जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्रसंबंधी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है। उसमें महाराजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नामा वामा देवी था। वैशाख कृष्णा द्वितीया को रानी ने गर्भ धारण किया पुन: नवमास व्यतीत होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र को जन्म दिया। इन्द्रादि देवों ने सुमेरु पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘पार्श्वनाथ’ यह नामकरण किया था। प्रभु पार्श्वनाथ के शरीर की कांति हरितवर्ण एवं ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी।सोलह वर्ष की आयु में भगवान ने एक तापसी के द्वारा घायल किए गए सर्प-सर्पिणी को उपदेश दिया, जिसके प्रभाव से वे (सर्प-सर्पिणी) शांतभाव से मरकर बड़े ही वैभवशाली धरणेन्द्र और पद्मावती ्नाामक देव-देवी हो गए।
अनन्तर तीस वर्ष की आयु में एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन के द्वारा भेजी गई भेंट को स्वीकार करके भगवान पार्श्वनाथ ने उस दूत से अयोध्या की विभूति के बारे में पूछा। उत्तर में दूत ने सबसे पहले भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया पुन: अयोध्या की दिव्यविभूति का विस्तार से वर्णन किया। उसी समय, ‘‘भगवान ऋषभदेव के समान मुझे भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ है’’ ऐसा सोचते हुए भगवान पार्श्वनाथ गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गए और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए।देवों द्वारा लाई विमलाभा पालकी पर बैठकर प्रभु अश्ववन में जाकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गए। पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के राजा धन्य ने प्रभु को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया।
छद्मस्थ अवस्था के चार मास बीतने पर भगवान वन में जाकर ध्यानलीन हो गए, उस समय कमठ के जीव शंबर देव ने पूर्व वैर के कारण सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया पुन: धरणेन्द्र और पद्मावती ने अवधिज्ञान से इस उपसर्ग को जानकर इसका निवारण किया तत्क्षण ही ध्यान के प्रभाव से प्रभु को चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन दिव्य केवलज्ञान प्रगट हो गया। इन्द्रों ने समवसरण की रचना करके केवलज्ञानकल्याणक की पूजा की।भगवान पार्श्वनाथ ने बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए पाँच मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया पुन: आयु के एक मास अवशेष रहने पर सम्मेदाचल के शिखर पर प्रतिमायोग से विराजमान हो गए अनन्तर श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन सिद्धपद को प्राप्त कर लिया।ऐसे पार्श्वनाथ भगवान हमें भी सम्पूर्ण प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति प्रदान करें।