फिरोजाबाद से ७ किमी. दूर चन्द्रवाड ‘शौरीपुर के उत्तर और फिरोजाबाद के दक्षिण में यमुना किनारे बसा हुआ है। इतिहास में चन्द्रवाड़ को चन्द्रघाट के नाम से भी उल्लेख किया गया है। आज भी इसके प्राचीन ध्वंसावशेषों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह छोटे से गाँव के रूप में बसा हुआ है, ऐतिहासिक दृष्टि से कहा जाता है कि भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव की नगरी चन्द्रवाड को वि.स. १०५२ में चन्द्रपाल (चन्द्रसेन) नाम के राजा ने पुन: बसाया था। आज भी प्राचीन अतिशय क्षेत्र चन्द्रवाड़ में जैन मूर्तियों के मिलने का सिलसिला जारी है। इस शृँखला में जैनधर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति मिलने से इस ऐतिहासिक शृँखला में एक कड़ी और जुड़ गई है। कुछ वर्ष पूर्व स्थानीय भारतीय जैन मंच के उत्साही युवा कार्यकर्ताओं ने यमुना नदी के किनारे भगवान चन्द्रप्रभ की चरण-छतरी की स्थापना की है। उसी के पाश्र्च में स्थित है प्राचीन हनुमान मंदिर। उसके वयोवृद्ध पुजारी बाबा डोरीलाल मंदिर के सामने घास-पूँâस से आच्छादित स्थान की सफाई पिछले कई दिनों से कर रहे थे। स्थान के बीचों-बीच बबूल का एक सूखा ठूँठ खड़ा था। बाबाजी ने उसे खींचा तो उसके साथ हजारों चीटियाँ रेंगकर बाहर आने लगीं तथा ठूँठ की जड़ के साथ सवा छह इंच गुणित सवा चार इंच की अवगाहना की श्यामवर्ण भगवान पाश्र्वनाथ की एक सांगोपांग एवं मनोज्ञ प्रतिमा भी निकलकर बाहर आ गई। सूचना पाकर ग्रामवासियों की भीड़ जुटने लगी। अब तक की प्राप्त मूर्तियों में यह सबसे सुन्दर है। वरिष्ठ जैन विद्वान प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन के अनुसार इस मूर्ति पर अंकित प्रशस्ति भगवान महावीरकालीन, जनभाषा पाली में उत्कीर्ण है तथा उस पर विक्रम संवत् ५०४ स्पष्ट अंकित है। इससे सिद्ध है कि यह मूर्ति लगभग सोलह सौ वर्ष प्राचीन है। जहाँ यह मूर्ति मिली है उसके निकट ही पच्चीकारीयुक्त दो स्तंभ, जो क्रमश: छह और तीन फुट ऊँचे हैं, भी स्थित हैं। अब सभी को यह विश्वास होने लगा है कि यह क्षेत्र अपने गर्भ में बहुत महत्व की पुरातात्विक सम्पदा समेटे हुए है। यदि शासन-स्तर पर यहाँ उत्खनन कराया जाये तो शिल्पकाल की अनेक चमत्कारिक रचनाएं सामने आ सकती हैं। चन्द्रवाड़ और उसके आस-पास के इलाकों में चौहानवंशी राजाओं का शासन रहा है। उन्हीं के शासनकाल में इस नगर का अभ्युदय हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि में यह निर्विवाद है कि यहाँ का सम्राट जैन धर्मानुयायी था और उसके समय में जैन मंदिर और जिनप्रतिमाओं को बहुतायत से बनाया गया तथा जैन साहित्य, बाहुबली चरित्र, भविष्य दन्तकथा पुण्याश्रव ग्रंथ जैसे अनेक ग्रंथ भी विपुल मात्रा में लिखे गये हैं। मुनि ब्रह्मगुलाल, रइधू महाचन्द्र, लक्ष्मण, श्रीधर, पदमनन्दी, धनपाल, धर्मधर, माणिकचंद्र ऐसे अनेक प्रमाण हैं फिर भी यह अनुसंधान का विषय तो है ही। जैन समाज को ऐसे ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक क्षेत्र के लिए अवश्य ही कार्य करना चाहिए। चन्द्रवाड़ के विकास की कहानी जैन इतिहास का स्वर्णकाल है परन्तु इसके ध्वस्त होने की घटना बहुत ही मर्मस्पर्शी एवं दु:खद है। राजा चन्द्रपाल के शासनकाल में मुहम्मद गौरी ने इस पर आक्रमण किया था, मोहम्मद गौरी से हार जाने के बाद राजा ने चढ़ाई की और राजा वीरगति को प्राप्त हो गया। गौरी ने व्रूरता से जैन मूर्तियों को खण्डहर बना दिया। उस स्थिति में श्रावक लोग अपने प्राण बचाकर भाग गये और काफी कुछ मूर्तियाँ भी अपने साथ ले गये, जो फिरोजाबाद के विभिन्न मंदिरों तथा यत्र-तत्र अन्यान्य स्थानों पर आज प्रचुर मात्रा में प्रतिष्ठित हैं। मुख्यरूप से श्री चन्द्रप्रभु की स्फटिक मणि वाली मूर्ति चन्द्रवाड़ की ही देन है साथ ही श्री शांति, कुंथु, अरहनाथ की मूर्ति व नेमिनाथ की मूर्ति है। बड़े मोहल्ले के जैन मंदिर में काफी मूर्तियाँ चन्द्रवाड़ की हैं। दिल्ली के सेठ कूचा मंदिर में तथा मथुरा संग्रहालय व भिण्ड के मंदिरों के अलावा आस-पास के अनेक स्थानों पर यहाँ की मूर्तियाँ होने के प्रमाण हैं। कहा जाता है कि यहाँ राजा के संरक्षण में मूर्तिकार मूर्तियाँ गढ़ते रहते थे तथा निर्माण होने के बाद उनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करा दी जाती थी। जनश्रुति तथा जैन साहित्य के अनुसार यहाँ ५१ पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं का उल्लेख मिलता है। इससे अनुमान है कि यहाँ जैन मंदिर बहुतायत में होंगे। चन्द्रवाड़ में २४ चरण छतरियाँ भी हैं, जो जीर्णोद्धार की प्रतीक्षा में हैं। आस-पास समय-समय पर अनेक जिनप्रतिमाएं खंडित एवं अखंडित अवस्था में मिलती रहती हैं। इस क्षेत्र पर दिगम्बर साधुओं का भी आवागमन रहता है। प्रत्येक दो अक्टूबर को यहाँ पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें हजारों नर-नारी उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। जब भी इस स्थल की खुदाई होती है कुछ न कुछ मूल्यवान वस्तु निकलती है। चन्द्रवाड़ से प्राप्त अनेक प्रतिमाएं फिरोजाबाद के अनेक मंदिरों विशेषकर बड़ा मंदिर और चन्द्रप्रभु दि. जैन मंदिर में विराजमान हैं। इस अत्यंत पिछड़े धार्मिक एवं आस्था से जुड़े क्षेत्र को पुन: विकसित करने के लिए अपनी लोकप्रिय सरकार से हम सभी आशा करते हैं कि इस क्षेत्र को शिक्षा, उद्योग, पर्यटन, यातायात, बिजली, पानी व आम आदमी से जुड़ी अपार समस्याओं को देखते हुए इस क्षेत्र के बहुमुखी विकास के लिए इस क्षेत्र पर सरकार द्वारा योजनाबद्ध तरीके से कार्य किये जायें ताकि जैन समाज की इस विलुप्त होती हुई संस्कृति को बचाया जा सके व इस क्षेत्र में पुरातत्व महत्व के स्थानों का पुन: जीर्णोद्धार कराया जा सके, ताकि यह क्षेत्र प्रदेश के प्रमुख दार्शनिक स्थल के रूप में विकसित हो सके।