ग्रंथ लिपि हिंदुस्तान की प्राचीन लिपियों में से एक हैं। इसका उद्भव लगभग सातवीं —आठवीं सदी में ब्राह्मी लिपि से हुआ। जैसा हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं कि हिंदुस्तान की समस्त प्राचीन लिपियों की जननी कहा गया है। कालान्तर में ब्राह्मी लिपि के दो प्रवाह हुए—एक उत्तरी ब्रह्मी तथा दूसरा दक्षिणी ब्राह्मी। उत्तरी ब्राह्मी से शारदा , गुरूमुखी, प्राचीन नागरी, मैथिल, नेवारी, बंगला, उडिया, कैथी, गुजराती आदि विविध लिपीयों का विकास हुआ। जबकि दक्षिण ब्राह्मी से दक्षिण भारत की मध्यकालीन तथा आधुनिक कालीन लिपियाँ अर्थात् तामिल, तेलुगु, मलयालम,ग्रंथ, कन्नडी, कलिंग, तुलु, नंदीनागरी, पश्चिमि तथा मध्यप्रदेशी आदि लिपियों का विकास हुआ। अत: ग्रंथ लिपि को शारदा लिपि के समयकालीन कहा जा सकता है। इसका चलन विशेषरूप से दक्षिणभारत के मद्रास रियासत, विजयनगर, कांचीपुरम, त्रिचनापल्ली, मदुरई, त्रावनकोर, वक्कलेरी, वनपल्ली, तिरुमल्ला आदि प्रदेशों में अधिक रहा। जिस समय उत्तर भारत में विशेषकर काशमीर प्रान्त में शारदा लिपि फल—फूल रही थी उसी समय दक्षिण भारत में इस लिपि का विकास हुआ। ग्रंथ लिपि ताडपत्र पर लिखने के लिए सबसे उपयुक्त लिपि मानी गई है। विदित् हो कि लिपि ताडपत्र पर शिलालेख, ताम्रलेख आदि की तरह नुकीली कील द्वारा खोदकर लिखी जाती थी। तत्पश्चात उन अक्षरों में काली स्याही भरने का विधान था। इस लेखन पद्धति का सबसे बडा फायदा यह है कि यदि उन ताडपत्रों की स्याही फीकी पड़ जाये अथवा उड जाये तो भी अक्षर विद्यमान रहते हैं।उन अक्षरों में पुन: स्याही भरी जा सकती है। आज भी कई ग्रंथागारों में ग्रंथ—लिपिबद्ध अनेकों ग्रंथ ऐसे मिलते हैं जिनके अक्षरों में स्याही नहीं भरी है, केवल ताडपत्र पर अक्षरों को खोदकर लिख दिया गया है। लेकिन उन्हें पढ़ा जा सकता है, विषय—वस्तु का लिप्यन्तर भी किया जा सकता है। संभवत: ग्रंथ लिखने अथवा लिखवाने वाले के पास स्याही का अभाव रहा होगा, जिस कारण ताडपत्रों पर ग्रंथ लिखकर छोड दिया गया होगा और अक्षरों में स्याही नहीं भरी जा सकी होगी। क्योंकि उस समय ग्रंथ लेखण हेतु स्याही, ताडपात्र, भोजपात्र, कागज कपड़ा, कलम आदि ग्रंथ लेखन—सामग्री एकत्रित करना इतना सरल नहीं था। विदित् हो कि तत्कालीन स्याही अथवा विविध रंग आदि बनाने के लिए प्राकृतिक वस्तुओं जैसे भांगुरा, गोंद, लोह, विविध वृक्षों की छाल, पुष्प, पत्ती, गुठली आदि का स्तेमाल किया जाता था। जिसके कारण ये रंग अथवा स्याही चिरकाल पर्यन्त स्थाई रह सके। इसका प्रमाण हमारे ग्रन्थाकारों में विद्यमान प्राचीन पाण्डुलिपियों को देखने मात्र से मिल जाता है । विविध प्राचीन ग्रंथों में स्याही, ताडपत्र, कागज आदि लेखन—सामग्री तैयार करने विषयक उल्लेख भी मिलते हैं। जिनमें काला भांगुरा तथा बबूल के गोंद का वर्णन करते हुए तो यहाँ तक कहा गया है कि — ‘गोंद संग जो रंग भांगुरा मिले तो अक्षरे—अक्षरे दीप जले’ । आज भी इस बात के पूर्णत:स्पष्ट साक्ष्य विद्यमान हैं। हमारे ग्रंथकारों में ऐसे अनेकों ग्रंथ संगृहीत हैं जिनका आधार (कागज का ताडपत्र) पीला पड गया है अथवा पूर्णत: जीर्ण हो चुका है लेकिन उस पर उत्कीर्ण अक्षरों की स्याही आज भी चमकती हुई दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है ‘मानो कि प्रत्येक अक्षर दीपक की तरह चमक रहा हो’ । ग्रंथ —लिपिबद्ध ताडपत्रों की एक खासियत यह है कि, यदि ग्रंथों पर लंबे समय से बेदरकारी के कारण अत्यन्त धूल—ाqमट्टी अथवा कालिख जमा हो गई हो तो इन्हें पानी से धोया भी जा सकता है। विदित् हो कि ऐसा काने से लिखे हुए अक्षरों को किसी प्रकार की हानि नहीं होती है। लेकिन ऐसा करते समय पाण्डुलिपि विशेषज्ञों का मार्गदर्शन लेना चाहिए। क्योंकि इस प्रक्रिया में विशेष ध्यान रखना होता है कि उन पत्रों को धोने के बाद सुखाने के लिए आवश्यकतानुसार योग्य ताप एवं नमी प्रदान किया जाये। अस्तु प्राचीन भारतीय इतिहास एवं सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण, संपादन एवं पुन: लेखन में ग्रंथ—लिपिबद्ध साहित्य की अहम भूमिका रही है। इस लिपि में लिखित सामग्री मूल पाठ के निर्धारण एवं कर्तु: अभिप्रेत शुद्ध आशय तक पहुँचने में प्रामाणिक और महत्वपूर्ण साक्ष्य प्रस्तुत् करती है। इसके नामकरण एवं उद्भव और विकास विषयक विविध अवधारणाएँ निम्नवत् हैं—
ग्रंथ लिपि नामकरण विषयक अवधारणा:
ग्रंथ लिपि का निर्माण दक्षिण भारत में संस्कृत के ग्रंथ लिखने के लिए हुआ। क्योंकि वहाँ प्रचलित तामिल लिपि में अक्षरों की न्यूनता के कारण संस्कृत भाषा लिखी नहीं जा सकती। प्राचीन तामिल लिपि में सिर्फ अठारह व्यंजन वर्णों का चलन है, जिनसे तामिल भाषा का साहित्य तों लिखा जा सकता है लेकिन संस्कृत भाषाबद्ध साहित्य लिखना संभव नहीं । अत: संस्कृत के ग्रंथ लिखने के लिए इस लिपि का अविष्कार हुआ। संभवत: इसी कारण इसे ग्रंथ लिपि (संस्कृत ग्रन्थो की लिपि) नाम दिया गया । इस लिपि के अक्षरों का लेखन करते समय एक ग्रन्थि (गांठ) जैसी संरचना बनाकर अक्षर लिखने की परंपरा मिलती है, जिसके कारण भी इसका नाम ग्रंाि लिपि पड़ने की संभावना है। विदित् हो कि दक्षिण क्षेत्र के लेखक अपने अक्षरों में सुन्दरता लाने के लिए अक्षर—लेखन में प्रयुक्त होने वाली लकीरों (खडीपाई एवं पडीपाई) को वक्र और मरोडदार बनाते थे। इन लकीरों के आरंभ, मध्य या अन्त में कहीं—कहीं ग्रंन्थियाँ भी बनाई जाती थीं। इन्हीं कारणों से इस लिपि के अक्षरों की संरचना ग्रन्थि (गाँठ) के समान बनने लगी और धीरे—धीरे इसके अक्षर अपनी मूल ब्राह्मी लिपि से भिन्न होते चले गये।
ग्रंथ लिपि की विशेषताएँ
यह लिपि ब्राह्मी तथा अन्य भारतीय लिपियों की तरह बायें से दायें लिखी जाती है। ताडपत्रों पर लिखने के लिए यह लिपि सर्वाधिक उपयोगी, सरल और सटीक लिपि मानी गयी है। # यह लिपि ताडपत्रों पर शिलालेख एवं ताम्रलेख आदि की तरह लोहे की नुकीली कील द्वारा खोदकर लिखी जाती है। इस लिपि में शिरोरेखा का चलन नहीं है। विदित् हो कि ब्राह्मी तथा गुजराती लिपियाँ भी शिरोरेखा के बिना ही लिखी जाती हैं। लेकिन शारदा, नगरी आदि लिपियों में शिरोरेखा का चलन है। इस लिपि में समस्त उच्चारित ध्वनियों के लिए स्वतन्त्र एवं असंदिग्ध चिह्न विद्यमान हैं। अत: इसे पूर्णत: वैज्ञानिक लिपि कहा जा सकता है। इस लिपि में अनुस्वार , अनुनासिक एवं विसर्ग हेतु स्वतन्त्र चिह्न प्रयुक्त हुए हैं जो आधुनिक लिपियों में भी यथावत् स्वीकृत हैं। # इस लिपि में व्याकरण—समस्त उच्चारण स्थानों के अनुसार वर्णों का ध्वन्यात्मक विभाजन है। इस लिपि का प्रत्येक अक्षर स्वतन्त्ररूप से एक ही ध्वनि का उच्चारण प्रकट करता है, जो सुगम और पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। इस लिपि के अक्षरों का आकार समान है व शलाका प्रविधि से टंकित करने का विधान मिलता है। # अक्षरों की बनावट ग्रन्थि के आकार की है। प्रत्येक अक्षर में एक सूक्ष्म ग्रन्थि बनाकर लिखने की परंपरा है। इस लिपि के अक्षर लेखन की दृष्टि से सरल माने गये हैं, जिन्हें ताडपत्रों पर गतिपूर्वक लिखा जा सकता है। # इस लिपि के समस्त अक्षर सलंग समानान्तर और अलग—अलग लिखे जाते हैं। इस लिपि में अनुस्वार को अक्षर के ऊपर न लिखकर उसके सामने लिखा जाता है। ब्राह्मी लिपि में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई है। इस लिपि में ‘आ, उ, ऊ, ऋ, ए,ऐ, ओ, औ’ की मात्राएँ अक्षर के आगे या पीछे सामान्तर लगाई जाती हैं। अर्थात् उपरोक्त मात्राओं में से कोई भी मात्रा अक्षर के ऊपर या नीचे नहीं लगती है। इस लिपि में संयुक्ताक्षर लेखन हेतु अक्षरों को ऊपर—नीचे लिखने की परंपरा मिलती है। अर्थात् संयुक्ताक्षर लिखते समय जिस अक्षर को पहले बोला जाये या जिस अक्षर को आधा करना हो उसे ऊपर तथा बाद में बोले जाने वाले दूसरे अक्षर को उसके नीचे लिखा जाता है। ब्राह्मी लिपि में भी संयुक्ताक्षर लेखन हेतु यही परंपरा मिलती है। प्राचीन—नागरी—लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों में भी कुछ संयुक्ताक्षर इसी प्रकार ऊपर के नीचे की ओर लिखे हुए मिलते हैं। इस लिपि में रेफ सूचक चिह्न उस अक्षर के नीचे से ऊपर की ओर लगाया जाता है। जबकि दीर्घ ‘ई’ की मात्रा आधुनिक नागरी लिपि में प्रचलित रेफ की तरह लगती है तथा ह्रस्व ‘ई’ की मात्रा आधुनिक नागरी में प्रचलित दीर्घ ‘ई’ की मात्रा की तरह लगती है। इस लिपि का ज्ञान हिन्दुस्तान में प्रचालित अन्य प्राचीन लिपियों को सरलता पूर्वक सीखने—पढ़ने एवं एतिहासिक तथ्यों को समझने में अतीव सहायक सिद्ध होता है। इस लिपि में लिखित ग्रंथसंपदा को शुद्ध पाठ की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि यह लिपि कागज पर लिखने की परंपरा से प्राचीन है तथा इसमें पाठान्तर की संभावना कम रहती है। इस लिपि में विपुल साहित्य लिखा हुआ मिलता है। आज भी हिंदुस्तान का शायद ही कोई ऐसा ग्रंथागार होगा जिसमें ग्रंथ—लिपिबद्ध पाण्डुलिपियों का संग्रह न हो। # इस लिपि में निबद्ध ग्रंथ अमूल्य निधि के रूप में माने गये हैं, जो अपने संग्रहालय की शोभा में चार चाँद लगा देते हैं। # इस लिपि में संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश आदि भाषाबद्ध साहित्य को शतप्रतिशत शुद्ध लिखा जा सकता है।
ग्रंथ लिपि की वर्णमाला
शिलाखण्डों,ताडपत्रों, ताम्रपत्रों एवं लोहपत्रों आदि पर उत्कीर्ण इस लिपि में प्रयुक्त स्वर एवं व्यंजन वर्णों की संरचना निम्नवत् है:—
संदर्भ ग्रन्थ
१.भारतीय प्राचीन लिपिमाला, संपा, गौरीशंकर हीराचंद ओझा
२.अशोक कालीन धार्मिक अभिलेख, संपा,— गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं श्यामसुन्दरदास
३.प्राचीन भारतीय लिपिशास्त्र एवं मुद्राशास्त्र, लेखक — एम.पी.त्यागी एवं आर.के.रस्तौगी
४.अशोक अने एना अभिलेख, लेखक — गंगाशंकर शास्त्री
५.अशोकना शिलालेख, लेखक— भरतराम भानुसुखराम महेता
६.भारतीय पुरालिपि विद्या, लेखक— दिनेशचंद सरकार
७.लिपि विकास, लेखक— राममूर्ति मेहरोत्रा एम.ए.
८.भारतीय पुरालिपि विद्या, लेखक— दिनेशचंद्र सरकार
९.ब्राह्मीलिपि का उद्भव और विकास, संपा. डॉ. ठाकुरप्रसाद वर्मा
१०.अशोक की धर्मलिपियाँ (भाग—१)—काशी नागरी प्रचारिणी सभा
११. अशोकना शिलालेखो ऊपर दृष्टिपात, लेखक— श्री विजयेन्द्रसूरि
१२.भारतीय पुरालिपि शास्त्र, लेखक— जार्ज ब्यूलर
१३. वातायन (भारतीय लिपिशास्त्र एवं इतिहास के कुछ नवीन संदर्भ), लेखक— डॉ. विन्ध्येश्वरी प्रसाद मिश्र ‘विनय’
१४.संस्कृत पाण्डुलिपिओ अने समीक्षित पाठसंपादन—विज्ञान—प्रो.वसंतकुमार एम.भट्ट, नियामक भाषा साहित्य भवन, गुजरात विश्वविध्याल, अहमदाबाद
१५.प्राचीन भारतीय लिपि एवं अभिलेख, लेखक— डॉ. गोपाल यादव
१६.ब्राह्मी सिक्के कैसे पढ़े, लेखक— श्री प्रदीप दत्तुजी बनकर
१७. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला, लेखक—मुनिश्री पुण्यविजयी म.सा.
१८.ग्रंथलिपि वर्णमाला— डॉ. एस.जगन्नाथजी, अड्डीयर पुस्तकालय, मैसूर
१९. पाण्डुलिपि विज्ञान,लेखक—डॉ. सत्येन्द्रजी, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर से प्रकाशित
२०. शारदा मंजूषा, संपा, डॉ. अनिर्वाण दास, वाराणसी से प्रकाशित