अवस्थिति और मार्ग- श्री चंवलेश्वर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र राजस्थान प्रदेश के भीलवाड़ा जिले में भीलवाड़ा से ४५ किमी.पूर्व की ओर है। भीलवाड़ा से पारौली तक पक्की सड़क है, बसें जाती हैं। वहाँ से लगभग ६ किमी.कच्चा मार्ग है, बैलगाड़ी मिलती है। दूसरा मार्ग अजमेर से खण्डवा जाने वाली पश्चिमी रेलवे लाइन पर विजयनगर है। वहाँ से ४२ किमी. शाहपुरा है। पक्की सड़क है। बसें चलती हैं। शाहपुरा से बैलगाड़ी का रास्ता है। सवारी मिलती हैं। तीसरा मार्ग देवली वैâण्ट से जहाजपुर होते हुए बस द्वारा पारौली पहुँचने का है। वहाँ से क्षेत्र तक बैलगाड़ी द्वारा पहुँच सकते हैं। यहाँ अरावली पर्वत शृँखला ने प्रकृति की अनिन्द्य सुषमा का अक्षय कोष लुटाया है। इन पर्वतमालाओं के चरणों को मेवाड़ की विश्रुत बनास नदी पखारती है। इन्हीं पर्वतमालाओं के मध्य कालीघाटी अवस्थित है। इसी के पहाड़ पर चंवलेश्वर क्षेत्र विद्यमान है।
कहा जाता है, इन्हीं पर्वतों के मध्य में प्राचीनकाल में ‘दरिवा’ नामक एक नगर था जो धन-धान्य से सम्पन्न और व्यापार के कारण अत्यन्त समृद्ध था। इस नगर में शाह श्यामा सेठ रहते थे। उनके पुत्र का नाम था सेठ नथमल शाह। एक ग्वाला इनकी गाय को चराने ले जाता था। कुछ दिनों से गाय दूध नहीं देती थी। जब चरकर आती तो उसके स्तन खाली मिलते। सेठ ने ग्वाले से इसका कारण पूछा, किन्तु वह जवाब नहीं दे सका। तब ग्वाले ने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं इस बात का पता लगाऊँगा। दूसरे दिन ग्वाले ने सेठ की गाय पर बराबर नजर रखी। जब गोधूलि बेला में गायों के वापस होने का समय हुआ तो ग्वाले ने देखा कि सेठ जी की गाय स्वत: ही पहाड़ की चूल पर जा रही है और एक स्थान पर खड़ी होने पर उसका दूध स्वयं झर रहा है। सारा दूध झरने पर गाय वापस आकर स्वत: ही गायों के झुण्ड में मिल गई है। ग्वाले ने अपनी आँखों देखा सारा वृत्तान्त सेठ जी को सुना दिया। सेठ जी सोचने लगे-‘‘गाय का दूध स्वत: ही क्यों झरता है और वह भी एक निश्चित स्थान पर!’’ इसका कोई समाधान उन्हें प्राप्त नहीं हो सका। वे इसी विषय पर विचार करते-करते सो गये। रात्रि के अंतिम प्रहर में उन्हें स्वप्न आया। कोई देव पुरुष उन्हें कह रहा था-‘‘जहाँ गाय का दूध झरता है उस स्थान पर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। उसे तुम निकालो और जिनालय बनवाकर उसमें प्रतिष्ठा करो।’’ प्रात: जागने पर सेठ जी स्वप्न का स्मरण करके बड़े प्रसन्न हुए। इस दैवी प्रेरणा से वे अपने आपको भाग्यशाली मानने लगे। उन्होंने सामायिक किया, नित्यक्रिया से निवृत्त होकर स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण किये और कुछ व्यक्तियों को साथ लेकर स्वप्न में निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचे। उन्होंने नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर जमीन खोदना प्रारंभ किया। कुछ समय पश्चात् उन्हें मूर्ति का एक भाग दिखाई दिया। तब धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक मिट्टी हटायी गई, मूर्ति को बाहर निकाला। देखा कि मूर्ति सच में भगवान पार्श्वनाथ की है जो बलुआई पाषाण की सलेटी वर्ण की पद्मासन मुद्रा में दो फुट अवगाहन की है। इस मनोज्ञ मूर्ति के दर्शन करते ही उपस्थित सभी व्यक्तियों का रोम-रोम हर्षित हो गया। सबने भगवान का अभिषेक-स्तवन-पूजन किया। मूर्ति का समाचार चारों ओर फैल गया। भगवान का दर्शन करने के लिए वहाँ दूर-दूर से लोग आने लगे। तब सेठ जी ने मंदिर-निर्माण का संकल्प किया और उसे बनवाना प्रारंभ कर दिया। मंदिर का निर्माण उसी स्थान पर किया गया, जहाँ से मूर्ति प्रकट हुई थी। कुछ ही समय में शिखरबन्द मंदिर बनकर तैयार हो गया। सेठ जी ने वैशाख शुक्ला १० विक्रम संवत् १००७ को पंचकल्याणकपूर्वक भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी। इस उत्सव में साधर्मीजन हजारों की संख्या में पधारे थे। ऐसा भी ज्ञात होता है कि सेठ नथमल जी की सेवाओं और जनकल्याणकारी कार्यों से प्रसन्न होकर मेवाड़ नरेश ने उन्हें ‘राजभद्र’ की उपाधि प्रदान की थी। यही उपाधि बाद में राजभद्रा कहलाने लगी। सेठ जी राजमान्य थे, यह तो ज्ञात होता है किन्तु उन्हें यह राजमान्यता मंदिर-प्रतिष्ठा के पश्चात् प्राप्त हुई अथवा उससे पूर्व में थी, यह ज्ञात करने का कोई साधन नहीं है। इस मंदिर का नाम पहले चूलेश्वर रहा है, ऐसा पुराने लेखों से पता चलता है। बाद में चूलेश्वर से चंवलेश्वर कैसे बन गया, इस बात का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। संभवत: चूलेश्वर से ही बिगड़ते-बिगड़ते चंवलेश्वर बन गया।
क्षेत्र छोटी सी पहाड़ी पर है। इसके ऊपर जाने के तीन दिशाओं से मार्ग हैं। पूर्व की ओर २५६ पक्की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। उसके बाद एक छतरी बनी हुई है जो यात्रियों के विश्राम के लिए बनायी गयी प्रतीत होती है। इसके बाद दो फर्लांग का कच्चा मार्ग है। रास्ते में एक पक्का तिवारा पड़ता है। इसमें पानी का एक कुण्ड है, जिसमें बारहों महीने जल भरा रहता है। भगवान के अभिषेक के लिए यहीं से जल ले जाया जाता है। इस स्थान को ‘तिवारा खान’ कहते हैं। कच्चे रास्ते को पार करके पुन: ११० पक्की सीढ़ियाँ हैं। मंदिर का शिखर बहुत दूर से दिखाई पड़ता है। उसके आकर्षण से खिंचा हुआ भक्त यात्री थकान का अनुभव नहीं करता। सीढ़ियाँ चढ़ने पर समतल भूमि मिलती है, जिस पर मंदिर का परकोटा बना हुआ है। परकोटे के अंदर प्रवेश करने पर मैदान आता है। उसके मध्य में मंदिर बना हुआ है। मंदिर के द्वार के ऊपरी भाग में पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है, जिसे देखते ही अनुभव हो जाता है कि वह जैनमंदिर है। मंदिर में प्रवेश करने पर छोटा चौक मिलता है। इसमें मकान बने हुए हैं। पश्चिम की ओर एक छतरी बनी हुई है, जिसमें पाषाण के चरणयुगल विराजमान हैं। बाद में मण्डप मिलता है। फिर मोहन-गृह मिलता है। मोहन-गृह के प्रवेशद्वार के सिरदल पर तीन तीर्थंकर प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। मध्य में पद्मासन और उसके दोनों ओर खड्गासन। वेदी एक ही है। उस पर मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ विराजमान हैं। इनके दायीं ओर भव्य चौबीसी है। वेदी के चारों ओर परिक्रमा-पथ है। पहाड़ के नीचे तलहटी में एक मंदिर है। उसमें भगवान पार्श्वनाथ की विशाल अवगाहना वाली खण्डित प्रतिमा विराजमान है। यहीं पर नवनिर्मित जैन धर्मशाला है। व्यवस्था- क्षेत्र की व्यवस्था एक निर्वाचित प्रबंधकारिणी समिति करती है। यह समिति पंजीकृत है। वार्षिक-मेला- इस क्षेत्र पर प्रतिवर्ष पौष वदी ९ और १० को मेला लगता है। क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ- क्षेत्र पर ४० कमरे हैं। १ हाल है। भोजनशाला सशुल्क है, अनुरोध करने पर भोजन तैयार होता है। औषधालय भी है। यहाँ पहुँचने का सरल मार्ग मॉडलगढ़ से काछोला-राजगढ़ होते हुए, भीलवाड़ा से कोटड़ी होते हुए और जयपुर से देवली, जहाजपुर, खजुरी होते हुए है।