आहित, आत्मसात् किया गया या परिगृहीत ये एकार्थवाची है। जो यह पूर्व कृत में निर्मित, रूप, रस, गंध, स्पर्श व शब्द को ग्रहण करने वाली, चक्षु रसन घ्राण त्वक और श्रोत्र रूप ग्रहणनि अर्थात् इन्द्रियां है।
राहु तो चन्द्रमा को आच्छादे है केतु सूर्य को आच्छादे है, याही का नाम ग्रहण कहिए है।
जैनभारती के अनुसार- राहु के विमान चन के नीचे एवं केतु के विमान सूर्य के नीचे रहते हैं अर्थात् ८ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर चन् –सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते है। ये राहु-केतु के विमान ६.६ महीने इन पृथ्वी से तारा आदि विमानों की ऊँचाई एवं सूर्य के विमानों को ढक देते है इसे ही ग्रहण कहते है ।