अध्ययन अर्थात् ग्रंथों को पढ़ना और उसका मनन करना तथा अध्यापन अर्थात् शिष्यों को पढ़ाना, अभ्यास कराना। किसी भी शास्त्र को गुरुमुख से ही पढ़ना चाहिये, तभी उसका समीचीन-संगत-निर्दोष अर्थ ग्रहण किया जा सकता है अन्यथा गलत अर्थ धारणा में बैठ जाने से प्राय: उसका दुराग्रह भी हो जाया करता है अत: कुछ मौलिक ग्रंथ तो गुरुमुख से ही पढ़ने चाहिये।
पुन: यदि किसी ग्रंथ का स्वाध्याय किया जाता है तो उसे एक बार पढ़कर दूसरी बार अवश्य पढ़ना चाहिए जिससे उसका आद्योपांत संदर्भ समझ में आ जाता है। हो सके तो तीन, चार या कई बार भी उस ग्रंथ का स्वाध्याय करना चाहिए। तब उसको किसी को पढ़ाना चाहिए और तभी उस ग्रंथ का प्रवचन करना चाहिए।
समयसार आदि ग्रंथों की गाथायें सूत्र रूप हैं। उनका संबंध आगे पीछे के सूत्रों से रहता ही रहता है। जैसे कि ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ टीकाकार श्री पूज्यपाद स्वामी और अकलंकदेव आदि आचार्यों ने एक-एक सूत्र की टीका में कहीं पीछे के या कहीं आगे के सूत्रों से संबंध जोड़कर तथा पूर्वापर विरोध न हो जावे इस बात को ध्यान में रखकर ही विशेष अर्थ स्फुट किया है। उदाहरण के लिये ‘न देवा:।।’ इस सूत्र का अर्थ कोई भी यही करेगा कि ‘देव नहीं हैं’ किन्तु ऐसा अर्थ पूर्वापर-विरुद्ध होने से इसमें पूर्व के ‘नारकसंमूर्च्छिनो नपुंसकानि’।। इस सूत्र से ‘नपुंसक’ शब्द का अध्याहार लेकर ‘देव नपुंसक नहीं होते’ ऐसा अर्थ किया जाता है। ऐसे ही सर्वत्र ग्रंथों में समझना चाहिए।
इस अध्ययन-अध्यापन की शैली में हमें किन-किन बातों को समझना है ? देखिये-
गुरु कैसे होने चाहिए ? शिष्य कैसा होना चाहिए ? गुरु परम्परा से पढ़ने का क्या महत्त्व है ? ग्रंथों को पढ़ते या पढ़ाते समय ‘पापभीरुता’ कैसी होनी चाहिए ? ग्रंथ को पढ़ाते समय पहले उसके रहस्य को कैसे समझाना चाहिए ? श्रावक को क्या करना चाहिए ? पूर्वाचार्यों ने किस क्रम से उपदेश दिया है ? मुनियों के आशीर्वाद देने में क्रम क्यों है ? पहले मुनिधर्म का उपदेश देना,वह किसको ? मद्य, माँसादि के त्याग और दया, दान आदि का उपदेश क्या भगवान ने दिया है ? गृहस्थ रत्नत्रय का उपदेश दे सकते हैं क्या ? कैसी कथाओं का उपदेश देना चाहिये ? इन सब बातों को समझकर ही अध्ययन-अध्यापन अथवा प्रवचन करने से अर्थ का अनर्थ नहीं होता है।
ग्रंथों को पढ़ाने वाले मुनि या विद्वान् श्रावक उपाध्याय, गुरु अथवा अध्यापक कहलाते हैं तथा उपदेश देने वाले भी उपाध्याय या गुरु होते हैं और विद्वान् पण्डितगण वक्ता कहलाते हैं। गुरु में क्या गुण होना आवश्यक हैं ? शिष्य या श्रोतागण वैâसे होने चाहिये ? गुरुपरम्परा से अध्ययन करने या उपदेश सुनने का क्या महत्त्व है ? पहले इन सभी बातों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये पुन: गुरु या वक्ता बनना चाहिए।
‘ग्रंथार्थतो गुरुपरम्परया यथावत्, श्रुत्वावधार्य भवभीरुतया विनेयान्।
ये ग्राहयंत्युभयनीतिबलेन सूत्रं,रत्नत्रयप्रणयिनो गणिन: स्तुमस्तान्।।४।।
जो गुरु परम्परा से ग्रंथ, अर्थ और उभयरूप से सूत्र को यथावत् सुनकर और उसे अवधारण करके स्वयं संसार से भयभीत होकर शिष्यों को उभय नीति-निश्चय-व्यवहारनय की पद्धति के बल से सूत्रों को पढ़ाते हैं उन रत्नत्रय के धारक आचार्यों की हम स्तुति करते हैं।
श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं-
मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेयदुर्बोधा:।
व्यवहारनिश्चयज्ञा: प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम्।।४।।
जिन्होंने मुख्य-निश्चयनय और उपचार-व्यवहारनय अथवा मुख्य और गौण प्रतिपादन शैली से शिष्यों के दुस्तर अज्ञान को नष्ट कर दिया है ऐसे व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता महामुनि ही जगत में धर्मतीर्थ का प्रर्वतन करते हैं अर्थात् मोक्षमार्ग को चलाते हैं।
गुणभद्रसूरि ने और भी अनेकों लक्षण किये हैं कि ‘जो बुद्धिमान हो, समस्त शास्त्रों के रहस्य को जानने वाला हो, प्रश्नों को सहने में समर्थ हो, हर एक प्रश्नों के उत्तर में कुशल हो, इत्यादि गुणों से युक्त आचार्य ही वक्ता होते हैं।’
श्री गुणभद्रसूरि पुन: कहते हैं कि-
लोकद्वयहितं वक्तुं श्रोतुं च सुलभा: पुरा।
दुर्लभा: कर्तुमद्यत्वे वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभा:।।१४३।।
पूर्वकाल में उभय लोक में हितकर ऐसे व्याख्यान को करने के लिये तथा सुनने के लिये भी बहुत से जन सुलभ थे किन्तु तदनुकूल आचरण करने के लिए दुर्लभ ही थे परन्तु वर्तमान में ऐसे व्याख्यान को कहने के लिए व सुनने के लिए भी लोग दुर्लभ हैं पुन: वैसा आचरण करना तो बहुत ही दूर की बात हो गई है।
उभय लोक के लिए हितकर किन्तु कठोर भी गुरु के वचन वैâसे होते हैं-
विकाशयंति भव्यस्य मनोमुकुलमंशव:।
रवेरिवारविंदस्य कठोराश्च गुरूक्तय:।।१४२।।
कठोर भी गुरु के वचन भव्यों के मन को इस प्रकार से प्रफुल्लित करते हैं कि जिस प्रकार से सूर्य की कठोर किरणें भी कमल को खिला देती हैं।
शिष्य भी दुराग्रह से रहित हो तथा श्रवण, धारण आदि बुद्धि के विभव से युक्त हो, इत्यादि गुणों से युक्त शिष्य ही ‘शास्य’-उपदेश के लिए पात्र है।
‘जिनेन्द्रदेव के वचनों को सुनने का पात्र कौन है ?’ उसका लक्षण श्री अमृतचंद्रसूरि बताते हैं-
‘अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य।
जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय:।।७४।।
अनिष्ट और दुस्तर पाप के स्थानस्वरूप मद्य, माँस, मधु और पंच उदुंबर फल इन आठों का त्याग करके शुद्ध बुद्धि वाले जन ही जिनधर्म की देशना के पात्र होते हैंं।
‘यावज्जीवमिति त्यक्त्वा महापापानि शुद्धधी:।
जिनधर्मश्रुतेर्योग्य: स्यात्कृतोपनयो द्विज:।।१९।।
जीवन पर्यंत के लिए मद्य आदि आठ महापापों को छोड़कर जो शुद्ध बुद्धि हो गया है और जिसका उपनयन संस्कार हुआ है ऐसा श्रावक जिनधर्म को सुनने के लिए योग्य होता है।
इस प्रकार आगम कथित गुणों से युक्त शिष्य या श्रोता गुरु परंपरा से ही तत्त्वों को समझने का उपाय करे अन्यथा अर्थ का अनर्थ हुये बिना नहीं रहता है। इस विषय में ज्ञानार्णव में कहा है कि-
नहि भवति निर्विगोपक्रममनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम्।
प्रकटितपश्चिमभागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य।।३४।।
जिसने गुरुकुल की-गुरु समूह की उपासना नहीं की है उसका विज्ञान प्रशंसा करने योग्य नहीं है किन्तु निंदा सहित ही होता है। देखो! मयूर नृत्य करते समय अपने पृष्ठ भाग (मलद्वार) को उघाड़ कर नृत्य करता है अर्थात् मयूर ने नृत्य कला किसी गुरु से नहीं सीखी है इसलिये वह नृत्य करते समय उपर्युक्त रीति से नृत्य करता है। वैसे ही जो गुरुओं से अध्ययन नहीं करते हैं उनका अध्ययन विपरीत बुद्धि को भी उत्पन्न कर देता है।
आप आचार्यों की परम्परा देखो तो स्पष्ट हो जाता है कि सभी आचार्य गुरुमुख से ही गं्रथों का अध्ययन करते थे। धरसेनाचार्य तक गुरु परिपाटी से ही ज्ञान आया और जैसा कि पुष्पदंत भूतबली आचार्यों ने भी आचार्य धरसेन से ज्ञान पाया तथा श्री कुंदकुंददेव ने भी इन ग्रंथों का ज्ञान परम्परा से प्राप्त किया। यथा-
एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन्।
गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कुण्डकुंदपुरे।।१६०।।
श्री पद्मनंदिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाण:।
ग्रंथपरिकर्मकर्त्रा षट्खण्डाद्यत्रिखंडस्य।।१६१।।
कर्म प्राभृत (षट्खण्डागम) और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुरु-परिपाटी से कुंदकुंदपुर के ‘पद्मनंदि’ मुनि को प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खंडागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम की टीका रची।
जब महान अध्यात्म शिरोमणि श्री कुंदकुंददेव ने गुरु परम्परा से ज्ञान प्राप्त किया तब ग्रंथ रचना की। पुन: आज यदि उनके ग्रंथों का स्वाध्याय करने वाले लोग-गुरुओं के परम्परागत अर्थ की उपेक्षा करके मनमाना अर्थ करेंगे तो अनर्थ होना स्वाभाविक ही है।
गुरुओं की परम्परा से ज्ञान प्राप्त करने का महत्त्व गुर्वावली में बहुत ही अच्छी तरह से बताया गया है। उन गुर्वावली, पट्टावली आदि का भी मनन करना चाहिए।
ग्रंथों को पढ़ाते समय विद्वान् के मुख से अथवा उपदेश करते समय वक्ता के मुख से पूर्वाचार्यों के प्रति श्रद्धा का निर्झर प्रवाहित हो जाना चाहिए। जैसे कि आचार्य विद्यानंदि, आचार्य वीरसेन और आचार्य वसुनंदि आदि के शब्दों में दिखता है। यथा-
‘‘अब पुष्पदंत भट्टारक अंतिम गुणस्थान के प्रतिपादन हेतु, अर्थरूप से अर्हंत परमेष्ठी के मुख से निकले हुये, गणधर देव के द्वारा गूँथे गये शब्द रचना वाले, प्रवाहरूप से कभी भी नाश को नहीं प्राप्त होने वाले और सम्पूर्ण दोषों से रहित होने से निर्दोष आगे के सूत्र कहते हैं-’’
यहाँ श्री वीरसेनस्वामी को श्री पुष्पदंत आचार्य के प्रति कितनी श्रद्धा है और उनके वचनों को वे साक्षात् भगवान की वाणीरूप ही मान रहे हैं। यह स्पष्ट दिख रहा है। आगे और देखिये-
‘‘हमारे यहाँ आर्षपरंपरा का विच्छेद भी नहीं है क्योंकि जिसका दोष-आवरण रहित अरहंत देव ने अर्थरूप से व्याख्यान किया है जिसको चार ज्ञानधारी, निर्दोष गणधर देव ने धारण किया है, जो ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न गुरु परम्परा से चला आ रहा है, जिसका पहले का वाच्य-वाचक भाव अभी तक नष्ट नहीं हुआ है और जो दोषावरण से तथा निष्प्रतिपक्ष सत्यस्वभाव वाले पुरुष के द्वारा व्याख्यात होने से श्रद्धा के योग्य है ऐसे आगम की आज भी उपलब्धि हो रही है।’’
शंका-आधुनिक आगम अप्रमाण है क्योंकि अर्वाचीन पुरुषों ने इसका अर्थ किया है ?
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान से सहित होने से प्रमाणता को प्राप्त इस युग के आचार्यों द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है इसलिये आधुनिक आगम भी प्रमाण है।
शंका-छद्मस्थ सत्यवादी वैâसे हो सकते हैं ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि श्रुत के अनुसार व्याख्याता आचार्यों को प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-आगम का यह अर्थ प्रामाणिक गुरु परम्परा के क्रम से आया है यह वैâसे निश्चय किया जाये ?
समाधान-‘‘नहीं, क्योंकि….ज्ञान-विज्ञान से युक्त इस युग के अनेक आचार्यों के उपदेश से उसकी प्रमाणता जाननी चाहिए।……’’ और भी देखिये-
कषाय प्राभृतकार पहले आठ कषाय का क्षय, पीछे सोलह प्रकृति का क्षय मानते हैं किन्तु सत्कर्मप्राभृतकार (षट्खंडागमकार) पहले सोलह का नाश मानकर आठ कषाय का नाश मानते हैं। इस पर चर्चा चली कि दोनों में से कोई एक ही वाक्य सूत्ररूप प्रमाणीक होना चाहिए। इस पर आचार्य वीरसेन दोनों आगम को सूत्र कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि-
‘
‘जिनका अर्थरूप से तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है और गणधरदेव ने जिनकी ग्रंथ रचना की ऐसे द्वादशांग आचार्य परम्परा से निरंतर चले आ रहे हैं। परन्तु काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होने पर और उन अंगों के धारण करने वाले योग्य पात्र के अभ्ााव में वे उत्तरोत्तर क्षीण होते हुय आ रहे हैं। इसलिये जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठ बुद्धिवाले पुरुषों का अभाव देखा जो अत्यन्त पापभीरु थे और जिन्होेंने गुरु परम्परा से श्रुतार्थ ग्रहण किया था उन आचार्यों ने तीर्थ विच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंग संबंधी अर्थ को पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता।
शंका-यदि ऐसा है तो इन दोनों ही वचनों को द्वादशांग का अवयव होने से सूत्रपना प्राप्त हो जायेगा ?
समाधान-दोनों में कोई एक ही सूत्र हो सकता है, दोनों नहीं, क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है।
शंका-पुन: उत्सूत्र लिखने वाले आचार्य पापभीरु वैâसे हो सकते हैं ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों प्रकार के वचनों में से किसी एक ही के वचन संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है किन्तु दोनों प्रकार के वचनों का संग्रह करने वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती है अर्थात् बनी रहती है।
पुन: प्रश्न होता है कि-‘‘दोण्ह वयणाणं मज्झे कं वयणं सच्चमिदि चे ? केवली सुदकेवली वा जाणादि ण अण्णो तहा णिण्णयाभावादो। वट्टमाण-कालाइरिएहि वज्जभीरुहि दोण्हं पि संगहो कायव्वो अण्णहा वज्जभीरुत्त-विणासादो त्ति।’’
शंका-दोनों प्रकार के वचनों में से किसी वचन को सत्य माना जाये ?
समाधान-इस बात को केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता। क्योंकि, इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है इसलिये पापभीरु वर्तमान के आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना चाहिये अन्यथा पापभीरुता का विनाश हो जायेगा।’’
ऐसे ही अन्यत्र भी दो मत आ जाने पर प्रश्नोत्तरमाला चलती है। पुन: शिष्य कहता है कि-
शंका-दोनों वचनों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि हो जायेगा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि संग्रह करने वाले के ‘यह सूत्र कथित ही है’ इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके संदेह नहीं हो सकता है।’’
आगे शिष्य प्रश्न करता है कि-
प्रश्न-आर्ष को प्रमाण वैâसे माना जाये ?
उत्तर-जैसे प्रत्यक्ष स्वभावत: प्रमाण है वैसे ही आर्ष भी स्वभावत: प्रमाण हैै’’।
आचार्य वीरसेन स्वामी तो स्पष्ट कहते हैं कि-‘‘आगम केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, अत: आगम में अनुमान का प्रयोग नहीं हो सकता।’’
जहाँ कहीं भी दो मत के आने पर शंका उठी है वहीं पर धवलाकार ने ऐसा समाधान दिया है। यथा-
‘‘यह सूत्र है, यह सूत्र नहीं है’ ऐसा आगमनिपुणजन कह सकते हैं किन्तु हम यहाँ कहने के लिये समर्थ नहीं हैं, क्योंकि हमें वैसा उपदेश प्राप्त नहीं है।’’
इससे अधिक और पापभीरुता क्या होगी, कहिये ? जबकि वीरसेन स्वामी धवला, जयधवला टीकाकर्ता भी अपने को ‘आगमनिपुण’ नहीं मानते हैं।
आगे और देखिये-
शंका-बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों को यहाँ सूत्र में वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं दी ?
समाधान–‘गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो।’ यहाँ गौतमस्वामी से पूछना चाहिए।’’
कषायप्राभृत में भी कहा है कि-
‘‘प्रमाण के लिये प्रमाण नहीं चाहिये और आगम स्वयं प्रमाण है।
मूलाचार में देवियों की आयु के बारे में गाथायें आई हैंं। उन दोनों में अंतर है। यथा-
‘सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, ईशान में ७, सानत्कुमार में ९, माहेन्द्र में ११, ब्रह्म में १३, ब्रह्मोत्तर में १५, लांतव में १७, कापिष्ठ में १९, शुक्र में २१, महाशुक्र में २३, शतार में २५, सहस्रार में २७, आनत में ३४, प्राणत में ४१, आरण में ४८ और अच्युत में ५५ पल्य है।
दूसरी गाथा में कहते हैं-सौधर्म-ईशान में ५ पल्य, सानत्कुमार युगल में १७, ब्रह्मयुगल में २५, लांतवयुगल में ४५, शुक्रयुगल में ४०, शतारयुगल में ४५, आनतयुगल में ५० और आरण अच्युत में ५५ पल्य है।
इसकी टीका में श्री वसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य कहते हैं-
‘‘……द्वौ अपि उपदेशौ ग्राह्यौ सूत्रद्वयोपदेशात्, द्वयोर्मध्ये एकेन सत्येन भवितव्यं, नात्र संदेहमिथ्यात्वं, यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति संदेहाभावात्। छद्मस्थैस्तु विवेक: कर्र्तुं न शक्यतेऽतो मिथ्यात्वभयादेव द्वयोर्ग्रहणमिति।’’
दोनों ही उपदेश ग्रहण करना चाहिये क्योंकि दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं। यद्यपि यह निश्चित है कि दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिये। इस विषय में संशयमिथ्यात्व भी नहीं है क्योंकि ‘जो अर्हंतदेव द्वारा प्रणीत है वही सत्य है’ इस प्रकार से संशय का अभाव है क्योंकि छद्मस्थों को यह विवेक करना शक्य नहीं है इसलिये मिथ्यात्व के भय से ही दोनों को ग्रहण करना चाहिये।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में श्री विद्यानंदि महोदय तत्त्वार्थसूत्र को आप्तमूलक सिद्ध कर रहे हैं-
संप्रदायाव्यवच्छेदाविरोधादधुना नृणाम्।
सद्गोत्राद्युपदेशोऽत्र यद्वत्तद्वद्विचारत:।।६।।
प्रमाणमागम: सूत्रमाप्तमूलत्वसिद्धित:।।
संप्रदाय-परम्परा के व्यवच्छेद का अविरोध होने से यह सूत्र आगम प्रमाण है क्योंकि यह आप्तमूलक सिद्ध है। जैसे-आजकल मनुष्यों के सद्गोत्र (काश्यप आादि) आदि का उपदेश प्रवाहरूप से पाया जाता है। उसी प्रकार से विचार करने से यह सूत्ररूप आगम पूर्णतया प्रमाणभूत ही है।
कषायप्राभृत ग्रंथ के प्रति श्रद्धा देखिये-
स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत ग्रंथ के गाथा सूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में देखिये। एक स्थान पर शिष्य के द्वारा यह शंका किये जाने पर कि यह वैâसे जाना ? इसके उत्तर में श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं-
‘‘एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदम-लोहज्ज-जंवुसामियादि आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहास-रूवेण परिणमिय अज्जमंखुणागहत्थीहितो जयिवसहमुहणयिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिव्वज्झुणिकिरणादो णव्वदे। (जयध.आ.पत्र ३१३)
‘‘विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट होकर गौतम, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथा स्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ती के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुखकमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं।’’
इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कषायप्राभृत ग्रंथ साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि तुल्य है ऐसा टीकाकार का कथन है। दूसरी बात यह है कि आचार्य परम्परा की महत्ता पर पूर्ण प्रकाश दिख रहा है। ‘गुणधराचार्य ने आचार्य परम्परा से ज्ञान पाया और गाथारूप से परिणत किया। पुन: आचार्य परम्परा से ही आर्यमंक्षु और नागहस्ती मुनि को उसका ज्ञान मिला। अनंतर उनके चरण सानिध्य में ज्ञान प्राप्तकर यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्रों की रचना की है।
जयधवलाकार ने तो इन ‘कसायपाहुड़’ की गाथाओं को ‘अणंतत्थगब्भाओ’ अनंत अर्थ गर्भित कहा है।
इन प्रकरणों को देखकर ग्रंथों का अर्थ प्रतिपादित करते समय अथवा प्रवचन करते समय इसी प्रकार से पूर्वाचार्यों के प्रति आस्था व्यक्त करते हुए अपने और सुनने वालों के सम्यक्त्व को दृढ़ करना चाहिए।
पहले तो विद्वान् या वक्ता को चारों अनुयोगों का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा वह किसी न किसी एकांत को पकड़ लेंगे। पुन: नयविवक्षा और परस्पर में समन्वय की शैली का होना आवश्यक है। अनंतर जिस ग्रंथ का प्रतिपादन करना है उसको आद्योपांत पूरा पढ़ लेना, मनन कर लेना आवश्यक है। इसके बाद यदि वे श्रोताओं को समझायेंगे तो अर्थ का अनर्थ नहीं होगा। जैसे-नियमसार को लीजिये, यह आध्यात्मिक ग्रंथ है। इसको समझने-समझाने के लिये पहले नयचक्र अथवा आलाप पद्धति के आधार से द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक तथा व्यवहार और निश्चय नयों के लक्षण समझकर अच्छी तरह श्रोताओं को समझा देना चाहिये। अनंतर पहले उस ग्रंथ के रहस्य को समझा देना चाहिये
श्रावक यदि समयसार, नियमसार, मूलाचार, गोम्मटसार, लब्धिसार, धवला आदि ग्रंथों को पढ़ता है तो उसे उनमें से मूलाचार से तो ‘मुनियों की चर्या वैâसी होती है ?’ उसको समझना चाहिये। ‘समयसार से’ शुद्धात्मा की प्राप्ति वैâसे होगी ?’ सो समझना चाहिये। पुन: उसे करना क्या चाहिए ?
श्रावक को कुंदकुंददेव के चारित्रपाहुड, रयणसार, श्री समंतभद्रस्वामी के रत्नकरण्डश्रावकाचार के अनुकूल अपना आचरण बनाना चाहिये। प्रथमानुयोग के अनुसार मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्र आदि के अनुरूप अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहिए।
स्वामी समंतभद्राचार्य ने अपने श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन का लक्षण बताया है पुन: उसके आठों अंगों का विवेचन किया है। अनंतर सम्यग्ज्ञान के अनुयोगों पर प्रकाश डालकर आगे कहा है कि-
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु:।।
दर्शनमोहरूपी अंधकार के दूर हो जाने पर सम्यग्दर्शन का लाभ होने से ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। तब साधु रागद्वेष को दूर करने के लिए चारित्र को स्वीकार करता है। उसमें-
सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानां।
अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानां।।
चारित्र के सकल और विकल ऐसे दो भेद हैं। उसमें सकलचारित्र सर्वपरिग्रहत्यागी अनगारों को होता है और विकल चारित्र परिग्रहसहित गृहस्थों को होता है।
जब रत्नत्रय धर्म है और उसके अंतर्गत ही श्रावकों के सामायिक में ‘पूजा, भक्ति’ और अतिथिसंविभाग में ‘दान’, अिंहसाणुव्रत आदि में ‘दया’ इत्यादि पाये जाते हैं तो पुन: ‘भक्ति, दान, दया’ आदि को धर्म नहीं मानना यह कहाँ की बुद्धिमानी है ?
अतएव श्रावकों के लिये मुख्यरूप से श्रावकाचार और आदर्श पुरुषों व महिलाओं की जीवन गाथाएँ सुनाना चाहिये क्योंकि ग्यारह अंगों में सातवां अंग उपासकाध्ययन नाम का है और मुनियों के लिये पहला अंग आचारांग नाम का है।
मुनि-आर्यिका, श्रावक अथवा श्राविका जो आगम के आधार से उपदेश करते हैं। उसे ‘प्रवचन’ भी कहते हैं। प्रवचन करने वालों को चारों अनुयोगों का सर्वांगीण अध्ययन होना आवश्यक है पुन: वैâसे पात्रों को वैâसा उपदेश देना यह भी समझ लेना चाहिये।
पूर्वविदेह में मधु नाम के वन में भील को श्रीसागरसेन मुनिराज ने उपदेश दिया और मद्य, माँस, मधु इन तीनों का त्याग करा दिया जिसको पालन करके वह भील मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया।
सिंह को चारणमुनियों ने सम्यक्त्व का उपदेश देकर पाँच अणुव्रत ग्रहण कराये।
खदिरसार भील को मुनि ने नमस्कार करने पर आशीर्वाद दिया ‘धर्म लाभ हो’ भील ने पूछा-धर्म क्या है ? मुनिराज ने कहा-‘‘मद्य माँसादि का सेवन करना पाप है और इनको छोड़ देना धर्म है।’’ उस धर्म की प्राप्ति ही धर्म लाभ है। उस धर्म से पुण्य होता है और पुण्य से स्वर्ग में अनुपम सुख मिलता है। तब भील ने कहा-ऐसे धर्म का अधिकारी मैं नहीं हो सकता। मुनिराज ने उसका अभिप्राय समझ लिया और पूछा-‘हे भव्य! क्या तूने कभी कौवे का माँस खाया है ?’ भील ने सोचकर कहा-‘नहीं।’ मुनि ने कहा-‘तो उसे ही तू छोड़ दे।’ तब उसने इस व्रत को ले लिया। कुछ दिन बाद उसे असाध्य रोग हो जाने पर वैद्य ने कौवे का माँस खाने को कहा। बहुतों के द्वारा अनेकों प्रयत्नों के किये जाने पर भी उसने नहीं खाया। अनंतर पाँचों व्रतों को ग्रहण कर मरण करके सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ वहाँ से आकर वह राजा श्रेणिक हो गया।
यहाँ पर माँस, मधु आदि के त्याग को धर्म कहा है। वह भील उतने मात्र के ही योग्य था अभी उसमें सम्यक्त्व के ग्रहण करने की क्षमता नहीं थी। आगे चलकर ये ही श्रेणिक क्षायिक सम्यक्त्वी हो गये और आगे महापद्म तीर्थंकर होने वाले हैं। उतने से धर्म ने उसकी आत्मा को उन्नति के पथ पर लगा दिया।
‘मार्ग से थका धनदत्त सूर्यास्त हो जाने पर मुनियों के आश्रम में पहुँचा, वह प्यासा था। जल मांगा, तब एक मुनि ने समझाया कि रात्रि में अमृत पीना भी उचित नहीं फिर पानी की तो बात ही क्या ? मुनि के उपदेश से उसने रात्रिभोजन का त्याग कर दिया। आयु पूर्ण होने पर मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर पद्मरुचि नामक श्रावक हो गया। कालान्तर में ये ही रामचंद्र हुये हैं।
ऐसे ही अगणित उदाहरण प्रथमानुयोग में भरे पड़े हैं। इन प्रकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुनिगण श्रोताओं की योग्यतानुसार ही उपदेश देते थे, तथा गुरु का उपदेश व उनके पास में ग्रहण किया गया छोटा सा भी व्रत परम्परा से मुक्ति का कारण हो जाता था।
इसी प्रकार से मुनियों को नमस्कार करने पर वे मुनि क्रम से ही उनकी योग्यता के अनुसार आशीर्वाद देते हैं। जैसे-मुनियों को उनसे लघु मुनि नमोस्तु करते हैं तो वे मुनि या आचार्य उन्हें ‘नमोस्तु’ कहकर प्रतिवंदना करते हैं। यदि आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें, ऐलक, क्षुल्लक और व्रतिक श्रावक-श्राविकायें नमोस्तु करते हैं तो वे मुनि और आचार्य उन्हें ‘समाधिरस्तु’ आशीर्वाद देते हैंं। साधारण श्रावक-श्राविकायें नमोस्तु करते हैं तो वे उन्हें ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’ ऐसा कहते हैं। जैनधर्म से बाह्य अन्य लोग नमस्कार करते हैं तो वे उन्हें ‘धर्मलाभोऽस्तु’ कहकर आशीर्वाद देते हैं तथा चांडाल आदि लोग नमस्कार करते हैं तो वे उन्हें ‘पापंक्षयोऽस्तु’ ऐसा आशीर्वाद देते हैं। ऐसा आगम का विधान है।
यह भेदभाव नहीं है प्रत्युत् व्यवस्था है। देखिये! मुनिलिंग सर्वथा पूज्य है अत: वे लघु मुनियों के नमोस्तु करने पर ‘नमोस्तु’ द्वारा ही प्रतिवंदना करते हैं। आर्यिका, क्षुल्लक आदि व्रतिकगण रत्नत्रय को धारण किये हुए हैं उनका अंत में समाधिपूर्वक मरण हो, अंत तक वे अपने व्रतों को पालन करते रहें अथवा धर्मध्यान और शुक्लध्यान का नाम समाधि है वह उनको प्राप्त होवें उनके लिये ऐसा आशीर्वाद उचित ही है। सामान्य श्रावक धर्म को धारण कर रहे हैं। उनके उस सच्चे धर्म की वृद्धि हो अत: ‘सद्धर्मवृद्धि:’ आशीर्वाद है। धर्म बाह्य लोगों को ‘धर्मलाभोऽस्तु’ आशीर्वाद उनके धर्म के लाभ में निमित्त बनता है तथा िंहसा आदि पाप में प्रवृत्त हुए लोगों का जब तक पाप क्षीण नहीं होगा तब तक वे धर्म को धारण करने के लिए पात्र नहीं हो पायेंगे अत: ‘पापंक्षयोऽस्तु’ आशीर्वाद उनके लिये ठीक ही है।
शंका-मुनियों के लिए उत्कृष्ट उपदेश देने का ही विधान आया है। जैसे-
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमति:।
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।।१८।।
जो अल्पमति मुनि यति धर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ धर्म का उपदेश देता है उसको भगवान के शासन में प्रायश्चित का भागी बतलाया है पुन: मुनि गृहस्थधर्म का उपदेश कैसे दे सकते हैं ?
समाधान-यह सर्वथा एकांत नहीं है क्योंकि मुनि के पास कोई उच्चवर्णी श्रावक या राजा आदि पहुँचते हैं तो वे उन्हें वैसा ही उपदेश देते हैं क्योंकि वे पात्र हैं, मुनिपद धारण कर सकते हैं। जैसे कि सोमदत्त ब्राह्मण गुरु के पास पहँुचकर उपदेश सुनने की इच्छा व्यक्त करता है तब मुनि उपदेश देते हैं जिससे वह विरक्त होकर मुनि बन जाता है और अपनी गर्भवती पत्नी की भी परवाह नहीं करता है किन्तु ऐसे पात्र सब नहीं हैं अत: साधारणजन के लिए श्रावक धर्म का और जो श्रावक नहीं हैं उन्हें मद्य, माँस आदि के त्याग का ही उपदेश देना आगम सम्मत है।
श्री कुंदकुंदस्वामी भी मुनि को पूजा आदि का उपदेश देने के लिए कहते हैं-
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।
चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य।।२४८।।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह करना और उनका पोषण करना तथा जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश देना यह सरागी मुनियों की चर्या है। यहाँ जिनेन्द्रपूजा का उपदेश श्रावक धर्म से ही सम्बन्ध रखता है।
श्री गौतमस्वामी ने स्पष्ट कहा है कि श्रावक के लिए मद्य, माँस, मधु का त्याग व बारह व्रतों का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है।
वे कहते हैं कि-
‘‘श्रुतं मे आयुष्मन्त: इत्यादि’’ हे आयुष्मन् भव्यों! मैंने सुना है कि भगवान महावीर ने मद्य, माँसादि का त्याग और पाँच अणुव्रत आदि गृहस्थ धर्म का ‘‘उपदेसिदाणि’’ उपदेश दिया है।’’
इसमें अहिंसाणुव्रत में दया और अतिथिसंविभाग में दान का उपदेश है ही है तथा श्री कुंदकुंददेव की गाथा से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यवर्ग संघ में शिष्यों का संग्रह भी करते हैं, उनका ज्ञान आदि के द्वारा तथा व्याधि के होने पर वैयावृत्य आदि के द्वारा पोषण भी करते हैं।
श्रावक या अविरत सम्यग्दृष्टिजन, श्रावकों को रत्नत्रय का-मुनिधर्म का या शुद्धोपयोग का-उपदेश देने के अधिकारी नहीं है। वे तो अपने सदृश श्रावकों को श्रावक धर्म का ही उपदेश दे सकते हैं। पहली बात तो यह है कि कोई भी विद्वान पंडित यदि किसी को मुनिधर्म का उपदेश देता है तो वह हास्यास्पद ही प्रतीत होता है। दूसरी बात यह है कि आगम की भी उन्हें वैसी आज्ञा नहीं है-
यथा-‘दयाबुद्धीए साहूणं णाणदंसणचरित्तपरिच्चागो दाणं पासुअ—परिचागताणाम। ण चेदं कारणं घरत्थेसु संभवदि तत्थ चरित्ताभावादो। तिरयणुवदेसो वि ण घरत्थेसु अत्थि, तेसिं दिट्ठिवादादिउवरिमसुत्तोवदेसणे अहियाराभावादो। तदो एदे कारणं महेसिणं चेव होदि।
‘‘दया बुद्धि से साधुओं के द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के दान का नाम प्रासुक परित्यागता है। यह कारण गृहस्थों में संभव नहीं है, क्योंकि उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश देना भी गृहस्थों में संभव नहीं है, क्योंकि दृष्टिवाद आदि उपरिमश्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है।’’
इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि विद्वान् लोग यदि उपदेष्टा बनते हैं तो वे श्रावकाचार और प्रथमानुयोग का ही उपदेश देवें, मूलाचार तथा समयसार का नहीं, चूँकि मूलाचार में मुनियों के व्यवहार रत्नत्रय का और समयसार, नियमसार, प्रवचनसार में तो मुख्यता निश्चयरत्नत्रय का व गौणतया व्यवहार रत्नत्रय का ही वर्णन है।
गुरु के गुण, शिष्य के लक्षण, पापभीरुता आदि जो भी बातें अध्ययन में बतलाई हैं वे सभी बातें प्रवचन करने वाले विद्वान में भी आवश्यक हैं। सर्वोत्तम उपदेशक तो मुनि ही होते हैं। यदि कोई विद्वान् पंडित हैं तो उन्हें भी देशचारित्रधारी होना चाहिए। कम से कम पाँच अणुव्रत तो उन्हें भी अवश्य होना चाहिए। पुन: पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसार किसी न किसी शास्त्र के आधार से पूर्वापर से अविरुद्ध अर्थ करते हुए प्रवचन करना चाहिए। प्रवचन करते समय मध्य में प्रश्नोत्तर की परम्परा न रखकर अंत में प्रश्नों के लिये श्रोताओं को अवकाश देना चाहिए। उपदेश के मध्य में प्रश्नोत्तर होने से सभा में उपदेश का क्रम भंग हो जाने से सभा में अशांति हो जाती है। अनंतर भी प्रश्नों को सुनकर वक्ता को बहुत ही गंभीर मुद्रा में शांति से आगम के आधार से उत्तर देना चाहिये। उत्तर देते समय उत्तेजित नहीं होना चाहिए और न गलत शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
उपदेश में क्या-क्या विषय लेना चाहिए ? इसके लिए धवलाकार ने भी चार प्रकार की कथाओें के कहने का आदेश दिया है।
धवला में चार प्रकार की कथाओं का वर्णन आया है-
प्रश्न व्याकरण नाम का दशवां अंग आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन करता है।
१. आक्षेपणी-जो नाना प्रकार की एकांत दृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नव पदार्थों का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं।
२. विक्षेपणी-जिसमें परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं अनंतर परसमय की आधारभूत अनेक एकांत दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है। छह द्रव्य और नौ पदार्थों का निरूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कहते हैं।
३. संवेदनी-पुण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं।
शंका-पुण्य के फल कौन से हैं ?
समाधान-‘तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।’’
४. निर्वेदनी-पाप के फल का वर्णन करने वाली कथा को निर्वेदनी कथा कहते हैं।
शंका-पाप के फल कौन से हैं ?
समाधान-नरक, तिर्यंच और कुमानुष योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं अथवा संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य को उत्पन्न करने वाली कथा को निर्वेदनी कहते हैं।
इन कथाओं के कहते समय जो जिनवचन को नहीं जानता है ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए क्योंकि जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है वह परसमय की प्रतिपादन करने वाली कथाओं के सुनने से व्याकुलचित्त होकर मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, अत: उसके लिए इस कथा का निषेध है। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमय को अच्छी तरह समझ लिया है, जो पुण्य और पाप के स्वरूप को जानता है, जिस तरह मज्जा अर्थात् हड्डियों के मध्य में रहने वाला रस हड्डी से संसक्त होकर ही शरीर में रहता है उसी तरह जो जिनशासन में अनुरक्त है, जिनशासन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है और जो तप, शील और नियम से युक्त है ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तमरूप से ज्ञान कराने वाले के लिये यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिये योग्य पुरुष को प्राप्त करके ही साधु को कथा का उपदेश देना चाहिए।’
इससे यह तात्पर्य हुआ कि द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, सवार्थसिद्धि, गोम्मटसार आदि ग्रंथ आक्षेपणी कथा में आ जायेंगे। न्याय कुमुदचंद्र, अष्टसहस्री आदि ग्रंथ विक्षेपणी कथा के अंतर्गत हो सकते हैं क्योंकि इनमें पर संप्रदाय के पूर्वपक्ष रखे जाते हैं पुन: उनका खंडन किया जाता है।
तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रंथों में पुण्य और पाप का फल तथा तीर्थंकर के महाकल्याणक व गणधरों की ऋद्धियों आदि के वर्णन होने से ये ग्रंथ संवेदनी और निर्वेदनी कथा के अंतर्गत आ जाते हैंं।
उसी प्रकार से वसुनंदि श्रावकाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि में तथा भगवती आराधना, मूलाचार आदि में सम्यक्त्व, व्रत आदि के लक्षण व उनसे होने वाले देवगति, मोक्षगति आदि का वर्णन तथा उनके न पालने से या उनको ग्रहण कर भंग कर देने से नरक, निगोद आदि दुर्गति में जाने का भय दिखाया गया है। अत: ये आचार ग्रंथ भी इन दो कथाओं में गर्भित किये जा सकते हैं।
इस प्रकार इन चार कथाओं और प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगों के ग्रंथों का अध्ययन-अध्यापन व प्रवचन करना चाहिए। ये सभी केवलज्ञान प्रकट होने में साधन हैं और रत्नत्रय की प्राप्ति कराने वाले हैं।
१. प्रवचनकर्ता विद्वान् को सच्चे देव, शास्त्र और गुरु पर दृढ़ श्रद्धान होना चाहिये।
२. चारों अनुयोगों का स्वाध्याय करके उनका तलस्पर्शी ज्ञान होना चाहिये।
३. कम से कम पाँच अणुव्रतों का पालन, सप्त व्यसन, रात्रि भोजन और अभक्ष्यभक्षण का त्याग अवश्य होना चाहिए। पर्व के दिनों में शुद्ध भोजन करने वाला तथा कुलीन और शीलवान होना चाहिये।
४. नित्य ही देव पूजा, गुरुभक्ति आदि करने वाला होना चाहिए। कम से कम देवदर्शन का नियम तो अवश्य ही होना चाहिये।
५. स्वाध्यायप्रेमी, शांतचित्त और गम्भीर हो्नाा चाहिये।
६. पूर्वाचार्यों के ग्रंथों को साक्षात् भगवान की वाणी बताते हुये उन ग्रंथों के प्रति व उनके रचयिता आचार्यों के प्रति सभा में श्रद्धा का स्रोत प्रवाहित कर देना चाहिए।
७. चारित्र की दुर्लभता और उपादेयता का वर्णन करते हुए वर्तमान के चारित्रधारी त्यागी-व्रतियों के प्रति श्रद्धालु बनाते हुये श्रावकों को उनकी भक्ति करने की व शक्त्यनुसार देशचारित्र ग्रहण करने की प्रेरणा देनी चाहिए।
८. निश्चयनय और व्यवहारनय के विषय को सही समझाकर व्यवहार कहाँ तक उपादेय है और निश्चय कहाँ से प्रारंभ होता है? इस पर विशद प्रकाश डालना चाहिये।
९. ‘मैं एक भी शब्द यदि आगम के विरुद्ध बोल दूँगा, तो निगोद का भागी हो जाऊँगा, ऐसे भय से सहित होकर जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के भंग से सदैव डरते रहना चाहिये।
१०. किसी के दबाव से या ख्याति, लाभ, पूजादि की लालसा से कभी भी आगम विरुद्ध प्रतिपादन नहीं करना चाहिये और न आगम विरुद्ध कथन का समर्थन ही करना चाहिये।
११. उपदेश की सभा में प्रश्नोत्तर न रखकर उससे अतिरिक्त समय में प्रश्नों के लिये समय देना चाहिये क्योंकि सभा के मध्य प्रश्नोत्तर से उपदेश का क्रम भंग हो जाता है।
१२. यदि कदाचित् सभा में प्रश्न आ भी जावें तो शांति से उनका आगम के अनुकूल उत्तर देना चाहिये। वैâसे ही प्रश्न क्यों न हों, किन्तु उत्तेजित नहीं होना चाहिये। शांति से यदि समस्या न सुलझे तो मौनपूर्वक सभा विसर्जित कर देनी चाहिये। पुन: वार्तालाप करना चाहिये, किन्तु उपदेश की गद्दी से अतिचर्चा या विसंवाद नहीं करना चाहिए।
१३. उपदेश में ग्राम्य, अश्लील या हल्के शब्दोें का तथा ऐसे ही हीन उदाहरणों का प्रयोग नहीं करना चाहिये।
१४. उपदेश में उदाहरण प्राय: अपने प्रथमानुयोग से ही लेना चाहिये। इससे श्रोताओं को अपने सही इतिहास का ज्ञान भी हो जाता है और प्रामाणिकता भी रहती है। यदि कदाचित् अन्य कोई श्वेताम्बर कथायें या अन्य सम्प्रदाय की कथायें कहें भी तो उन्हें स्पष्ट कर देना चाहिये कि यह कथा श्वेताम्बर मत के आधार से है अथवा अन्य सम्प्रदाय की है।
१५. तेरहपंथ-बीसपंथ की चर्चा उपदेश में नहीं लाना चाहिये। यदि कोई समझना चाहता है तो उसे पृथक् से आगम के प्रमाण दिखा देना चाहिये। चूँकि इस पंथभेद का उल्लेख आगम में तो है नहीं, वर्तमान में मात्र यह पूजन पद्धति से ही संबंध रखता है। अत: इस विषय को सभा में मुख्य नहीं करना चाहिये।
१६. सभा में श्रीमन्तों आदि के बार-बार नाम नहीं लेना चाहिए, प्राय: इससे पक्षपात का वातावरण बन जाता है।
१७. वर्तमान के विवादास्पद विषयों में किसी का व्यक्तिगत नाम लेकर उसकी निंदा सभा में नहीं करनी चाहिये। किसी के प्रति आक्षेप, किसी की भर्त्सना या आलोचना सभा में नहीं करना चाहिये।
१८. उपदेश करते समय भौहें नहीं चलाना चाहिए, न उँगलियाँ चटकाना चाहिये। गंभीर मुद्रा में बैठकर या खड़े होकर न अति उच्च और न अति धीमे किन्तु मध्यम स्वर से मधुर शब्दों में उपदेश करना चाहिये। कदाचित् बड़ी सभा में उच्च स्वर से भी बोलना पड़े तो बोल सकते हैं किन्तु शब्दों में कर्कषता (कठोरता) नहीं होनी चाहिये।
१९. शुभभाव कब छूटते हैं ? किस नय से या किस गुणस्थान में वे हेय हैं ? श्रावकों का कर्त्तव्य क्या है ? इन विषयों पर स्पष्ट विवेचन करना चाहिये।
२०. सार्वजनिक सभाओं में मद्य, माँस, मधु त्याग, सप्त व्यसन त्याग, अिंहसा का पालन और पाँच अणुव्रत ग्रहण आदि का उपदेश प्रधान रखना चाहिये। सम्यक्त्व व मिथ्यात्व की चर्चा गौण रखनी चाहिए।
२१. उपदेश के विषय का चयन प्राय: श्रोताओं की योग्यता के अनुरूप होना चाहिये, उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं।