-स्वयंभूस्तोत्रम्-
स्वयंभुवा येन समुद्धृतं जगज्जडत्वकूपे पतितं प्रमादत:।
परात्मतत्त्वप्रतिपादनोल्लसद्वचोगुणैरादिजिन: स सेव्यताम्।।१।।
अर्थ —जो जगत प्रमाद के वश होकर अज्ञानरूपी कूवें में पड़ा था, उस जगत को जिस स्वयंभू (अपने आप होने वाले) श्री आदिनाथ भगवान ने पर तथा आत्मा के स्वरूप को कहने वाले मनोहर अपने वचनरूपी गुणों से उस अज्ञानरूपी कूवें से बाहर निकाला, उन आदिनाथ भगवान की भो भव्यजीवों! आप सेवा करो।
भावार्थ —जिस प्रकार कोई मनुष्य प्रमादी बनकर कूवें में गिर पड़े, उस मनुष्य को कोई उत्तम मनुष्य रस्सों से बाहर निकाले तो जिस प्रकार कूप से निकालने वाले मनुष्य को वह कूवें से निकला हुंआ मनुष्य बड़ा अपना उपकारी मानता है तथा उसकी शक्त्यनुसार सेवा भी करता है, उसी प्रकार यह जगत भी प्रमाद के वश होकर अज्ञानांधकार में पड़ा हुआ था और सर्वथा हिताहित के विवेक से शून्य था, उस समय श्री आदिनाथ भगवान ने अपने उपदेश से इस जगत का उद्धार किया तथा इसको पर और आत्मतत्त्व का ज्ञान कराया अत: सबसे यदि उपकारी हैं तो आदिनाथ ही भव्यजीवों के उपकारी हैं इसलिये हे भव्यजीवों! आपके परमादरणीय तथा सेवा के पात्र श्री आदिनाथ ही हैं।।१।।
अजितनाथ भगवान की स्तुति
भवारिरेको न परोऽस्ति देहिनां सुहृच्च रत्नत्रयमेकमेव हि।
स दुर्जयो येन जिनस्तदाश्रयात्ततोऽजितान्मे जिनतोऽस्तु सत्सुखम्।।२।।
अर्थ —जीवों का संसार ही एक बैरी है और दूसरा कोई भी बैरी नहीं है तथा सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय ही मित्र हैं और कोई दूसरा मित्र नहीं और वह संसाररूपी बैरी अत्यंत दुर्जय है किंतु जिन श्री अजितनाथ भगवान ने उस सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्ररूपी मित्र की सहायता से उस संसाररूपी भयंकर बैरी को सर्वथा जीत लिया है उन अजितनाथ भगवान से मुझे श्रेष्ठ सुख मिले, ऐसी मेरी प्रार्थना है।
भावार्थ —जिस प्रकार कोई भयंकर बैरी मित्रों की सहायता से पलभर में जीत लिया जाता है, उसी प्रकार श्री अजितनाथ भगवान ने भी सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूपी मित्र की सहायता से संसाररूपी भयंकर बैरी को जीत लिया है क्योंकि जीवों का सबसे प्रबल बैरी संसार है और सबसे अधिक मित्र रत्नत्रय हैं इसलिये इस प्रकार अत्यंतवीर श्री अजितनाथ भगवान मुझे उत्तमसुख के दाता हों, ऐसी मेरी प्रार्थना है।।२।।
संभवनाथ भगवान की स्तुति
पुनातु न: संभवतीर्थकृज्जन: पुन: पुन: संभवदु:खदु:खिता:।
तदर्तिनाशाय विमुक्तिवर्त्मन: प्रकाशकं यं शरणं प्रपेदिरे।।३।।
अर्थ —बारंबार संसार के दु:खों से दु:खित जो प्राणी समस्त संसार के दु:खों के नाश के लिये मोक्ष के मार्ग को प्रकाश करने वाले ऐसे जिस श्री संभवनाथ की शरण को प्राप्त हुए, ऐसे श्री संभवनाथ जिनेंद्र हमारी रक्षा करें अर्थात् ऐसे श्री संभवनाथ भगवान को हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ —जो संभवनाथ भगवान प्राणियों को संसार के दु:खों से छुटाने वाले हैं तथा मोक्ष के मार्ग के प्रकाश करने वाले हैं और शरण में आये हुए जीवों की रक्षा करने वाले हैं, ऐसे श्री संभवनाथ भगवान हमारी रक्षा करें।।३।।
अभिनंदननाथ भगवान की स्तुति
निजैर्गुणैरप्रतिमैर्महानजो नतु त्रिलोकीजनतार्चनेन य:।
यतो हि विश्वं लघु तं विमुक्तये नमामि साक्षादभिनंदनं जिनम्।।४।।
अर्थ —जो अभिनंदननाथ भगवान तीनों लोक के जनों से पूजित हैं इसलिये बड़े नहीं हैं किंतु दूसरे जीवों में नहीं पायें जायें ऐसे जो स्वीयगुण हैं, उनमें बड़े हैं और जो जन्मकर रहित हैं तथा जिनसे समस्त लोक छोटा है अर्थात् जो सांसारिक सुखों को तुच्छ समझते हैें अथवा जिनके ज्ञान के सामने यह लोक बहुत छोटी चीज है, ऐसे जीवों को समस्त प्रकार के आनंद के देने वाले श्री अभिनंदन जिनेंद्र को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ —जो अपने असाधारण गुणों से महान हैं किंतु तीनों लोक के जीवों द्वारा पूजित हैं इसलिये महान नहीं हैं तथा जन्म-मरण आदिक जिनके पास भी नहीं फटकने पाते और जो समस्त पदार्थों को देखने वाले हैं और जिनके नाम स्मरणमात्र से ही समस्त जीवों को आनंद होता है, ऐसे श्री अभिनंदननाथ को मैं मुक्ति के लिये मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।।४।।
सुमतिनाथ भगवान की स्तुति
नयप्रमाणादिविधान१ संघटं प्रकाशितं तत्त्वमतीव निर्मलम्।
यतस्त्वया तत्सुमतेऽत्र तावकं तदन्वयं नाम नमोस्तु ते जिन।।५।।
अर्थ —हे सुमतिनाथ जिनेन्द्र ! जिसमें प्रमाण तथा नयों का भलीभांति संघट है और जो अत्यंत निर्मल है, ऐसा तत्त्व आपने प्रकाशित किया है इसलिये हे जिनेश! आपका नाम सार्थक है तथा आपके लिये नमस्कार हो।
भावार्थ —जिसकी बुद्धि शोभन होवे, उसको सुमति कहते हैं, यह सुमति शब्द का अर्थ है। हे सुमतिनाथ जिनेश! आपका यह नाम सर्वथा सार्थक है क्योंकि आपने उस तत्त्व का प्रकाश किया है, जिस तत्त्व में प्रमाण तथा नय का अच्छी तरह संघट है तथा जिसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है और इसीलिये जो निर्मल है अत: हे प्रभो ! हे जिनेश ! आपके लिये नमस्कार है।।५।।
पद्मप्रभु तीर्थंकर की स्तुति
रराज पद्मप्रभतीर्थकृत्सदस्यशेषलोकत्रयलोकमध्यग:।
नभस्युडुव्रातयुत: शशी यथा वचोऽमृतैर्वर्षति य: स २पातु व:।।६।।
अर्थ —आकाश में चंद्रमा जिस प्रकार नक्षत्रों से शोभित होता है तथा जीवों को आनंदामृत का वर्षण करता है उसी प्रकार जो पद्मप्रभु भगवान तीनों लोक के जो समस्त जीव, उनके मध्यभाग में शोभित होते थे तथा जो अपने वचनरूपी अमृत को वर्षाने वाले थे, ऐसे वे श्री पद्मप्रभु भगवान हमारी रक्षा करें अर्थात् ऐसे पद्मप्रभु भगवान को हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार चंद्रमा आकाश में नक्षत्रों से वेष्टित हुवा अधिक शोभा को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो पद्मप्रभु भगवान समवसरण में समस्त जीवों के मध्य में अत्यंत शोभित होते थे तथा जिस प्रकार चंद्रमा अपने प्रकाश से जगत को आनंद का देने वाला है, उसी प्रकार जो पद्मप्रभु भगवान अपने उपदेश से जीवों को आनंद के देने वाले थे अर्थात् जिनके उपदेश को सुनकर भव्यजीव आनंदसागर में मग्न हो जाते थे, ऐसे श्री पद्मप्रभु भगवान हमारी रक्षा करें।।६।।
सुपार्श्वनाथ की स्तुति
नरामराहीश्वरपीडने जयी धृतायुधो धीरमना झषध्वज:।
विनावि शस्त्रैर्ननु येन निर्जितो जिनं सुपार्श्वं प्रणमामि सर्वदा।।७।।
अर्थ —जो कामदेव-नरेन्द्र-देवेन्द्र-फणीन्द्र को भी दु:ख का देने वाला है और जो शस्त्रों का धारी है तथा जिसका मन अत्यंतधीर है और जिसकी मीन की ध्वजा है, ऐसा भी कामदेव जिस सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ने बिना ही शस्त्र के पलभर में जीत लिया, उन सुपार्श्व भगवान को मैं सर्वदा मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूं।
भावार्थ—यद्यपि संसार में नरेन्द्र देवेन्द्र तथा फणीन्द्र भी बड़े वीर गिने जाते हैं किन्तु कामदेव के सामने जिनकी कुछ भी वीरता नहीं चलती अर्थात् जो कामदेव इनको भी जीतने वाला है तथा जिस कामदेव के पास सदा शस्त्र (बाण) रहते हैं और जो धीरमन तथा मीन की ध्वजा का धारी है, उस कामदेव को बिना शस्त्र के जिन सुपार्श्वनाथ भगवान ने बात की बात में जीत लिया अर्थात् जिन भगवान के सामने तीन लोक के विजयी भी कामदेव की कुछ भी तीन-पाँच न चली, उन श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र को मैं सर्वदा मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।।७।।
चन्द्रप्रभु भगवान की स्तुति
शशिप्रभो वागमृतांशुभि: शशी परं कदाचिन्न कलंकसंगत:।
नवापि दोषाकरतां ययो यतिर्जयत्यसौ संसृतिपापनाशन:।।८।।
अर्थ —जो चंद्रप्रभु भगवान वाणीरूपी अमृत की किरणों से यद्यपि चंद्रमा हैं परन्तु कभी भी कलंककर युक्त नहीं हैं और न कभी दोषाकरता को ही प्राप्त हुवे हैं तथा समस्त संसार के पापों के नाश करने वाले हैं, ऐसे यदि चंद्रप्रभु भगवान सदा इस लोक में जयवंत हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार चंद्रमा अपनी अमृतमयी किरणों से जीवों को आनंद का देने वाला होता है, उसी प्रकार चंद्रप्रभु भगवान चंद्रमा ही हैं किन्तु जिस प्रकार चंद्रमा कलंककर सहित हैं तथा दोषोंकर है, उस प्रकार भगवान कलंकसहित नहीं हैं किन्तु कलंककर रहित ही हैं तथा दोषों कर नहीं हैं किंंतु दोषों कर रहित ही हैं और समस्त संसार के नाश करने वाले हैं इसलिये ऐसे अपूर्व चंद्रमा श्री चंद्रप्रभ भगवान सदा इस लोक में जयवंत हैं।।८।।
पुष्पदंत भगवान की स्तुति
यदीयपादद्वितयप्रणामत: पतत्यधो मोहनधूलिरंगिनाम्।
शिरोगता मोहठकप्रयोगत: स पुष्पदंत: सततं प्रणम्यते।।९।।
अर्थ —मोहरूपीठग द्वारा प्राणियों के शिरों में स्थापित मोहनरूपी धूलि जिस पुष्पदंत भगवान के दोनों चरण-कमलों के प्रणाम से ही पलभर में नीचे गिर पड़ती है, उन पुष्पदंत भगवान को हम सदा प्रणाम करते हैं।
भावार्थ —कोई ठग किसी मनुष्य पर मोहनधूलि (जादू) डाल देवे तो जिस प्रकार उसको कुछ भी नहीं सूझता तथा वह ठग उसकी सब चीजों को ठग लेता है उसी प्रकार इस संसार में मोह भी एक बड़ा भारी ठग है तथा उसने भी प्राणियों के मस्तकों पर मोहनधूलि डाल रखी है इसलिये उन प्राणियों को कुछ भी हिताहित का विवेक नहीं है अर्थात् मोह द्वारा उनका सब विवेक ठगा गया है किंतु वह मोहनधूलि श्री पुष्पदंत भगवान के दोनों चरण-कमलों को प्रणाम करने से पलभर में नष्ट हो जाती है इसलिये आचार्य कहते हैं कि हम ऐसे श्री पुष्पदंत भगवान को नमस्कार करते हैं।।९।।
शीतलनाथ भगवान की स्तुति
सतां यदीयं वचनं सुशीतलं यदेव चन्द्रादपि चन्दनादपि।
तदत्र लोके भवतापहारि यत् प्रणम्यते किं न स शीतलो जिन:।।१०।।
अर्थ —जिस शीतलनाथ भगवान के वचन सज्जनों को चंद्रमा तथा चंदन से भी अधिक शीतल जान पड़ते हैं और जो वचन समस्त संसार के तापों के नाश करने वाले हैं ऐसे शीतलनाथ भगवान क्या नमस्कार के पात्र नहीं हैं ? अवश्य ही हैं।
भावार्थ —यद्यपि संसार में चंद्रमा तथा चंदन भी शीतल पदार्थ हैं तथा ताप के दूर करने वाले हैं किंतु ये बहुत थोड़े शीतल पदार्थ हैं तथा थोड़े ही ताप को नाश कर सकते हैं किंतु भगवान शीतलनाथ के वचन अत्यंत शीतल तथा समस्त संसार के तापों को दूर करने वाले हैं इसलिये ऐसे शीतलनाथ भगवान को मस्तक झुकाकर नमस्कार है।।१०।।
श्रेयांसनाथ भगवान की स्तुति
जगत्रये श्रेय इतो ह्ययादिति प्रसिद्धनामा जिन एष वन्द्यते।
यतो जनानां बहुभक्तिशालिनां भवंति सर्वे सफला मनोरथा:।।११।।
अर्थ —तीनों लोक में समस्त कल्याणों की प्राप्ति श्री श्रेयांसनाथ भगवान से होती है इसलिये ये जिनेन्द्र, श्रेयोनाथ इस नाम से प्रसिद्ध हैं तथा जो भव्यजीव इन श्रेयांसनाथ भगवान में गाढ़भक्ति कर सहित हैं, उनभव्य जीवों के इन्हीं भगवान की कृपा से समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं।
भावार्थ —ग्यारहवें तीर्थंकर का जो श्रेयांसनाथ भगवान नाम पड़ा है, उसका कारण यही है कि तीनों लोक में उन्हीं की कृपा से कल्याणों की प्राप्ति होती है और उन्हीं की कृपा से भव्यजीवों के समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं।।११।।
वासुपूज्य तीर्थंकर की स्तुति
पादाब्जयुग्मे तव वासुपूज्य जनस्य पुण्यं प्रणतस्य तद्भवेत्।
यतो न सा श्रीरिह हि त्रिविष्टपे न तत्सुखं यन्न पुर: प्रधावति।।१२।।
अर्थ —हे वासुपूज्य जिनेश ! जो भव्यजीव आपके दोनों चरण-कमलों को नमस्कार करने वाला है, उस भव्यजीव को इस संसार में उस अपूर्व पुण्य की प्राप्ति होती है कि जिस पुण्य की कृपा से इन तीनों लोक में न तो कोई ऐसी लक्ष्मी है, जो आगे दौड़कर न आती हो और न कोई ऐसा सुख है, जो न मिलता हो।
भावार्थ —हे वासुपूज्य जिनेश ! जो मनुष्य आपके चरण-कमलों की सेवा करने वाले हैं, उन मनुष्यों को अपूर्व पुण्य की प्राप्ति होती है जिस पुण्य की कृपा से इन तीनों लोक में न तो कोई ऐसी लक्ष्मी है जो आगे दौड़कर न आती हो और न कोई ऐसा सुख है जो न मिलता हो।
भावार्थ —हे वासुपूज्य जिनेश! जो मनुष्य आपके चरण कमलों की सेवा करने वाले हैं, उन मनुष्यों को अपूर्व पुण्य की प्राप्ति होती है तथा उस पुण्य की कृपा से वे इस संसार में उत्तमोत्तम लक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं और समस्त प्रकार के सुख उनके सामने पलभर में आकर उपस्थित हो जाते हैं।।१२।।
विमलनाथ तीर्थंकर की स्तुति
मलैर्विमुक्तो विमलो न वैâर्जिनो यथार्थनामा भुवने नमस्कृत:।
तदस्य नामस्मृतिरप्यसंशयं करोति वैमल्यमघात्मनामपि।।१३।।
अर्थ —इस संसार में ऐसा कौन होगा ? जिसने समस्त मलोंकर रहित तथा सार्थक नाम को धारण करने वाले जिनेन्द्र श्री विमलनाथ को नमस्कार न किया हो अर्थात् समस्त ही जीव श्री विमलनाथ भगवान को नमस्कार करते हैं इसीलिये श्री विमलनाथ भगवान के नाम का स्मरण ही पापी मनुष्यों को भी अत्यंत विमल बना देता है।
भावार्थ —जो मनुष्य पापी हैं अर्थात् रात-दिन पाप का संचय करते रहते हैं, यदि वे मनुष्य भी श्री विमलनाथ जिनेन्द्र का नाम ले लेवें तो वे बात की बात में समस्त पापों कर रहित हो जाते हैं क्योंकि विमलनाथ स्वयं समस्त प्रकार के मलों कर रहित हैं तथा (समस्त प्रकार के मलोंकर जो रहित होवे, उसको विमल कहते हैं) इस सार्थक नाम को भी विमलनाथ भगवान धारण करते हैं तथा समस्त संसारी जीव उनको नमस्कार करते हैं।।१३।।
अनंतनाथ तीर्थंकर की स्तुति
अनंतबोधादिचतुष्टयात्मकं दधाम्यनंतं हृदि तद्गुणाशया।
भवेद्यदर्थी ननु तेन सेव्यते तदन्वितो भूरितृषेव सत्सद:।।१४।।
अर्थ —अनंतविज्ञानादि स्वरूप श्री अनंतनाथ भगवान को मैं उनके गुणों की आशा से अपने हृदय में धारण करता हूँ क्योंकि संसार में यह बात प्रत्यक्षगोचर है कि जो पुरुष जिस गुण की प्राप्ति का इच्छुक होता है, वह मनुष्य उसकी ही सेवा करता है जिस प्रकार अत्यंत प्यासा मनुष्य अपनी प्यास की शांति के लिये उत्तम (स्वच्छ जल से भरे हुए) सरोवर की सेवा करता है।
भावार्थ —जिस प्रकार अत्यंत प्यासा मनुष्य अपनी प्यास बुझाने के लिये अत्यंत निर्मल जल से भरे हुए सरोवर की सेवा करता है, उसी प्रकार अनंतविज्ञान-अनंतवीर्य-अनंतसौख्य तथा अनंतदर्शन, इस अनंत चतुष्टय का मैं भी आकांक्षी हूँ इसलिये अनंत चतुष्टय के धारण करने वाले श्री अनंतनाथ भगवान को मैं अपने हृदय में धारण करता हूँ क्योंकि जो जिस गुण की प्राप्ति का अभिलाषी होता है, वह अवश्य ही उसकी सेवा करता है।।१४।।
धर्मनाथ तीर्थंकर की स्तुति
नमोस्तु धर्माय जिनाय मुक्तये सुधर्मतीर्थप्रविधायिने सदा।
यमाश्रितो भव्यजनोऽतिदुर्लभां लभेत कल्याणपरम्परां पराम्।।१५।।
अर्थ —जिस धर्मनाथ भगवान को आश्रयकर भव्यजीव अत्यंत दुर्लभ सर्वोत्कृष्ट कल्याणों की परंपरा को प्राप्त होते हैं, उन श्रेष्ठ धर्मरूपी तीर्थ के प्रवर्ताने वाले तथा अष्ट कर्मों के जीतने वाले श्री धर्मनाथ भगवान को मैं मोक्ष की प्राप्ति के लिये सर्वदा नमस्कार करता हूँ।।१५।।
शांतिनाथ भगवान की स्तुति
विधाय कर्मक्षयमात्मशांतिकृज्जगत्सु य: शांतिकरस्ततोऽभवत्।
इति स्वमन्यं प्रति शांतिकारणं नमामि शांतिं जिनमुन्नतश्रियम्।।१६।।
अर्थ —जो शांतिनाथ भगवान अपनी आत्मा की शांति करने वाले कर्मों के क्षय को करके समस्त जगत में शांति को करने वाले होते हुवे ऐसे स्व तथा पर को शांति के करने वाले और अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार की लक्ष्मी के स्वामी सोलहवें तीर्थंकर श्री शांतिनाथ भगवान को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ अर्थात् शांति के देने वाले श्री शांतिनाथ भगवान मुझे भी शांति प्रदान करें।
भावार्थ —जब तक इस आत्मा के साथ कर्मों का संबंध रहता है, तब तक यह मेरा है, यह तेरा है, इस प्रकार के विकल्पों को करता हुआ यह सदा व्याकुल ही रहा करता है किंतु जिस समय कर्म आत्मा से जुदे हो जाते हैं, उस समय विकल्पों से रहित होने के कारण आत्मा शांत हो जाता है। श्री शांतिनाथ भगवान ने अपने तपोबल से घातिया कर्मों का सर्वथा नाश कर दिया है इसलिये कर्मों से रहित होने के कारण वे शांत हैं और वे स्वयंशांत समस्त जगत में शांति के करने वाले हैं इसलिये इस प्रकार स्व और पर की शांति के करने वाले और समस्त लक्ष्मी के स्वामी श्री शांतिनाथ भगवान को मैं मस्तक झुकाकर शांति की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ।।१६।।
कुंथुनाथ तीर्थंकर की स्तुति
दयांगिनां चिद्द्वितयं विमुक्तये परिग्रहद्वन्द्वविमोचनेन तत्।
विशुद्धमासीदिह यस्य मादृशां स कुंथुनाथोऽस्तु भवप्रशांतये।।१७।।
अर्थ —बाह्य तथा अभ्यंतर के भेद से समस्त प्रकार के परिग्रहों के छोड़ने के कारण जिन कुंथुनाथ भगवान के समस्त प्राणियों पर दया और चैतन्य ये दोनों विशुद्ध हो गये, वे श्री कुंथुनाथ भगवान मेरे समान मनुष्यों को संसार की शांति के लिये हों।
भावार्थ —जब तक ममेदमिति (यह मेरा है ऐसे) मूर्छालक्षण परिग्रह का संबंध आत्मा के साथ में रहता है, तब तक किसी प्रकार की विशुद्धता नहीं होती और जिस समय इस परिग्रह का संबंध छूट जाता है, उस समय विशुद्ध की प्राप्ति होती है। श्री कुंथुनाथ भगवान ने समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया है इसलिये बाह्य में तो समस्त प्राणियों पर दया की विशुद्धि हुई तथा अंतरंग में चैतन्य की विशुद्धि हुई इसलिये ऐसे श्री कुंथुनाथ भगवान मेरे समान मनुष्यों को संसार की शांति के लिये होवें।।१७।।
अरनाथ तीर्थंकर की स्तुति
विभांति यस्यांघ्रिनखा नमत्सुरस्फुरच्छिरोरत्नमहोऽधिकप्रभ:।
जगद्गृहे पापतमोविनाशना इव प्रदीपा: स जिनो जयत्पर:।।१८।।
अर्थ —नमस्कार करते हुये जो देवता, उनके मस्तकों पर मुकुटों में लगे हुए जो देदीप्यमान रत्न, उनकी जो कान्ति, उससे भी अधिक प्रभा जिनकी, ऐसे जिन अरनाथ जिनेन्द्र के चरणों के नख, संसाररूपी घर में पापरूपी अंधकार को नाश करने वाले दीपकों के समान शोभित होते हैं, वे अरनाथ भगवान इस लोक में जयवंत हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार दीपक अंधकार का नाश करता है, उसी प्रकार अत्यंत देदीप्यमान भगवान के चरण के नख भी पापरूपी अंधकार का नाश करते हैं अर्थात् जो भव्यजीव भगवान के चरणों के नखों की आराधना करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।।१८१।।
मल्लिनाथ भगवान की स्तुति
सुहृत्सुखी स्यादहित: सुदु:खित: स्वतोप्युदासीनतमादपि प्रभो:।
यत: स जीयाज्जिनमल्लिरेकतां गतो जगद्विस्मयकारिचेष्टित:।।१९।।
अर्थ —यद्यपि मल्लिनाथ भगवान स्वयं उदासीन हैं तो भी जिन मल्लिनाथ प्रभु से उनके स्नेही भक्त सुख पाते हैं तथा उनके शत्रु दु:ख पाते हैं इसलिये ऐसे वे आत्मस्वरूप में लीन तथा समस्त जगत को आश्चर्य करने वाली चेष्टा को धारण करने वाले श्री मल्लिनाथ भगवान सदा इस लोक में जयवंत प्रवर्त हों।
भावार्थ —यद्यपि यह बात अनुभवगोचर है कि जो मनुष्य उदासीन होता है अर्थात् तो मित्र-शत्रु को समान मानता है, उससे न तो मित्र सुखी होते हैं और न शत्रु दु;खी होते हैं किंतु मल्लिनाथ भगवान में यह विचित्रता है कि वे स्वयं उदासीन होने पर भी अपने भक्तों को सुख के देने वाले हैं तथा निंदकों को दु:ख के देने वाले हैं (अर्थात् जो मनुष्य उनकी सेवा तथा भक्ति करता है, उसको शुभ कर्म का बंध होता है जिससे उसको शुभ कर्म के फलस्वरूप सुख की प्राप्ति होती है तथा जो मनुष्य उनकी निंदा करता है, उनको घृणा की दृष्टि से देखता है, उसको अशुभ कर्मों का बंध होता है जिससे उसको संसार में नाना प्रकार के दु:खों का सामना करना पड़ता है) इसलिये इस प्रकार अपने आत्मस्वरूप में लीन तथा आश्चर्यकारी चेष्टा को धारण करने वाले श्री मल्लिनाथ भगवान इस लोक में जयवंत रहें।।१९।।
मुनिसुव्रतनाथ भगवान की स्तुति
विहाय नूनं तृणवत्स सम्पदं मुनिर्व्रतैर्योऽभवदत्र सुव्रत:।
जगाम तद्धामविरामवर्जितं सुबोधदृड़भे स जिन: प्रसीदतु।।२०।।
अर्थ —जो मुनिसुव्रतनाथ मुनि, समस्त पदार्थों को निश्चय से तृण के समान छोड़कर व्रतों को धारण करने से मुनिसुव्रत नाम को धारण करते हुए और जो नाशकर रहित (अविनाशी) मोक्षपद को प्राप्त हुए तथा जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के धारी हैं, ऐसे वे मुनिसुव्रतनाथ भगवान मेरे ऊपर प्रसन्न हों।
भावार्थ —जो उत्तम व्रतों को धारण करने वाला हो, उसको सुव्रत कहते हैं। बीसवें तीर्थंकर का जो मुनिसुव्रत नाम पड़ा है, सो इसलिये पड़ा है कि उन्होंने समस्त संपदाओं का त्यागकर व्रतों को धारण किया है इसलिये इस प्रकार व्रतों को पालने के कारण सुव्रतनाम को धारण करने वाले तथा अविनाशी मोक्षपद को प्राप्त और सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के धारी श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान मुझ पर प्रसन्न हों, ऐसी मेरी प्रार्थना है।।२०।।
नमिनाथ तीर्थंकर की स्तुति
परम्परायत्ततयातिदुर्बलं चलं स्वसौख्यं सदसौख्यमेव तत्।
अद: प्रमुच्यात्मसुखे कृतादरो नमिर्जिनो य: सममास्तु मुक्तये।।२१।।
अर्थ —जो नमिनाथ भगवान पराधीनता से प्राप्त तथा पर (भिन्न) और अत्यंत दुर्बल तथा चंचल ऐसा इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सुख-दु:ख स्वरूप ही है, ऐसा समझकर तथा इन्द्रियसंबंधी सुख को छोड़कर आत्मसंबंधी सुख में आदर करते हुए वे श्री नमिनाथ भगवान मुझे मुक्ति के लिये हों।
भावार्थ —इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सुख पराधीन है और वास्तविक सुख से भिन्न है, अत्यंत दुर्बल है तथा चंचल है और वह सुख नहीं, दु:खस्वरूप ही है किंतु आत्मसंबंधी सुख स्वाधीन है, स्वीय (अपना) है, दुर्बलता रहित है, स्थिर है और वही वास्तविक सुख है, ऐसा भलीभांति समझकर जो नमिनाथ भगवान इन्द्रियसंबंधी सुख को छोड़कर आत्मसंबंधी सुख में भलीभांति आदर करते हुए, वे श्री नमिनाथ भगवान मुझे मुक्ति के लिये होवें अर्थात् मुझे मुक्ति देवें, ऐसी मेरी प्रार्थना है।।२१।।
नेमिनाथ भगवान की स्तुति
अरिष्टसंकर्तनचक्रनेमितामुपागतो भव्यजनेषु यो िजन:।
अरिष्टनेमिर्जगतीतिविश्रुत: स ऊर्जयन्ते जयतादिन: शिवम्।।२२।।
अर्थ —जो भगवान भव्यजनों के अशुभ कर्मों के नाश करने में चक्र की धारापने को प्राप्त हैं इसीलिये जो संसार में अरिष्टनेमि इस नाम से प्रसिद्ध हैं तथा जो गिरनार पर्वत से मोक्ष को पधारे हैं, वे अरिष्टनेमि भगवान सदा इस लोक में जयवंत रहें।
भावार्थ —जिस प्रकार चक्र की धारा छेदन करने में पैनी रहती है, उसी प्रकार भगवान भी भव्यजीवों के अशुभकर्मों के नाशक हैं अर्थात् भगवान की कृपा से भव्यजीवों के अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं इसीलिये जो भव्यजीवों के अशुभ कर्मों के नाश करने में चक्र की धारा के समान हैं अतएव जिन्होंने अरिष्टनेमि इस नाम को धारण किया है तथा जिन्होंनक परमपूज्य श्री गिरनार पर्वत से मोक्ष पाई है, वे श्री अरिष्टनेमि भगवान सदा इस लोक में जयवंत रहें।।२२।।
पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति
यदूर्ध्वदेशे नभसि क्षणादहिप्रभो: फणारत्नकरै: प्रधावितम्।
पदातिभिर्वा कमठाहते:कृते करोतु पार्श्व: स जिनो ममामृतम्।।२३।।
अर्थ —जिन पार्श्वनाथ भगवान के मस्तक पर आकाश में कमठासुर के मारने के लिये शेषनाग के फणों में लगे हुए जो रत्न, उनकी किरणें, पदाति (सेना) के समान धावा करती हुई, वे पार्श्वनाथ भगवान मेरे लिये मोक्ष को दें।
भावार्थ —किसी समय भगवान ध्यान में अत्यंत लीन होकर वन में विराजमान थे, उस समय उनके पूर्व भव का बैरी कमठासुर आकाश मार्ग से चला जा रहा था जिस समय उसका विमान इनके मस्तक पर आया तो आगे चला ही नहीं क्योंकि तीर्थंकर आदि महात्माओं के ऊपर से किसी का विमान नहीं जाता, तब वह नीचे उतरा और भगवान को देखते ही उसको पूर्व भव का स्मरण हो गया, बस फिर क्या था! भगवान को ध्यान से चलायमान करने के लिये उसने बहुत से उपाय सोचे और किये परंतु भगवान के सामने वे सब निष्फल ही हुवे, अंत में उसने मेघ वर्षाये तथा ओले गिराये और प्रचंड पवन चलाई, उस समय धरणेंद्र और पद्मावती ने भगवान का उपसर्ग निवारण किया क्योंकि धरणेंद्र ने भगवान के मस्तक पर अपना फण पैâलाकर मेघ का निवारण किया तथा पद्मावती ने आसन बनाकर भगवान के उपसर्ग का निवारण किया, उसी बात को अपने मन में धारण कर ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि पार्श्वनाथ भगवान के मस्तक पर शेषनाग के फणों के रत्नों के किरण जहाँ- तहां नहीं पैâल रहे हैं किंतु वे कमठ के मारने के लिये सेना ही है अत: ऐसे पार्श्वनाथ भगवान मुझे मुक्ति प्रदान करें।।२३।।
वर्धमान भगवान की स्तुति
त्रिलोकलोकेश्वरतां गतोऽपि य: स्वकीयकायेऽपि तथापि निस्पृह:।
स वर्धमानोऽत्यजिनो नताय मे ददातु मोक्षं मुनिपद्मनंदिने।।२४।।
अर्थ —जो वर्धमान स्वामी तीन लोक के ईश्वर होने पर भी अपने शरीर में भी निस्पृह (इच्छा रहित) होते हुवे वे अंतिम जिनेंद्र वर्धमान स्वामी नमस्कार करते हुवे मुझ पद्मनंदिमुनि के लिये मोक्ष प्रदान करें।।२४।।
इस प्रकार इस श्री पद्मनंदि आचार्यविरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका में
स्वयंभूस्तोत्र ‘‘चतुविंशतिजिनेन्द्र स्तोत्र’’ समाप्त हुवा।।