(सूत्रधार—कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कुरुवंश की परम्परा में चतुर्थ चक्रवर्ती सनतकुमार हुए हैं, जो सम्यग्दृष्टियों में प्रथम थे। उन्होंने छह खण्ड पृथ्वी को अपने वश में कर लिया था। नवनिधियाँ, चौदहरत्न, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ शूरवीर, छियानवे करोड़ ग्राम, छियानवे हजार रानियाँ इत्यादि वैभव के धनी उन महाराज की बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा आज्ञा मानते थे। यह चक्रवर्ती कामदेव पद के धारक भी थे। एक दिन सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सभा में मनुष्यों के रूप की प्रशंसा करते हुए सनतकुमार के रूप को सबसे उत्कृष्ट बताया। उस समय कौतुकवश दो देव उनकी परीक्षा करने के लिये आये।)
-प्रथम दृश्य-
(सौधर्म इन्द्र की सुधर्मा सभा में अप्सरा द्वारा सुन्दर नृत्य प्रस्तुत किया जा रहा है। पुन: सभा प्रारम्भ होती है।)
सौधर्म इन्द्र—(सभी देवों से) हे देव! मध्यलोक की महिमा सचमुच बहुत निराली है। वहाँ त्रेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते रहते हैं और अपने कार्यकलापों से संसार को नूतन दिशा दिखाते हैं।
पहला देव—स्वामी! आप अचानक ही मध्यलोक की चर्चा करने लग गये। क्या कोई खास कारण है ?
दूसरा देव—हाँ स्वामी! मध्यलोक के मनुष्यों की तुलना में तो हम लोग कहीं अधिक वैभव सम्पन्न और सुखी हैं, क्या नहीं है हमारे पास ?
सौधर्म इन्द्र—हे देव साथियों! आप कुछ भी कहें मध्यलोक की तुलना हम इसलिये अपने से नहीं कर सकते क्योंकि हममें संयम धारण कर मोक्ष जाने की शक्ति नहीं है।
तीसरा देव—अच्छा देवराज! यह तो बताइये कि पृथ्वी पर इस समय कौन से चक्रवर्ती का साम्राज्य है ?
सौधर्म इन्द्र—मित्र देखो! मध्यलोक के भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड है जिसमें आर्यावत नाम का एक देश है, मैं वहाँ के चक्रवर्ती के बारे में तुम्हें बताता हूँ।
चौथा देव—लेकिन वहाँ के चक्रवर्ती के ही बारे में क्यों ? ऐरावत आदि क्षेत्र के चक्रवर्तियों के बारे में क्यों नहीं ?
सौधर्म इन्द्र—क्योंकि वे चक्रवर्ती कामदेव की पदवी के भी धारक हैं और इस समय उनके समान सुन्दर कोई भी नहीं है।
पांचवां देव—क्या, हम देवों से भी ज्यादा सुन्दर हैं वे ?
सौधर्म इन्द्र—हाँ भाई! उनके रूप की तुलना करना सम्भव नहीं है। (वहीं दो देव बैठे उन सबकी वार्ता सुन रहे थे, वे आपस में बात करते हैं।)
मणिचूल देव—मित्र रत्नचूल! आप ही बताइये कि भला पृथ्वी पर रहने वाले वे चक्रवर्ती इतने सुन्दर हैं कि देवराज भी उनकी प्रशंसा करें।
रत्नचूल देव—मित्र! विश्वास तो मुझे भी नहीं हो रहा है। चलो, क्यों न हम स्वयं ही वहाँ जाकर उनका रूप देखकर आयें।
मणिचूल देव—चलिये, हम चलते हैं। (दोनों स्वर्ग से कुछ ही क्षण में भूमण्डल पर पहुँच जाते हैं और गुप्त वेश में स्नानागार में राजा के रूप को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं, पुन: द्वारपाल से कहते हैं।)
-दूसरा दृश्य-
(चक्रवर्ती सनतकुमार का राजमहल)
दोनों देव—(द्वारपाल से) हे द्वारपाल! अतिशीघ्र जाकर अपने चक्रवर्ती महाराज से कहिए कि स्वर्ग से दो देव आपके रूप को देखने के लिये आये हैं।
द्वारपाल—जी अवश्य! अभी सूचना देता हूँ। (द्वारपाल अन्दर जाकर चक्रवर्ती को सूचना देता है।)
द्बारपाल—(स्नानागार में जाकर) हे प्रजापति! स्वर्ग से दो देव आपके रूप को देखने के लिये आये हैं।
चक्रवर्ती सनतकुमार—ठीक है। तुम उनसे कहो कि हम अभी राज्यसभा में उपस्थित हो रहे हैं, वे वहीं पर उपस्थित हों।
द्वारपाल—जी स्वामी! (सिर झुकाकर चला जाता है।) (चक्रवर्ती नाना वस्त्र अलंकारों से सुसज्जित होकर सिंहासन पर आरुढ़ हो जाते हैं। उस समय उनकी सुन्दरता देखते ही बनती है। चक्रवर्ती उन दोनों देवों को सभा में सादर आमंत्रित करते हैं।)
चक्रवर्ती सनतकुमार—हे देवों! आइये, आसन ग्रहण कीजिए। आपका इस पृथ्वीलोक पर स्वागत है। आप यहाँ जिस हेतु से पधारे हैं, सो कहिये।
पहला देव—हे राजन्! हम सौधर्म स्वर्ग से आपके पास आपके सुन्दर रूप का बखान सुनकर यहाँ पर पधारे हैं।
दूसरा देव—किन्तु सम्राट्! आपका जो रूप स्नान करते समय था, वह अब नहीं रहा।
सभी सभासद—(आपस में चर्चा करते हुए) अरे! ऐसा कैसे हो सकता है ? यह देव यह क्या कह रहे हैं।
पहला देव—राजन्! मैं बिल्कुल सत्य कह रहा हूँ। अगर आपको विश्वास नहीं है तो आप एक घड़ा और जल मंगवाइये।
चक्रवर्ती सनतकुमार—(कौतूहलवश मंत्री से) हे मंत्रिन्! शीघ्र ही घड़े और जल की व्यवस्था कीजिये। मंत्री(शीघ्र ही जल और घड़ा मंगाकर) लीजिये, सब वस्तुएं तैयार हैं।
दूसरा देव—(घड़े में जल भरकर उसमें से एक बूँद जल निकालकर सभी सभा से) कहिये सभासदों! क्या इस घड़े से जल कम हो गया है ?
पहला सभासद—(खड़े होकर) जी नहीं, जल तो पूरा का पूरा भरा हुआ है।
सभी सभासद—हाँ, हाँ, घड़ा तो पूरा भरा है। पहला देव—बस, ऐसे ही राजा के रूप में जो अन्तर हुआ है वह आप सभी को पता नहीं चल रहा है। किन्तु उनके सौंदर्य में बूँद-बूँद कर कमी आ रही है या यों समझिये कि जीवन का एक-एक क्षण ऐसे ही कम हो रहा है। (देव राजा को प्रणाम कर अपनी स्वर्गपुरी में वापस आ जाते हैं और चक्रवर्ती के मन में उथल-पुथल मच जाती है और वह संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो जाते हैं।)
-अगला दृश्य-
चक्रवर्ती सनतकुमार—(एकान्त में टहलते हुए सोचते हैं) ओह! सचमुच यह जीवन क्षणभंगुर है। इस शरीर का कोई भरोसा नहीं है कि यह कब साथ छोड़ दे। यह रूप सौंदर्य, यह धन-वैभव, कंचनकामिनी यह सब यहीं धरा रह जायेगा इसलिये मुझे शीघ्र ही अपनी आत्मा को परिपुष्ट करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर लेनी चाहिये। (ऐसा सोचकर मंत्री को बुलाने का आदेश देते हैं, मंत्री उपस्थित होते हैं।)
राजा—हे मंत्रिवर! हम अब जैनेश्वरी दीक्षा धारण करना चाहते हैं, अत: शीघ्र ही पुत्र सुकुमार के राजतिलक की तैयारियाँ कीजिये।
मंत्री—परन्तु महाराज!
चक्रवर्ती सनतकुमार—कन्तु, परन्तु कुछ नहीं मंत्रिन्! यह हमारा आदेश है, उसका पालन हो। देखो! इस जीवन का कोई भरोसा नहीं, पानी की एक बूँद के समान क्षण-क्षण हमारी आयु कम हो रही है, हमें शीघ्र ही पुरुषार्थ द्वारा अपनी आत्मा को परमात्मा बनाना है।
मंत्री—जो आज्ञा महाराज। (मंत्री राज्याभिषेक की तैयारियाँ करवाते हैं। सर्वत्र राज्य में दु:ख एवं हर्षमिश्रित वातावरण है। चक्रवर्ती ने अपने पुत्र सुकुमार को राज्य देकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और घोरातिघोर तपश्चरण करने लगे किन्तु असाता कर्म के उदय से उन मुनिराज सनतकुमार के शरीर में कुष्ट आदि भयंकर रोग उत्पन्न हो गये किन्तु वे मुनि शरीर से निर्मम होने से उसकी उपेक्षा करके अपनी आवश्यक क्रियाओं में सावधान थे और कठिन से कठिन तप कर रहे थे। पुन: किसी समय सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र ने सभा में मुनियों के चारित्र की प्रशंसा करते हुए सनतकुमार मुनि की प्रशंसा की।)
सौधर्म इन्द्र की सुधर्मा सभा का दृश्य
(दरबार में नृत्यांगना द्वारा नृत्य प्रस्तुत किया जा रहा है।)
सौधर्म इन्द्र—(अचानक) स्वर्गलोक के मेरे प्रिय देवसाथियों! इस संसार में संयम की प्राप्ति करना अत्यन्त दुर्लभ है।
पहला देव—हे इन्द्रराज! इन मनोरंजन के क्षणों में आप संयम की चर्चा क्यों करने लगे ? सौधर्म इन्द्रक्योंकि इस संयम के द्वारा ही प्राणी मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है।
दूसरा देव—हे पुरन्दर! हम सब आपका आशय नहीं समझे।
तीसरा देव—हाँ, आप शीघ्र कहिये, क्या कहना चाहते हैं ?
सौधर्म इन्द्र—प्रियवर! मैं पृथ्वीलोक पर तपस्या में लीन सनतकुमार महामुनि के संयम की प्रशंसा कर रहा हूँ। जो कि पहले छह खड के अधिपति थे, चक्रवर्ती थे, अपार सम्पत्ति के धारक थे। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों में प्रणाम करते थे लेकिन उन्होंने उन सबको छोड़ दिया।
पांचवां देव—किन्तु उन्होंने वह सब क्यों छोड़ा ?
सौधर्म इन्द्र—शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये।
छठा देव—शाश्वत सुख ?
सौधर्म इन्द्र—हाँ, उत्तम चारित्र के धारक वह महामुनि शीघ्र ही शाश्वत मोक्ष सुख की प्राप्ति करेंगे। देखो ना, असाता कर्म के उदय से तीव्र कुष्ट रोग की पीड़ा होने पर भी वे महामना धीर, वीर, अविचल हैं और कठोर तपश्चर्या कर रहे हैं।
मदनकेतु देव—(मन में) क्या सचमुच वह मुनि इतने तपस्वी हैं कि इन्द्र भी उनकी प्रशंसा करते हैं। चलकर उनकी परीक्षा लेता हूँ। (मदनकेतु देव पृथ्वीलोक पर आता है और वैद्य का वेश बनाकर मुनिराज के पास पहुँच जाता है।)
वन का दृश्य
(मुनिराज बैठे हैं, वैद्यराज पहुँचते हैं।)
वैद्यराज—(मुनिराज को नमस्कार करके) नमोऽस्तु भगवन्! नमोऽस्तु!
मुनिराज—सद्धर्मवृद्धिरस्तु!
वैद्यराज—मुनिराज, आपका रत्नत्रय सकुशल तो है।
मुनिराज—हाँ, मेरा रत्नत्रय सकुशल है, कहिये, किस हेतु से आप यहाँ पर पधारे हैं ?
वैद्यराज—हे स्वामिन्! मैं आपके इस रोग के निवारण करने की आपसे आज्ञा चाहता हूँ।
मुनिराज—भाई! मुझे सबसे बड़ा जो रोग है, यदि तुम उसकी दवा कर सको तो ठीक है।
वैद्यराज—प्रभो! वह रोग क्या है ?
मुनिराज—वह रोग है—‘जन्म लेना’। यदि इस रोग की दवाई तुम्हारे पास है तो दे दो।
वैद्यराज—क्षमा करियेगा स्वामी! मुझे इस रोग के बारे में कुछ भी नहीं पता। मैं तो केवल शरीर के ही रोगों को ठीक करना जानता हूँ। (मुनिराज हँसकर ध्यान मे मग्न हो जाते हैं तभी उनकी तपशक्ति से उत्पन्न ऋद्धि के बल से क्षणमात्र में ही उनके एक हाथ का कुष्ट रोग नष्ट हो जाता है।)
वैद्यराज—(आश्चर्य के साथ) ओह! असम्भव! यह क्या ? महाराज आपमें तो तपस्या की अद्भुत शक्ति विद्यमान है फिर भी आप इस भयंकर रोग का प्रतिकार न करके इसे सहन करते हुए ध्यान में लीन हैं। धन्य हैं स्वामी, आप धन्य हैं।
मुनिराज—हे वैद्यराज! जब यह शरीर मेरा नहीं है तब मैं क्यों इसकी चिन्ता करूँ। इसलिये मैं निस्पृह हूँ और अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने में लगा हूँ। (यह चमत्कार देखकर वैद्य अपने असली रूप में आकर मुनि की अनेक स्तुतियों से स्तुति करते हुए पूजा करता है और कहता है।)
देव—(साष्टांग प्रणाम करके) हे देव! जन्म-मरण को दूर करने वाली औषधि तो आपके पास ही है और आप स्वयं इसका सेवन कर भी रहे हैं तथा हम जैसे संसारी दीन प्राणी भी आप जैसे महापुरुषों की शरण में आकर इस रोग का नाश कर सकते हैं। जय हो, जैनधर्म की जय हो। (इस प्रकार मुनि का माहात्म्य प्रगट कर वह देव स्वर्ग चला गया। इधर मुनिराज सनतकुमार उपसर्ग एवं परीषहों को सहन करने में समर्थ अपने चारित्र को वृद्धिंगत करते हुए घातिया कर्मों का नाशकर केवली हो गये और बहुत काल तक पृथ्वी पर विहार कर अघातिया कर्मों का भी नाश कर शाश्वत सुखमय सिद्धपद को प्राप्त कर लिया।) यहाँ पर समवसरण और सिद्ध अवस्था का दृश्य भी दिखा सकते हैं।