श्री चन्दनं विनानैव, पूजां कुर्यात्कदाचन।
प्रभाते घनसारस्य, पूजा कार्या विचक्षणै:।।१२५।।
अर्थ-श्री जिनेन्द्र देव की पूजा बिना चन्दन के कभी नहीं करनी चाहिए। चतुर पुरुषों को प्रात: काल के समय चन्दन से पूजा अवश्य करनी चाहिए।
भावार्थ-प्रात: काल में भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा उनके चरणारविंद के अंगुष्ट पर चन्दन लगाकर करनी चाहिए। यद्यपि भगवान की पूजा अष्टद्रव्य से की जाती है और वह अभिषेक पूर्वक ही होती है तथापि अभिषेक के बाद चरणों पर चंदन लगाना आवश्यक माना जाता है। यदि अष्टद्रव्य का समागम न मिले तो केवल भगवान के चरण के अंगूठे पर चंदन लगाने से ही भगवान की पूजा समझी जाती है। यदि भगवान के चरणों पर चंदन न लगाया जाये और बिना चंदन लगाये ही पूजा की जाती है तो वह पूर्ण पूजा नहीं समझी जाती, प्रात:काल के समय चंदन पूजा ही मुख्य मानी गई है।
चरणों में चंदन लेपन के प्रमाण-
कंकोलवैâलागुरुसप्रयंगूलवंगकर्पूरकरंजितेन।
श्रीखण्डपंकेन निरस्तशंकं, जिनक्रमाब्जं, परिलेपयामि।।
शीतल चीनी, इलाचयी, अगर, प्रियंगू, लौंग, कपूर, केसर आदि सुगंधित पदार्थों से मिले हुये चन्दन से श्री जिनेन्द्रदेव के चरण कमलों की पूजा करनी चाहिए। उन चरणों के अंगूठे पर चन्दन लगाना चाहिए।
सुचन्दनेन कर्पूर – व्यामिश्रेण सुगंधिना।
व्यालिंपामो जिनस्यांघ्रीन्, निलिंपाधीश्वरार्चितान्।।
चंदन केसर और कपूर से मिले हुये सुगंधित द्रव्य से भगवान के चरण कमलों का लेप करना चाहिए।
काश्मीरकर्पूर – सुगन्धितेन, सुगंधघनसार – विलेपनेन।
पादाब्जयुग्मं हि विलेपयामि, भक्त्या जिनस्य करुणायुतस्य।।
अर्थ-केसर, कपूर, सुगंधित चन्दन आदि द्रव्यों से मैं करुणासागर भगवान जिनेन्द्रदेव के दोनों चरण कमलों का लेप करता हूँं।
कप्पूर कुंकुमायरु तलक्कमिस्सेण चंदण रसेण।
परवहल परिमलम लिंपामो जिणस्स चरणंं।।
अर्थ-कपूर, केसर, चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों के रस से भगवान जिनेन्द्र के चरण कमलों पर लेप कर उनको सुगंधित करता हूँं।
पद्मचंपकजात्यादि-स्रग्भि: संंपूजयेज्जिनान्।
पुष्पाभावे प्रकुर्वीत, पीताक्षतभवै: समै:।।१२९।।
अर्थ-कमल, चम्पा, चमेली आदि पुष्पों की माला बनाकर उनसे भगवान की पूजा करनी चाहिए तथा पुष्पों के अभाव मेंं अक्षतों को केसर से पीले कर और उन्हें पुष्प मानकर उनसे पूजा करनी चाहिए।
दूध से अभिषेक के लिए गाय देना, मंदिर में कुंआ बनवाना और फूल से पूजा के लिए वाटिका बनवाना गुण है।
पयोर्थं गां जलार्थं च, कूपं पुष्पसुहेतवे।
वाटिकां संप्रकुर्वन्ना, नाति दोषधरो भवेत्।।१३३।।
अर्थ-भगवान जिनेन्द्र देव का अभिषेक करने के लिए सुगमता से दूध की प्राप्ति हो जाये इसके लिए गाय का रखना या जिनालय में गाय को दान देना दोषाधायक अर्थात् दोष करने वाला नहीं है। इसी प्रकार पूजा में सुगमता से पुष्पों की प्राप्ति के लिए बाग-बगीचा बनवाने में भी दोष नहीं है। पूजा के लिए सुगमता से जल मिलता रहे इसके लिए वुँâआ बनवाने में भी अत्यन्त दोष नहीं होता है।
भावार्थ-यद्यपि जैन शास्त्रों में वुँâआ खुदवाने का तथा बगीचा लगवाने का निषेध है इसी प्रकार गाय को दान देने का भी निषेध है, क्योंकि इन सब कामों में हिंसा अवश्य और अधिकता के साथ होती है। परन्तु यहां पर जो इसका विधान लिखा है वह केवल सुगमता के साथ भगवान की पूजा सदा होती रहने के लिए लिखा है। उद्देश्य भिन्न-भिन्न होने से एक ही क्रिया से पुण्य-पाप दोनों हो सकते हैं। केवल खा-पीकर मस्त होने के लिए भोजन बनाना पाप है। परंतु मुनियों को दान देने के लिए भोजन बनाना पुण्य का कारण है। इसी प्रकार मृतक को वैतरणी नदी से पार कर देने के लिए गाय का दान मिथ्यात्व व पाप है, परन्तु भगवान का अभिषेक सुगमता के साथ सदा होते रहने के लिए गाय का दान देना पुण्य का कारण है। इसी प्रकार वुँâआ खुदवाने और बगीचा लगाने में अधिक हिंसा होती है, परन्तु भगवान की पूजा करने के लिए वुँâआ, बगीची बनवाना पुण्य का ही कारण माना जाता है जिस प्रकार पूजा करने में भी हिंसा होती है, परन्तु इन कामों के करने में अनेक जीवों को महापुण्य का बंध होता है और इसीलिए भव्य जीव बड़ी भक्ति से इन कामों को करते हैं इसी प्रकार जिनालय में गाय का दान देना तथा जिनालय के लिए वुँâआ, बगीची बनवाना पुण्य का ही कारण है। पुण्य-पाप भावों से होता है तथा मिथ्यात्व और सम्यक्त्व भी भावों से ही होता है। इन सब बातों को समझकर मोक्ष के कारणभूत पुण्यकार्य सदा करते रहना चाहिए।
शुद्धतोयेक्षुसर्पिभि-र्दुग्धदध्याम्रजै: रसै:।
सर्वोषधिभिरुच्चूर्णैर्भावात्संस्नपायेज्जिनम्।।१३४।।
अर्थ-शुद्ध जल, इक्षुरस, घी, दूध, दही, आम्ररस, सर्वोषधि और कल्क- चूर्ण आदि से भगवान जिनेन्द्र देव का अभिषेक करना चाहिए और वह भी बड़ी भक्ति तथा भावपूर्वक करना चाहिए।
पूज्यपूजावशेषेण, गोशीर्षेण हृतालिना।
देवाधिदेवसेवायै, स्ववपुश्चर्चयेत्सदा।।१३५।।
अर्थ-जो भगवान की पूजा करने के बाद बच रहा है और जिस पर भ्रमर आ रहे हैं ऐसे चन्दन से पूजा करने वाले को भगवान की पूजा करने के लिए अपने शरीर को चर्चित करना चाहिए।
भावार्थ-अभिषेक के बाद भगवान के चरणों पर चन्दन लगाना चाहिए और आगे अष्टद्रव्य से पूजा करने के लिए उस बचे हुये चन्दन से फिर दुबारा तिलक लगाना चाहिए।
स्नानैर्विलेपनविभूषणपुष्पवास – धूपप्रदीपफलतंदुलपत्रपूगै:।
नैवेद्यवारिवसतैश्चमरातपत्र – वादित्रगीतनटस्वास्तिककोशवृध्या।।१३६।।
इत्येकविंशतिविधा-जिनराजपूजा-यद्यत्प्रियं तदिह भाववशेन योज्यम्।
द्रव्याणि वर्षाणि तथा हि काला:, भावा सदा नैव समा भवन्ति।।१३७।।
अर्थ-भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा इक्कीस प्रकार से की जाती है। आगे उन्हीं को बतलाते हैं। १. पंचामृताभिषेक करना, २. चरणों पर चंदन लगाना, ३. जिनालय को सुशोभित करना, ४. भगवान के चरणों पर पुष्प चढ़ाना, ५. वास पूजा करना, ६. धूप से पूजा करना, ७. दीपक से पूजा करना, ८. अक्षतों से पूजा करना, ९. तांबूल पत्र से पूजा करना, १०. सुपारियों से पूजा करना, ११. नैवेद्य से पूजा करना, १२. जल से पूजा करना, १३. फलों से पूजा करना, १४. शास्त्र पूजा में वस्त्र से पूजा करना, १५. चमर ढुलाना, १६. छत्र फिराना, १७. बाजे बजाना, १८. भगवान की स्तुति को गाकर कहना, १९. भगवान के सामने नृत्य करना, २०. सांथिया करना, २१. और भण्डार में द्रव्य देना। इस प्रकार इक्कीस प्रकार की विधि से भगवान की पूजा की जाती है। अथवा जिसको जो पसंद हो उसी से भावपूर्वक भगवान की पूजा करनी चाहिए। जैसे किसी को सितार बजाना पसंद है तो उसको भगवान के सामने ही सितार बजाना चाहिए। इसका भी कारण यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये सबके सदा समान नहीं रहते इसलिए अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार भगवान की पूजा सदा करते रहना चाहिए। बिना पूजा के अपना कोई समय व्यतीत नहीं करना चाहिए।
शान्तौ श्वेतं जये श्यामं, भद्रे रक्तं भये हरित्।
पीतं धनादि-संलाभे, पंचवर्णं तु सिद्धये।।१३८।।
अर्थ-नवग्रह आदि की शांति के लिए अथवा पाप कर्मों की शांति के लिए सफेद वस्त्रों को धारण कर सफेद माला से जप करना चाहिए। विजय चाहने के लिए श्याम रंग की माला से जप करना चाहिए। कल्याण के लिए लाल रंग की माला से जप करना चाहिए। भय दूर करने के लिए हरे रंग की माला से जप करना चाहिए। धनादिक की प्राप्ति के लिए पीले रंग की माला से जप करना चाहिए। तथा अपने अभीष्ट सिद्धि के लिए पंचवर्ण की माला से जप करना चाहिए। यदि माला के बदले उसी रंग के पुष्पों से जप किया जाये तो उस कार्य की सिद्धि बहुत शीघ्र हो जाती है। वस्त्र, आसन आदि भी उस रंग के होने चाहिए।
खण्डिते गलिते छिन्ने, मलिने चैव वाससि।
दानं पूजा जपो होम:, स्वाध्यायो विफलं भवेत्।।१३९।।
अर्थ-खण्डित वस्त्र (वस्त्र का टुकड़ा), गला हुआ वस्त्र, फटा हुआ वस्त्र और मैला वस्त्र पहन कर दान, पूजा, जप, होम और स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। फटे-पुराने, गले-सड़े वस्त्र पहनकर दान-पूजा आदिक करने से वह दान-पूजा आदि सब निष्फल हो जाता है।
जैनक्रमाब्जयुगयोगविशुद्धगंध, संबंधबंधुरविलेपपवित्रगात्र:।
तेनैव मुक्तिवशकृत्तिलकं विधाय, श्रीपादपुष्पधरणं शिरसा वहामि।।
अर्थात् जिन भगवान के चरणों पर चढ़ने से पवित्र गंध के संबंध से मनोहर विलेपन करके पवित्र शरीर वाला मैं उसी चन्दन से मुक्ति के कारणभूत तिलक को करके चरणों पर चढ़े हुए पुष्पों को मस्तक पर धारण करता हूँ।
इमै: संतापार्चि: सपदिजयदृप्तै: परिमल-
प्रथामूर्च्छद्घ्राणैरनिमिषदृगं शुव्यतिकरात्।।
स्फुरत्पीतच्छायैरिव शमनिधे चन्दनरसै:,
विलिंपेयं पेयं शतमखदृषां त्वत्पदयुगम्।।२।।
भावार्थ-हे अनन्त सुख के धारक तीर्थंकर भगवान इन्द्रों से पूजित आपके चरण कमलों पर चन्दन से लेप करता हूँ।