गणधर देव से रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रन्थ कहा जाता है। व्यहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादि ग्रंथ है, क्योंकि अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं और इनका त्याग करना निग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ्ज्ञ हैं क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण है और इनका त्याग करना निग्र्रंथता है। जो संसार को गूंथते हैं अर्थात् जो संसार की रचना करते है जो संसार को दीर्घकाल तक रहने वाला करते हैं, उनको ग्रन्थ कहना चाहिए। मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान असंयत कषाय अशुभ मन, वचन, काय, योग, इन परिणामों को आचार्य ग्रन्थ कहते है। क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य इन नवके परिणाम का अतिक्रम करना परिगह प्रमाण व्रत के पाँच अतिचार है। क्षेत्र, वास्तु, धन धान्य, द्विपद, चतुष्पद, कुप्य, भाण्ड हिरण्य, सुवर्ण से दश ब्राह्य परिग्रह है।
हाथी, अश्व, तन्त्र, कौटिल्य, अर्थशास्त्र और वात्सायन कामशास्त्र आदि विषयक ज्ञान लौकिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। द्वादशांगादि विषयक बोध वैदिकभावश्रुत ग्रन्थकृति है। तथा नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध इत्यादि दर्शनों को विषय करने वाला बोध सामायिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। इनकी शब्द संदर्भ रूप अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ को विषय करने वाली जो ग्रन्थ रचना की जाती है। वह श्रुतग्रन्थ कृति कही जाती है।