प्रस्तुति – पवन जैन पापड़ीवाल ( वास्तुशास्त्री )- औरंगाबाद ( महाराष्ट्र )
आज के इस भागदौड की जिंदगी में इन्सान का सबसे बड़ा और सबसे सुंदर सपना (ख्वाब) होता है उसका एक छोटा सा प्यारा सा अपना एक घर ! बहुत बार ऐसा होता है कि अपनी जिंदगी की पूरी कमाई लगाने के बावजूद उसकी जिंदगी की शाम होने तक वो दो,तीन कमरे का ही मकान बना पाता है, लेकिन उसी छोटे से, प्यारे से अपने घर में अगर उसे सुख,शांती, समृद्धि मिले तो उसका मन बागबाग हो उठता है । इस तरह सोचना ये एक सहज (Normal) बात है । कुछ लोगों को तो ये सुख मिल पाता है पर कुछ लोग इन खुशियो से कोसों दूर दिखाई देते हैं । कोई गलती न होते हुए भी ईमानदारी से पूरी कोशिश करने के बावजूद उन्हें यह खुशी नही मिल पाती । ऐसे समय हमारी कहीं कोई गलती हो रही है क्या, हम कहीं पर चूक रहे हैं क्या, ये बात मन में आना भी सहज है । हमें हमारे इन सवालों का जवाब मिल सकता है । हमारे प्यारे से घर में जहां हमने सपने देखे, जिस घ रको, वास्तु को हमने अपने हाथो से संजोया,उस वास्तु में किसी प्रकार की त्रुटि रह गई हो तो जिसके बदलाव से हमारा जीवन एक नई मंजिल की ओर अपने कदम बढ़ा सकता है । हमारी एक छोटी सी कोशिश, एक छोटा सा बदलाव हमारी पूरी जिंदगी का रूप पलटकर रख सकता है ।
मनुष्य के जीवन पर कार्य करने वाले तीन घटक ( बातें) हैं ।
(भाग्य, पुरुषार्थ एवं वास्तु)
दैनिक जीवन में हम भाग्य को गाड़ी, पुरूषार्थ को ड्राइवर तथा वास्तु को सड़क की संज्ञा दे सकते हैं । इसमें से गाड़ी (भाग्य) खराब हो तो कितना भी बढिया ड्राइवर हो और कितनी भी बढ़िया सड़क हो सब बेकार है । यदि गाड़ी बढ़िया हो (भाग्य) सड़क भी अच्छी हो (वास्तु) और ड्राइवर (पुरुषार्थ) ठीक न हो, अनाड़ी हो, शराबी हो तो भी यात्रा का आनंद न आवेगा । उसी प्रकार गाड़ी और ड्राइवर (भाग्य और पुरुषार्थ) दोनो बढ़िया हो और सड़क (वास्तु) खराब हो तो यात्रा जैसे तैसे संपन्न हो जावेगी, परंतु विपरीत हवा, खराब मार्ग गड्ढे, कीचड़ आदि के कारण यात्रा के समय व तकलीफों में बढ़ोत्तरी होगी और कभी- कभी व्यक्ति गंतव्य तक पहुंच नही पाता और यदि पहुँच भी गया तो यात्रा के कटु अनुभव उसके आनंद को समाप्त कर देंगे ” इसलिए तो हमारे जीवन पर सबसे जादा परिणाम हमारे भाग्य और पुरुषार्थ से होते हैं उसके बाद नंबर आता है निसर्ग मतलब वास्तु का । गणितीय भाषा में सोचे तो भाग्य – ४०%, पुरुषार्थ (कर्म) ४०%, निसर्ग (वास्तु) २०% इसमें भी सोचे तो प्रकृति के हाथ में १०% होते हैं और १०% वास्तु (हमारे) हाथ में । इन १० % (प्रतिशत) में तीन भाग होते हैं- १) Outer ३.३% – बाहरी २) Construction ३.३% – बांधकाम ३) Inner Palcement ३.३% – अंतर्गत रचना हमारे आसपास की सृष्टि में व्यक्ति को अनेक मुश्किलों से बचाव के लिए हमारे ऋषी मुनियों ने वास्तु शास्त्र का सृजन करके हम पर बड़ा उपकार किया है । जैन तथा वैदिक ग्रंथों की श्रृंखला में वास्तुशास्त्र पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं । प्रत्येक स्थान के वातावरण, पर्यावरण का स्थायी एवं अस्थायी रूप से रहने वाले लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है । मनुष्य अपने निवास के लिए, कारोबार के लिए भवन निर्माण करता है तो उसको वास्तुशास्त्र के द्वारा मर्यादित किया गया है । वास्तु शास्त्र का उद्देश मनुष्य को कल्याण मार्ग में लगाना है । वास्तु शब्द का अर्थ है – निवास करना, रहना । जिस जगह पर हम निवास करते हैं उसे वास्तु कहते हैं । वास्तुशास्त्र यह मनुष्य को मिला हुआ एक अनमोल तोहफा है । वास्तु शास्त्र यह पूरी तरह से निसर्ग से बना हुआ है, निसर्ग में स्थित दृश्य- अदृश्य, चेतन- अचेतन, ये सब इस ब्रहमांड को बनाने वाले विश्वनिर्माता के अंग हैं । भवन निर्माण का अपना विज्ञान होता है, जिसे वास्तुशास्त्र कहा जाता है । वास्तु किसी भी भवन निर्माण का आधार है । भवन निर्माण के दौरान प्रत्येक व्यक्ति को प्राथमिक स्तर जैसे कि प्लाट खरीदने से लेकर अंत तक, भवन में प्रवेश तक वास्तुशास्त्र के नियमों का अनुकरण करना चाहिए । प्रत्येक चीज वास्तु के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए क्योंकि वास्तु सिर्फ एक शब्द न होकर एक संपूर्ण विज्ञान है । मानव जीवन प्रकृति के कुछ निश्चित नियमों एवं सिद्धांतों के अनुरूप संचलित होता है । हम जितना आधुनिक होते जा रहे हैं उतना ही हम हमारे प्राचीन वेदों एवं शास्त्रों से दूर जा रहे हैं और इसी कारण हमेंं जीवन में हर दिन नित नई समस्याओ का सामना करना पड़ रहा है । वास्तु कोई धर्म विशेष या केवल एक शब्द मात्र नही है अपितु संपूर्ण विज्ञान है जो हमें यह बताता है कि भवन की दिशा क्या होनी चाहिए और भी आंतरिक बातें । वास्तु में यह देखा जाता है कि किस तरह भवन पर ब्रहमांड मे फैली चुम्बकीय ऊर्जा का सकारात्मक प्रभाव पड़े और उसमे रहने वाले लोगों को अधिकतम उन्नति और लाभ प्राप्त हो । यह भी निश्चित है कि वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्माण भवन पर विभिन्न ग्रहों एवं पंचतत्वों द्वारा पड़ने वाला प्रभाव भी सकारात्मक और लाभदायी रहेगा । वास्तुशास्त्र पूर्णत: दिशाओं पर आधारित है, चार दिशा और चार उपदिशा हैं, उपदिशाओं में डबल एनर्जी होने की वजह से वास्तु उपदिशा पर ज्यादा काम करती है । वास्तुशास्त्र एक संपूर्ण सत्य है। उसी प्रकार एक संभावना भी है । जिस प्रकार किसी विद्युत प्लग का करंट किसी को लगता है तो किसी को सिर्फ चुणचुण होती है, तो किसी को झटका लगकर नीचे गिर जाता है, तो किसी को वह करंट (झटका) लगकर उसकी जान निकल जाती है । इसी प्रकार वास्तु की त्रुटियों का प्रभाव तो जरूर होता है। पर किस व्यक्ति पर कितना असर होगा ये नहीं जान पाते क्योकि हर इंसान का अपना भाग्य, पुरुषार्थ होता है और उसी प्रकार उसे फल मिलता है । इसलिए झटका तो लगेगा पर उस झटके का प्रभाव किस पर कितना होगा यह उस व्यक्ति के अपने भाग्य और पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। उपरोक्त पूरा ज्ञान हमारे ऋषी मुनियों ने कई ग्रंथो में लिख रखा है। उसमे मयमतम्, समरा.गण, सूत्र, मनुष्यालय, चंद्रिका, मानसार आदि ग्रंथ संस्कृत में हैं। इनमें से कई ग्रंथों का हिंदी तथा अंग्रेजी अनुवाद हो चुका है। इन सबमें मयमतम् सर्वतोपरि मानना उचित होगा। वृक्षायुर्वेद में कई प्रकार की वनस्पतियों का जिक्र किया गया है, कौन कौन से वृक्ष हमारे आसपास हों, या न हों, इसका पूरा विवेचन इस ग्रंथ से हमें प्राप्त हो सकता है” यह संसार पंच तत्व से बना है और प्रत्येक प्राणी के जीवन में भी इन पांच तत्वों का महत्वपूर्ण स्थान है । इनमे से एक की भी कमी जीवन को कष्टप्रद बना देती है । ये पांच तत्व हैं- अग्नी, वायु, पृथ्वी, जल और आकाश : हमारा मतलब एक मनुष्य के शरीर में ये पंच तत्व मौजूद हैं । इसलिए निसर्ग में किसी भी प्रकार की कोई हलचल होती है तो उसका सीधा असर मनुष्य पर उसके जीवन पर होता है । वास्तु में भी उसका (पंचतत्वों का) उतना ही महत्वपूर्ण स्थान है जितना अन्य स्थानों पर । इस प्रकार ऊपर दिखाए गए तख्ते की वजह से हमे यह पता चलता है की हमारे वास्तु विज्ञान में इन पंचतत्व का स्थान किस दिशा में कहां पर है। वास्तु विज्ञान पॉचों तत्वों के अत्यंत सक्षम (Powerful) प्रभाव पर नियंत्रण करने का काम करता है । इन पंच तत्वों में से किसी भी तत्व का अपना स्थान (जगह) बदलने से निसर्ग का समतोल या उससे हमारा जो संतुलन है वह बिगड़ने की पूरी संभावना हो सकती है । यह पंचतत्व हमारे प्रकृति के महत्वपूर्ण घटक हैं । वास्तुशास्त्र हमें प्रकृति के साथ तालमेल कर जीवन व्यतीत करना सिखाता है । अगर कहें कि वास्तुशास्त्र एक जीवनशैली है , तो गलत नही होगा । सूरज हमारी ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है अत: हमारे वास्तु का निर्माण सूरज की परिक्रमा को ध्यान में रखकर होगा तो अत्यंत उपयुक्त रहेगा । सूरज में सात प्रकार के रंग तथा आठ प्रकार की किरणें(Rays)होती हैं “उनमे सात रंग दिखाई देने वाले होते हैं तथा आठ किरणें (Rays)अदृश्य होती हैं। इंद्रधनुष के सात रंग(VIBGYOR), यानी जामुनी(Voilet), गहरा नीला (Indigo), आसमानी (Sky Blue), हरा(Green), पीला (Yellow), नारंगी(Orange), तथा लाल(Red). आठ अदृश्य किरणें होती है। Ultra Voilet Rays, Infra Red Rays, Alfa Rays, Bita Rays, X Rays, Gyama Rays & Cosmic Rays. दृश्य सात रंगों में से लाल रंग मे इन्फ्रा रेड किरणें अधिक होती हैं और जामुनी रंग मे अल्ट्रा वॉयलेट किरणें अधिक होती हैं। दिशाएँ आठ होती हैं । सूरज पूरब में उदित होकर पश्चिम में अस्त होता है अत: उसकी परिक्रमा मे ईशान्य, पूरब, आग्नेय, दक्षिण, नैऋृत्य, पश्चिम दिशाएँ आती हैं। सूरज की परिक्रमा वर्ष में ६ महिने उत्तरायण, ६ महिने दक्षिणायण होती हैं । जिससे पूरब दिशा मे सूर्योदय की जगह कुछ बदलती है। सूरज की पहली किरण वास्तु के ईशान्य कोण पर पडती है अत: ईशान्य कोण में कम से कम निर्माण कार्य करना चाहिए ताकि वह सूरज की लाभदायक किरणें हमारे वास्तु तक पहुंचने में बाधक ना बनें तथा दक्षिण- पश्चिम मे निर्माण कार्य अधिक भारी और ऊँचा होना चाहिए ताकि संध्याकालीन प्रखर सूरज की नुकसानदायक किरणों से हम बचते रहें इसलिए ईशान्य दिशा को अधिक खुला पवित्र रखने का तथा नैऋत्य दिशा को बंद रखने का दिशानिर्देश है । सुबह ३ से ६ बजे तक के समय को ब्रम्हमुहूर्त कहा जाता है। इस समय वातावरण में जब (ओझोन वायु) कार्यान्वित रहता है । यह किरणें हमारे लिए बहुत अच्छी रहती हैं। यह समय अध्ययन के लिए बहुत शुभ होता है। साधु संत इसी समय में साधना करते हैं। हर दिन इस समय ध्यान, पढ़ाई, देवपूजा करने वालों को देवपुरुष के समान दर्जा मिलता है। हर वास्तु के ब्रम्ह स्थान में Cosmic Rays कार्यान्वित रहती है। इस रेज में बहुत ताकत होती है। सबसे ज्यादा पॉजिटिव एनर्जी प्रदान करने की ताकत इसमें है इसलिए हमारे वास्तु का ब्रम्हस्थान हमेशा खुला एवं साफ -सुथरा होना चाहिए । ब्रम्हस्थान निर्मिती का स्थान है। हर अच्छी बात का, हर कार्य का उद्गम इसी पवित्र स्थान से होता है। प्रात: ८ से १०-११ बजे के समय में इन्फ्रा रेड रेज सूर्य से अधिक मात्रा में निकलती है यह रेज हमारे वास्तु के पूरब तथा आग्नेय भाग पे पडती है। शास्त्रों के अनुसार हमारा खाना इस समय में बनना चाहिए क्योंकि इस समय में निर्जंतुकीकरण खाना बनता है इसलिए जैन साधु अपना आहार इसी समय में करते हैं। इससे स्वास्थ्य ठीक रहता है। सूरज अपनी परिक्रमा लगाते हुए दोपहर में दक्षिण दिशा मे रहता है। दोपहर में सूरज की किरणें ज्यादा तेजपुंज हो जाती हैं। जिसे हमारा शरीर भी कभी- कभी सहन नहीं कर पाता। सूरज शाम होते – होते नैऋत्य से होते हुए पश्चिम में जाकर अस्त हो जाता है इसलिए दक्षिण दिशा में अधिक बांधकाम होना चाहिए ।
शयनकक्ष तथा सोने का तरीका
सामान्यत : मनुष्य का शयनकक्ष नैत्रृत्य दक्षिण तथा पश्चिम भाग में हो । अविवाहित पुत्र का कक्ष आग्नेय भाग में उत्तम तथा पुत्रियो का वायव्य दिशा में उत्तम, ईशान्य भाग में बुजुर्ग लोगो का शयनकक्ष उत्तम, ईशान्य भाग में नवविवाहितों का कक्ष गलत माना गया है । शयनकक्ष में सोते समय हमेशा सर दीवार को सटाकर सोना चाहिए । सर के पास Electric Points तथा पानी न हो । पैर धोकर और पोंछकर ही सोना चाहिए । पूर्व की ओर पैर करके सोने से नींद कम आती है । ज्ञान की प्राप्ती होती है, हलकी सी चिंता रहती है । बच्चों के लिए उत्तम । उत्तर दिशा की ओर पैर करके सोने से स्वास्थ्य लाभ तथा आर्थिक लाभ की संभावना रहती है । विवाहित लोगो के लिए उत्तम । पश्चिम दिशा की ओर पैर करके सोने से शरीर की थकान निकलती है, नींद अच्छी आती है । बुजुर्ग लोगो के लिए उत्तम तथा दक्षिण की ओर समाधिमरण के समय पैर कर देना चाहिए । अन्य समय दक्षिण की ओर पैर करके सोना निषिद्ध है । अध्ययन अध्ययन कक्ष पूरब, उत्तर, ईशान्य तथा पश्चिम मध्य उत्तम । इनमें अध्ययन करते समय दक्षिण तथा पश्चिम की दीवार को सटाकर पूरब तथा उत्तरमुखी बैठें। अपने पीठ के पीछे द्वार अथवा खिड़की न हो मतलब गड्ढा न हो । अध्ययन कक्ष का ईशान्य कोण खाली हो । हमारे कई सवाल के जवाब ध्यान करने से उत्तर दिशा में मुख करने से प्राप्त होते है ।
(प्रश्नों के उत्तर – उत्तर दिशा)
पैरों मे जूते चप्पल पहनकर अध्ययन तथा भोजन न करें । भोजन करते समय पूर्व तथा उत्तरमुखी भोजन करें, मौनपूर्वक आहार ग्रहण करें । दक्षिणमुखी कभी भोजन न करें । टी.वी॰ के सामने बैठकर भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए । भोजन करने से पहले हाथ पैर तथा मुंह धोकर फिर भोजन करें ।
गृह चैत्यालय
जैनों का गृहचैत्यालय मूर्तियां होने पर वायव्य में पूर्वमुखी तथा नैऋत्य में उत्तरमुखी माना गया है । गृह चैत्यालय के बारे में निम्न तीन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है ।
* भगवान का मुख पूरब या उत्तर दिशा में हो ।
* भगवान की दृष्टी घर पर हो तथा
* भगवान का सीधा हाथ घर की ओर हो । उपरोक्त नियमों का ध्यान रखते हुए वायव्य में पूरबमुखी और नैऋत्य में उत्तरमुखी ही उत्तम । दक्षिण मध्य तथा पश्चिम मध्य में भी चैत्यालय बनाया जाता है । चैत्यालय में वेदी छोड़कर तीन कटनी हों और पहली कटनी पर सिंहासन पर श्रीजी विराजमान हों । चैत्यालय में परिक्रमा न हो । चैत्यालय में ध्वज दंड न हो, शिखर न हो, कलश न हो। चैत्यालय में मूर्ति ज्यादातर पदमासन हो । चैत्यालय की मूर्ति घर के पुरुष के ग्यारह अंगुल प्रमाण से ऊंची न हो । इनमें पाच, सात, नौ अंगुल प्रमाण मूर्ति उत्तम मानी गई है । ग्यारह अंगुल से ऊंची प्रतिमा मंदिरजी में होती है। चैत्यालय की दीवार को लगकर संडास बाथरूम की दीवार न हो या ऊपर या नीचे भी न हो । चैत्यालय के उपर बेडरूम, पानी की टंकी न हो । इन सब बातों का ध्यान करने पर ईशान्य भाग में गृह चैत्यालय नहीं आता है ।
तिजोरी / अलमारी
अलमारी तथा तिजोरी घर के अंदर हमेशा पश्चिम तथा दक्षिण दीवार को लगाकर पूरब तथा उत्तरमुखी खुलने वाली होनी चाहिए । घर के exact चार कोने में याने आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ईशान्य में कभी तिजोरी नही होना चाहिए । घर के उत्तर भाग में दक्षिण की दीवार को लगाकर तिजोरी तथा उसके सन्मुख तावदान, खिडकी Ventilator हो तो उत्तम मानी गई है । अपनी आवश्यकतानुसार धनसंचय एैसे तिजोरी में रहता है । पूरब दीवार की ओर अलमारी पश्चिममुखी हो तो धन जाते रहता है, नुकसान होता है लेकिन ऐसी तिजोरी बैंक वालों के लिए ज्यादा फायदा करती है इससे उनका धन लोगो को कर्जा देने पर ज्यादा मात्रा में उपयुक्त होता है जिससे बैंक का लाभ ही होता है । अलमारी पर लक्ष्मी स्वास्तिक निकालना कुंकुम रोली से फायदा होता है । कम से कम साल मे चार बार इसे दोहराना चाहिए (मुहूर्त : दशहरा, दिवाली पाडवा, चैत्र शुक्ल एकम् ( गुडीपाडवा), आखातीज (अक्षयतृत्तीया) )। ऐसी तिजोरी को आइना नहीं होना चाहिए । तिजोरी/अलमारी बेड को सटाकर न रखें तिजोरी के सामने दरवाजा न हो ।
आइना (Mirror)
आइना हमेशा परावर्तित करने की क्षमता रखता है । मोटामोटी पूरब दिशा ज्ञान, उत्तर दिशा धन, पश्चिम दिशा खर्चा, दक्षिण दिशा Health Loss से संबंधित मानी गई है । इसलिए पूरब तथा उत्तर दिशा में reflection नही होना चाहिए । अतएव आइने हमेशा पूरब तथा उत्तर दीवार को हो जिससे वो दक्षिण पश्चिम को reflect करे । यहां पर विशेषत : इस बात को समझें कि अलमारी/तिजोरी हमेशा दक्षिण पश्चिम की दिवार को होती है और आइने पूरब और उत्तर की दीवार को । अतः ये दोनो एक दूसरे से विपरीत हैं । आइना सही दिशा में होने के बावजूद भी पलंग के सन्मुख तथा दरवाजे के सन्मुख न हो ।
ढाल (उतार)
ढाल याने झुकाव/जिसकी ओर झुकेंगे उस दिशा के अनुकूल तथा प्रतिकूल परिणाम हमे प्राप्त होते हैं इसलिए पूरब, उत्तर एवं ईशान्य की ओर जमीन का ढाल होना चाहिए। अन्य किसी भी दिशा में ढाल हो या गड्ढे हों तो उसके विपरीत परिणाम यजमान के ऊपर आने की संभावना होती है । इसलिए दक्षिण पश्चिम में पहाड़ी हो, टीला हो, उंची इमारते हों तो फायदा होता है । यही बात पूरब उत्तर में आने से प्रतिकूलता आती है । पुरब उत्तर में नदी, तालाब, बावडी, खाई, कुआँ आदी होने से तथा खुलापन होने से अनुकुलता की चरणसिमा हो जाती है । यही बात दक्षिण पश्चिम मे घातक प्रतिकूलता बन जाती है । मंदिर वास्तु तथा गृह वास्तु में हल्का सा फर्क होता है बाकी सब नियम एक ही होते हैं । अध्ययन तथा अपने अनुभव पर मैं इतना ही कह सकता हूं कि दिशाहीन न हो । दिशा बदलो – दशा बदलेगी