इस मंदिर का निर्माण भादो सुदी २, संवत् १७६१ में हुआ एवं मंदिर की पूर्णता में लगभग ४५ साल का समय लगा, जिसमें श्रेष्ठतम कारीगरों, वास्तुविदों एवं समाज के श्रेष्ठियों ने अपने अथक परिश्रम, लगन एवं निष्ठा का सौभाग्य प्राप्त किया।
इस मंदिरजी के निर्माण में तत्कालीन श्रेष्ठियों ने २ मन सोने का उपयोग स्वर्णकला को निखारने एवं संवारने में किया था ।
भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति की छटा अद्भुत निराली है। वीतरागता अप्रतिम है। इस मूर्ति को तीन अलग-अलग समय में देखने पर मूर्ति की छवि अलग-अलग वर्णों की दिखाई देती है।
इस मंदिर में १ इंच से लेकर साढ़े पाँच फीट की अवगाहना की खड्गासन तथा पद्मासन एवं त्रिकाल चौबीसी के साथ भगवान् विराजमान हैं।
श्री मंदिरजी के गुम्बद के भीतरी भाग में सोने की कारीगरी एवं खम्बों पर काँच की जड़ाई का कार्य देखते ही बनता है। जिसमें असली नगीनों एवं प्राकृतिक रूप से तैयार किए रंगों का उपयोग किया गया है, जो अत्यधिक आकर्षक, कलापूर्ण एवं दर्शनीय है, जो कि भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता है।
यहाँ पर दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्रों की एवं पौराणिक कथाओं और पञ्चकल्याणकों का चित्रण बड़ी मनोजता से किया है।
तीर्थंकर की माता के १६ स्वप्न एवं चन्द्रगुप्त मौर्य के १६ स्वप्नों का बड़े ही भावपूर्ण तरीके से चित्रित किये गये हैं।