परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से
डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत
(अध्यक्ष-अ.भा. दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद) का एक विशेष साक्षात्कार
डॉ. श्रेयांस – पूज्य माताजी! वंदामि, आज हम लोग आपसे ‘चतुर्थ गुणस्थान की पात्रता’ के विषय में विद्वानों के बीच चलने वाली ऊहापोह के विषय में समाधान प्राप्त करने हेतु उपस्थित हुए हैं। इस क्रम में मेरा प्रथम प्रश्न है- चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को निश्चल अनुभूति हो सकती है या नहीं?
पूज्य ज्ञानमती माताजी– श्रद्धा, प्रतीति, विश्वास, अनुभूति ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टी को यह प्रतिभास रहता है कि देह अलग है, आत्मा अलग है अर्थात् उसे भेदविज्ञान का दृढ़ श्रद्धान रहता है अत: इस अनुभूति को मानने में कोई दोष नहीं है पर निश्चल अनुभूति या निर्विकल्प ध्यान या निर्विकल्प समाधि या शुद्धोपयोग जिसे कहते हैं, उस रूप अनुभूति चतुर्थ गुणस्थान में नहीं हो सकती। अर्थात् श्रद्धानरूप से प्रतीति या अनुभूति मानने में दोष नहीं है पर चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग मानना आगमसम्मत नहीं है।
डॉ. श्रेयांस – अर्थात् आगम वाक्य श्रद्धा चतुर्थगुणस्थानवर्ती को हो सकती है पर क्या श्रद्धा रूप अनुभव उसके लिए संभव है? परमात्म प्रकाश गाथा नं. १२ की टीका में चतुर्थ, पंचम, षष्ठ गुणस्थानवर्ती के लिए सराग स्वसंवेदन कहा है तो इस गुणस्थान में आंशिक शुद्धोपयोग की संभावना है क्या?
पूज्य ज्ञानमती माताजी– शुद्धोपयोग शब्द कहने से आगम में बाधा आती है क्योंकि आचार्यों ने शुद्धोपयोग को सातवें गुणस्थान से ही माना है। अंश में तो हम यह भी कह देते हैं कि हमारा श्रुतज्ञान केवलज्ञान का अंश है, केवलज्ञान का बीज है, परन्तु हमारा श्रुतज्ञान केवलज्ञान नहीं है, केवलज्ञान अलग ही है। इसी प्रकार मुनियों को जो शुद्धोपयोग होता है, वह अलग ही होता है, उसकी श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति तो सातवें गुणस्थान से पूर्व होती है, पर वह साक्षात् नहीं होता है। यदि सातवें गुणस्थान से पूर्व हम शुद्धोपयोग का अंश मानें तो आचार्य स्वयं कहते कि शुद्धोपयोग का प्रारंभ हो गया है, भले ही अत्यंत सूक्ष्म रूप में अथवा अत्यंत अल्प समय के लिए, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा। वरन् प्रवचनसार गाथा ९ की तात्पर्यवृत्ति टीका (पृष्ठ २०) में स्पष्टतया उल्लिखित है
‘‘मिथ्यात्व-सासादन मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोग:
तदनंतरमसंयत-सम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोग:,
तदनंतरम-प्रमत्तादिक्षीण-कषायान्तगुणस्थानषट्केतारतम्येन शुद्धोपयोग:,
तदनंतरं सयोग्ययोगी-जिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति।’’
अर्थात् मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानो में तरतमता से अशुभोपयोग है, इसके बाद असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तविरत इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से शुभोपयोग है, इसके अनन्तर अप्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक इन छह गुणस्थानों में तरतमता से शुद्धोपयोग है आदि। यहाँ चौथे-पाँचवे और छठे गुणस्थान में आचार्यों ने तरतमता से शुद्धोपयोग नहीं बताया वरन् शुभोपयोग बताया और आगे स्पष्ट रूप से कह दिया कि सातवें गुणस्थान से लेकर अगले ६ गुणस्थानों में अर्थात् १२वें गुणस्थान तक तरतमता से शुद्धोपयोग है। ऐसा हो सकता है कि उन पूर्वाचार्यों के समक्ष भी इस प्रकार की शंकाएँ आती होंगी, तभी उन्होंने इतना स्पष्ट रूप से बताया है। अत: हम सातवें गुणस्थान से पूर्व शुद्धोपयोग का अंश न मानें। शुद्धनिश्चयनय से मैं सिद्ध हूँ, यह बात श्रद्धान रूप में कही जाती है, श्रद्धान का अर्थ ये नहीं है कि अंश रूप में हम सिद्ध हो गये, वरन् हम श्रद्धानरूप में सिद्ध हैं अत: शुद्धोपयोग रूप चिंतन अवश्य करना चाहिए परन्तु शुद्धोपयोग का अंश प्रारंभ हो गया है, ऐसा मानने में बाधा आती है।
डॉ. श्रेयांस– अर्थात् इसे आगम वाक्य श्रद्धा तो कहा जा सकता है, परन्तु तद्रूप अनुभूति या अनुभव नहीं कहा जा सकता, यदि कहा जा सकता हो तो बतावें?
पूज्य ज्ञानमती माताजी– शब्दों में इसे अनुभव रूप कह सकते हैं पर शुद्धोपयोग रूप अनुभव यह नहीं है अथवा निर्विकल्प रूप अनुभव यह नहीं है। यह सविकल्प रूप अनुभव है। निश्चल अनुभूति रूप एकाग्रता मुनियों के शुद्धोपयोग में ही होती है।
पूज्य चंदनामती माताजी – सविकल्प अनुभव को तो शुद्धोपयोग का नाम दिया ही नहीं जा सकता, वह नाम तो निर्विकल्प अनुभव के लिए ही है।
डॉ. श्रेयांस – माताजी! इसका अर्थ क्या हम ये समझें कि उपयोग आत्मा की एक समय की एकाग्रता रूप अनुभूति है और उसमें अंश-अंशी का भेदपना नहीं पाया जाता है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी – हाँ! इसमें यह भेदपना नहीं माना जा सकता है। अंश रूप में यदि शुद्धोपयोग मानें तो आचार्यों की वाणी से बाधा आती है, अत: हम शुद्ध निश्चयनय की प्रतीति, प्रतिभास तो कह सकते हैं, पर उसका अंश नहीं कह सकते।
डॉ. श्रेयांस – माताजी! कृपया हमें बतायें कि आचार्यों के कौन-कौन से ऐसे वाक्य हैं, जिनसे विरोध आता है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी– एक तो ‘जयसेन स्वामी’ का मैंने आपको पहले उदाहरण बताया कि ‘तदनंतरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुण-स्थानषट्केतारतम्येन शुद्धोपयोग:’ अत: यहाँ चौथे-पाँचवे-छठे गुणस्थान में शुद्धोपयोग की बात ही नहीं कही। पुन: अनगारधर्मामृत टीका में भी इसी से मिलते-जुलते वाक्य हैं, उन्होंने ११-१२वें गुणस्थान में ही वीतराग चारित्र को घटित किया है, जो अभेदरत्नत्रय अथवा शुद्धोपयोग के साथ अविनाभूत है। चारित्र के दो भेद किये हैं-अपहृत संयम और उपेक्षा संयम, इसी प्रकार शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग दो भेद हैं, सराग चारित्र और वीतराग चारित्र ये दो भेद हैं। पूर्ण वीतराग चारित्र तो ११-१२वें गुणस्थान में ही घटेगा, जहाँ मोहनीय का बिल्कुल अभाव हो गया, लेकिन फिर भी जयसेनाचार्य के शब्दों में सातवें गुणस्थान से ही उपेक्षा संयम अथवा वीतराग चारित्र अथवा शुद्धोपयोग को मान लिया गया है। पण्डित आशाधर जी ने अनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका में वीतराग चारित्र अथवा वीतराग संयम को ११वें-१२वें गुणस्थान में ही घटित किया है।
डॉ. श्रेयांस – पूज्य माताजी! अभी आपने चारित्र और सम्यक्त्व को एक रूप में अनुभव के साथ जोड़ने का क्रम बताया है जबकि चारित्र अलग है और सम्यक्त्व अलग है और इसलिए अलग-अलग ही उसकी अनुभूति होनी चाहिए और अलग-अलग ही उसकी पात्रता होनी चाहिए।
पूज्य ज्ञानमती माताजी – देखिए! चतुर्थगुणस्थान में मात्र सम्यग्दर्शन है, चारित्र नहीं है, इसीलिए उसे कहा जाता है ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’। जबकि जो चारित्र वीतराग सम्यक्त्व के साथ अविनाभावी है, वह वीतराग चारित्र है अर्थात् यह वीतराग चारित्र वीतराग सम्यक्त्व के बिना घटित ही नहीं होगा। समयसार में व्यवहारनय से पंचपरमेष्ठी की भक्ति को सम्यक्त्व कहा गया है, परन्तु जहाँ तक निश्चय सम्यक्त्व की बात है वह चौथे गुणस्थान में घटित ही नहीं होता क्योंकि वह वीतरागचारित्र के साथ अविनाभावी है, जो छठे गुणस्थान के बाद ही घटित होगा। यथा-समयसार गाथा १७३ से १७६ की तात्पर्यवृत्ति टीका (पृ. ४३) में लिखा है-
‘‘भक्ति: पुन: सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां पंचपरमेष्ठ्यारा