गुरुओं की परम्परा से श्रुतज्ञान को प्राप्त करके मैं दोनों नयों के आश्रय से जिनशासन की वृद्धि के लिये भव्यों को उपदेश देऊँगा। अध्ययन अर्थात् ग्रंथों को पढ़ना और उसका मनन करना तथा अध्यापन अर्थात् शिष्यों को पढ़ाना, अभ्यास कराना। किसी भी शास्त्र को गुरुमुख से ही पढ़ना चाहिए, तभी उसका समीचीन – संगत – निर्दोष अर्थ ग्रहण किया जा सकता है अन्यथा गलत अर्थ धारणा में बैठ जाने से प्राय: उसका दुराग्रह भी हो जाया करता है अत: कुछ मौलिक गंथ तो गुरुमुख से ही पढ़ने चाहिए। पुन: यदि किसी ग्रंथ का स्वाध्याय किया जाता है तो उसे एक बार पढ़कर दूसरी बार अवश्य पढ़ना चाहिये जिससे उसका आद्योपांत संदर्भ समझ में आ जाता है। हो सके तो तीन-चार या कई बार भी उस ग्रंथ का स्वाध्याय करना चाहिए। तब उसको किसी को पढ़ाना चाहिये और तभी उस ग्रंंथ का प्रवचन करना चाहिए। समयसार आदि ग्रंथों की गाथायें सूत्ररूप हैं। उनका संबंध आगे पीछे के सूत्रों से रहता है। जैसे कि ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ टीकाकार श्री पूज्यपाद स्वामी और अकलंकदेव आदि आचार्यों ने एक-एक सूत्र की टीका में कहीं पीछे के या कहीं आगे के सूत्रों के संबंध जोड़कर तथा पूर्वापर विरोध न हो जावे, इस बात को ध्यान में रखकर ही विशेष अर्थ स्फुट किया है। उदाहरण के लिये ‘न देवा:।।’ इस सूत्र का अर्थ कोई भी यही करेगा कि ‘देव नहीं हैं’ किन्तु ऐसा अर्थ पूर्वापर-विरुद्ध होने से इसमें पूर्व के ‘नारकसंमूच्र्छिनो नपुंसकानि’।। इस सूत्र से ‘नपुंसक’ शब्द का अध्याहार लेकर ‘देव नपुंसक नहीं होते’ ऐसा अर्थ किया जाता है। ऐसे ही सर्वत्र ग्रंथों में समझना चाहिये। इस अध्ययन-अध्यापन की शैली में हमें किन-किन बातों को समझना है? देखिये— गुरु कैसे होने चाहिए? शिष्य कैसा होना चाहिए? गुरु परम्परा से पढ़ने का क्या महत्त्व है? ग्रंथों को पढ़ते या पढ़ाते समय ‘पापभीरुता’ कैसी होनी चाहिए? ग्रंथ को पढ़ाते समय पहले उसके रहस्य को कैसे समझाना चाहिए? श्रावक को क्या करना चाहिए? पूर्वाचार्यों ने किस क्रम से उपदेश दिया है? मुनियों के आशीर्वाद देने में क्रम क्यों है? पहले मुनिधर्म का उपदेश देना, वह किसको? मद्य, मांसादि के त्याग और दया, दान आदि का उपदेश क्या भगवान ने दिया है? गृहस्थ रत्नत्रय का उपदेश दे सकते हैं क्या? कैसी कथाओं का उपदेश देना चाहिए? इन सब बातों को समझकर ही अध्ययन-अध्यापन अथवा प्रवचन करने से अर्थ का अनर्थ नहीं होता है। ग्रंथों को पढ़ाने वाले मुनि या विद्वान् श्रावक उपाध्याय, गुरु अथवा अध्यापक कहलाते हैं तथा उपदेश देने वाले भी उपाध्याय या गुरु होते हैं और विद्वान् पंडितगण वक्ता कहलाते हैं। गुरु में क्या गुण होना आवश्यक है? शिष्य या श्रोतागण कैसे होने चाहिए? गुरुपरम्परा से अध्ययन करने या उपदेश सुनने का क्या महत्त्व है? पहले इन सभी बातों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए पुन: गुरु या वक्ता बनना चाहिए। गुरु कैसे हों?
ये ग्राहयंत्युभयनीतिबलेन सूत्रं,रत्नत्रयप्रणयिनो गणिन: स्तुमस्तान्।।४।।
जो गुरु परम्परा से गंथ, अर्थ और उभयरूप से सूत्र को यथावत् सुनकर और उसे अवधारण करके स्वयं संसार से भयभीत होकर शिष्यों को उभय नीति-निश्चय-व्यवहारनय की पद्धति के बल से सूत्रों को पढ़ाते हैं उन रत्नत्रय के धारक आचार्यों की हम स्तुति करते हैं। श्री अमृतचंद्र सूरि भी कहते हैं—
जिन्होंने मुख्य—निश्चयनय और उपचार—व्यवहारनय अथवा मुख्य और गौण प्रतिपादन शैली से शिष्यों के दुस्तर अज्ञान को नष्ट कर दिया है ऐसे व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता महामुनि ही जगत में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं अर्थात् मोक्षमार्ग को चलाते हैं२। गुणभद्रसूरि ने और भी अनेकोें लक्षण किये हैं कि ‘जो बुद्धिमान् हो, समस्त शास्त्रों के रहस्य को जानने वाला हो, प्रश्नों को सहने में समर्थ हो, हर एक प्रश्नों के उत्तर में कुशल हो, इत्यादि गुणों से युक्त आचार्य ही वक्ता होते हैं।’ श्री गुणभद्रसूरि पुन: कहते हैं कि—
लोकद्वयहितं वक्तुं, श्रोतुं च सुलभा: पुरा। दुर्लभा: कर्तुमद्यत्वे, वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभा:।।१४३।।
पूर्वकाल में उभय लोक में हितकर ऐसे व्याख्यान को करने के लिये तथा सुनने के लिए भी बहुत से जन सुलभ थे किन्तु तदनुकूल आचरण करने के लिए दुर्लभ ही थे परन्तु वर्तमान में ऐसे व्याख्यान को कहने के लिए व सुनने के लिए भी लोग दुर्लभ हैं पुन: वैसा आचरण करना तो बहुत ही दूर की बात हो गई है। उभय लोक के लिए हितकर किन्तु कठोर भी गुरु के वचन कैसे होते हैं—
कठोर भी गुरु के वचन भव्यों के मन को इस प्रकार से प्रपुल्लित करते हैं कि जिस प्रकार से सूर्य की कठोर किरणें भी कमल को खिला देती हैं। शिष्य कैसे हों? शिष्य भी दुराग्रह से रहित हों तथा श्रवण, धारण आदि बुद्धि के विभव से युक्त हों, इत्यादि गुणों से युक्त शिष्य ही ‘शास्त्र’—उपदेश के लिए पात्र हैं।६ ‘जिनेन्द्र देव के वचनों को सुनने का पात्र कौन है?’ उसका लक्षण श्री अमृतचंद्र सूरि बताते हैं—
जीवनपर्यंत के लिए मद्य आदि आठ महापापों को छोड़कर जो शुद्ध बुद्धि हो गया है और जिसका उपनयन संस्कार हुआ है, ऐसा श्रावक जिनधर्म को सुनने के लिए योग्य होता है। गुरु परम्परा का महत्त्व-इस प्रकार आगम कथित गुणों से युक्त शिष्य या श्रोता गुरु परम्परा से ही तत्त्वों को समझने का उपाय करें, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हुए बिना नहीं रहता है। इस विषय में ज्ञानार्णव में कहा है कि—
जिसने गुरु कुल की—गुरु समूह की उपासना नहीं की है उसका विज्ञान प्रशंसा करने योग्य नहीं है, किन्तु निंदा सहित ही होता है। देखो! मयूर नृत्य करते समय अपने पृष्ठ भाग (मलद्वार) को उघाड़ कर नृत्य करता है अर्थात् मयूर ने नृत्यकला किसी गुरु से नहीं सीखी है इसलिये वह नृत्य करते समय उपर्युक्त रीति से नृत्य करता है। वैसे ही जो गुरुओं से अध्ययन नहीं करते हैं उनका अध्ययन विपरीत बुद्धि को भी उत्पन्न कर देता है। आप आचार्यों की परम्परा देखो तो स्पष्ट हो जाता है कि सभी आचार्य गुरुमुख से ही गं्रथों का अध्ययन करते थे। धरसेनाचार्य तक गुरु परिपाटी से ही ज्ञान आया और जैसा कि पुष्पदंत, भूतबली आचार्यों ने भी आचार्य धरसेन से ज्ञान पाया तथा कुन्दकुन्ददेव ने भी इन ग्रंथों का ज्ञान परम्परा से प्राप्त किया। यथा—
एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगत: समागच्छन्। गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धांत: कुण्डकुंदपुरे।।१६०।।
कर्मप्राभृत (षट्खंडागम) और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुर-परिपाटी से कुन्दकुन्दपुर के ‘पद्मनंदि’११ मुनि को प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खंडागम के प्रथम तीन खंडों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम की टीका रची। जब महान अध्यात्म शिरोमणि श्री कुन्दकुन्ददेव ने गुरु परम्परा से ज्ञान प्राप्त किया, तब गं्रथ रचना की पुन: आज यदि उनके ग्रंथों का स्वाध्याय करने वाले लोग गुरुओं के परम्परागत अर्थ की उपेक्षा करके मनमाना अर्थ करेंगे तो अनर्थ होना स्वाभाविक ही है। गुरुओं की परम्परा से ज्ञान प्राप्त करने का महत्त्व गुर्वावली में बहुत ही अच्छी तरह से बताया गया है। उन गुर्वावली, पट्टावली आदि का भी मनन करना चाहिए।
पूर्वाचार्यों की पापभीरुता
ग्रंथों को पढ़ाते समय विद्वान् के मुख से अथवा उपदेश करते समय वक्ता के मुख से पूर्वाचार्यों के प्रति श्रद्धा का निर्झर प्रवाहित हो जाना चाहिए। जैसे कि आचार्य विद्यानंद, आचार्य वीरसेन और आचार्य वसुनंदि आदि के शब्दों में दिखता है। यथा— ‘‘अब पुष्पदंत भट्टारक अंतिम गुणस्थान के प्रतिपादन हेतु, अर्थरूप से अर्हंत परमेष्ठी के मुख से निकले हुये, गणधर देव के द्वारा गूंथे गये शब्द रचना वाले, प्रवाहरूप से कभी भी नाश को नहीं प्राप्त होने वाले और सम्पूर्ण दोषों से रहित होने से निर्दोष आगे के सूत्र कहते हैं—’’ यहाँ श्री वीरसेनस्वामी को श्री पुष्पदंत आचार्य के प्रति कितनी श्रद्धा है और उनके वचनों को वे साक्षात् भगवान की वाणीरूप ही मान रहे हैं, यह स्पष्ट दिख रहा है। आगे और देखिये हमारे यहाँ आर्षपरंपरा का विच्छेद भी नहीं है, क्योंकि जिसको दोष-आवरण रहित अरहंत देव ने अर्थरूप से व्याख्यान किया है जिसको चारज्ञानधारी, निर्दोष गणधर देव ने धारण किया है, जो ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्न गुरु परम्परा से चला आ रहा है, जिसका पहले का वाच्य-वाचक भाव अभी तक नष्ट नहीं हुआ है और जो दोषावरण से तथा निष्प्रतिपक्ष सत्यस्वभाव वाले पुरुष के द्वारा व्याख्यान होने से श्रद्धा के योग्य है ऐसे आगम की आज भी उपलब्धि हो रही है।’’
शंका—आधुनिक आगम अप्रमाण है क्योंकि अर्वाचीन पुरुषों ने इसका अर्थ किया है।==
समाधान—ऐसा कहना ठीक नहीं क्योंकि ज्ञान-विज्ञान से सहित होने से प्रमाणता को प्राप्त इस युग के आचार्यों द्वारा इसके अर्थ का व्याख्यान किया गया है इसलिये आधुनिक आगम भी प्रमाण है।
शंका—छद्मस्थ सत्यवादी कैसे हो सकते हैं?
समाधान—ऐसा नहीं है, क्योंकि श्रुत के अनुसार व्याख्याता आचार्यों को प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं है।
शंका—आगम का यह अर्थ प्रामाणिक गुरु परंपरा के क्रम से आया है, यह कैसे निश्चय किया जाये?
समाधान—‘‘नहीं, क्योंकि…ज्ञान-विज्ञान से युक्त इस युग के अनेक आचार्यों के उपदेश से उसकी प्रमाणता जाननी चाहिए।…’’ और भी देखिये— कषाय प्राभृतकार पहले आठ कषाय का क्षय, पीछे सोलह प्रकृति का क्षय मानते हैं किन्तु सत्कर्मप्राभृतकार (षट्खंडागमकार) पहले सोलह का नाश मानकर आठ कषाय का नाश मानते हैं। इस पर चर्चा चली कि दोनों में से कोई एक ही वाक्य सूत्ररूप प्रमाणीक होना चाहिए। इस पर आचार्य वीरसेन दोनोें आगम को सूत्र कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि— ‘‘जिनका अर्थरूप से तीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है और गणधरदेव ने जिनकी ग्रंथ रचना की, ऐसे द्वादशांग आचार्य परम्परा से निरन्तर चले आ रहे हैं परन्तु काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर बुद्धि के क्षीण होने पर और उन अंगों के धारण करने वाले योग्यपात्र के अभाव में वे उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए आ रहे हैं। इसलिये जिन आचार्यों ने आगे श्रेष्ठबुद्धि वाले पुरुषों का अभाव देखा, जो अत्यन्त पापभीरु थे और जिन्होंने गुरु परम्परा से श्रुतार्थ ग्रहण किया था, उन आचार्यों ने तीर्थ विच्छेद के भय से उस समय अवशिष्ट रहे हुए अंगसंबंधी अर्थ को पोथियों में लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रपना नहीं आ सकता।
शंका—यदि ऐसा है तो इन दोनों ही वचनों को द्वादशांग का अवयव होने से सूत्रपना प्राप्त हो जायेगा?
समाधान—दोनों में कोई एक ही सूत्र हो सकता है, दोनोें नहीं, क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है।
शंका—पुन: उत्सूत्र लिखने वाले आचार्य पापभीरु कैसे हो सकते हैं?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों प्रकार के वचनों में से किसी एक ही के वचन संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है किन्तु दोनों प्रकार के वचनों का संग्रह करने वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती है, अर्थात् बनी रहती है। पुन: प्रश्न होता है कि—
शंका—दोनों प्रकार के वचनों में से किसी वचन को सत्य माना जाये?
समाधान—इस बात को केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता क्योंकि, इस समय उसका निर्णय नहीं हो सकता है, इसलिये पापभीरु वर्तमान के आचार्यों को दोनों का ही संग्रह करना चाहिये, अन्यथा पापभीरुता का विनाश हो जायेगा।’’ ऐसे ही अन्यत्र भी दो मत आ जाने पर प्रश्नोत्तरमाला चलती है। पुन: शिष्य कहता है कि—
शंका—दोनों वचनों का संग्रह करने वाला संशय मिथ्यादृष्टि हो जायेगा?
समाधान—नहीं, क्योंकि संग्रह करने वाले के ‘यह सूत्र कथित ही है’ इस प्रकार का श्रद्धान पाया जाता है, अतएव उसके संदेह नहीं हो सकता है।’’ आगे शिष्य प्रश्न करता है कि—
प्रश्न—आर्ष को प्रमाण कैसे माना जाये?
उत्तर—जैसे प्रत्यक्ष स्वभावत: प्रमाण है वैसे ही आर्ष भी स्वभावत: प्रमाण है।’’ आचार्य वीरसेन स्वामी तो स्पष्ट कहते हैं कि— ‘‘आगम केवलज्ञान पूर्वक उत्पन्न हुआ है, अत: आगम में अनुमान का प्रयोग नहीं हो सकता।’’ जहाँ कहीं भी दो मत के आने पर शंका उठी है वहीं पर धवलाकार ने ऐसा समाधान दिया है। यथा— ‘‘यह सूत्र है, यह सूत्र नहीं है’ ऐसा आगमनिपुणजन कह सकते हैं, किन्तु हम यहाँ कहने के लिये समर्थ नहीं हैं, क्योंकि हमें वैसा उपदेश प्राप्त नहीं है।’’ इससे अधिक और पापभीरुता क्या होगी, कहिये? जब कि वीरसेन स्वामी धवला-जयधवला टीकाकर्ता भी अपने को ‘आगमनिपुण’ नहीं मानते हैं। आगे और देखिये—
शंका—बादर निगोद जीवों के प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों को यहाँ सूत्र से वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं दी?
समाधान—‘गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो।’ यहाँ गौतमस्वामी से पूछना चाहिए।’’ कषायप्राभृत में भी कहा है कि— ‘‘प्रमाण के लिए प्रमाण नहीं चाहिए और आगम स्वयं प्रमाण है। मूलाचार में देवियों की आयु के बारे में दो गाथायें आई हैं। उन दोनों में अंतर है। यथा— ‘सौधर्म स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य, ईशान में ७, सनत्कुमार में ९, माहेन्द्र में ११, ब्रह्म में १३, ब्रह्मोत्तर में १५, लांतव में १७, कापिष्ठ में १९, शुक्र में २१, महाशुक्र में २३, शतार में २५, सहस्रार में २७, आनत में ३४, प्राणत में ४१, आरण में ४८ और अच्युत में ५५ पल्य है। दूसरी गाथा में कहते हैं— सौधर्म-ईशान में ५ पल्य, सानतकुमार युगल में १७, ब्रह्मयुगल में २५, लांतवयुगल में ४५, शुक्रयुगल में ४०, शतारयुगल में ४५, आनतयुगल में ५० और आरणअच्युत में ५५ पल्य है। इसकी टीका में श्री वसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य कहते हैं—‘‘…द्वौ अपि उपदेशौ ग्राह्यौ सूत्रद्वयोपदेशात्, द्वयोर्मध्ये एकेन सत्येन भवितव्यं, मात्र संदेहमिथ्यात्वं, यदर्हत्प्रणीतं तत्सत्यमिति संदेहाभावात्। छद्मस्थैस्तु विवेक: कर्तुं न शक्यतेऽतो मिथ्यात्वभयादेव द्वयोग्र्रहणमिति।’’
दोनों भी उपदेश ग्रहण करना चाहिये क्योंकि दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं। यद्यपि यह निश्चित है कि दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिए। इस विषय में संशयमिथ्यात्व भी नहीं है क्योंकि ‘जो अर्हंतदेव द्वारा प्रणीत है वही सत्य है’ इस प्रकार से संशय का अभाव है क्योंकि छद्मस्थों को यह विवेक करना शक्य नहीं है, इसलिये मिथ्यात्व के भय से ही दोनों को ग्रहण करना चाहिये। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में श्री विद्यानंद महोदय तत्त्वार्थसूत्र को आप्तमूलक सिद्ध कर रहे हैं—
संप्रदाय—परम्परा के व्यवच्छेद का अविरोध होने से यह सूत्र आगमप्रमाण है क्योंकि यह आप्तमूलक सिद्ध है। जैसे आजकल मनुष्यों के सद्गोत्र (काश्यप आदि) आदि का उपदेश प्रवाहरूप से पाया जाता है उसी प्रकार से विचार करने से यह सूत्ररूप आगम पूर्णतया प्रमाणभूत ही है। कषायप्राभृत ग्रंथ के प्रति श्रद्धा देखिये— स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत गं्रथ के गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में देखिये। एक स्थल पर शिष्य के द्वारा यह शंका किये जाने पर कि यह कैसे जाना? इसके उत्तर में श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं—‘‘एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहज्ज-जंवुसामियादि आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखुणागहत्थीहितो जयिवसहमुहणयिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिव्वज्झुणिकिरणादो णव्वदे। (जयध.आ.पत्र ३१३)‘‘विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रगट होकर गौतम, लोहाचार्य और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परंपरा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथास्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ती के द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुखकमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं।’’इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कषायप्राभृत ग्रंथ साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि तुल्य है, ऐसा टीकाकार का कथन है। दूसरी बात यह है कि आचार्य परम्परा की महत्ता पर पूर्ण प्रकाश दिख रहा है। ‘गुणधराचार्य’ ने आचार्य परम्परा से ज्ञान पाया और गाथारूप में परिणत किया पुन: आचार्य परम्परा से ही आर्यमंक्षु नागहस्ती मुनि को उसका ज्ञान मिला। अनंतर उनके चरण सानिध्य में ज्ञान प्राप्तकर यतिवृषभ ने चूर्णिसूत्रों की रचना की है। जयधवलाकार ने तो इन ‘कसायपाहुड़’ की गाथाओं को ‘‘अणंतत्थ गब्भाओ’’ अनंत अर्थ गर्भित कहा है। इन प्रकरणों को देखकर ग्रंथों का अर्थ प्रतिपादित करते समय अथवा प्रवचन करते समय इसी प्रकार से पूर्वाचार्यों के प्रति आस्था व्यक्त करते हुये अपने और सुनने वालोें के सम्यक्त्व को दृढ़ करना चाहिये। शास्त्र अध्यापन एवं विवेचन का क्रम-पहले तो विद्वान् या वक्ता को चारों अनुयोगों का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा वह किसी न किसी एकांत को पकड़ लेंगे पुन: नयविवक्षा और परस्पर के समन्वय की शैली का होना आवश्यक है। अनंतर जिस ग्रंथ का प्रतिपादन करना है उसको आद्योपांत पूरा पढ़ लेना, मनन कर लेना आवश्यक है। इसके बाद यदि वे श्रोताओं को समझायेंगे तो अर्थ का अनर्थ नहीं होगा। जैसे—नियमसार को लीजिये, यह आध्यात्मिक ग्रंथ है। इसको समझने-समझाने के लिए पहले नयचक्र अथवा आलाप पद्धति के आधार से द्रव्र्यािथक-पर्यायार्थिक तथा व्यवहार और निश्चय नयोें के लक्षण समझकर अच्छी तरह श्रोताओं को समझा देना चाहिए। अनंतर पहले उस गं्रथ के रहस्य को समझा देना चाहिए। जैसे— नियमसार के अध्यापन का क्रम-‘‘इस गं्रथ का प्रतिपाद्य विषय क्या है?’’
‘‘मार्ग और मार्ग का फल।’’ ‘‘मार्ग क्या है? और मार्ग का फल क्या है?’’ ‘‘मोक्ष का उपाय और निर्वाण।’’
नियम से जो करने योग्य है वह नियम, वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। उसमें विपरीत—मिथ्यात्व का परिहार करने के लिए ‘सार’ शब्द लगाया है।’’ ‘‘विपरीत का अर्थ आपने मिथ्यात्व कैसे किया? क्योंकि इसमें तो निर्विकल्परूप निश्चयरत्नत्रय का वर्णन है। अत: विपरीत का अर्थ विकल्प अर्थात् भेदरत्नत्रय करना चाहिये?’’ ‘‘यहीं पर अर्थ का अनर्थ हो रहा है। यदि विपरीत से भगवान कुन्दकुन्ददेव का भेदरत्नत्रय का परिहार करना इष्ट होता तो वे स्वयं चार अधिकार तक इस व्यवहार रत्नत्रय का प्रतिपादन क्यों करते? देखिये! चतुर्थ गाथा में वे ही कहते हैं कि ‘‘एदेसि तिण्हं पिय पत्तेयपरूवणा होइ।’’ इन तीनों की भी प्रत्येक की प्ररूपणा करते हैं। पुन: सम्यक्त्व का लक्षण करते हुए कहते हैं— ‘‘आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है पुन: आप्त, आगम और तत्त्वों का लक्षण स्वयं बताये हैं। पहले अधिकार में गाथा १९ तक जीव तत्त्व का वर्णन, द्वितीय अध्याय में गाथा ३७ तक पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनका वर्णन करते हैं। यहाँ तक व्यवहार सम्यक्त्व के लिए श्रद्धान के विषयभूत ६ द्रव्यों का वर्णन हो चुका है। आगे शुद्ध जीव तत्त्व का वर्णन करके नय विवक्षा खोलते हैं। यथा—
जैसे सिद्धात्मा हैं वैसे भव में रहने वाले संसारी जीव हैं और इसी कारण से वे जरा, मरण, जन्म से रहित हैं और आठ गुणों से अलंकृत हैं। जिस प्रकार से अशरीरी, अविनाशी, अतींद्रिय, निर्मल, विशुद्धात्मा सिद्धलोक के अग्रभाग पर स्थित हैं वैसे ही जीव संसार में हैं, ऐसा जानना। पुन: तत्क्षण ही नय विवक्षा को स्पष्ट कर देते हैं- पूर्वोक्त सभी भाव (स्थिति, अनुभाग, बंध, स्थान आदि) व्यवहारनय का आश्रय करके कहे गये हैं किन्तु शुद्धनय से संसार में सभी जीव सिद्ध स्वभाव वाले हैं। यहाँ पर आचार्यदेव का अभिप्राय व्यवहारनय से असत्य का नहीं है। अन्यथा वे व्यवहारनय-निश्चय, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के द्वारा आत्मा को शुद्ध सिद्ध बनाने का उपाय क्यों प्रदर्शित करते। वे कह सकते थे कि ‘वास्तव में मार्ग का फल निर्वाण है और मार्ग जो मोक्ष का उपाय है, वह असत्य है।’ क्योंकि मोक्ष का उपाय तो व्यवहारनय के आश्रित ही है किन्तु ऐसा न कहकर व्यवहार का उपदेश दिया है। आगे पुन: चतुर्थ अधिकार में पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का कथन किया है। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने महाव्रत और समिति में निश्चयनय को न घटाकर गुप्ति में अवश्य घटाया है पुन: पंचपरमेष्ठी का लक्षण बताकर अंतिम गाथा में कहते हैं—
इस पूर्वोक्त भावना में (गाथा ७५ तक की भावना में) व्यवहारनय के अभिप्राय से चारित्र होता है; अब इसके आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा। इसके आगे पाँचवें अधिकार से लेकर ग्यारहवें अधिकार तक निश्चय प्रतिक्रमण, निश्चय प्रत्याख्यान, निश्चय आलोचना, शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति और निश्चय परम आवश्यक इन सातों का वर्णन किया है जो ध्यान के आश्रित ही हैं। आगे ग्यारहवें अधिकार के अंत में कहते हैं—
सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं य काऊण। अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्जय केवली जादा।।१५८।।
सभी पुराण पुरुष इसी प्रकार से आवश्यक क्रियाओं को करके अप्रमत्त आदि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों को प्राप्त करके केवली हो गये हैंं। इसके आगे अंतिम बारहवें अधिकार में केवली भगवान का वर्णन करके अंत में निर्वाण को प्राप्त सिद्धों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार से आचार्य महोदय ने अपने कहे अनुसार ग्यारह अधिकार में मार्ग और बारहवें अधिकार में मार्ग के फल को कहा है। उस मार्ग के व्यवहार-निश्चय दो भेद करके चार अधिकार तक व्यवहार रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग को कहकर पुन: आगे ग्यारहवें तक निश्चय मोक्षमार्ग को कहा है। इस तरह से स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहाररत्नत्रय, निश्चयरत्नत्रय के लिए साधन है। निश्चयरत्नत्रय साध्य भी है और मोक्ष के लिए साधन भी है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ मुनियों के चारित्र का ही वर्णन करता है। इसमें श्रावकों के चारित्र का कोई लेश नहीं है। इन्हीं कुन्दकुन्द आचार्य ने चारित्रपाहुड़ में तथा रयणसार में पृथक् से श्रावकों के सम्यक्त्व और चारित्र का वर्णन किया है। इस तरह से ग्रंथ के रहस्य को समझा देने के बाद ग्रंथ के किसी प्रकरण से अनर्थ की सम्भावना नहीं रहती है। समयसार के अध्यापन की शैली-ऐसे ही समयसार में भी समझना चाहिए। देखिये—निर्जरा अधिकार में सबसे प्रथम गाथा में कहा है कि ‘सम्यग्दृष्टि के भोग निर्जरा के निमित्त हैं।’ उसकी टीका मेें श्री जयसेनाचार्य कहते हैं कि— शिष्य ने प्रश्न किया कि ‘राग, द्वेष और मोह का अभाव हो जाने पर निर्जरा के निमित्त है, ऐसा आपने कहा किन्तु सम्यग्दृष्टि के तो रागादि हैं पुन: किसी वस्तु का उपयोग उनके निर्जरा का कारण कैसे होगा? आचार्य कहते हैं कि—
इस ग्रंथ में वास्तव में वीतराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण है, चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि का ग्रहण तो गौणरूप से है तथा मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि के भी अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और मिथ्यात्व जनित रागादि नहीं है अत: उतने अंश में उसके भी निर्जरा है। आगे भी कहा है—
सरागसम्यग्दृष्टीनां गौणवृत्येति व्याख्यानं सम्यग्दृष्टिव्याख्यानकाले सर्वत्र तात्पर्येण ज्ञातव्यं।’’
इस ग्रंथ में पंचमगुणस्थान के ऊपर के गुणस्थान वाले वीतराग सम्यग्दृष्टियों का ही मुख्य रूप से ग्रहण है। सरागसम्यग्दृष्टियोें का तो गौण रूप से ग्रहण है, सम्यग्दृष्टि के व्याख्यान के समय सर्वत्र ऐसा ही तात्पर्य समझना चाहिए। श्री अमृतचंद्र सूरि द्वारा भी इसी अर्थ की पुष्टि हो रही है। देखिये— श्री कुन्दकुन्ददेव ने गाथा १७० में कहा है कि ‘‘अबंधो त्ति णाणी दु।’’ ज्ञानी तो अबंधक ही है। पुन: आगे १७१ वीं गाथा में कहते हैं कि— ‘जिस कारण ज्ञानगुण पुनरपि जघन्य ज्ञानगुण से अन्यरूप परिणमन करता है इसी कारण वह ज्ञानगुण बंध करने वाला कहा गया है।’’ इसकी टीका करते हुए श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं कि—
वह (ज्ञानगुण) यथाख्यात चारित्र के नीचे अवश्यंभावी राग परिणाम का सद्भाव होने से बंध का कारण ही है। श्री अमृतचंद्र सूरि की इस एक पंक्ति से ही सारे समयसार का अभिप्राय समझा जा सकता है कि ग्यारहवें गुणस्थान के पहले-पहले राग का सद्भाव रहने से अवश्यमेव बंध होता ही होता है अत: चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवर्ती गृहस्थ यदि अपने को वीतरागी और अबंधक मान रहे हैं सो कोरी असत् कल्पना ही है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि समयसार में वीतराग सम्यग्दृष्टि को लक्ष्य करके ही सब कथन है अत: इस ग्रंथ का विषय भी साधुवर्गों के लिए ही है न कि श्रावकों के लिये। यह इस समयसार का रहस्य हुआ। श्रावकों के बारह व्रतरूप देशचारित्र में श्री कुन्दकुन्द देव ने निश्चयनय के आश्रय का प्रतिपादन नहीं किया है। किसी भी ग्रंथ में श्रावकों के व्रतों में निश्चयनय के आश्रय का विधान देखने में नहीं आया है। शंका—बालकों की किन्हीं धार्मिक पाठ्य पुस्तकों में सात व्यसनों में भी निश्चयनय को घटित करने की प्रक्रिया देखी जाती है? समाधान—कहीं, किसी भी आचार्यप्रणीत गं्रथ में सप्त व्यसन, बारह व्रत तथा ग्यारह प्रतिमाओं में निश्चयनय का कथन देखने को नहीं मिला है क्योंकि जब मुनियों के चारित्र को भी व्यवहार कहा है तब श्रावकों का चारित्र तो व्यवहार चारित्र है ही है। यथा—
अशुभ से निवृत्ति होना और शुभ में प्रवृत्ति करना यह चारित्र है। यह व्रत, समिति और गुप्तिरूप है, ऐसा व्यवहार नय से जिनेन्द्रदेव ने कहा है। इसके बाद कहते हैं—
ज्ञानी मुनि के भव के कारणों को नष्ट करने के लिये जो बाह्य और आभ्यंतर क्रियाओं का निरोध होता है, वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित परम (निश्चय) सम्यक् चारित्र है।’’ यही बात पुण्य को हेय बताने के विषय में भी है। श्रावक के लिए तो पुण्य उपादेय है। मुनियों के लिए कथंचित् शुद्धोपयोग में हेय है कथंचित् छठे गुणस्थान की सराग चर्र्या तक उपादेय है। श्रावक यदि पुण्य को हेय समझ लेगा तो पाप के सिवाय करेगा क्या? क्योंकि उसे शुद्धोपयोग तो हो नहीं सकता। श्री कुन्दकुन्ददेव द्वादश अनुप्रेक्षा में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि—
पुत्तकलत्तणिमित्तं अत्थं अज्जयदि पावबुद्धीए। परिहरदि दयादाणं सो जीवो भमदि संसारे।।३१।।
जो जीव पाप बुद्धि द्वारा पुत्र, स्त्री के लिए धन कमाता है तथा दया और दान को नहीं करता है, वह संसार में ही परिभ्रमण करता रहता है। श्रावक का कर्तव्य क्या है?-श्रावक यदि समयसार, नियमसार, मूलाचार, गोम्मटसार, लब्धिसार, धवला आदि ग्रंथों को पढ़ता है तो उसे उनमें से मूलाचार से तो ‘मुनियों की चर्या कैसी होती है?’ उसको समझना चाहिए। ‘समयसार से’ शुद्धात्मा की प्राप्ति कैसे होगी?’ सो समझना चाहिए। पुन: उसे करना क्या चाहिए? श्रावक को कुन्दकुन्ददेव के चारित्रपाहुड, रयणसार, श्री समंतभद्रस्वामी के रत्नकरण्डश्रावकाचार के अनुकूल अपना आचरण बनाना चाहिये। प्रथमानुयोग के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र आदि के अनुरूप अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहिए। स्वामी समंतभद्राचार्य ने अपने श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन का लक्षण बताया है पुन: उसके आठों अंगों का विवेचन किया है। अनंतर सम्यग्ज्ञान के अनुयोगों पर प्रकाश डालकर आगे कहा है कि—
दर्शनमोहरूपी अंधकार के दूर हो जाने पर सम्यग्दर्शन का लाभ होने से ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। तब साधु राग-द्वेष को दूर करने के लिये चारित्र को स्वीकार करता है। उसमें—
चारित्र के सकल और विकल ऐसे दो भेद हैं। उसमें सकलचारित्र सर्वपरिग्रहत्यागी अनगारों को होता है और विकल चारित्र परिग्रहसहित गृहस्थों को होता है। जब रत्नत्रय धर्म है और उसके अंतर्गत ही श्रावकों के सामायिक में ‘पूजा, भक्ति’ और अतिथिसंविभाग में ‘दान’, अहिंसाणुव्रत आदि में ‘दया’ इत्यादि पाये जाते हैं तो पुन: ‘भक्ति, दान, दया’ आदि को धर्म नहीं मानना यह कहाँ की बुद्धिमानी है? अतएव श्रावकों के लिए मुख्यरूप से श्रावकाचार और आदर्श पुरुषों व महिलाओं की जीवन गाथायें सुनाना चाहिए क्योंकि ग्यारह अंगों में सातवां अंग उपासकाध्ययन नाम का है और मुनियों के लिए पहला अंग आचारांग नाम का है। प्रवचन की शैली-मुनि-आर्यिका, श्रावक अथवा श्राविका जो आगम के आधार से उपदेश करते हैं उसे ‘प्रवचन’ भी कहते हैं। प्रवचन करने वालों को चारों अनुयोगों का सर्वांगीण अध्ययन होना आवश्यक है पुन: कैसे पात्रों को कैसा उपदेश देना यह भी समझ लेना चाहिए। पूर्व के आचार्यों ने किस क्रम से उपदेश दिया है?-पूर्वविदेह में मधु नाम के वन में भील को श्री सागरसेन मुनिराज ने उपदेश दिया और मद्य, माँस, मधु इन तीनों का त्याग करा दिया। जिसको पालन करके वह भील मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया। सिंह को चारण मुनियों ने सम्यक्त्व का उपदेश देकर पाँच अणुव्रत ग्रहण कराये। खदिरसार भील को मुनि ने नमस्कार करने पर आशीर्वाद दिया ‘धर्म लाभ हो’ भील ने पूछा—धर्म क्या है? मुनिराज ने कहा—‘‘मद्य, मांसादि का सेवन करना पाप है और इनको छोड़ देना धर्म है।’’ उस धर्म की प्राप्ति ही धर्म लाभ है। उस धर्म से पुण्य होता है और पुण्य से स्वर्ग में अनुपम सुख मिलता है। तब भील ने कहा-ऐसे धर्म का अधिकारी मैंं नहीं हो सकता। मुनिराज ने उसका अभिप्राय समझ लिया और पूछा—‘हे भव्य! क्या तूने कभी कौवे का मांस खाया है?’ भील ने सोचकर कहा—‘नहीं।’ मुनि ने कहा—‘तो उसे ही तू छोड़ दे।’ तब उसने इस व्रत को ले लिया। कुछ दिन बाद असाध्य रोग हो जाने से वैद्य ने कौवे का मांस खाने को कहा। बहुतों के द्वारा अनेकों प्रयत्नों के किये जाने पर भी उसने नहीं खाया। अनंतर पाँचों व्रतों को ग्रहण कर मरण करके सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से आकर वह राजा श्रेणिक हो गया। यहाँ पर माँस, मधु आदि के त्याग को धर्म कहा है। वह भील उतने मात्र के ही योग्य था, अभी उसमें सम्यक्त्व के ग्रहण करने की क्षमता नहीं थी। आगे चलकर ये ही श्रेणिक क्षायिक सम्यक्त्वी हो गये और आगे महापद्म तीर्थंकर होने वाले हैं। उतने से धर्म ने उसकी आत्मा को उन्नति के पथ पर लगा दिया। ‘मार्ग से थका धनदत्त सूर्यास्त हो जाने पर मुनियों के आश्रम में पहुँचा, वह प्यासा था। जल मांगा, तब एक मुनि ने समझाया कि रात्रि में अमृत पीना भी उचित नहीं, फिर पानी की तो बात ही क्या? मुनि के उपदेश से उसने रात्रिभोजन का त्याग कर दिया। आयु पूर्ण होने पर मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर पद्मरुचि नामक श्रावक हो गया। कालान्तर में ये ही रामचंद्र हुये हैं। ऐसे ही अगणित उदाहरण प्रथमानुयोग में भरे पड़े हैं। इन प्रकरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मुनिगण श्रोताओं की योग्यतानुसार ही उपदेश देते थे तथा गुरु का उपदेश व उनके पास से ग्रहण किया गया छोटा-सा भी व्रत परम्परा से मुक्ति का कारण हो जाता था। आशीर्वाद में क्रम-इसी प्रकार से मुनियों को नमस्कार करने पर वे मुनि क्रम से ही उनकी योग्यता के अनुसार आशीर्वाद देते हैं। जैसे—मुनियों को उनसे लघु मुनि नमोस्तु करते हैं तो वे मुनि या आचार्य उन्हें ‘नमोस्तु’ कहकर प्रतिवंदना करते हैं। यदि आर्यिकायें, क्षुल्लिकायें, ऐलक, क्षुल्लक और व्रतिक श्रावक-श्राविकायें नमोस्तु करते हैं तो वे मुनि और आचार्य उन्हें ‘समाधिरस्तु’ आशीर्वाद देते हैं। साधारण श्रावक-श्राविकायें नमोस्तु करते हैं तो वे उन्हें ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’ऐसा कहते हैं। जैनधर्म से बाह्य अन्य लोग नमस्कार करते हैं तो वे उन्हें ‘धर्मलाभोऽस्तु’ कहकर आशीर्वाद देते हैं तथा चांडाल आदि लोग नमस्कार करते हैं तो वे उन्हें ‘पापंक्षयोऽस्तु’ ऐसा आशीर्वाद देते हैं। ऐसा आगम का विधान है। ऐसा भेदभाव मुनियों के मन में क्यों है?-यह भेदभाव नहीं है प्रत्युत् व्यवस्था है। देखिये! मुनििंलग सर्वथा पूज्य है अत: वे लघु मुनियों के नमोस्तु करने पर ‘नमोस्तु’ द्वारा ही प्रतिवंदना करते हैं। आर्र्यिका, क्षुल्लक आदि व्रतिकगण रत्नत्रय को धारण किये हुए हैं उनका अंत में समाधिपूर्वक मरण हो, अंत तक वे अपने व्रतों को पालन करते रहें अथवा धर्मध्यान और शुक्लध्यान का नाम समाधि है वह उनको प्राप्त होवे, उनके लिए ऐसा आशीर्वाद उचित ही है। सामान्य श्रावक धर्म को धारण कर रहे हैं, उनके उस सच्चे धर्म की वृद्धि हो अत: ‘सद्धर्मवृद्धि:’ आशीर्वाद है। धर्मबाह्य लोगों को ‘धर्मलाभोऽस्तु’ आशीर्वाद उनके धर्म के लाभ में निमित्त बनता है तथा हिंसा आदि पाप में प्रवृत्त हुए लोगों का जब तक पाप क्षीण नहीं होगा, तब तक वे धर्म को धारण करने के लिए पात्र नहीं हो पायेंगे अत: ‘पापंक्षयोऽस्तु’ आशीर्वाद उनके लिए ठीक ही है। पहले मुनिधर्म का उपदेश देना चाहिए- शंका—मुनियों के लिए उत्कृष्ट उपदेश देने का ही विधान आया है। जैसे—
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमति:। तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।१८।।
जो अल्पमति मुनि यति धर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ धर्म का उपदेश देता है उसको भगवान के शासन में प्रायश्चित्त का भागी बतलाया है पुन: मुनि गृहस्थ धर्म का उपदेश कैसे दे सकते हैं? समाधान—यह सर्वथा एकांत नहीं है क्योंकि मुनि के पास कोई उच्चवर्णी श्रावक या राजा आदि पहुँचते हैं तो वे उन्हें वैसा ही उपदेश देते हैं क्योंकि वे पात्र हैं, मुनिपद धारण कर सकते हैं। जैसे कि सोमदत्त ब्राह्मण गुरु के पास पहुँचकर उपदेश सुनने की इच्छा व्यक्त करता है तब मुनि उपदेश देते हैं जिससे वह विरक्त होकर मुनि बन जाता है और अपनी गर्भवती पत्नी की भी परवाह नहीं करता है किन्तु ऐसे पात्र सब नहीं हैं। अत: साधारण जन के लिए श्रावक धर्म का और जो श्रावक नहीं हैं उन्हें मद्य-मांस आदि के त्याग का ही उपदेश देना आगमसम्मत है। श्री कुन्दकुन्दस्वामी भी मुनि को पूजा आदि का उपदेश देने के लिए कहते हैं—
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं। चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य।।२४८।।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह करना और उनका पोषण करना तथा जिनेन्द्र देव की पूजा का उपदेश देना यह सरागी मुनियों की चर्या है। यहाँ जिनेन्द्रपूजा का उपदेश श्रावक धर्म से ही संबंध रखता है। क्या मद्य-मांस आदि त्याग और दयादान का उपदेश भगवान ने दिया है?-श्री गौतमस्वामी ने स्पष्ट कहा है कि श्रावक के लिए मद्य, मांस, मधु का त्याग व बारह व्रतों का उपदेश भगवान महावीर ने दिया है। वे कहते हैं कि— ‘‘श्रुतं मे आयुष्मन्त: इत्यादि’’ हे आयुष्मन् भव्यों! मैंने सुना है कि भगवान महावीर ने मद्य, माँसादि का त्याग और पाँच अणुव्रत आदि गृहस्थ धर्म का ‘‘उपदेसिदाणि’’उपदेश दिया है।’’ इसमें अहिंसाणुव्रत में दया और अतिथिसंविभाग में दान का उपदेश है ही है तथा श्री कुन्दकुन्ददेव की गाथा से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आचार्यवर्ग संघ में शिष्यों का संग्रह भी करते हैं उनका ज्ञान आदि के द्वारा तथा व्याधि के होने पर वैयावृत्य आदि के द्वारा पोषण भी करते हैं। गृहस्थ रत्नत्रय का उपदेश दे सकते हैं क्या?-इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि श्रावक या अविरत सम्यग्दृष्टि- जन श्रावकों को रत्नत्रय का—मुनिधर्म का या शुद्धोपयोेग का उपदेश देने के अधिकारी नहीं हैं। वे तो अपने सदृश श्रावकों को श्रावक धर्म का ही उपदेश दे सकते हैं। पहली बात तो यह है कि कोई भी विद्वान् पंडित यदि किसी को मुनिधर्म का उपदेश देता है तो वह हास्यास्पद ही प्रतीत होता है। दूसरी बात यह है कि आगम की भी उन्हें वैसी आज्ञा नहीं है—यथा—
दया बुद्धि से साधुओं के द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के दान का नाम प्रासुक परित्यागता है। यह कारण गृहस्थों में संभव नहीं है, क्योंकि उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश देना भी गृहस्थों में संभव नहीं है, क्योंकि दृष्टिवाद आदि उपरिमश्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है। अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है।’’३३ इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि विद्वान् लोग यदि उपदेष्टा बनते हैं, तो वे श्रावकाचार और प्रथमानुयोेग का ही उपदेश देवें, मूलाचार तथा समयसार का नहीं, चूँकि मूलाचार में मुनियों के व्यवहार रत्नत्रय का और समयसार, नियमसार, प्रवचनसार में तो मुख्यतया निश्चयरत्नत्रय का व गौणतया व्यवहाररत्नत्रय का ही वर्णन है। गुरु के गुण, शिष्य के लक्षण, पापभीरुता आदि जो भी बातें अध्ययन में बतलाई हैं वे सभी बातें प्रवचन करने वाले विद्वान में भी आवश्यक हैं। सर्वोत्तम उपदेशक तो मुनि ही होते हैं। यदि कोई विद्वान् पंडित हैं तो उन्हें भी देशचारित्रधारी होना चाहिए। कम से कम पाँच अणुव्रत तो उन्हें भी अवश्य होना चाहिये। पुन: पूर्वाचार्यों की परम्परा के अनुसार किसी न किसी शास्त्र के आधार से पूर्वापर से अविरुद्ध अर्थ करते हुए प्रवचन करना चाहिए। प्रवचन करते समय मध्य में प्रश्नोत्तर की परंपरा न रखकर अंत में प्रश्नों के लिये श्रोताओं को अवकाश देना चाहिए। उपदेश के मध्य में प्रश्नोत्तर होने से सभा में उपदेश का क्रम भंग हो जाने से सभा में अशांति हो जाती है। अनंतर भी प्रश्नों को सुनकर वक्ता को बहुत गंभीर मुद्रा में शांति से आगम के आधार से उत्तर देना चाहिए। उत्तर देते समय उत्तेजित नहीं होना चाहिए और न गलत शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। उपदेश में क्या-क्या विषय लेना चाहिए? इसके लिये धवलाकार ने भी चार प्रकार की कथाओं के कहने का आदेश दिया है। चार प्रकार की कथायें- धवला में चार प्रकार की कथाओं का वर्णन आया है— प्रश्न व्याकरण नाम का दशवां अंग आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन करता है।
१. आक्षेपणी—जो नाना प्रकार की एकांत दृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नव पदार्थों का प्ररूपण करती है, उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं।
२. विक्षेपणी—जिसमें परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं, अनंतर परसमय की आधारभूत अनेक एकांत दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है, छह द्रव्य और नौ पदार्थों का निरूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं।
३. संवेदनी—पुण्य के फल का वर्णन करने वाली कथा को संवेदनी कथा कहते हैं।
शंका—पुण्य के फल कौन से हैं?
समाधान—‘तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।
शंका—पाप के फल कौन से हैं?
समाधान—नरक, तिर्यंच और कुमानुष योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं अथवा संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य को उत्पन्न करने वाली कथा को निर्वेदनी कहते हैं। इन कथाओं को कहते समय जो जिन वचन को नहीं जानता है ऐसे पुरुष को विक्षेपणी कथा का उपदेश नहीं करना चाहिए क्योंकि जिसने स्वसमय के रहस्य को नहीं जाना है, वह परम्परा को प्रतिपादन करने वाली कथाओं के सुनने से व्याकुलचित्त होकर मिथ्यात्व को स्वीकार न कर लेवे, अत: उसके लिये इस कथा का निषेध है। उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमय को अच्छी तरह समझ लिया है जो पुण्य और पाप के स्वरूप को जानता है, जिस तरह मज्जा अर्थात् हड्डियों के मध्य में रहने वाला रस हड्डी से संसक्त होकर ही शरीर में रहता है, उसी तरह जो जिनशासन में अनुरक्त है, जिनशासन में जिसको किसी प्रकार की विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रति से विरक्त है और जो तप, शील और नियम से युक्त है ऐसे पुरुष को ही पश्चात् विक्षेपणी कथा का उपदेश देना चाहिए। प्ररूपण करके उत्तमरूप से ज्ञान कराने वाले के लिए यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिये योग्य पुरुष को प्राप्त करके ही साधु को कथा का उपदेश देना चाहिए।’ इससे यह तात्पर्य हुआ कि द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार आदि ग्रंथ आक्षेपणी कथा में आ जायेंगे। न्याय कुमुदचंद्र, अष्टसहस्री आदि ग्रंथ विक्षेपणी कथा के अंतर्गत हो सकते हैं क्योंकि इनमें पर संप्रदाय के पूर्वपक्ष रखे जाते हैं पुन: उनका खंडन किया जाता है। तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रंथों में पुण्य और पाप का फल तथा तीर्थंकर के महाकल्याणक व गणधरों की ऋद्धियाँ आदि के वर्णन होने से ये गं्रथ संवेदनी और निर्वेदनी कथा के अंतर्गत आ जाते हैं। उसी प्रकार से, वसुनंदि श्रावकाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि में तथा भगवती आराधना, मूलाचार आदि में सम्यक्त्व, व्रत आदि के लक्षण व उनसे होने वाले देव गति, मोक्षगति आदि का वर्णन तथा उनके न पालने से या उनको ग्रहण कर भंग कर देने से नरक, निगोद आदि दुर्गति में जाने का भय दिखाया गया है अत: ये आचारग्रंथ भी इन दो कथाओं में गर्भित किये जा सकते हैं। इस प्रकार इन चार कथाओं और प्रथमानुयोेग आदि चार अनुयोगों के ग्रंथों का अध्ययन-अध्यापन व प्रवचन करना चाहिए। ये सभी केवलज्ञान प्रकट होने में साधन हैं और रत्नत्रय की प्राप्ति कराने वाले हैं।