है वह रात्रिभुक्ति त्यागी छठी प्रतिमाधारी श्रावक होता है।
यहाँ विशेष रूप से यह जानना है कि यद्यपि पहली प्रतिमा में ही रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग हो जाता है, फिर भी पुत्र-पौत्रादि कुटुम्बीजन अथवा अन्य लोगों के निमित्त से कारित और अनुमोदना संबंधी जो दोष लगता था, उनका भी यहाँ त्याग हो जाता है।
(७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा-जो पूर्वोक्त नौ प्रकार के मैथुन को सर्वथा त्याग करता हुआ स्त्री कथा आदि से भी निवृत हो जाता है वह सातवें प्रतिमारूप गुण का धारी ब्रह्मचारी श्रावक है।
(८) आरंभ त्याग प्रतिमा-हिंसा के कारण नौकरी, खेती, व्यापार आदि गृहकार्यसंबंधी सब तरह की क्रियाओं का त्याग करने वाला श्रावक आरंभत्यागी प्रतिमाधारी कहलाता है। इस प्रतिमा में दान, पूजन आदि धर्म कार्य संंबंधी आरंभ कार्य कर सकते हैं। घर में रहकर भी धर्म साधन कर सकते हैं, घर छोड़कर भी कर सकते हैं।
(९) परिग्रह त्याग प्रतिमा-जो वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर शेष सब परिग्रह को छोड़ देता है और स्वीकृत वस्त्रमात्र परिग्रह में भी मूर्च्छा नहीं करता है उसे परिग्रहत्याग नवमीं प्रतिमाधारी श्रावक जानना चाहिए।
(१०) अनुमति त्याग प्रतिमा-स्वजनों से और परजनों से पूछा गया अथवा नहीं पूछा गया जो श्रावक अपने गृहसम्बन्धी कार्य में अनुमोदना नहीं करता है, उसे अनुमति त्याग दसवीं प्रतिमाधारी श्रावक जानना चाहिए।
(११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-जो अपने घर को छोड़कर मुनियों के संघ में जाकर गुरु के पास दीक्षा लेकर तपश्चरण करता है और नवकोटि विशुद्ध भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करता है, निमंत्रण से भोजन नहीं करता है, खंड वस्त्र धारण करता है, वह उद्दिष्ट त्यागी प्रतिमाधारी कहलाता है।
इस ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेद हैं-क्षुल्लक और ऐलक। क्षुल्लक एक लंगोटी और खंड वस्त्र (चादर) रखते हैं। सिर और दाढ़ी मूँछ के बालों को वैंâची से या उस्तरा से कटा लेते हैं अथवा केशलोंच भी कर लेते हैं। पिच्छी उपकरण से स्थान आदि का प्रतिलेखन करते हैं, एक बार बैठकर थाली आदि में भोजन करते हैं। भिक्षावृत्ति से भोजन करते हैं१ अथवा गुरुओं के आहारार्थ निकल जाने पर उनके पीछे-पीछे आहार के लिए चले जाते हैं। ऐलक एक लंगोटी मात्र रखते हैं, नियम से केशलोंच करते हैं और करपात्र में आहार लेते हैं। इतना ही इन दोनों में अंतर है।
उनमें जो कोई दैवसिक—(रात्रिक) अतिचार, अनाचार दोष लगे हैं उन सबका हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ—उन सब में लगे अतिक्रमणादि दोषों को दूर करता हूँ। इस प्रकार अतिक्रमणादि दोष मैंने दूर किए, उनका शोधन किया। उस मेरे दोष शोधन करने वाले का सम्यक्त्वयुक्तमरण, समाधिमरण, पण्डितमरण, वीर्यमरण होवे। दु:खों का क्षय, कर्मों का क्षय, बोधि—रत्नत्रय का लाभ, सुगति में गमन और जिनेन्द्र के गुणों की सम्पत्ति प्राप्त होवे।
सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदि-महावीरेण महा-कस्सवेण सव्वण्हुणा सव्वलोगदरिसिणा सदेवासुर-माणुसस्स लोयस्स आगदि-गदि-चवणो-ववादं बंधं मोक्खं इिंड्ढ ठिदिं जुदिं अणुभागं तक्कं कलं मणो-माणसियं भूतं कयं पडिसेवियं आदिकम्मं अरुह-कम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणंता पस्संता विहरमाणेण समणाणं पंचमहव्वदाणि राइभोयणवेरमण-छट्ठाणि सभावणाणि समाउग-पदाणि सउत्तर-पदाणि सम्मं धम्मं उवदेसिदाणि।
(२८ मूलगुण)
वद-समिदिंदिय-रोधो लोचो आवासय-मचेल-मण्हाणं।
खिदिसयण-मदंतवणं ठिदिभोयण-मेयभत्तं च।।१।।
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
एत्थ पमादकदादो अइचारादो णियत्तो हं।।२।।
छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं।
(पच्चीस भावना)
चूलियं तु पवक्खामि भावणा पंचविंसदी।
पंच पंच अणुण्णादा एक्केक्कम्हि महव्वदे।।१।।
मणगुत्तो वचिगुत्तो इरिया – कायसंयदो।
एसणा – समिदि – संजुत्तो पढमं वदमस्सिदो।।२।।
अकोहणो अलोहो य, भय – हस्स – विवज्जिदो।
अणुवीचि-भास-कुसलो, विदियं वदमस्सिदो।।३।।
अदेहणं भावणं चावि, उग्गहं य परिग्गहे।
संतुट्ठो भत्तपाणेसु, तिदियं वदमस्सिदो।।४।।
इत्थिकहा इत्थिसंसग्ग – हास – खेड – पलोयणे।
णियमम्मि ट्ठिदो णियत्तो य्ा, चउत्थं वदमस्सिदो।।५।।
सचित्ताचित्त – दव्वेसु, बज्झंब्भंतरेसु य।
परिग्गहादो विरदो, पंचमं वदमस्सिदो।।६।।
धिदिमंतो खमाजुत्तो, झाणजोग-परिट्ठिदो।
परीसहाणउरं देंत्तो, उत्तमं वदमस्सिदो।।७।।
जो सारो सव्वसारेसु, सो सारो एस गोयम।।
सारं झाणंति णामेण, सव्वं बुद्धेहिं देसिदं।।८।।
इच्चेदाणि पंचमहव्वयाणि राईभोयणादो वेरमणछट्ठाणि सभावणाणि समाउग्ग-पदाणि सउत्तर-पदाणि सम्मं धम्मं अणुपा-लइत्ता समणा भयवंता णिग्गंथादोओण सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणियंति सव्वदुक्खाण-मंतं करेंति परिविज्जाणंति।
सुदं मे आउस्संतो ! (मुनिधर्म) का अर्थ
हे आयुष्मान् भव्यों ! इस भरत क्षेत्र में देव, असुर और मनुष्यों सहित प्राणिगण की आगति, गति, च्यवनोपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, अनुभाग, तर्क, कला, मन, मानसिक, भूत, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरुहकर्म इनको तीन सौ तेतालीस रज्जुप्रमाण और लोक में सब जीवों, सब भावों और सब पर्यायों को एक साथ जानते हुए, देखते हुए तथा विहार करते हुए, काश्यप—गोत्रीय श्रमण, भगवान, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महतिमहावीर अन्तिम तीर्थंकर देव ने पच्चीस भावनाओं सहित, मातृका पदों सहित और उत्तर—पदों सहित रात्रि भोजन विरमण है छठा अणुव्रत जिनमें ऐसे पांच महाव्रतरूप समीचीन धर्मों का उपदेश दिया है, वह मैंने उनकी दिव्यध्वनि से सुना है।
(२८ मूलगुण)
पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियरोध, लोच, छह आवश्यक, अचेलकत्व (नग्नता), स्नान त्याग, क्षितिशयन, अदन्त धावन, खड़े होकर आहार लेना, दिन में ही एक बार ही आहार लेना। ये अट्ठाईस मूलगुण श्रमणों के जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं, इनमें प्रमाद से लगे हुए दोष मिथ्या हो। छेदोपस्थापना मेरे हो।
उक्त और अनुक्त अर्थ का चिन्तन करना चूलिका है। उसका अर्थ कहता हूँ। उसमें पच्चीस भावनाएँ हैं, जो कि एक एक महाव्रत में पाँच-पाँच स्वीकार की गई हैं।।१।।
मन से गुप्त, वचन से गुप्त, गमन करते समय काय से प्राणियों की पीड़ा के परिहार में तत्पर तथा एषणा समिति से संयुक्त होता हूँ। अन्यत्र भावना कही गई हैं, यहाँ उन भावनाओं से सहित व्यक्ति कहा गया है, जो कि अभिन्न होने से भावना ही है, क्योंकि भावनाओं से युक्त व्यक्ति के ही अहिंसा व्रत निर्मल होता है।।२।।
क्रोध से रहित, लोभ से रहित, भय से वर्जित, हास्य से वर्जित और आगमानुकूल बोलने में कुशल होऊँ। ये पांच सत्य महाव्रत की भावनाएँ हैं। इनसे युक्त के सत्यमहाव्रत निर्मल होता है।।३।।
तृतीय अचौर्य व्रत के आश्रित मैं पांच भावनाओं में तत्पर होता हूँ। वे भावनाएं ये हैं अदेहन अर्थात् कर्मवश जो मैंने देह का उपार्जन किया है, वह ही मेरे धन है, अन्य परिग्रह नहीं है। ऐसी भावना भाता हूँ। यहां पृषोदरादि इत्यादि वाक्य से ध का लोप होकर अदेहधन के स्थान में अदेहन बन गया है। देह में ही अशुचित्व, अनित्यत्व आदि भावना है उसको भी भाता हूँ। परिग्रह में अवग्रह अर्थात् निवृत्ति की भावना भाता हूँ। भक्त, पान आदि चतुर्विध आहार में सन्तुष्ट अर्थात् गृद्धि-रहित होता हूँ। इन भावनाओं को भाने वाले के तीसरा महाव्रत निर्मल होता है।।४।।
मैथुन से विरति लक्षण चतुर्थ ब्रह्मव्रत को मैं आश्रित हुआ हूँ मैं स्त्री कथा, स्त्री संसर्ग, स्त्रियों के साथ हास्य विनोद, स्त्रियों के साथ क्रीड़न और उनके मुखादि अंगों का रागभाव से अवलोकन इन सब ब्रह्मचर्य के विघातकों में चूँकि नियम से स्थित हूँ इसलिए निवृत्त होता हूँ। इन भावनाओं से चतुर्थ व्रत निर्मल होता है।।५।।
परिग्रह से विरति लक्षण पंचम व्रताश्रित मैं दासी, दास आदि सचित्त द्रव्य में और धन-धान्य आदि अचित्त द्रव्य में तथा वस्त्र, आभरण आदि बाह्य द्रव्य में और ज्ञानावरणादि आभ्यन्तर द्रव्य में तथा गृह क्षेत्र आदि अन्य सब परिग्रह से विरत होता हूँ। इस प्रकार की पाँच भावनाओं को भाने वाले के परिग्रह विरति व्रत निर्मल ठहरता है। (ये पाँचों व्रत प्रतिज्ञारूप हैं, क्योंकि अभिसन्धि-पूर्वक किया हुआ नियम व्रत होता है ऐसा कहा गया है)।।६।।
उत्तम व्रत (प्रतिज्ञा) आश्रित वही होता है जो धृतिमान्, सन्तुष्ट इस लोक और परलोक की आकांक्षा से रहित है, उत्तम क्षमा-युक्त है, ध्यानयोग में सब ओर से स्थित है और परीषहों को सहन करता है।।७।।
जगदन्तर्वर्ती सब वस्तुओं में सार व्रत हैं उनमें सार हे गौतम! ध्यान है, क्योंकि ‘सारं ध्यानं’ इस नाम से सब बुद्धों (सर्वज्ञों) ने ध्यान को सार कहा है।।८।।
इस प्रकार पच्चीस भावनाओं सहित, अष्ट प्रवचनमातृकाओं सहित और उत्तर पदों सहित पाँच महाव्रत और रात्रिभोजन विरति—छठा अणुव्रत ये महान हैं। जो सम्यक्धर्म हैं उनका अनुपालन कर श्रमण निर्गं्रथत्वपने से सिद्ध स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त होते हैं, हेयोपादेय विवेक से सम्पन्न बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, संसार से पार होते हैं, सब दु:खों का अंत करते हैं और परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं।