संसार-श्रेष्ठ जिनभगवान, जिनवाणी और जैन ऋषियों को नमस्कार कर उद्दायन राजा की लिखता हूँ जिन्होनें सम्यक्तव के तीसरे निर्विचिकित्सा अंग का पालन किया है। उद्दायन रौरवक नामक शहर के राजा थे, जो कि कच्छ देश के अनति था। उद्दायन सम्यग्दृष्टि थे। जिन भगवान के सच्चे भक्त थे, प्रजा का उनपर बहुत प्रेम था वे भी प्रजा के हित में सदा उद्युक्त रहा करते थे। उसकी रानी का नाम प्रभावती था। वह भी सती थी, धमत्मिा थी। उसका मन सदा पवित्र रहता था। वह अपने समय को प्राय: दान पूजा व्रत उपवास स्वाध्यायादि मे विताती थी।
एक दिन सौधर्मस्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में धर्मोपदेश कर रहा था कि संसार में सच्चे देव अर्हन्त भगवान है, जो कि भूख प्यास, रोग, शोक, भय, जन्म, मरण, आदि दोषों से रहित और जीवों को संसार के दु:खो से छुटाने वाले है, सच्चा धर्म उत्तम क्षमा, मार्दव आर्जव आदि दशलक्षणरूप है, गुरू निग्रंथ है, जिनके पास परिग्रह का नाम निशान नही, और जो क्रोध, मान, माया, लोभ, राग द्वेष आदि से रहित है वह सच्ची श्रद्धा है जिससे जीवाजीवादिक पदार्थो में रूचि होती है यही रूचि स्वग्र मोक्ष की देने वाली हे। यही रूचि अर्थात् श्रद्धा धर्म में प्रेम करने से तीर्थ यात्रा करने से रथोत्सव कराने से जिनमन्दिरों को जीर्वोद्वार कराने से प्रतिमा बनवाने से साधर्मियों से वात्सल्य प्रेम करने से उत्पन्न होती है। सम्यग्दर्शन संसार में सर्वश्रेष्ठ वस्तु है। कोई वस्तु उसकी समानता नही कर सकती । यही सम्यग्दर्शन दुर्गतियों का नाश करके स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला है। इसे तुम धारण करो। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का उसके आठ अंगो का वर्णन करते समय इन्द्र ने निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने वाले उद्दायन राजा की बहुत प्रशंसा की । इन्द्र के मुंह से एक मध्यलोक के मनुष्य की प्रशंसा सुनकर एक वासव नाम का देव उसी समय स्वग्र से भारत में आया । और उद्वायन राजा की परिक्षा करने के लिए एक कोढ़ी मुनि का वेश बनाकर भिक्षा के लिए दोपहरी को उद्दायन के महल गया।
उसके शरीर से कोढ़ गल रहा था उसकी वेदना से उसके पैर इधर उधर पढ़ रहे थे सारे शरीर पर मक्खियां भिनभिना रही थी। सब शरीर विकृत हो गया था।
उसकी यह हालत होने पर भी जब वह राजद्वार पर पहुँचा महाराज उद्दायन की उस पर दृष्टि पड़ी तब वे उसी समय सिंहासन से उठकर आये और बड़ी भक्ति से उन्होने उस छली मुनि का आहवान किया। उसके बाद नवधा भक्ति पूर्वक हर्ष के साथ राजा ने मुनि को प्रासुक आहार कराया। राजा आहार कराकर निवृत्त हुए कि इतने में उस कपटी मुनि ने अपनी माया से महा दुर्गन्धत वमन कर दिया। उसकी असहाय दुगन्ध के मारे जितने और लोग पास खड़े हुए थे, सब भाग खड़े हुए किन्तु केवल राजा और रानी मुनि की सम्हाल करने के लिए वही रह गये। रानी मुनि का शरीर पोछने को उसके पास गई। कपटी मुनि ने उस बेचारी पर भी महादुगन्धत उछार करदी। राजा और रानी ने इसकी कुछ पखा न कर उलटा उस बात पर बहुत पश्चात्ताप किया। कि हमसे मुनि की प्रकृति-विरूद्ध न जाने क्या आहार दे दिया गया, जिससे मुनिराज को इतना कष्ट हुआ। हम लोग बड़े पापी है। इसीलिये तो ऐसे उत्तम पात्र का हमारे यहाँ निरन्तराय आहार नही हुआ। सच है जैसे पापी लोगो को मनोवांच्छित देने वाला चिन्तामणि रत्न ओर कल्पवृक्ष प्राप्त नही होता, उसी तरह सुपात्र के दाान का योग भी पापियों को नही मिलता है। इस प्रकार अपनी आत्मनिन्दा कर और अपने प्रमाद पर बहुत-२ खेद प्रकाश कर राजा रानी ने मुनि का सब शरीर पानी से धोकर साफ किया। उनकी इस प्रकार अचल भक्ति देखकर देव अपनी माया समेअकर बड़ी प्रसन्नता के साथ बोला-राजराजेश्वर, सचमुच ही तुम सम्यग्दृष्टि हो, महादानी होे। निर्विचित्कित्सा अंग के पालन करने में इन्द्र ने जैसी तुम्हारी प्रशंसा की थी वह अक्षर –अक्षर ठीक निकली वैसा ही मैने तुम्हे देखा। वास्तव में तुम्ही ने जैनशासन का रहस्य समझा है। यदि ऐसा न होता तो तुम्हारे बिना और कौन मुनि की दुगन्धित उछाट अपने हाथों से उठाता ? राजन् ! तुम धन्य हो शायद ही इस पृथ्वी मंडल पर इस समय तुम सरीखा सम्यग्दृष्टियों में शिरोमणि कोई होगा ? इस प्रकार उद्दायन की प्रशंसा कर देव अपने स्थान पर चला गया और राजा फिर अपने राज्य का सुख पूर्वक पालन करते हुए दान, पूजा, व्रत, आदि में अपना समय बिताने लगे।
इसी तरह राज्य करते-२ उद्दायन का कुछ और समय बीत गया। एक दिन वे अपने महल पर बैठे हुए प्रकृति की शोभा देख रहे थे कि इतने में एक बड़ा भारी बादल का टुकड़ा उनकी आँखो के सामने से निकला। वह थोड़ी ही दूर पहुँचा होगा कि एक प्रवल वायु के वेग ने उसे देखते-२ नाम शेष कर दिया। क्षणभर में एक विशाल मेघखण्ड की यह दशा देखकर उद्दायन की आँखे खुली। उन्हे सारा संसार ही अब क्षणिक जान पड़ने लगा। उन्होने उसी समय महल से उतरकर अपने पुत्र को बुलाया और उसके मस्तक पर राजतिलक करके आप भगवान वद्र्धमान के समवसरण में पहुँचे और भक्ति के साथ भगवान की पूजा कर उनके चरणों के पास ही उन्होेने जिन दीक्षा ग्रहण कर ली, जिसका इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र आदि सभी आदर करते है।
साधु होकर उद्दायन राजा ने खूब तपश्चर्या की, संसार का सर्वश्रेष्ठ पदार्थ रत्नत्रय प्राप्त किया। इसके बाद ध्यानरूपी अग्नि से घातिया कर्मो का नाश कर उन्होने केवलज्ञान प्राप्त किया । उसके द्वारा उन्होने संसार के दुखों से तरफते हुए अनेक जीवों को उबारकर अनेकों को धर्म के पथ पर लगाया। अन्त में अघातिया कर्मो का भी नाश कर अविनाशी अनन्त मोक्ष पद प्राप्त किया। उधर उनकी रानी सती प्रभावती भी जिनदीक्षा ग्रहण कर तपश्चर्या करने लगी अन्त में समाधिमृत्यु प्राप्त कर ब्रह्मस्वर्ग में जाकर देव हुई।
जिन भगवान मुझे मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करे, जो सब श्रेष्ठ गुणों के समुद्र है। जिनका केवलज्ञान संसार के जीवों का हृदयस्थ अज्ञानरूपी आताप नष्ट करने को चन्द्रमा समान है, जिनके चरणों को इन्द्र नरेन्द्र आदि सभी नमस्कार करते है जो ज्ञान के समुद्र और साधु के शिरोमणि है।