-दोहा-
वर्तमान के बहुत विध, कष्ट स्वयं हो दूर।
पुष्पांजलि से पूजते, मिले सौख्य भरपूर।।
अथ चतुर्थकोष्ठकस्थाने मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-शेर छंद-
जब मेघ अतीवृष्टि से भू जलमयी करें।
नदियों की बाढ़ में बहें जन डूबकर मरें।।
जो भक्त आप पूजतें वे पुण्य योग से।
अतिवृष्टि अपने देश से वे दूर कर सकें।।१।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि-उपद्रवनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निंह मेघ बरसते सभी जल के लिये तरसें।
पशु पक्षी मनुज प्यास से निज प्राण को तजें।।
ऐसे समय में आप की पूजा ही मेघ सम।
अमृतमयी जलवृष्टि से तर्पित करें जन मन।।२।।
ॐ ह्रीं अनावृष्टि-उपद्रवनाशनसमर्थाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दुर्भिक्ष हो अकाल हो असमय में जन मरें।
भगवन्! तुम्हारी भक्ति से जन पाप परिहरें।।
होवे सुभिक्ष सब तरफ जब पुण्य घट भरें।
तब मेघ भी समय समय वर्षा सुखद करें।।३।।
ॐ ह्रीं दुर्भिक्षोपद्रवनाशनकराय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धन से भरी तिजोरियाँ ताले लगा दिये।
डाकू लुटेरे चोर आये लूट ले गये।।
बहु श्रम से कमाया गया धन हानि जो होती।
प्रभु भक्ति से हानी न हो धन रक्षणा होती।।४।।
ॐ ह्रीं चोरलुंटकादि-उपद्रवनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो राज्यकर के हेतु ही अधिकारी राज्य के।
छापा या टैक्स आदि से धन लूट ले जाते।।
इस विध से राज्य भय से घिरें निर्धनी बनें।
प्रभु के चरणकमल भजें फिर से धनी बनें।।५।।
ॐ ह्रीं आयकरादिराज्यभयोपद्रवनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु में ज्वरादि रोग हो पीड़ाएँ हों घनी।
बहु औषधि लेते भी व्याधियाँ हो चौगुनी।।
भगवान ऋषभदेव की जो अर्चना करें।
ज्वर शूल आदि रोग को वे क्षण में परिहरें।।५।।
ॐ ह्रीं ज्वरशूलरोगादिनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बहुविध के नेत्र रोग हों अंधा करें यदी।
औषधि व शल्य चिकित्सा से हो न लाभ भी।
ऐसे समय में जो मनुष्य प्रभु शरण गहें।
हो नेत्र ज्योति स्वच्छ मन प्रसन्नता लहें।।६।।
ॐ ह्रीं नानाविधनेत्ररोगविनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंवराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो प्राण को भी घातती वैंâसर महाव्याधी।
अति कष्टदायी वेदना से हो न समाधी।।
तब भक्त आप मंत्र को जपते जो भाव से।
सब वेदना व व्याधि भी भगती हैं देह से।।७।।
ॐ ह्रीं प्राणघातिवैंâसरमहाव्याधिविनाशकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हृद रोग से पीड़ित मनुज न पावते साता।
बहुधन करें खर्चा परन्तु बढ़ती असाता।।
जिनराज पादकमल की लेते यदि शरण।
हों पूर्ण स्वस्थ नहीं हो अकाल में मरण।।८।।
ॐ ह्रीं हृदयरोगपीड़ानिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शंभु छन्द-
जो वायुयान से गगन गमन, करते ऊपर में उड़ जाते।
यदि अकस्मात् दुर्घटना हो, ऊपर से नीचे गिर जाते।।
प्रभु नाम जपें तत्क्षण ही तब, तनु में किंचित् नहीं चोट लगे।
मरणान्तक पीड़ा से बचते, दीर्घायु हों दु:ख दूर भगें।।९।।
ॐ ह्रीं सर्ववायुयानदुर्घटनाकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो रेल में बैठे अतिशीघ्र, बहुतेक कोश यात्रा करते।
यदि एक्सीडेंट आदि होवे, तो आकस्मिक मृत्यु लभते।।
जिनराज भक्ति का ही प्रभाव, ऐसी बहु दुर्घटनाओं में।
परिपूर्ण सुरक्षित बच जाते, या एक्सीडेंट टलें क्षण में।।१०।।
ॐ ह्रीं सर्वलोहपथगामिनीदुर्घटनादिभयनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बस कार आदि यात्रा साधन, सुख देते आज सभी को भी।
संघट्टन आदि बहुत विध की, दुर्घटनाएँ होती फिर भी।।
प्रभु नाम मंत्र जपते उस क्षण, दुर्घटना से बच जाते हैं।
यदि मरें कदाचित् फिर भी वे, शुभ स्वर्ग सौख्य पा जाते हैं।।११।।
ॐ ह्रीं सर्वचतुष्चक्रिकादुर्घटनादिसंकटमोचनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो चलें तिपहिए वाहनादि, उनके संघट्टन आदि विविध।
गिरने पड़ने से एक्सीडेंट, आदिक दुर्घटनाओं से नित।।
नाना आतंक दिखें जग में, प्रभु भक्ती से टल जाते हैं।
सब विध अकालमृत्यु टलती, भाक्तिक दु:ख से बच जाते हैं।।१२।।
ॐ ह्रीं सर्वत्रिचक्रिकादुर्घटनादिकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू पर कंप कभी होता, बहुतेक मनुज मर जाते हैं।
घर ग्राम आदि भी नश जाते, बहुते पशु भी मर जाते हैं।।
प्राकृतिक कोप भूकम्प आदि दुर्घटनाएँ भी टल जाती हैं।
जो भक्त आपको जजते हैं, उनकी रक्षा हो जाती है।।१३।।
ॐ ह्रीं भूकम्पदुर्घटनादिनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नदियों में बाढ़ यदि आवे, कितने ही ग्राम डूब जाते।
कितने नर नारी पशु पक्षी, जल में डूबे तब मर जाते।।
इन आकस्मिक जल संकट से, भाक्तिक जन ही बच सकते हैं।
जिनदेवदेव का ही प्रभाव, ये संकट भी टल सकते हैं।।१४।।
ॐ ह्रीं नदीपूरप्रवाहसंकटमोचनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो नदी, समुद्र, नहर आदिक, में अकस्मात् गिर जाते हैं।
तुम नाम मंत्र जपते तत्क्षण, वे सहसा ही तिर जाते हैं।।
जिनदेव भक्ति की महिमा ही, भवसागर भी तिर सकते हैं।
प्रभु आदीश्वर की भक्ति से, हम भी सब संकट हरते हैं।।१५।।
ॐ ह्रीं नदीसमुद्रादिपतनकष्टनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बिच्छू आदिक विषधर जंतु, सर्पादिक काले नाग यदी।
हालाहल विष उगले डस लें, निंह बचा सकें वैद्य यदी।।
ऐसे भय यदी भयंकर भी, जीवन नाशक आ जाते हैं।
आदीश्वर जिनकी भक्ति से, निर्विष हो जीवन पाते हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं वृश्चिकसर्पादिविषधरविषनिर्णाशनाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-नाराच छंद-
आज बम फटें कहीं अनेक प्राणि मारते।
उग्रवादी लोग भी अनेक को संहारते।।
ग्राम सद्म भी बड़े बड़े ही बम गिरे नशें।
आप पाद पूजते समस्त आपदा नशें।।१७।।
ॐ ह्रीं बमविस्फोटकादि-आकस्मिकसंकटनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
उग्रवादि लोग आज मानवों को मारते।
बेकसूर प्राणियों के प्राण को संहारते।।
मानसीक वेदना धरें अनेक नित्य ही।
नाम मंत्र आप का हरे अनेक भीति ही।।१८।।
ॐ ह्रीं आतंकवादिजनकृत्-आकस्मिकमरणादिभयविनाशकाय श्रीऋषभदेव-तीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मृत्यु हो अकाल में न पूर्ण आयु पा सकें।
कर्म की उदीरणा से बहुविधे निमित बनें।।
नाथ पाद को जजें अपूर्व पुण्य को भरें।
दीर्घ आयु हो यहाँ समस्त कष्ट को हरें।।१९।।
ॐ ह्रीं नानाविधदुर्घटनादि-अकालमृत्युनिवारणाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूत औ पिशाच व्यंतरादि कष्ट दें घने।
डाकिनी व शाकिनी ग्रहादि भी निमित बनें।।
दु:ख हो पिशाचग्रस्त आप वश्य ना रहें।
नाथ पाद पूजते समस्त कष्ट को दहें।।२०।।
ॐ ह्रीं भूतपिशाचव्यंतरादिबाधानिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-चौबोल छन्द-
िंकचित् श्रम से धन ही धन हो, सब व्यापार सफल होते।
पुण्य उदय से हों उद्योगपति, सब जन के प्रिय होते।।
जिन पूजा का ही माहात्म्य, जो धन से घर भण्डार भरें।
भाक्तिक जन प्रभु पूजा कर, शीघ्र स्वात्मनिधि प्राप्त करें।।२१।।
ॐ ह्रीं बहुविधव्यापारसफलताकारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीर्घ आयु पाते वे भविजन, जो प्रभु चरण कमल जजते।
अशुभ भाव से दूर रहें नित, जिनवर के गुण में रमते।।
मनुज देव योनी को पाते, सम्यग्दर्शन महिमा से।
अत: जजूँ मैं भक्तिभाव से, उत्तम आयु मिले जिससे।।२२।।
ॐ ह्रीं दीर्घायुप्रापकपुण्यप्रदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अंत समय में रोग वेदना, आर्तरौद्र दुर्ध्यान न हों।
क्रोध मान माया लोभादिक, राग द्वेष दुर्भाव न हों।।
देव शास्त्र गुरु पंचपरम गुरु, इनका ही बस ध्यान प्रभो।
महामंत्र का मनन श्रवण हो, अंत समाधी मरण प्रभो।।२३।।
ॐ ह्रीं अन्त्यसमाधीमरणफलप्रदाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ये, रत्नत्रय शिवदाता हैं।
निश्चय औ व्यवहार मार्ग ये, परमानन्द विधाता हैं।।
ऋषभदेव तीर्थंकर प्रभु की, भक्ति करें जो भव्य सदा।
वे ही तीन रत्न पा लेते, त्रिभुवन लक्ष्मी लें सुखदा।।२४।।
ॐ ह्रीं व्यवहारनिश्चयरत्नत्रयप्रदायकाय श्रीऋषभदेवतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य— (शंभु छंद)
अतिवृष्टि अनावृष्ट्यादि कष्ट, जो मानव को दु:ख देते हैं।
श्रीऋषभदेव की पूजा से, भविजन सब दु:ख को मेटे हैं।।
नीरोग बनें दीर्घायु हों, सब सुख सम्पत्ति भर लेते हैं।
यह जिनपूजन का ही प्रभाव, बहुयश सौरभ को देते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं अतिवृष्टि-अनावृष्ट्यादिविविधसंकटनिवारकाय श्रीऋषभदेवतीर्थं-कराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।