यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मण:। तस्मै संज्ञानरूपाय, नमोस्तु परमात्मने।। इश्टोपदेष
अर्थ — जिसको संपूर्ण कर्मों के अभाव होने पर स्वयं ही स्वभाव की प्राप्ति हो गई है, उस सम्यक् ज्ञानरूपी परमात्मा को नमस्कार हो।
ग्रंथ परिचय—परमपूज्य आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने सिर्फ ५१ श्लोकों से इस ग्रंथ की रचना की है। यह एक अनुपम कृति है और गागर में सागर के समान है।कथन का प्रकार विशाल और वैराग्यपूर्ण तथा अध्यात्म विद्या से ओतप्रोत है। इस आध्यात्म काव्य में इष्ट—आत्म के स्वरूप का परिचय प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रंथ के अध्ययन से आत्मा की शक्ति विकसित हो जाती है और स्वात्मानुभूति के आधिक्य के कारण मान—अपमान, लाभ—अलाभ, हर्ष—विषाद आदि में समताभाव प्राप्त होता है। संसार की यथार्थ स्थिति का परिज्ञान प्राप्त होने से राग, द्वेष, मोह की परिणति घटती है। इस ग्रंथ की शैली सरल और प्रवाहमय है। इसमें समयसार की गाथाओं का सार अंकित किया गया है।
ग्रंथकार का परिचय— कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन तीनों व्यक्तियों का एकत्र समवाय देवनंदि पूज्यपाद में पाया जाता है। आदि पुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन ने इन्हें कवियों में तीर्थकृत लिखा है। इनका जीवन परिचय चंद्रय्य कवि के ‘पूज्यपादचरिते’ और देवचंद्र के ‘राजावलिकथे’ नामक ग्रंथों में उपलब्ध है। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में इनके नामों के संबंध में उल्लेख मिलते हैं। इन्हें बुद्धि की प्रखरता के कारण ‘जिनेंद्रबुद्धि’ और देवों के द्वारा चरणों की पूजा किए जाने के कारण ‘पूज्यपाद’ कहा गया है। पूज्यपाद और जिनेंद्रबुद्धि इन दोनों नामों की सार्थकता अभिलेख नं. १०८ में भी बताई गई है। इनके पिता का नाम माधवभट्ट और माता का नाम श्रीदेवी बताया जाता है। ये कर्नाटक में ‘कोले’ नामक ग्राम के निवासी थे और ब्राह्मण कुल के भूषण थे। कहा जाता है कि बचपन में ही इन्होंने नाग द्वारा निगलते मेंढक की तड़पन देखकर विरक्त हो दिगंबर दीक्षा धारण कर ली थी। ‘पूज्यपादचरिते’ में इनके जीवन का विस्तृत परिचय भी प्राप्त होता है तथा इनके चमत्कार को व्यक्त करने वाले अन्य कथानक भी लिखे गए हैं। पर उनमें कितना तथ्य है, निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। पूज्यपाद किस संघ के आचार्य थे, यह विचारणीय है। ‘राजावलिकथे’ से ये नंदिसंघ के आचार्य सिद्ध होते हैं। माद्यनंदि के बाद जिनचंद्र,पदमनंदि, उमास्वामी, लोहाचार्य, यश:कीर्ति, यशोनंदि और देवनंदि के नाम दिए गए हैं। ये सभी नाम क्रम से नंदिसंघ की पट्टावलि में भी मिलते हैं। आगे इसी गुर्वावलि में ग्यारवें गुणनंदि के बाद बारहवें वङ्कानंदि का नाम आया है परंतु नंदिसंघ की पट्टावलि में ग्यारहवें जयनंदि और बारहवें गुणनंदि के नाम आते हैं। इन नामों के पश्चात् तेरहवाँ नाम वङ्कानंदि का आता है। इसके पश्चात् और पूर्व की आचार्यपरंपरा गुर्वावलि और पट्टावलि में प्राय: तुल्य है। अन्य प्रमाणों से विदित होता है कि इनका गच्छ सरस्वती था और आचार्य कुन्दकुन्द एवं गृद्धपिच्छ की परंपरा में हुए हैं।
समय विचार— पूज्यपाद के समय के संबंध में विशेष विवाद नहीं है। इनका उल्लेख छठी शती के मध्यकाल से ही उपलब्ध होने लगता है। आचार्य अकलंक देव ने अपने ‘तत्वार्थवात्र्तिक’ में ‘सर्वाथसिद्धि’ के अनेक वाक्यों को वात्र्तिक का रूप दिया है। शब्दानुशासन संबंधी कथन की पुष्टि के लिए इनके जैनेंद्रव्याकरण के सूत्रों को प्रमाणरूप से उपस्थित किया गया है। अत: पूज्यपाद अकलंकदेव के पूर्ववर्ती हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
आचार्य देवनंदि—पूज्यपाद का समय ई. सन् छठी शताब्दी सिद्ध होता है, जो सर्वमान्य है।
रचनाएँ— पूज्यपाद आचार्य द्वारा लिखित अब तक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं— १. दशभक्ति, २. जन्माभिषेक, ३. तथ्वार्थवृति ‘सर्वार्थसिद्धि’, ४. समाधितंत्र, ५. इष्टोपदेश, ६. जैनेंद्रव्याकरण, ७. सिद्धि प्रिय स्तोत्र।