अनादिकाल में जब सृष्टि की रचना हुई थी सृष्टि के रचयिता ने विश्वकल्याण के लिए जीव एवं प्रकृति का सृजन किया। जीव एवं प्रकृति दोनों ही प्रगतिशील हैं। प्रकृति एवं जीव अपनी पृथकता का अनुभव करते हैं मगर क्रियाएँ प्रकृति एवं जीव के शरीर से अपने आप होती रहती हैं। हर धर्म में सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत पूजन स्थल का निर्माण किया जाता है। स्थान का अभाव होने के कारण व्यक्ति सार्वजनिक पूजा स्थल का निर्माण तो कर रहा है मगर व्यक्तिगत पूजा स्थल अपने निवासस्थान पर ही बना लेता है। पूजा क्या है ? पूजा क्यों करनी चाहिए ? पूजा कैसे करनी चाहिए ? अपने निवासस्थान पर पूजा का स्थान कहाँ होना चाहिए? विश्व में अलग-अलग पंथ हैं अलग- अलग विधियाँ हैं। इन सब बातों को सूक्ष्म रूप में बताने का प्रयास कर रहा हूँ। धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण। धर्म पंथ साधे बिना, नर तिर्यञ्च समान।।(अज्ञात) इन दो पंक्तियों में ही धर्म का सार बता दिया गया है। पूजा क्या है— परमपिता परमात्मा अलग-अलग धर्म में अलग-अलग नामों से पूजे जाते हैं। सनातन धर्म वाले परमात्मा को ब्रह्मरूप में मानते हैं। जैन मतावलंबी सिद्ध के रूप में मानते हैं। इस्लाम को मानने वाले अल्लाह के नाम से इबादत करते हैं। क्रिश्चियन गॉड के नाम से याद करते हैं। सभी सम्प्रदाय वालों की मान्यता एक ही है इनका कोई आकार नहीं है निराकार हैं, विश्व व्यापी हैं। मूल विषय की जानकारी प्रदान करने के लिए उपरोक्त जानकारी देना आवश्यक है।
घर में पूजा स्थान कहाँ होना चाहिए —
अपने घर, बंगले, कोठी या फ्लैट में पूजास्थल का उपयुक्त स्थान ईशान कोण माना गया है। ईशान कोण का मतलब ईश्वर का स्थान। सद्बुद्धि का स्थान, शांति का स्थान। सकारात्मक ऊर्जाओं को प्राप्त करने का स्थान। नारद पुराण में ईशान कोण को गुरु बृहस्पति की दिशा मानी गयी है। सुजान पुरुषों को ईशान कोण में परमात्मा के लिए पूजन का स्थान बनाना चाहिए। पूजन का स्थान बनाते समय विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए। उस स्थान का निर्माण भारी- भरकम पत्थरों से न बनायें। अच्छे वृक्ष की लकड़ी से निर्माण करावें। पूजा स्थान के अगल-बगल, उपर-नीचे लैट्रीन (बाथरूम) का स्थान न हो। परमात्मा के स्वरूप की प्रतिमा को उत्तर या पूर्वमुखी रखने का निर्देश शास्त्रों में मिलता है एवं प्रचलन में भी यही देखने को मिल रहा है। नारद पुराण में पश्चिम की ओर मुँह करके प्रतिमा रखने को श्रेष्ठ बताया है। ब्रह्माविष्णुशिवेन्द्रभास्करगुहा: पूर्वापरास्या: शुभा:। प्रोक्तौ सर्वदिशामुखौ शिवजिनौ विष्णुर्विधाता तथा। चामुण्डाग्रहमातरो धनतिद्र्धैमातुरो भैरवो व देवो दक्षिणदिङ्गमुख: कपिवरा नैर्ऋत्यवक्त्रो भवेत् ।।
(वास्तुराजवल्लभे)
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, कार्तिकेय की पूर्व अथवा पश्चिम मुख स्थापना करें अथवा शिव,जिन, विष्णु, ब्रह्मा इनका मुख किसी भी दिशा में किया जा सकता है। सूर्यादि ग्रह, चामुण्डा, मातृगण, कुबेर, गणेश, भैरव की स्थापना दक्षिण मुख तथा हनुमान जी की नैऋत्य मुख स्थापना करें। पुराणों के कथा अनुसार सूर्योदय से ९० मिनट पहले का समय ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। ऐसी मान्यता है— रात्रि में चाँद और तारों से निकलने वाला अमृत पृथ्वी पर परत के रूप में फैल जाता है इस समय शिक्षा, धर्म कार्य, स्वास्थ्य, दान, देव पूजन के लिए अति उत्तम है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उत्तम माना गया है। पूजा करने का श्रेष्ठ समय ब्रह्म मुहूर्त बताया गया है।
पुञ्चस्वेतेषु शौचेषु, मन: शौच: विशिष्यते ।
पूजन स्थान पर प्रवेश करने के लिए एवं पूजन करने के लिए शरीर और वस्त्र की शुद्धता का विशेष ध्यान रखना चाहिए। शरीर पर धूल लगी हुई हो, कपड़े भी धूल से सने हुए हों तो आध्यात्मिक ऊर्जाओं को ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न होगी। पूजन स्थल में प्रवेश करने के लिए शरीर एवं वस्त्र की शुद्धता जरूरी है। पूजन के स्थान पर नंगे पैर खड़े होकर या जमीन पर बैठकर पूजा करने से हमारे शरीर में उत्पन्न आध्यात्मिक तरंगे भूमि के संपर्क से भूमि में समा जाती हैं। आसन पर ही खड़े होकर या बैठकर पूजा करनी चाहिए। पूजन की दो पद्धतियाँ अनादिकाल से प्रचलित हैं। एक द्रव्य पूजन एवं भाव पूजन। भाव पूजन और मानसिक पूजन एक ही शब्द के पर्यायवाची शब्द हैं। पूजन करते समय परमात्मा के समक्ष सम्मानपूर्वक जो द्रव्य चढ़ाया जाता है वह द्रव्य या सामग्री अच्छी होनी चाहिए। सामर्थ्य न होने पर सामग्री कम लायें मगर उत्तम गुण वाली लायें। समय एवं आर्थिक परिस्थितियाँ साथ न दें उस परिस्थिति में भाव पूजन (मानसिक पूजन) भाव सहित कर लेना ही श्रेष्ठ है। परमात्मा के लिए आपके द्वारा चढ़ाये गये नैवेद्य, दीप, धूप, फल, फूल इत्यादि से अधिक आपके भाव, श्रद्धा- समर्पण का अधिक महत्व है। इसलिए कहा गया है भाव पावन आचरो। ईशान कोण में पूजन एवं मंत्रों आदि का उच्चारण, घंटे की आवाज, शंखध्वनि दीपक-कपूर के द्वारा आहुतियाँ इत्यादि क्रियाओं से उस भवन के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जाओं की उत्पत्ति होने लगती है। जहाँ सकारात्मक भाव होते हैं वहाँ शांति और समृद्धि होती है। पूजन करने से आदमी का आत्मबल मजबूत होता है। आत्मबल एवं सकारात्मक सोच आपके जीवन को आगे बढ़ाने में निरन्तर सहायक होता है। आत्मबल, धार्मिक शक्ति, सकारात्मक ऊर्जाएँ एवं सकारात्मक सोच आपको मंजिल तक पहुँचाने में सहायक होती है। समय-समय क्या करता है? समय यूँ ही निकल जायेगा। कुछ समय निकाल ले परमात्मा के लिए वो तेरे काम आयेगा।
—सम्पतकुमार सेठी
जैन रसोई पद्धति की वैज्ञानिकता
जैन रसोई के मुख्य किरदार हैं— श्रावक एवं श्राविका। जिनका मुख्य दायित्व अपने परिवार के अलावा श्रमण अर्थात् साधुओं व त्यागियों के लिये उचित आहार उपलब्ध कराना है। जैनाचार में आहार पर गहराई से विचार हुआ। श्रावक के लिये व साधुओं के लिये कौन सा आहार उपयुक्त है इसकी विवेचना प्रत्येक ग्रंथ में हुई है। जैन चिंतन में भोजनशाला को एक प्रयोगशाला के रूप में वर्णित किया है। जिसके उपकरण व कर्मी सभी नियमों से बंधे हैं जिनका लक्ष्य ऐसे भोजन का निर्माण करना है जो स्वास्थ्यवर्धक हो, शुद्ध हो, शाकाहारी हो व मन व मस्तिष्क को चैतन्य रखने में सक्षम हो। वर्तमान युग में अनेक खाद्य सामग्री बाजार में उपलब्ध है। नये स्वादों ने चटोरों की भीड़ खड़ी कर दी है। अभक्ष्य वस्तुओं की एक लंबी लिस्ट हमारे सामने है। प्रत्येक रसोईघर बाजारवाद का प्रतिनिधित्व करने वाले होटल बन गये हैं। फलत: परिवारों में बढ़ रहा है— बीमार एवं अशुद्ध जीव समूह का प्रतिशत। मेडिकल साइंस ने फास्ट फूड, प्रिजर्वफूड, रात्रिभोजन, मांसाहार आदि के दुष्परिणामों को स्वीकार किया है। कई बीमारियों का कारण खाद्य आदतें हैं, शोध व अनुसंधानों से सत्य साबित किया है। जबकि हमारे श्रमण चिंतकों ने जीवन की प्रयोगशाला में पहले ही समझ लिया था इसलिये जैनागम में रसोई के लिये चार प्रमुख शर्तें निर्धारित हैं—
१. द्रव्य शुद्धि — खाना तैयार करने वाली सामग्री की शुद्धि , अन्न की शुद्धि, जल की शुद्धि, वन
२. क्षेत्र शुद्धि — खाना बनाने के स्थान का शुद्धिकरण ।
३. काल शुद्धि — भोजन बनाने वाली सामग्री का समय, मर्यादा एवं रात्रि में भोजन तैयार न करना काल शुद्धि कहलाता है।
४. मन शुद्धि — प्रसन्नतापूर्वक भोजन तैयार करना व खिलाना ये चारों प्रकार की शुद्धियां बनाने का उद्देश्य है, शुद्धता, प्रासुकता, संतुलन व निरामिष भोजन। आज समय की कसौटी पर यह सिद्ध हो गया है कि रात्रि में भोजन न देने वाली माँ बड़ी भारी वैज्ञानिक होती है। छना पानी पीने वाला जैन समाज एक्वागार्ड के सिद्धांत से ५००० वर्ष पूर्व भी परिचित था। जैन रसोई के भेद विज्ञान को समझने के लिये हम प्रवेश करते हैं हमारे चौके में जिसकी डायरेक्टर है जैन विदुषी गृहणी। हमारी दैनिक क्रिया आरम्भ होती है पानी छानने की क्रिया से। । बासी पानी को एक मटके से दूसरे मटके में छानना, उसके बाद गलने को एक पात्र में धोना तथा जीवानी को उचित स्थान पर पहुँचाना कितना सूक्ष्म विवेक है यह अहिंसा का, जो शायद ही अन्य समाज में होता होगा। पानी छानकर पीना न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से, स्वास्थ्य दृष्टि के अनुरूप है। वाशिंगटन के वर्ल्ड वाच संस्थान ने साफ पानी को लंबी उम्र का कारण माना है। डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने एक बूंद जल में ३६४५० बैक्टीरिया को साबित किया है अत: पानी छानना जो कि जैन जीवनाचार का एक अंग है वही वैज्ञानिक भी है। जैन चौके की लगाम सूरज के हाथ में है। सूरज की पहली किरण जैन किचन पर दस्तक देती है। अंतिम किरण उसकी चटखनी लगा देती है। आज वैज्ञानिक व हमारा आयुर्वेद भी स्वीकार करता है रात्रि भोजन अहितकर है। सूरज की रोशनी में अनेक जीवाणु निकल नहीं पाते किन्तु रात में वे सक्रिय हो जाते हैं जो भोजन के साथ शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। वैज्ञानिक तर्क है कि जीवाणुओं की ऐसी प्रकृति है कि एक निश्चित तापमान पर तेजी से बढ़ते हैं इसलिये किसी खाद्य सामग्री का कब तक उपयोग करना यह मर्यादित करना नितांत आवश्यक है। जैनागम में उदम्बर फल व जमीकंद को खाने योग्य नहीं माना गया है। आलू, प्याज में अधिक रुचि रखने वाली हमारी युवा पीढ़ी को यह जानकारी होनी चाहिए कि यदि हम जड़, तना तथा किसी कंद को भोज्य पदार्थ के रूप में लेते हैं तो उस जाति के सम्पूर्ण पौधे का नाश होता है। यही नहीं सूर्य के प्रकाश के अभाव में प्रचुर मात्रा में सूक्ष्मजीव उत्पत्ति इस भूमिगत वनस्पति में हो जाती है, इसका सेवन सूक्ष्म जीवों का घात है। जैन चौके में जीवाणुओं की उत्पत्ति, नियंत्रण के उपाय विज्ञानसम्मत है। वर्तमान में जहाँ हम कीटनाशी दवाईयों का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं जो कि स्वास्थ्य व पर्यावरण दोनों के लिए हानिकारक हैं। हमारे बुजुर्ग खाद्य पदार्थ के संरक्षण के लिये जिन चीजों का इस्तेमाल करते थे यथा अनाज की सुरक्षा के लिए नीम की पत्ती, अरंडी का तेल, गुजरे जमानों की बात हो गई है जहाँ इन करिश्माई उत्पादों को हम भूलते जा रहे हैं वहाँ पाश्चात्य देशों में इनका भरपूर उपयोग प्रारंभ हो गया है। जैन भोजन पद्धति जीवन को तामसिकता से दूर रखकर शारीरिक व मानसिक रूप से संतुलित रखकर निर्बाधगति से जीवन को अपनी चरमावस्था तक पहुँचाता है। हमारे रसोईघर की वैज्ञानिकता तभी कारगर रह सकती है, जब भोजन ग्रहण करने वाले सभी सदस्यों की अवस्था इस पद्धति पर हो। सारे परिवार की सोच इसके साथ जुड़े तभी अपेक्षित सफलता मिलेगी। सुखद स्वस्थ जीवनशैली के लिये जैन भोजन विज्ञान आवश्यक है।