परिणामों की विचित्रता है। जीवों को सदैव अपने परिणामों को सम्भालते रहना चाहिए। आयु कर्म का किस समय बन्ध हो जाये पता नहीं। आयु कर्म बड़ा प्रबल होता है। एक बार आयु का बंध हो जाने पर वह छूटता नहीं। हाँ, परिणामों के शुभ-अशुभ होने पर उसमें अपकर्षण या उत्कर्षण अवश्य हो सकता है। जैसे—
राजा श्रेणिक ने यशोधर मुनिराज के गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया। तत्काल ही नरकायु में सप्तम नरक की ३३ सागर की स्थिति का बंध पड़ गया। पश्चात् उन्होंने पश्चात्ताप के द्वारा कुकृत्यों की िंनदा-गर्हा की, किन्तु एक बार आयुबंध हो गया उससे बच नहीं पाये, किन्तु परिणामों की निर्मलता से सप्तम नरक की आयु का अपकर्षण होकर मात्र प्रथम नरक की चौरासी हजार वर्ष की आयु ही शेष रह गई। इसलिए परिणामों को सदा निर्मल रखना चाहिए।
किसी जीव ने निर्मल परिणामों से मनुष्यायु का बंध कर लिया परन्तु यदि अन्तिम समय परिणाम निर्मल नहीं रहे तो वह जीव मनुष्य आयु तो पायेगा पर सम्मूर्च्छन लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य बनकर अपनी उत्तमता को खो देता है। इसी प्रकार यदि किसी ने वैमानिक देव की आयु निर्मल परिणामों से बांधी पर अन्त में परिणाम गिर गये तो वह भवनत्रिक देवों में पैदा होता है। यदि किसी ने अशुभ परिणामों में देवायु को (भवनत्रिक) बांध लिया पर अन्तिम समय परिणामों में विशुद्धि रही तो वह वैमानिक देवों में पैदा होता है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यायु का बंधक भी परिणामों की निर्मलता में मरणकर उत्तम कुल में गर्भज मनुष्य पर्याय को बाँधता है।
कम्मकयमोहवड्ढियसंसारम्हि य अणादिजुत्तम्हि।
जीवस्स अवट्ठाणं करेदि आऊ हलिव्व णरं।।
कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मोह से अनादि चतुर्गति रूप संसार की वृद्धि होती है। गति में जीव का अवस्थान कराने वाला आयु कर्म जैसे काष्ठ का खोड़ा मनुष्य को रोककर रखता है। ‘‘देहट्ठिदि अण्णहाणुववत्तीदो’’ अर्थात् देह की स्थिति अन्यथा हो नहीं सकती इस अन्यथानुपपत्ति से आयुकर्म का अस्तित्व जानना चाहिए।
ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में आयु कर्म अघातिया कर्म है। कर्मों के क्रम में मोहनीय के बाद आयु का क्रम है। आचार्य कहते हैं कि आयुकर्म के निमित्त से भव में स्थिति होती है इसीलिए नामकर्म से पूर्व आयुकर्म को कहा है। पर्यायधारण का निमित्त वास्तविक तो आयुकर्म है। इसका स्वभाव सांकल या काष्ठयंत्र के समान है। जैसे साँकल या काष्ठयंत्र पुरुष को अपने स्थान में ही स्थित रखता है दूसरे स्थान पर जाने नहीं देता उसी प्रकार आयुकर्म जीव को नरकादि पर्यायों में रोके रखता है।
(१) नरकायु, (२) तिर्यञ्चायु , (३) मनुष्यायु और (४) देवायु। इसमें नरकायु पाप प्रकृति है तथा शेष तीन आयु पुण्य प्रकृतियाँ हैं।
प्रश्न—तिर्यञ्चगति और नरकगति दोनों अशुभ मानी गईं पर यहाँ तिर्यञ्च आयु को शुभ वैâसे कहा ?
समाधान—गति की अपेक्षा से दो गतियाँ तिर्यञ्च व नरक अशुभ हैं क्योंकि तिर्यञ्च व नरकगति में कोई भी जीव जाना नहीं चाहता है परन्तु तिर्यञ्चायु शुभ इसलिए है कि एक बार तिर्यञ्चायु में जन्म लेने के बाद वह जीव वहाँ से मरना नहीं चाहता है। चाहे छोटे से छोटा जीव लट, चिंवटी, मच्छर या कोई बड़ा भी हाथी, घोड़ा। बैल आदि हों वे वहाँ से छूटना नहीं चाहते, उन्हें वही अवस्था प्रिय लगती है परन्तु नरकायु में जीव एक समय भी रहना नहीं चाहता, हर समय मरने के परिणाम आते हैं इसलिए दोनों आयुओं में शुभाशुभपना आचार्यों ने कहा है।
चारों आयु का नोकर्म—नरकायु का नोकर्म अनिष्ट आहार है। शेष तीन आयु का नोकर्म इन्द्रियों को प्रिय लगने वाले अन्नपानादि हैं।
नरकायु बंध के कारण—
मिच्छो हु महारम्भो णिस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो।
णिरयाउगं णिबंधदि पावमदी रुद्धपरिणामो।।
जो मिथ्यादृष्टि (तत्त्वार्थश्रद्धान से रहित) हो, बहुत आरम्भी व अपरिमित परिग्रही हो, शीलरहित हो, तीव्र लोभी हो, रौद्र परिणामी अर्थात्ह हिंसादि पापकर्मों में आनन्द मानने वाला हो, पाप करने में ही जिसकी मति हो वह जीव नरकायु का तीव्र अनुभाग सहित बन्ध करता है। उमास्वामी आचार्य के अनुसार—
‘‘बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष:’’
तिर्यञ्चायु के बन्ध के कारण—चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से जो आत्मा में कुटिलभाव उत्पन्न होता है वह माया है। इसे तिर्यञ्चायु के बंध का प्रत्यय जानना। ‘‘माया तैर्यग्योनस्य’’।।
धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अतिसंधानप्रियता तथा मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्तध्यान का होना आदि तिर्यञ्चायु बन्ध के विशेष प्रत्यय हैं।
मनुष्यायु बन्ध के कारण—जो जीव स्वभाव से ही मन्दकषायी अर्थात् मृदु स्वभावी हो, पात्रदान में प्रीतियुक्त, शील व संयम से अर्थात् इन्द्रिय संयम व प्राणीसंयम से सहित हो, मध्य गुणों से सहित ऐसा जीव मनुष्यायु को तीव्र अनुभाग सहित बाँधता है।
स्वभाव का विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषाय का होना तथा मरण के समय संक्लेश परिणामी नहीं होना इत्यादि मनुष्यायु के तीव्र अनुभाग के विशेष प्रत्यय हैं। कहा भी है—‘‘अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य’’।
देवायु बंध के कारण—जो जीव सम्यग्दृष्टि है वह केवल सम्यक्त्व से एवं साक्षात् अणुव्रत-महाव्रतों से देवायु को बाँधता है तथा जो मिथ्यादृष्टि है वह अज्ञानरूप बाल तपश्चरण से एवं बिना इच्छा के बन्ध आदि से हुई अकामनिर्जरा से देवायु का बन्ध करता है।
अकाम निर्जरा, बालतप, मन्दकषाय, समीचीन धर्म का सुनना, दान देना, देव, गुरु व धर्म तथा इनके सेवक इन छह आयतनों की सेवा करना, सराग संयम, सम्यक्त्व और देशसंयम ये सब देवायु बन्ध के प्रत्यय हैं।
लेस्साणं खलु अंसा, छब्बीसा होंति तत्थ मज्झिमया।
आउगबंधणजोगा, अट्ठट्ठवगरिसकालभवा।।
लेश्याओं के कुल छब्बीस अंश, इनमें से मध्य के आठ अंश जो कि आठ अपकर्ष काल में होते हैं वे ही आयुकर्म के बँधने योग्य होते हैं।
छहों लेश्याओं के जघन्य—मध्यम—उत्कृष्ट भेद की अपेक्षा अठारह भेद होते हैं। इनमें आठ अपकर्षकाल संबंधी अंशों के मिलाने पर २६ भेद हो जाते हैं। जैसे किसी कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्यञ्च की भुज्यमान आयु का प्रमाण छह हजार पाँच सौ इकसठ वर्ष है। इसके तीन भागों में से दो भाग बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर इस एक भाग के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रथम अपकर्ष का काल कहा जाता है। इस अपकर्ष काल में परभवसंबंधी आयु का बन्ध होता है। यदि यहाँ पर बन्ध न हो तो अवशिष्ट एक भाग के तीन भाग में से दो भाग बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर इस एक भाग के प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रथम अपकर्ष का काल कहा जाता है। इस अपकर्ष काल में परभवसंबंधी आयु का बंध होता है। यदि यहाँ पर बन्ध न हो तो अवशिष्ट एक-एक भाग के तीन भाग में से दो भाग बीतने पर और एक भाग शेष रहने पर उसके प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त द्वितीय अपकर्ष काल में परभवसंबंधी आयु का बन्ध होता है। यदि यहाँ पर भी बन्ध न हो तो इसी प्रकार से तीसरे अपकर्ष में होता है और तीसरे में भी न हो तो चौथे, पाँचवे, छट्ठे, सातवें, आठवें अपकर्ष में से किसी भी अपकर्ष में परभवसंबंधी आयु का बन्ध होता है परन्तु फिर भी यह नियम नहीं है कि इन आठ अपकर्षों में से किसी भी अपकर्ष में आयु का बन्ध हो ही जाय। केवल इन अपकर्षों में आयु के बन्ध की योग्यता मात्र बताई गई है इसलिए यदि किसी अपकर्ष में बन्ध न हो तो असंक्षेपाद्धा (भुज्यमान आयु के अन्तिम आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल) से पूर्व के अन्तर्मुहूर्त में अवश्य ही आयु का बन्ध होता है, यह नियम है।
भुज्यमान आयु के तीन भागों में से दो भाग बीतने पर अवशिष्ट एक भाग के प्रथम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल को अपकर्ष कहते हैं। इस अपकर्ष काल में लेश्याओं के आठ मध्यमांशों में से जो अंश होगा उसके अनुसार आयु का बन्ध होगा तथा आयुबन्ध के योग्य आठ मध्यमांशों में से जो अंश जिस अपकर्ष में होगा उस ही अपकर्ष में आयु का बन्ध होगा, दूसरे काल में नहीं।
जीवों के दो भेद हैं—एक सोपक्रमायुष्क और दूसरा अनुपक्रमायुष्क। जिनका विष भक्षणादि निमित्त के द्वारा मरण संभव हो उनको सोपक्रमायुष्क कहते हैं और इससे जो रहित हैं उनको अनुपक्रमायुष्क कहते हैं। जो सोपक्रमायुष्क हैं उनके तो उक्त रीति से ही परभव संबंधी आयु का बन्ध होता है किन्तु अनुपक्रमायुष्कों में कुछ भेद है, वह यह है कि अनुपक्रमायुष्कों में जो देव और नारकी हैं वे अपनी आयु के अन्तिम छह माह शेष रहने पर आयु के बन्ध करने के योग्य होते हैं। इसमें भी छह माह के आठ अपकर्ष काल में ही आयु का बन्ध करते हैं, दूसरे काल में नहीं। जो भोगभूमिया मनुष्य या तिर्यञ्च हैं उनकी आयु का प्रमाण एक कोटि पूर्व वर्ष और एक समय से लेकर तीन पल्योपम पर्यन्त है। इसमें से वे अपनी—अपनी यथायोग्य आयु के अन्तिम नौ महीनों के आठ अपकर्षों में से किसी भी अपकर्ष में आयु का बंध करते हैं। इस प्रकार ये लेश्याओं के आठ अंश आयुबंध के कारण हैं। जिस अपकर्ष में जैसा जो अंश हो उसके अनुसार आयु का बन्ध होता है।
आयुकर्म की आबाधा कोटिपूर्व के तीसरे भाग से ‘‘असंक्षेपाद्धा प्रमाणपर्यन्त’’ है। आयु कर्म की आबाधा में प्रतिभाग का नियम नहीं है।
आयुकर्म की उत्कृष्ट आबाधा कोटिपूर्व वर्ष के तीसरे भागप्रमाण तथा जघन्य आबाधा ‘‘असंक्षेपाद्धा’’ प्रमाण है। यह काल भी आवली के संख्यातवें भाग प्रमाण है अत: आयुकर्म की आबाधा इसी प्रकार है, अन्य कर्मों की स्थिति के समान नहीं है।
शंका—असंख्यात वर्ष की आयु वाले ऐसे देव-नारकी और भोगभूमिज की तो ६ माह आयु शेष रहने पर आयु का बन्ध होता है तथा कर्मभूमिज मनुष्य, तिर्यञ्च के अपनी सम्पूर्ण आयु के अन्तिम त्रिभाग में आयु बँधती है। कर्मभूमिज की उत्कृष्ट आयु कोटिपूर्व वर्ष अर्थात् संख्यात वर्ष प्रमाण है अत: उसी का त्रिभाग उत्कृष्ट आबाधाकाल कहा। त्रिभाग के आठ अपकर्ष कालों में आयु का बंध हो सकता है, कदाचित् आठों अपकर्षों में आयु का बन्ध नहीं हुआ तो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु के अवशेष रहने पर उत्तर भव की आयु को अन्तर्मुहूर्त काल के समयप्रबद्ध में बाँधकर निष्ठापन करते हैं तथा असंक्षेपाद्धाकाल पर्यन्त विश्राम करतേ हैं, उसके पश्चात् मरण होता है।
भुज्यमान आयु के अधिक से अधिक छह महीना अवशेष रहने पर देव और नारकी, मनुष्य अथवा तिर्यञ्चायु का ही बन्ध करते हैं तथा मनुष्य—तिर्यञ्च भुज्यमान आयु का त्रिभाग शेष रहने पर चारों आयुओं में से योग्यतानुसार किसी भी एक आयु का बंध करते हैं। भोगभूमिज जीव अपनी आयु का छह महीना अवशेष रहने पर देवायु का ही बंध करते हैं। एकेन्द्रिय और विकलत्रय जीव मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु में से किसी एक का बन्ध करते हैं किन्तु तेजकाय—वायुकायिक जीव और सप्तमपृथ्वी के नारकी जीव तिर्यञ्चायु का ही बन्ध करते हैं।
नारकी आदि जीवों के अपनी—अपनी गति सम्बन्धी एक आयु का उदय एवं परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होते समय अथवा बन्ध हो जाने पर उदयागत आयु सहित (बध्यमान और भुज्यमान रूप) दो का सत्त्व है किन्तु जब तक एक भुज्यमान आयु की ही सत्ता रहती है।
एक जीव एक भव में एक ही आयु का बन्ध करता है और वह भी योग्यकाल में तथा वहाँ पर भी वह सभी स्थानों पर आयु की त्रिभागी शेष रहने पर ही बँधती है।
जैन दर्शन में ८ कर्म होते हैं—ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनमें चार घातिया कर्म हैं और चार अघातिया कर्म, जिसे पूर्व में बताया जा चुका है। कर्म जीव के शुद्ध स्वभाव को आच्छादित करके उसे मनुष्य, तिर्यंच, नारकी अथवा देव रूप प्रदान करता है।
आत्मा का नारक आदि रूप नामकरण करना नामकर्म की प्रकृति है। जो आत्मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्मा नमा है वह नामकर्म है जो नाना प्रकार की रचनावृत्ति करता है वह नामकर्म है। शरीर, संस्थान, संहनन, वर्ण, गन्ध आदि कर्मों के करने वाले जो पुद्गल जीव में निविष्ट हैं, वे नाम इस संज्ञा वाले होते हैं, ऐसा अर्थ कहा गया है।
नामकर्म के मूल भेदरूप ४२ प्रकृतियाँ हैं। उत्तर भेदरूप ९३ प्रकृतियाँ है। ४२ भेद इस प्रकार हैं—
(१) गति—जिसके उदय से जीव दूसरे भव को प्राप्त करता है उसे गतिकर्म कहते हैं। इसके चार भेद हैं। नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, और देवगति। जिसके उदय से आत्मा को नरकगति प्राप्त होवे उसे नरकगति नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार अन्य भेदों का लक्षण जानना चाहिए।
(२) जाति—जिस कर्म के उदय से जीव नरकादि गतियों में अव्यभिचार रूप समानता से एकरूपता को प्राप्त हो वह जाति नामकर्म है।
इसके ५ भेद हैं—(१) एकेन्द्रिय जाति, (२) द्वीन्द्रिय जाति, (३) त्रीन्द्रिय जाति, (४) चतुरिन्द्रिय जाति और (५) पंचेन्द्रिय जाति। जिसके उदय से जीव एकेन्द्रिय जाति में पैदा हो उसे एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं। इसी प्रकार सभी भेदों का लक्षण जानना चाहिए।
(३) शरीर—जिस कर्म के उदय से शरीर की रचना हो उसे शरीर नामकर्म कहते हैं।
इसके ५ भेद हैं— (१) औदारिक, (२) वैक्रियक, (३) आहारक, (४) तैजस और (५) कार्मणशरीर नामकर्म। जिसके उदय से औदारिक शरीर की रचना हो उसे औदारिक शरीर नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार सब भेदों के लक्षण जानना चाहिए।
(४) अङ्गोपाङ्ग—जिसके उदय से अङ्ग-उपाङ्गों की रचना हो उसे अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं।
इसके तीन भेद हैं—(१) औदारिक शरीर अङ्गोपाङ्ग, (२) वैक्रियक शरीर अङ्गोपाङ्ग और (३) आहारक शरीर अंङ्गोपाङ्ग। जिसके उदय से औदारिक शरीर के अङ्गोपाङ्गों की रचना होती है उसे औदारिक शरीर अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार शेष भेदों के लक्षण जानना चाहिए।
(५) निर्माण—जिस कर्म के उदय से अंगोपांगों की रचना यथास्थान और यथाप्रमाण हो उसे निर्माण नामकर्म कहते हैं।
(६) बन्धन—शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किये हुए पुद्गल स्कन्धों का परस्पर संबंध जिस कर्म के उदय से होता है उसे बन्धन नामकर्म कहते हैं।
इसके ५ भेद हैं—(१) औदारिक, (२) वैक्रियिक, (३) आहारक, (४) तैजस और (५) कार्माण। बन्धन नामकर्म सब भेदों के साथ लगा देना चाहिए। जिसके उदय में लगे हुए कर्म ईंट और गारे की तरह छिद्र सहित परस्पर संबंध को प्राप्त हो वह औदारिक बन्धन नामकर्म है। इसी प्रकार अन्य भेदों का लक्षण जानना चाहिए।
(७) संघात—जिस कर्म के उदय से औदारिकादि शरीरों के प्रदेशों का छिद्ररहित बन्ध हो उसे संघात नामकर्म कहते हैं।
इसके भी ५ भेद हैं—(१) औदारिक, (२) वैक्रियक, (३) आहारक, (४) तैजस और (५) कार्माण। संघात नामकर्म सब भेदों के साथ लगा लेना चाहिए।
(८) संस्थान—जिस कर्म के उदय से शरीर की संरचना अर्थात् आकार बने उसे संस्थान नामकर्म कहते हैं।
इसके ६ भेद हैं—(१) समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म, (२) न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान नामकर्म, (३) स्वातिसंस्थान, (४) कुब्जकसंस्थान, (५) वामनसंस्थान और (६) हुण्डकसंस्थान।
जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर ऊपर-नीचे तथा बीच में समान भागरूप अर्थात् सुडौल हो उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर वटवृक्ष की तरह नाभि से नीचे पतला और ऊपर मोटा हो तो न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर सर्प की वामी की तरह ऊपर पतला और नीचे मोटा हो, उसे स्वातिसंस्थान नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर कुबड़ा हो उसे कुब्जकसंस्थान नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से बौना शरीर हो उसे वामनसंस्थान नामकर्म कहते हैं और जिस कर्म के उदय से शरीर के अङ्गोपाङ्ग किसी खास प्रकृति के न हों उसे हुण्डकसंस्थान नामकर्म कहते हैं।
(९) संहनन—जिस कर्म के उदय से हड्डियों के बंधन में विशेषता हो उसे संहनन नामकर्म कहते हैं।
इसके छह भेद हैं—(१) वङ्कावृषभनाराच संहनन, (२) वङ्कानाराच संहनन, (३) नाराच संहनन, (४) अर्द्धनाराच संहनन, (५) कीलक संहनन और (६) असंप्राप्तसृपाटिका संहनन। जिस कर्म के उदय से वृषभ (वेष्टन), नाराच (कील) और संहनन (हड्डियाँ) वङ्का की हों उसे वङ्कावृषभनाराच संहनन नामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से व्रज के हाड़ और वङ्का की कीलियाँ हों परन्तु वेष्टन वङ्का के न हों उसे वङ्कानाराच संहनन कहते हैं। जिसके उदय से सामान्य वेष्टन और कीलीसहित हाड़ हों, उसे नाराच संहनन नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से हड्डियों की संधियाँ अर्धकीलित हों उसे अर्धनाराचसंहनन नामकर्म कहते हैं। जिसके उदय से हड्डियाँ कीलित हों उसे कीलक संहनन नामकर्म कहते हैं और जिसके उदय से जुदी-जुदी हड्डियाँ नसों से बंधी हुई हों, परस्पर कीलित नहीं हों उसे असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन नामकर्म कहते हैं।
(१०) स्पर्श—जिसके उदय से शरीर में स्पर्श हो उसे स्पर्शनामकर्म कहते हैं।
इसके आठ भेद हैं— (१) कोमल, (२) कठोर, (३) गुरु, (४) लघु, (५) शीत, (६) उष्ण, (७) स्निग्ध और (८) रूक्ष।
(११) रस—जिसके उदय से शरीर में रस हो वह रस नामकर्म कहलाता है।
इसके ५ भेद हैं—तिक्त (चरपरा), कटु (कडुआ), कषाय (कषायला), आम्ल (खट्टा) और मधुर (मीठा)।
(१२) गन्ध—जिसके उदय से शरीर में गन्ध हो उसे गन्ध नामकर्म कहते हैं।
इसके दो भेद हैं—(१) सुगन्ध और (२) दुर्गंध।
(१३) वर्ण—जिसके उदय से शरीर में वर्ण अर्थात् रूप हो वह वर्ण नामकर्म है।
इसके पाँच भेद हैं— (१) शुक्ल, (२) कृष्ण, (३) नील, (४) रक्त और (५) पीत।
(१४) आनुपूर्व्य—जिस कर्म के उदय से विग्रहगति में मरण से पहले के शरीर के आकाररूप आत्मा के प्रदेश रहते हैं उसे आनुपूर्व्य नामकर्म कहते हैं।
इनके चार भेद हैं—(१) नरकगत्यानुपूर्व्य, (२) तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, (३) मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, (४) देवगत्यानुपूर्व्य। जिस समय आत्मा मनुष्य अथवा तिर्यंच आयु को पूर्ण कर पूर्व शरीर से पृथक् हो नरकभव के प्रति जाने को सन्मुख होता है, उस समय पूर्व शरीर के आकार रूप आत्मा के प्रदेश जिस कर्म के उदय से होते हैं उसे नरकगत्यानुपूर्व्य कहते हैं। इसी प्रकार अन्य भेदों के लक्षण जानना चाहिए।
(१५) अगुरुलघु—जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे के गोले की तरह भारी और आक के तूल की तरह हल्का न हो, वह अगुरुलघु नामकर्म है।
(१६) उपघात—जिस नामकर्म के उदय से अपने अङ्गों से अपना घात हो उसे उपघात कहते हैं।
(१७) परघात—जिसके उदय से दूसरे का घात करने वाले अङ्गोपाङ्ग हों उसे परघात नामकर्म कहते हैं।
(१८) आतप—जिस कर्म के उदय से आतपरूप शरीर हो तो आतप नामकर्म कहते हैं।
(१९) उद्योत—जिसके उदय से उद्योतरूप शरीर हो उसे उद्योत नामकर्म कहते हैं।
(२०) उच्छ्वास—जिसे उदय से शरीर में उच्छ्वास हो उसे उच्छ्वास नामकर्म कहते हैं।
(२१) विहायोगति—जिसके उदय से आकाश में गमन हो, उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं—(१) प्रशस्त विहायोगति और (२) अप्रशस्त विहायोगति।
(२२) प्रत्येक शरीर—जिस नामकर्म के उदय से एक शरीर का एक ही जीव स्वामी हो, उसे प्रत्येक शरीर नामकर्म कहते हैंं।
(२३) साधारण शरीर—जिसके उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हों, उसे साधारण शरीर नामकर्म कहते हैं।
(२४) त्रस—जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक जीवों में उत्पन्न हों, उसे त्रस नामकर्म कहते हैं।
(२५) स्थावर—जिस कर्म के उदय से एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न हो, उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं।
(२६) सुभग—जिसके उदय से दूसरे जीवों को अपने से प्रीति उत्पन्न हो, उसे सुभग नामकर्म कहते हैं।
(२७) दुर्भग—जिस कर्म के उदय से रूपादि गुणों से युक्त होने पर भी दूसरे जीवों को अप्रीति उत्पन्न हो, उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं।
(२८) सुस्वर—जिसके उदय से मधुर स्वर (आवाज) हो, उसे सुस्वर नामकर्म कहते हैं।
(२९) दु:स्वर—जिसके उदय से खराब स्वर हो, उसे दु:स्वर नामकर्म कहते हैं।
(३०) शुभ—जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों उसे शुभ नामकर्म कहते हैं।
(३१) अशुभ—जिसके उदय से शरीर के अवयव देखने में मनोहर न हों, उसे अशुभ नामकर्म कहते हैं।
(३२) सूक्ष्म—जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो, जो न किसी को रोक सकता हो और न किसी से रोका जा सकता हो, उसे सूक्ष्म शरीर नामकर्म कहते हैं।
(३३) बादर (स्थूल)—जिस कर्म के उदय से दूसरे को रोकने वाला तथा दूसरे से रुकने वाला स्थूल शरीर प्राप्त हो, उसे बादर शरीर नामकर्म कहते हैं।
(३४) पर्याप्ति—जिसके उदय से अपने योग्य पर्याप्ति पूर्ण हो, उसे पर्याप्ति नामकर्म कहते हैं।
(३५) अपर्याप्ति—जिस कर्म के उदय से जीव के एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हो, उसे अपर्याप्ति नामकर्म कहते हैं।
(३६) स्थिर—जिस कर्म के उदय से शरीर की धातुएँ (रस, रुधिर, मांस, मेद, हाड़, मज्जा, और शुक्र) तथा उपधातुएँ (वात, पित्त, कफ, शिरा, स्नायु, चाम और जठराग्नि) अपने-अपने स्थान में स्थिरता को प्राप्त हो उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं।
(३७) अस्थिर—जिसके उदय से पूर्वोक्त धातु और उपधातुएँ अपने-अपने स्थान में स्थिर न रहें उसे अस्थिर नामकर्म कहते हैं।
(३८) आदेय—जिसके उदय से प्रभासहित शरीर हो, उसे आदेय नामकर्म कहते हैं।
(३९) अनादेय—जिसके उदय से प्रभा रहित शरीर हो, उसे अनादेय नामकर्म कहते हैं।
(४०) यश:कीर्ति—जिसके उदय से संसार में जीव की प्रशंसा हो उसे यश:कीर्ति नामकर्म कहते हैं।
(४१) अयश:कीर्ति—जिसके उदय से जीव की संसार में निन्दा हो उसे अयश:कीर्ति नामकर्म कहते हैं।
(४२) तीर्थंकरत्व—अरहन्तपद के कारणभूत कर्म को तीर्थंकरत्व नामकर्म कहते हैं।
उत्तर भेदरूप ९३ प्रकृतियाँ—४२ + ६५ — १४ = ९३ (१४ प्रकृतियों के उत्तरभेद ६५ हैं) मूल १४ की बजाय उनके ६५ उत्तर भेद गिनने पर नामकर्म की कुल प्रकृतियाँ उपरोक्त प्रकार से ९३ होती हैं। नामकर्म की असंख्यात प्रकृतियाँ विस्तार से हैं।
नरकगत्यानुपूर्वी—नामकर्म की प्रकृतियाँ अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यक््â प्रतररूप बाहल्य को श्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहना विकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उसकी उतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं।
तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी—नामकर्म की प्रकृतियाँ लोक को जगत्श्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहना विकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी होती हैं।
मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी—नाम कर्म की प्रकृतियाँ ऊर्ध्व कपाट छेदन से निष्पन्न पैंतालीस लाख योजन बाहल्य वाले तिर्यक् प्रतरों के जगत्श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहन विकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतनी हैं।
देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी—नामकर्म की प्रकृतियाँ नौ सौ योजन का बाहल्यरूप तिर्य प्रतरों को जगत्श्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र अवगाहना विकल्पों से गुणित करने पर जो लब्ध आवे, उसकी उतनी मात्र प्रकृतियाँ हैंं।
प्रश्न—पृथ्वीकाय नामकर्म कहीं भी (कर्म के भेदों में) नहीं कहा गया है ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि पृथ्वीकायनामकर्म का कर्म एकेन्द्रिय नामक नामकर्म के भीतर अन्तर्भूत है।
प्रश्न—यदि ऐसा है तो सूत्र प्रसिद्ध कर्मों की संख्या का नियम नहीं रह सकता है ?
उत्तर—सूत्र में कर्म आठ ही अथवा १४८ ही नहीं कहे गये हैं क्योंकि आठ या १४८ संख्या को छोड़कर दूसरी संख्याओं का प्रतिषेध करने वाला एवकार पद सूत्र में नहीं पाया जाता है।
प्रश्न—तो फिर कर्म कितने हैं ?
उत्तर—लोक में हाथी, घोड़ा, वृक (भेड़िया) भ्रमर, मत्कुण, उद्देहिका (दीपक), गोभी और इन्द्र आदि रूप में जितने कर्मों के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने ही हैं।
इसी प्रकार शेष कायिक जीवों के विषय में भी कथन करना चाहिए।
सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिस प्रकार वनस्पतिकायिकादि जीवों के सूक्ष्मपना होता है उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदय से निगोदत्व होता है।
प्रश्न—पिंड (प्रकृति) का अर्थ क्या है ?
उत्तर—बहुत प्रकृतियों के समुदाय को पिंड कहा जाता है।
प्रश्न—त्रस आदि प्रकृतियों तो बहुत नहीं हैं इसलिए क्या वे अपिण्ड प्रकृतियाँ हैं ?
उत्तर—ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि वहाँ भी युक्ति से बहुत प्रकृतियाँ उपलब्ध होती हैं और वह युक्ति यह है कि कारण के बहुत हुए बिना भ्रमर, पतंग, हाथी और घोड़ा आदि नाना भेद नहीं बन सकते हैं इसलिए जाना जाता है कि त्रस आदि पर्यायें बहुत हैं।
यह कहना भी ठीक नहीं है कि अगुरुलघु नामकर्म आदि की उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ नहीं हैं क्योंकि धव और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर, मूली और थूहर आदि साधारण शरीर तथा नाना प्रकार के स्वर और नाना प्रकार के गमन आदि उपलब्ध होते हैं। भवनवासी आदि सर्व भेद नामकर्म कृत हैं।
प्रश्न—जिस प्रकार तीर्थंकरत्व नामकर्म कहते हैं उसी प्रकार गणधरत्व आदि नामकर्म का उल्लेख करना चाहिए था क्योंकि गणधर, चक्रधर, वासुदेव और बलदेव भी विशिष्ट ऋद्धि से युक्त होते हैं ?
उत्तर—नहीं, क्योंकि वे दूसरे निमित्तों से उत्पन्न होते हैं। गणधरत्व में तो श्रुतज्ञानावरण का प्रकर्ष क्षयोपशम निमित्त है और चक्रधरत्व आदि में उच्चगोत्र विशेष हेतु हैं।
देवगति में भवनवासी आदि सर्व भेद नामकर्म कृत हैं। वे सब (असुरनाग आदि भवनवासी देवों के भेद) नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुए भेद जानने चाहिए। नामकर्मोदय की विशेषता से ही वे (व्यन्तर देवों के किन्नर आदि) नाम होते हैं। जैसे—किन्नर नामकर्म के उदय से किन्नर और िंकपुरुष इत्यादि। उन ज्योतिषी देवों की भी पूर्ववत् ही निवृत्ति जाननी चाहिए अर्थात् (सूर्य, चन्द्र आदि भी) देवगति नामकर्म विशेष के उदय से होते हैं।
प्रश्न—उस नामकर्म का अस्तित्व वैâसे जाना जाता है ?
उत्तर—शरीर, संस्थान, वर्ण आदि कार्यों के भेद अन्यथा हो नहीं सकते हैं।
कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति होती नहीं है और पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति और त्रसकायिक आदि जीवों में उनकी उक्त पर्यायों रूप अनेक कार्य देखे जाते हैं इसलिए जितने कार्य हैं उतने अनेक कारण रूप कर्म भी हैं ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। जन्म का कारण गति नामकर्म नहीं, आयु कर्म है।
प्रश्न—ये स्त्री वेदादि चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेश से क्यों नहीं बँधते हैं ?
उत्तर—उत्कृष्ट संक्लेश से नहीं बँधने में कारण इनका स्वभाव है।
प्रश्न—उत्कृष्ट स्थिति के बंधकाल में ये चारों (स्त्रीवेद, पुंवेद, हास्य और रति) प्रकृतियाँ क्यों नहीं बँधती हैं ?
उत्तर—क्योंकि वह प्रकृतियाँ अत्यन्त अशुभ नहीं हैं इसलिए उस काल में इनका बन्ध नहीं होता अथवा उस समय न बँधने का इनका स्वभाव है।