-गणिनी ज्ञानमती
—सोरठा—
स्वानुभूति से आप, नित आतम अनुभव करें।
द्वादशगण के नाथ, नमूं नमूं नित भक्ति से।।
—दोहा—
‘इन्द्रभूति’ गणधर प्रथम, गौतम नाम प्रसिद्ध।
जिनकी कृपा प्रसाद से, मोक्षमार्ग है सिद्ध।।१।।
‘‘वायुभूति’ गणधर दुतिय, सर्वऋद्धिपरिपूर्ण।
जो जन वंदे भक्ति से, करे मोह अरि चूर्ण।।२।।
‘अग्निभूति’ गणधर तृतिय, नमूं सर्वसुख कंद।
ध्यान अग्नि से कर्म दह, बने सिद्ध भगवंत।।३।।
गणी ‘सुधर्माचार्य’ गुरु, महावीर के नंद।
वंदूं शीश नमाय के, पाऊं परमानंद।।४।।
‘श्री मौर्य’ गणधर गुरु, भविजन के शिर ताज।
वंदूं शीश नमायके, मिले सौख्य साम्राज्य।।५।।
गणी ‘मौन्द्र्य’ गुरु के चरण, नमूँ सर्व सुखकार।
पाऊं निज सुखसंपदा, मिले भवोदधि पार।।६।।
गणधर ‘पुत्र’ सुनाम है, सन्मति प्रभु के नंद।
नमूं सदा मैं भक्ति से, पाऊं सौख्य अिंनद्य।।७।।
‘श्रीमैत्रेय’ गणीन्द्र को, नमूं नमूं शतबार।
मन वच तन से वंदते, भरे सौख्य भंडार।।८।।
गणी ‘अकंपन’ को नमूं, सर्व ऋद्धि के ईश।
ऋद्धि सिद्धि को पाय के, वसूं भुवन के शीश।।९।।
‘अंधवेल’ गणधर गुरू, मोहध्वांत से दूर।
नमूं चरण अरिंवद मैं, पाऊं सुख भरपूर।।१०।।
गुरु ‘प्रभास’ गणधर चरण, वंदत हो आनंद।
पाऊं ज्ञान प्रकाश मैं, हरू जगत के द्वंद्व।।११।।
—नरेन्द्र छंद—
महावीर प्रभू के गणधर हैं, ग्यारह१ सब गुण पूरे।
इन्द्रभूति गौतम आदिक ये, यम की समरथ चूरें।।
ये भव्यों के रोग शोक दुख, दारिद कष्ट निवारें।
केवल ‘ज्ञानमती’ संपत्ती, देकर भव से तारें।।१२।।