त्रिशला – माताजी! आज शास्त्र में पढ़ा है कि [[चतुर्निकाय]] के देव भगवान की भक्ति में लीन रहते हैं, वे कौन हैं और कहाँ रहते हैं? आर्यिका – पुण्यरूप देवगति नामकर्म के उदय से जो देवपर्याय को प्राप्त करते हैं उन्हें [[देव]] कहते हैं। इनके चार भेद हैं-[[भवनवासी]], [[व्यन्तर]], [[ज्योतिष्क]] और [[वैमानिक]]। पहली [[रत्नप्रभा पृथ्वी]] के तीन भेद हैं-[[खरभाग]], [[पंकभाग]] और [[अब्बहुलभाग]]। इनमें नीचे के [[अब्बहुलभाग]] में तो पहला नरक है। ऊपर [[खरभाग]] और [[पंकभाग]] में [[भवनवासी]] तथा [[व्यंतरवासी]] देवों के निवास हैं। [[व्यंतर देवों]] के निवास स्थान [[मध्यलोक]] में भी बहुत जगह हैं। [[खरभाग]] के ऊपर चित्रा पृथ्वी पर [[मध्यलोक]] बना हुआ है। इस [[पृथ्वी]] से ७९० योजन की ऊँचाई पर (सूर्य, चन्द्र, तारा आदि) [[ज्योतिषी देवों]] के विमान हैं। एक लाख चालीस योजन ऊँचा [[सुमेरुपर्वत]] है। उसकी ऊँचाई के बाद सौधर्म आदि स्वर्ग हैं। वहाँ [[वैमानिक देव]] रहते हैं। ये अपनी-अपनी विक्रिया शक्ति के अनुसार सभी जगह आया-जाया करते हैं। तीर्थंकर भगवान के पाँचों कल्याणकों में चारों प्रकार के देव आते हैं। सभी इन्द्र भी आते हैं। त्रिशला – माताजी! इन्द्र कितने हैं? आर्यिका – इन्द्र सौ होते हैं। [[भवनवासी के ४०]], [[व्यंतर देवों के ३२]], [[कल्पवासी देवों के २४]], [[ज्योतिष देवों के २ (चन्द्र और सूर्य)]],[[मनुष्य के १ (चक्रवर्ती) ]]और [[पशुओं में १ (सिंह)]] ऐसे १०० इन्द्रों से पूजित होने से अर्हंतदेव, देवाधिदेव और महादेव कहलाते हैं। सभी देव [[अवधिज्ञानी]] होते हैं। विक्रिया से अनेक शरीर बना लेते हैं। सागरोपम तक की आयु भोगने वाले हैं। बहुत ही सुखी हैं। बहुत दिन बाद भोजन की इच्छा होने से इनके कंथ से अमृत झरता है, उससे तृप्त हो जाते हैं। ये भोजन आदि नहीं करते हैं, फिर भी संसार में भ्रमण करने से संसारी ही हैं।