अनुष्टुप्-
परमानंदसम्पन्नान्, संसारार्णवपारगान्।
पुरुदेवादिवीरांतान्, गुणरूपादिना स्तुवे।।१।।
(वंश द्वारा स्तुति)
अपवाह छंद-(२६ अक्षरी)
शांति: कुंथुवरजिनप-निजकुलमणि-भुवनतिलककुरुवंश्यास्ते।
नेमि: सुव्रतजिन इह, निजकुलरविरिति हरिनुतयदुवंश्यौ च।।
पार्श्वश्चोग्रकुलतिलक, इति च महित-सुरनरखगपतिभिर्देव:।
वीरो नाथकुलसुमणिरपि मम निजसुखमयशिवततये स्युस्ते।।२।।
भुजंगविजृंभित छंद-(२६ अक्षरी)
इक्ष्वाकौ वंशे शेषा: स्यु:,
त्रिभुवनपतिशतविनुता:, स्ववंशदिवाकरा:।
स्याद्वादाम्भोधे: चन्द्रास्ते,
दुरितरविज-तपनमपाहरंतु जिनेश्वरा:।।
स्वात्माधीनं सौख्यं लब्ध्यवा,
त्रिभुवनशिरसि किल गता, विभांति सदैव ते।
बोधिप्राप्तिं मह्यं सिद्धिं च
जिनवरगुणगणयुतां, दिशंतु चतुष्टयीं।।३।।
(वर्ण द्वारा स्तुति)
चण्डवृष्टिप्रयातदण्डक छंद-(२७ अक्षरी)
शशिकरधवलौ सुचन्द्रप्रभ:
पुष्पदंतश्च तौ सुव्रतो नेमिनाथ: प्रभू।
शिखिगलसमकांतिमन्तो सुपद्म-
प्रभो वासुपूज्यो जिनौ पद्मपुष्पच्छवी।।
मरकतमणिसद्द्युती द्वौ सुपार्श्वश्च
पार्श्व: प्रभू शेषतीर्थंकरा: षोडश।
प्रवरकनकसन्निभा वर्णमूर्त्या
युताश्चाप्यमूर्ता: सुचिन्मूर्तय: पांतु मां।।४।।
(निर्वाणभूमि की स्तुति)
प्रचितकदण्डक छंद-(२७ अक्षरी)
वृषभजिन इह कैलाशशैले शिवं,
प्राप्तवान् वासुपूज्य: सुचम्पापुरे च।
बलहरिविनुतनेमि: सुधी-
रूर्जयन्तेऽवीरश्च पावापुरे मोक्षमापु:।।
प्रमदवनयुतसम्मेदशैले जिना
विंशतीर्थंकरास्ते च सिद्धिं प्रजग्मु:।
अहमपि दृढमना: पंचकल्याण-
पूजास्थलान्यत्र तत्पावनानि प्रवन्दे।।५।।
(बालयति की स्तुति)
अर्णोदण्डक छंद-(३० अक्षरी)
प्रणतसुरपतिस्फुरन्मौलिमालामहा-
रत्नमाणिक्यरश्मिच्छटारंजितांघ्रे! प्रभो!।
सुरभितभुवनोदरं त्वत्पदांभोरुहं
प्राप्य भव्या जना: सौख्यपीयूषपानं व्यधु:।।
मुनिपतिनुतवासुपूज्य: मल्लिर्जिनो
नेमिपार्श्वो महावीरदेवश्च पंचेति ये।
परिणयरहिता: कुमाराश्च निष्क्रम्य
दीक्षावधूटीवरा भक्तितस्तान् सदा नौम्यहं।।६।।
अनुष्टुप छंद-
पंचकल्याणकै: चिन्है:, जन्ममुक्तिस्थलै: कुलै:।
आयुर्वर्णोच्छ्रितैर्पित्रो-र्नाम्ना चापि जिना: स्तुता:।।७।।
एकशून्यशरद्व्यंके, वीराब्दे हस्तिनापुरे।
पूर्णिमायां नभ: शुक्ले, पूर्णोऽयं संस्तवस्त्वभूत्।।८।।
अयं कल्याणकल्पद्रु:, ‘ज्ञानमत्या’ कृत: स्तव:।
यस्तं नित्यं पठेत् भक्त्या, स ईप्सितश्रियं श्रयेत्।।९।।
वृत्तरत्नाकरे ख्यातै:, छन्दोभि: समवृत्तकै:।
चतुर्विंशजिना भक्त्या, कल्याणाद्यै: नुता मया।।१०।।
यावत् जैनेन्द्रधर्मोऽयं, प्रभवेत् भुवि शांतिकृत्।
तावत् स्तोत्रमिदं स्थेयात्, भव्याम्भोजं विकासयन्।।११।।
।।इति कल्पतरुस्तोत्रम्।।