भारत का नक्शा और उसके बीच में भारतमाता के रूप में तिरंगा झण्डा लेकर सफेद साड़ी पहने हुई लड़की, साथ में लगभग १५-२० स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएँ हाथों में तिरंगा और केशरिया ध्वज लेकर संगीत ध्वनि के साथ मंच पर सामूहिक प्रवेश करते हैं। बीच में भारतमाता एवं चारों तरफ सभी लोग खड़े हो जाते हैं पुन: सामूहिक नृत्य शुरू होता है।सामूहिक गान-(इसमें हाव-भाव के द्वारा गीत के सभी भावों को अलग-अलग पात्र प्रदर्शित करें)
मेरे देश की धरती ज्ञानमती माता से धन्य हुई है
मेरे देश की धरती…….।।टेक.।।
यह कृषि प्रधान है देश यहाँ, ऋषियों की तपस्या चलती है।
ऋषियों…..
यहाँ संस्कारों के उपवन में, मानवता छिप-छिप पलती है।।
मानवता…..
जहाँ सत्य, अहिंसा पालन की पावनता मान्य हुई है,
मेरे देश की धरती……….।।१।।
जब तीर्थ अयोध्या की वसुधा, सुख शान्ति अमन थी चाह रही।
सुख…..
तब ज्ञानमती माँ को पाकर, जनता को खुशी अपार हुई।।
जनता……..
प्रभु आदिनाथ के महामहोत्सव, से वह धन्य हुई है,
मेरे देश की धरती………..।।२।।
हस्तिनापुरी में जम्बूद्वीप, रचना तुमने साकार किया ।
रचना………
इन्दिराजी को आशीर्वाद दे, ज्योति प्रवर्तन करा दिया।
हां ज्योति प्रवर्तन….
उसके स्वागत में हर प्रदेश की, जनता धन्य हुई है,
मेरे देश की धरती………..।।३।।
साहित्य रचा शिष्यों को बना, चेतन निर्माण किया तुमने।
चेतन…….
‘‘चन्दनामती’’ तव कृतियों की, यशसुरभी पैâल रही जग में।।
यश…….
युग-युग तक अमर रहेगी तू, ब्राह्मी माँ सदृश हुई है,
मेरे देश की धरती………..।।४।।
सूत्रधार–देखो! यह भारतमाता अपनी अनमोल निधि ज्ञानमती माताजी के प्रति वैâसी कृतज्ञता प्रगट कर रही है। करे भी क्यों न, इन्होंने अपने दीर्घकालीन दीक्षित जीवन में अपने अनोखे कार्यकलापों द्वारा भारतमाता का जो सम्मान बढ़ाया है, उससे उसे अपनी पुत्री पर गर्व है। पूरे देश में विहार कर-करके जो धर्मप्रभावना, निर्माण प्रेरणा, तीर्थ विकास, शिष्य निर्माण, चारित्र निर्माण आदि के द्वारा इन्होंने जो अमिट छाप डाली है, उसी वात्सल्य का प्रतीक है कि यहाँ सभी प्रदेशों के लोग इनकी दीक्षा स्वर्ण जयंती मनाने आए हैं।
ये दिल्ली के लोग हैं न, ये माताजी को सबसे ज्यादा अपना समझते हैं तभी तो भारतमाता के सामने अपनी बात कहने के लिए बड़ी उत्सुकता से आगे आ रहे हैं। चलिए, आइए! आप क्या कह रहे हैं?
एक श्रेष्ठी-हम दिल्ली वाले तो आज ३४ वर्ष से इनके कार्यकलापों को देख रहे हैं। इनकी लेखनी और ज्ञान का लोहा तो अच्छे-अच्छे विद्वान भी मानते हैं।
अन्य श्रावक-अरे! इनकी कृपा से ही तो हम लोगों को दिल्ली में पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के संघ का दर्शन करने का सौभाग्य मिला। वे तो अलवर से वापस राजस्थान जा रहे थे, तब ज्ञानमती माताजी ने ही हम लोगों को आचार्यश्री के पास श्रीफल चढ़ाने भेजा था।
श्राविका–इसीलिए तो सन् १९७४ में महावीर स्वामी का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव बड़े धूमधाम से मना था। जहाँ साधुओं के संघ का सानिध्य होता है, वहाँ के आयोजन में तो चार-चांँद लग ही जाते हैं।
दूसरे श्रेष्ठी–अरे! यह तो बड़ी पुरानी बातें हो गईं। उसके बाद तो इन्होंने अभी सन् १९९७ में चौबीस कल्पद्रुम विधान करवाकर धूम मचा दी थी, दो-दो बार प्रधानमंत्री जी आए, राज्यपाल-मुख्यमंत्री कई बार आए। इतने बड़े-बड़े आयोजन कराना क्या सबके बस की बात है!महिला-देखो न! महिलाओं में कितनी क्रांति आ गई है इनकी पे्रेरणा से। पूरी दिल्ली क्या, देश भर महिलासंगठन की सैकड़ों इकाई समितियों ने धूम मचा रखी है।
श्रावक–दिल्ली के कनॉटप्लेस क्षेत्र में देखो कितना सुन्दर कीर्तिस्तंभ, पावापुरी की रचना, नजफगढ़ में भरतक्षेत्र की रचना, प्रीतविहार में कमल मंदिर का निर्माण कराया है और हाँ, दिल्ली के पास ही हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप की रचना बनने के बाद तो दुनिया के लोग इन्हें जम्बूद्वीप वाली ज्ञानमती माताजी कहते हैं।
सूत्रधार–(दिल्ली वालों की ओर देखते हुए) अभी कितने लोग हैं दिल्ली के। अरे भइया! मुझे पता है कि इन माताजी के उपकारों को तो दो-चार लोगों के द्वारा बताया नहीं जा सकता है किन्तु अब मैं क्या करूँ? अपनी भारत माता के सामने ये कई प्रदेश से पधारे लोग भी अपनी-अपनी बात कहना चाहते हैं। आइए, आप पश्चिमी उत्तरप्रदेश के गणमान्य महानुभावों! आप लोग अपनी भावना व्यक्त कीजिए।
श्रावक–हे भारतमाता! मैं ज्यादा नहीं, बस इतना कहना चाहता हूँ कि हमारे हस्तिनापुर तीर्थ को ज्ञानमती माताजी ने विश्वभर में प्रसिद्ध कर दिया है। अगर वे यहाँ जम्बूूद्वीप की रचना न बनातीं, तो विदेशी पर्यटक और शोधकर्ता विद्वान् यहाँ भला क्यों आते?
श्रावक–येअच्छी-अच्छी सड़कें और रोडवेज बसें तो सन् १९८५ से उत्तरप्रदेश सरकार ने जम्बूद्वीप रचना उद्घाटन के समय से उपलब्ध कराई हैं।
श्राविका–इसीलिए अब यात्रियों को हस्तिनापुर की यात्रा में कोई दिक्कत नहीं होती है। हम लोग तो मेरठ से बैठते हैं और बस से सीधे जम्बूद्वीप गेट पर आकर उतरते हैं।
श्रावक-रे भाई! केवल हस्तिनापुर की बात ही आप लोग क्यों कर रहे हो? हमारे खतौली में भी सन् १९७६ में ज्ञानमती माताजी का चातुर्मास हुआ था।
श्राविका-वहाँ तो इन्होंने शिक्षण शिविर, प्रवचन, अध्ययन कक्षा आदि के द्वारा जो सच्चे ज्ञान का अमृत सबको पिलाया था, उसको आज भी लोग याद करते हैं।
श्रावक-सबसे बड़ा काम तो उस चातुर्मास में इन्द्रध्वज विधान के निर्माण का बना है। हमें याद है कि माताजी २२ घंटे मौन रहकर इन्द्रध्वज विधान को लिखती थीं और शाम ५ बजे जब उनका मौन खुलता था, तब उनकी अमृतवाणी सुनने के लिए नीचे से ऊपर तक भक्तों की भीड़ को लाइन लगाकर दर्शन मिल पाते थे।
श्रावक-हमारे सरधना नगर में भी सन् १९९१ में इनके संघ का चातुर्मास हुआ था, तब बड़ा भारी सर्वतोभद्र विधान हुआ, कई नेता इनके पास आए और खूब लाभ लिया सरधनावासियों ने।
श्राविक–यूँ तो बड़ौत शहर में भी ज्ञानमती माताजी एक बार आईं, डेढ़ महीने सबको इनका सानिध्य भी मिला किन्तु चातुर्मास तो होते-होते रह गया और सरधना वाले बाजी मार ले गये।
श्रावक–देखो जी! इस बारे में ज्ञानमती माताजी से हम लोगों की एक शिकायत भी है कि हम लोग अनेक वर्षों से मेरठ चातुर्मास के लिए क्यू लाइन में खड़े हैं, हमारा नम्बर ही नहीं आता है, सो अब हमारे मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर आदि पश्चिमी उत्तरप्रदेश के नगरों में भी इस संघ का भ्रमण होना चाहिए, ताकि हम भी इनकी पवित्र ज्ञानगंगा में स्नान कर सकें।
सूत्रधार–सुन-सुन करके पूर्वी उत्तरप्रदेश के स्त्री-पुरुष भी शायद कुछ शिकायत करना चाहते हैं। देखो! अब तुम लोग ऐसी बात कहो, जो संभव हो। ज्ञानमती माताजी अब ७२ वर्ष की हो रही हैं, स्वास्थ्य और शारीरिक शक्ति भी तो इनकी देखो कि अब वैâसे जगह-जगह जा सकती हैं?
श्रावक-(हँसते हुए) अरे भइया! तुम नहीं जानते हो, इनकी आत्मशक्ति बड़ी प्रबल है। हमारे अवधप्रान्त में ये जन्मी हैं तो हमें बड़ा गौरव है इन पर, लेकिन वहाँ ४० साल के बाद सन् १९९३ में जब गईं तो अयोध्या का खूब उद्धार किया, उसे राम जन्मभूमि के समान ही ऋषभ जन्मभूमि के नाम से विश्वविख्यात कर दिया।
श्राविका–अयोध्या और टिवैâतनगर में १-१ चातुर्मास भी करके थोड़ी शिकायत तो इन्होंने उधर की दूर की है किन्तु अभी हम लखनऊवासियों को एक चातुर्मास का संयोग और मिलना चाहिए ताकि राजधानी के लोग भी अपनी अमूल्य निधि से निकटतम परिचित हो सकें
श्रावक-और हम बाराबंकी वाले जो वर्षों से पीछे लगे हैं तो क्या तुम हमसे आगे निकलने की सोच रहे हो? अरे! बाराबंकी तो इनकी असली जन्मभूमि ही माननी चाहिए, क्योंकि सबसे पहले सन् १९५२ में वहीं पर इन्होंने ब्रह्मचर्यव्रत, सात प्रतिमा और गृहत्याग का व्रत लेकर बाराबंकी को अतिशयक्षेत्र का रूप दिया था। कई साधुओं के वहाँ चातुर्मास हो चुके हैं, अब ज्ञानमती माताजी का एक चातुर्मास मांगना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है इसलिए हे भारत माता! अब सबसे पहले हमारे अधूरेपन को पूरा कीजिए, यही निवेदन लेकर हम लोग आए हैं। (श्रीफल सहित हाथ जोड़कर निवेदन करते हुए)
सूत्रधार–(चिंताजनक मुद्रा में) वैâसी-वैâसी समस्याएं लोग उपस्थित कर रहे हैं भारत माता के सामने, कहीं माँ घबरा न जाए इन सबकी जिद भरी बातें सुनकर। अच्छा भाई! सीधे-सादे खड़े राजस्थान के भाई-बहन क्या अपील कर रहे हैं, सुनिये-
पगड़ीधारी श्रावक-म्हारी तो भाई कांई समस्या कोनी। म्हारे राजस्थान में तो पेलां पेलां जयपुर, अजमेर, ब्यावर, लाडनूं, सुजानगढ़, सीकर, प्रतापगढ़ नगरां मां खूब चातुर्मास हुआ इनका। आज तलक भी वहाँ का लोगा माताजी ने याद करे, इन्हीं का खूब विधान रचावें और जब मौका मिले हम सब उठे आर इनका दर्शन कर लेवां। महावीर जी शांतिवीर नगर, खेरवाड़ा, केशरिया जी, केकड़ी, लावा, झालरापाटन, सवाई माधोपुर, माधोराजपुरा आदि अनेक गांवा मां इनकी प्रेरणा से निर्माण भी हुआ है।
लहंगा लुगड़ी वाली श्राविका-आ भी तो विशेष बात बताणूं चाहिए कि इनकी दीक्षा म्हारे राजस्थान में ही हुयी है।
दूसरी श्राविका-और क्या! यह बहन सच तो कह रही है। सबसे पहले महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर सन् १९५३ में बीसवीं सदी की पहली कुंआरी कन्या को दीक्षा देकर आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने इन्हें ‘‘क्षुल्लिका वीरमती’’ बनाया। फिर सन् १९५६ में भी राजस्थान का ही माधोराजपुरा नगर है, जहाँ आचार्य वीरसागर जी से आर्यिका दीक्षा लेकर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।
श्रावक-इसका मतलब यही तो है ना, कि राजस्थान वालों को इन पर सबसे ज्यादा अधिकार होना चाहिए। अब हमारे माधोराजपुरा में इनका एक चौमासा होना चाहिए। क्योंकि वहाँ तो एक भी चौमासा नहीं हुआ है।
सूत्रधार-देखो! अब मैं तो इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता। साधुओं का पदार्पण तो बड़े भाग्य से अपने नगर में होता है और आप बार-बार पुरुषार्थ करते रहो तो कुछ असंभव भी नहीं है।
क्यों भाई! महाराष्ट्र के भक्तों! आपके यहाँ माताजी का चातुर्मास हो चुका है न, इसीलिए आप लोग इतने भक्त हैं इनके। आपकी क्या मनोभावना है? बताइए।
सामूहिक स्वर-जय बोलो ज्ञानमती माताजी की जय, मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की जय।
श्रावक-वास्तव में हम लोग तो बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे महाराष्ट्र में एक बार तो सन् १९६६ में सोलापुर में इनका चातुर्मास हुआ और दुबारा सन् १९९६ का मांगीतुंगी में हुआ चातुर्मास तो ऐतिहासिक ही रहा है। वहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, सहस्रकूट कमल मंदिर का निर्माण तो बहुत छोटी बात है लेकिन मांगीतुंगी के पर्वत पर इनकी प्रेरणा से जो विश्व की सबसे ऊँची १०८ फुट की प्रतिमा बन रही है, वह जब बन जाएगी फिर तो दुनियाभर से इस तीर्थ पर लोगों का आना-जाना हो जाएगा।
सूत्रधार-जय बोलो ऋषभदेव भगवान की जय, ज्ञानमती माताजी की जय।
बाप रे बाप! इतनी बड़ी प्रतिमा, अब इसके आगे तो कुछ भी कहना बहुत छोटा लगेगा। इसलिए ‘‘गणिनी ज्ञानमती भक्तमण्डल-महाराष्ट्र’’ के भक्तों! आप तो राष्ट्र क्या महाराष्ट्र में जन्म लेकर सचमुच महा सौभाग्यशाली हो गये हो।
(एक ओर उंगली दिखाकर) वो देखो! कर्नाटक के भाई भी हाथ उठाए खड़े हैं। चलो, आप भी अपनी कह लो।
एक व्यक्ति–(दक्षिणी शैली में बोलें) ओ भारतमाता!। हम तुमसे बताना चाहता है कि हमारा श्रवणबेलगोला तीर्थ पर १९६५ में ज्ञानमती अम्मा का चातुर्मास हुआ, तब गोम्मटेश भगवान का पास अम्मा ध्यान किया। उस ध्यान में जम्बूद्वीप मिला। इसलिए अम्मा का साथ-साथ जम्बूद्वीप भी मूल में हमारा बोले तो कोई गल्ती नहीं है।
श्राविका–हमारा पुराना भट्टारक स्वामी जी भी उधर बोलता था कि जम्बूद्वीप रचना हमको इधर भी बनाने का था, लेकिन ज्ञानमती माताजी इधर आ गये इसीलिए रचना इधर बन गया।
श्रावक-उधर कन्नड़ में ज्ञानमती माताजी का लिखा बारहभावना हम लोग रोज पढ़ते हैं।
सामूहिक स्वर–अरसर वैभव सुरर विमानव, धन यौवन संपद वेल्ला।निरुतवु नेनेदरे इन्द्रिय भोगवु, येन्दु निल्लदु स्थिर वेल्ला।।
सूत्रधार–समझ में आया कि ये कर्नाटक वाले क्या बोल रहे हैं। इन सब लोगों को माताजी की बनाई हुई कन्नड़ बारहभावना देखो! कितनी अच्छी याद है। जय बोलो बाहुबली भगवान की जय।
भाई साहब! यहाँ पर मध्यप्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, आसाम, बंगाल, बिहार, झारखंड सभी तरफ के भक्त कुछ न कुछ भाव व्यक्त करना चाह रहे हैं किन्तु क्या करूँ? अपने पास समय की बड़ी कमी है। चलो, जल्दी-जल्दी इनके भी एक-एक विचार सुन लें। तो आइए, मध्यप्रदेश के भक्तों।
एक व्यक्ति–हमारे मध्यप्रदेश के सनावद का नाम तो माताजी के साथ छाया के समान जुड़ा है। इन्होंने सन् १९६७ में हमारे यहाँ चातुर्मास करके ब्र. मोतीचंद जी को घर से निकालकर संघ में सम्मिलित किया, उन्होंने प्रमुखरूप से जम्बूद्वीप बनाने की जिम्मेदारी ली और आज भी वे माताजी के शिष्य बनकर क्षुल्लक मोतीसागर के रूप में जम्बूद्वीप के पीठाधीश नाम से प्रसिद्ध हैं।
महिला–उसके बाद सन् १९९६ में माताजी मांगीतुंगी जाते समय जब दुबारा सनावद गईं तो वहाँ भी इनकी प्रेरणा से ‘‘णमोकार धाम’’ नाम से एक सुन्दर तीर्थ मेनरोड पर बनाया गया है।
सूत्रधार–भइया! मेरा तो सिर चक्कर खाने लगा है इस पर्वतीय व्यक्तित्व के कार्य सुन-सुनकर, कि आखिर इनकी माँ ने इन्हें जन्मघूंटी में कौन सी शक्तिवर्धक दवा पिलाई थी जो नारी की काया में पुरुषों से भी ज्यादा धर्म का अलख जगा रही हैं। तभी तो कहते हैं-
सच तो इस नारी की शक्ती, नर ने पहचान न पाई है।
मंदिर में मीरा है तो वह, रण में भी लक्ष्मी बाई है।।
है ज्ञानक्षेत्र में ज्ञानमती, नारी की कला निराली है।
सब पूछो नारी के कारण, यह धरती गौरवशाली है।।
(तालियों की गड़गड़ाहट, जयकार का सामूहिक स्वर)
एक व्यक्ति–(बीच में आकर) हम बुन्देलखण्ड से आये हैं। हमारे क्षेत्र में तो माताजी का पदार्पण ही नहींr हुआ है। कब हमारा भाग्य खुलेगा, जब हमारे यहाँ की जनता को ज्ञानमती माताजी के साक्षात् चरण वहाँ की धरती पर पड़ेंगे।
दूसरा व्यक्ति–हम तमिलनाडु लोग भी यही निवेदन करने आये हैं कि माताजी एक बार तमिलनाडु में जरूर पधारें। हमारे तिरुमलय के भट्टारक जी तो इन्हीं से पढ़े हैं, वे इनकी बड़ी तारीफ करते हैं।
तीसरा व्यक्ति–(सिर ठोकते हुए) हम लोग आसाम में इनके प्रवचन रोज टी.वी. पर सुनते हैं क्या करें, जब ये वहाँ जाती ही नहीं हैं। कई बार तो हम टी.वी. मंदिर में लगाकर इनका प्रवचन सामूहिक रूप में सबको दिखाते-सुनाते हैं। आज साक्षात् दर्शन करके बड़ी खुशी हुई है।
सूत्रधार-ये लो! अब तो सब अपने-आप ही भाग-भागकर आ रहे हैं और भारतमाता के सामने गुजारिश करके अपना मन हल्का कर रहे हैं। तो अब, आइए गुजराती बाबू।
श्रावक-मारा गुजरात मां ज्ञानमती माताजी ना बहु नाम छे। माताजी गुजरात मां सन् १९९७ जनवरी मां पधारीं, तब तेमनी प्रेरणा थी तारंगा जी सिद्धक्षेत्र मां बहु विशाल भगवान ऋषभदेव नी ग्रेनाइट प्रतिमा विराजमान थई ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पण थई गर्ई। एमना चरणकमल मां वधा गुजराती जैन समाज बारम्बार वंदामि अण विनयांजलि अर्पण करवा माटे अइयां आव्या छे।
श्रेष्ठी–(जल्दी से आगे आकर) यह क्या! सभी प्रदेश के लोग अपनी-अपनी बात बता रहे हैं और हम कलकत्ता वाले जो माताजी के सबसे पुराने भक्त हैं, उनको अभी मौका ही नहीं मिला।
सूत्रधार-सॉरी प्लीज! बोलिए आप।
श्रेष्ठी-ज्ञानमती माताजी ने जब आचार्य शिवसागर महाराज के संघ से सम्मेदशिखर और दक्षिण भारत की यात्रा के लिए सन् १९६२ में अपना आर्यिका संघ बनाकर अलग विहार किया था, तो सबसे पहले सन् १९६३ में इनका चातुर्मास कलकत्ता में ही हुआ था।
महिला-माताजी ने याद तो जरुर होसी।
पुरुष–उस समय केवल २९ वर्ष की उम्र में ही ज्ञानमती माताजी ने अपनी ज्ञानदृढ़ता और प्रौढ़ता के बल पर कलकत्ता की पूरी समाज पर जो छाप छोड़ी थी, वह वास्तव में ऐतिहासिक है। हम लोग चाहते हैं कि एक बार इस संघ का पुन: चातुर्मास कलकत्ता में हो जाए तो नवयुवकों में नई प्रेरणा जग जाने से भारी धर्मप्रभावना हो जाएगी।
श्रावक–अब तो मैं भी जरूर बोलूँगा, क्योेंकि इसके बाद श्रवणबेलगोला की ओर जाते हुए माताजी ने सन् १९६४ का चातुर्मास हैदराबाद-आंध्रप्रदेश में किया था। हम उस समय नये-नये युवक के रूप में देखते थे कि माताजी के द्वारा वहाँ सबसे बड़ी संख्या में पूजा-विधान के आयोजन कराये गये थे, और भी न जाने कितने प्रभावना के कार्य हुए थे। अभयमती माताजी की क्षुल्लिका दीक्षा तो वहाँ के लिए एक नया इतिहास ही था।
श्राविका-तब से लेकर आज तक हम लोगों का कट्टर नियम है कि माताजी कहीं भी हों, हम साल में कम से कम एक बार इनके जरूर दर्शन करने जाते हैं और माताजी का हमारे परिवार पर खूब आशीर्वाद रहता है।
सूत्रधार-
यह केवल घर का दीप नहीं, यह तो दुनिया का दीपक हैं।
इनसे आलोकित नगर हमारे, जन मानस आलोकित हैं।।
हम केवल शब्दों के द्वारा, क्या अभिनंदन कर सकते हैं।
बस श्रद्धा के पुष्पों द्वारा, भावांजलि अर्पण करते हैं।
(तालियों की गड़गड़ाहट और जय-जयकार की ध्वनि)अब आप सुनें बिहार प्रदेश के भक्तों की बात।
श्रावक-हमारे बिहार की तो काया ही पलट दी ज्ञानमती माताजी ने। हम तो सोच भी नहीं सकते थे कि केवल दो सालों में इतना भारी काम बिहार के तीर्थों पर हो जाएगा।
श्राविका–अरे बहनों! हमने तो इनका खूब चमत्कार देखा है कुण्डलपुर में। वहाँ शुरू-शुरू में ऐसे जंगली काले-काले बड़े-बड़े बिच्छू, गोह, सांप और कानखजूरे निकलते थे कि लोग देखकर ही डर जाते थे। लेकिन माताजी ने सबसे पहले तो वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों को नियम दे दिया कि कोई किसी जीव को मारने की कोशिश नहीं करेंंगे, फिर उन्होंने सरसों मंत्रित करके पूरे परिसर में डलवा दी। तब तो चमत्कार ही हो गया कि जीव ही निकलने बंद हो गये।
श्रावक-कुण्डलपुर तीर्थ पर नंद्यावर्त महल, महावीर मंदिर, ऋषभदेव मंदिर, नवग्रह मंदिर और त्रिकाल चौबीसी का विशाल मंदिर बनाना भी तो क्या किसी चमत्कार से कम है!
दूसरा श्रावक-इनके साथ-साथ वहाँ सुन्दर धर्मशाला, भोजनालय आदि सब कुछ सुविधाएँ तो हो गई हैं वहाँ, इसीलिए तो अब यात्री वहाँ ठहरकर बड़े खुश होते हैं।
तीसरा श्रावक–भाई साहब! इसी कुण्डलपुर यात्रा के बीच में माताजी सन् २००३ में सम्मेदशिखर भी तो गई थीं। पूरे ४० साल के बाद सम्मेदशिखर में उनका पदार्पण हुआ था।
श्राविका-तब हम भी बनारस से शिखर जी गये थे और माताजी के साथ पहाड़ की वंदना करके बड़ा आनंद आया था।
दूसरी महिला-हम लोग भी उनकी वजह से ही आरा से गये थे। गुरुओं के साथ यात्रा करने में मजा तो आता ही है, पुण्य भी ज्यादा मिलता है।
श्रावक-इन सबके साथ-साथ शिखर जी में माताजी की प्रेरणा से एक पर्मानेंट उपलब्धि हुई उस तीर्थ पर।
श्राविका–अच्छा समझ गई! वही न, जो बाहुबली चौबीस टोंक रचना के पास मैदान में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का मंदिर बना है। उसका तो पंचकल्याणक भी सन् २००५ दिसम्बर में हो चुका है।
श्रावक–वह विशाल प्रतिमा ऋषभदेव की बड़ी सुन्दर है। उनके दर्शन करके सभी को जैनधर्म की प्राचीनता का ज्ञान होगा।
सूत्रधार–ये देखो! हिन्दुस्तान के तमाम लोगों की बातें सुन-सुनकर अमेरिका से भी कुछ भक्त लोग ज्ञानमती माताजी के गुणगान करने आ गये हैं। आओ भाई! आप भी माताजी से परिचित हैं क्या?
महिला-(विदेशी रूप वाली) भारतवासियों! आप तो ज्ञानमती माताजी को बाहर-बाहर से जानते होंगे, लेकिन (थोड़ा रुक-रुक कर) मैंने तो प्रâांस यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च स्कॉलर के रूप में इनसे सन् १९७६-७७ में बहुत गहराई से ज्ञान प्राप्त किया है और इनकी पूरी साध्वी चर्या देखकर अपनी थिसिस में उस बात को लिखा भी है।
सूत्रधार–अच्छा! तो क्या आप प्रâांस की एन.शांता जी हैं?
महिला–यस यस! थैंक यू-थैंक यू।दूसरी विदेशी महिला-
सूत्रधार–अरे वाह! तब तो आपने भी अपनी थिसिस में कुछ न कुछ लिखा होगा। यहाँ तो और भी रिसर्च स्कॉलर हैं जिन्होंने ज्ञानमती माताजी के ज्ञान से लाभ प्राप्त किया है, लेकिन अब मैं अमेरिका से आए एक महानुभाव को प्रस्तुत कर रहा हूँ, देखिए! ये क्या कह रहे हैं?
पुरुष-जय हो भारत माता की जय हो। हे माँ! मैं हूँ तो हिन्दुस्तानी ही, बस अमेरिका में रहकर थोड़ा बहुत धर्म का भी काम कर लेता हूँ। अमेरिका में सन् २००० अगस्त में संयुक्तराष्ट्र संघ ने सहस्राब्दि के एक अद्वितीय ‘विश्वशांति शिखर सम्मेलन’ का आयोजन किया था। उस समय वहाँ ७० देशों से हिन्दू एवं अन्य सभी धर्मों के लगभग १५०० धर्मगुरुओं ने भाग लिया था, तब ज्ञानमती माताजी ने भी अपने शिष्य कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन को वहाँ जैनधर्माचार्य के रूप में भेजा था। तब वहाँ इनके भाषण से लोगों ने जैनधर्म के साथ-साथ भगवान ऋषभदेव के बारे में भी जाना था।
सूत्रधार–मेरे प्यारे देशवासियों! आप सभी ने अनेक प्रदेश के लोगों से ज्ञानमती म्ााताजी के कार्यकलापों को सुना है। वास्तव में इनका जीवन एक सूर्य के समान है जो स्वयं तपकर संसार को प्रकाश देता है, एक पेड़ की तरह है जो निष्पक्ष रूप से सबको सुखद छाया प्रदान करता है और मिश्री की भांति है जो सभी को मिठास अर्थात् हित का मार्ग प्रदान करती है।
भारत माता-मुझे गौरव है कि मेरी जिस गोद में आज से करोड़ों, लाखों और हजारों वर्ष पहले अनेक तीर्थंकर आदि महापुरुषों के साथ ब्राह्मी, सुन्दरी, सुलोचना, सीता, अनंतमती और चंदना जैसी महान सती आर्यिकाएँ खेली हैं, उसी गोद का गौरव बीसवीं सदी में ज्ञानमती माताजी ने वृद्धिंगत किया है। अब वह क्वांरी कन्याओं की आर्यिका परम्परा पंचमकाल के अंत तक निर्बाधरूप से चलती रहेगी। यही ज्ञानमती माताजी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हमारे देश के लिए है।
सब मिलकर बोलो-गणिनी ज्ञानमती माताजी की जय।
अंत में सामूहिक नृत्यगान के साथ समापन करें।