दोहा- धर्मचक्र के अधिपती, त्रिभुवन पति जिनराज।
सुमन चढ़ाकर पूजहूँ, नमूँ नमूँ नत माथ।।१।।
अथ चतुर्थवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—नरेन्द्र छंद—
मान सहित काया से जो संरंभ करे नित रुचि से।
नीच गोत्र में जन्म धरे फिर दु:ख सहे नित तन से।।
इनसे विरहित श्रीसुपार्श्व को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८२।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित काया से कराता जो संरंभ सदा ही।
देवगती में भी यदि जन्में कुत्सित गती धरे ही।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८३।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से काया से संरंभे, उसको अनुमति देवे।
पाप पुण्य का आस्रव करके, दु:ख निकट कर लेवे।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८४।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से तन से समारंभ कर, कर्मों को नित बांधे।
मानस शारीरिक आगंतुक सभी दु:खों को साधे।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८५।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से तन से समारंभ जो सदा कराता रहता।
इहभव में परभव में भी तो दुख संकट बहु सहता।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८६।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से तन से समारंभ, करते को अनुमति देवे।
जन्म मरण के दुख सह-सहकर, बीज पाप का बोवे।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को, कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों, सर्व कषाय शमन हों।।८७।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान सहित तन से कार्यों को, आरंभे भव भव में।
संस्कारों से तनु धर-धर कर भ्रमण करे चहुंगति में।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८८।।
ॐ ह्रीं मानकृतकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से तन से सदा कराता पर से आरंभों को।
कुगुरु कुशास्त्रों की शिक्षा से कुत्सित बुद्धि धरे जो।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।८९।।
ॐ ह्रीं मानकारितकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मद से काया से आरंभित कार्यों को अनुमोदे।
नाना कर्मों को नित बांधे निज पर को भी दुख दे।।
इनसे विरहित तीर्थेश प्रभु को कोटी-कोटि नमन हो।
पंचेन्द्रिय के विषय दूर हों सर्व कषाय शमन हों।।९०।।
ॐ ह्रीं मानानुमतकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से तनु से जो सदा संरंभ करते प्रेम से।
वे कर्मबंधन से बंधे बहु दु:ख सहते देह से।।
आस्रव रहित तीर्थेश प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९१।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से तनु से जो कराते हैं सदा संरंभ को।
तिर्यंच योनी में पड़ें वहाँ कष्ट दु:ख असंख्य हो।।
आस्रव रहित तीर्थेश प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९२।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो छद्म से तन से करें संरंभ उसमें अनुमती।
वे मूढ़ भेदविज्ञान बिना नहिं पा सकेंगे सद्गती।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९३।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया निमित तन से समारंभे इकट्ठी वस्तु हों।
सम्यक्त्व बिन समता नहीं पाते उठाते दु:ख को।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९४।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया से तनु से समारंभों को कराते प्रेम से।
चारित्र बिन संसार में दु:ख भोगते हैं देह से।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९५।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तनु से समारंभें उन्हें माया व तनु से अनुमती।
तप बिना कर्मास्रव न सूखें फिर धरें तिर्यग्गती।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९६।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया धरें तन से करें आरंभ जो भव मूल है।
जिन भक्ति बिन भव में भ्रमें पावें न वो भव कूल है।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९७।।
ॐ ह्रीं मायाकृतकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
माया सहित तनु से कराते बहुत ही आरंभ जो।
जिनशास्त्र के स्वाध्याय बिन साता न पाते रंच वो।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९८।।
ॐ ह्रीं मायाकारितकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मायासहित तनु से करें आरंभ उसमें अनुमती।
दिग्वस्त्र गुरु की भक्ति बिन मिलती नहीं है शुभ मती।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।९९।।
ॐ ह्रीं मायानुमतकायारंंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से तनु से करें संरंभ चहुँगति में भ्रमें।
नित करें खोटे देव की भक्ती न जिनवच में रमें।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१००।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ वश तनु से कराते अन्य से संरंभ को।
जिनदेव की भक्ती बिना पाते न सुख के मर्म को।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०१।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संरंभ करते देख अनुमति दें तनू से लोभ से।
संसार में रुलते रहें नहिं छूटते भव रोग से।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०२।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायसंंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभवश तन की क्रिया से समारंभी हो रहे।
जिनधर्म बिन खोटे गुरू के वचन से भव दु:ख सहें।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०३।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समारंभी लोभवश तनु से करें पर प्रेरणा।
उनके चतुर्गति भ्रमण में निज आत्म सुख का लेश ना।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०४।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुमोदते जो लोभवश तनु से समारंभी जना।
वे मोक्षपथ के बिना व्यंतर योनि में दुख लें घना।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०५।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभ से तनु से करें आरंभ बहुविध प्रेम से।
नरकायु बांधें सागरों तक दु:ख भोगें नर्क के।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०६।।
ॐ ह्रीं लोभकृतकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो लोभवश तनु से कराते अन्य से आरंभ को।
वे भी निगोदों के दुखों को सहें पापारंभ सों।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०७।।
ॐ ह्रीं लोभकारितकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आरंभ करते देख तनु से लोभवश अनुमति करें।
वे भी कुमानुषयोनि में चिरकाल तक बहु दुख भरें।।
आस्रव रहित श्रीसुपार्श्व प्रभु की जो सदा पूजा करें।
वे पुनर्भव के दु:ख से छूटें न फिर काया धरें।।१०८।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतकायारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
धर्मतीर्थ के नाथ तुम, धर्म चक्रधर धीर।
पूरण अर्घ्य चढ़ाय के, पाऊँ मैं भव तीर।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टोत्तरशतास्रवविरहिताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय नम:।
(सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावल से १०८ बार मंत्र जपें)