सकल वाङ्मय द्वादशाङ्ग रूप है। जो प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगों में विभक्त है। इसमें सबसे प्रथम अङ्ग का नाम आचाराङ्ग है और यह संपूर्ण श्रुतस्कंध का आधारभूत है।
गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्।
चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।
अर्थात् गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, उसमें वृद्धि किस प्रकार होती है और उसकी रक्षा किस प्रकार होती है। इन सबका निरूपण जिसमें रहता है उसे चरणानुयोग कहते हैं।
चरणानुयोग से संबंधित ग्रंथों में कुछ ग्रंथ ऐसे हैं जिनमें केवल श्रमणाचार का ही वर्णन है और कुछ ग्रंथ ऐसे हैं जिनमें श्रावकाचार का ही वर्णन है। कुछ ऐसे भी ग्रंथ हैं जिनमें श्रमणाचार एवं श्रावकाचार दोनों का वर्णन है। प्रस्तुत आलेख में चरणानुयोग के समस्त साहित्य को रेखांकित करना है। तदनुसार श्रमणाचार साहित्य एवं श्रावकाचार साहित्य इन दो भागों में विभक्त कर सर्वप्रथम श्रमणाचार साहित्य की विवेचना प्रस्तुत है।
दिगम्बर जैन वाङ्मय में मुनियों के आचार का सांगोपांग वर्णन करने वाला मूलाचार ग्रंथ है फिर भी मूलाचार से पूर्व आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने साहित्य में भव्य जीवों को जो देशना दी है, उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे दिगम्बर साधु में रञ्चमात्र भी शैथिल्य को स्वीकृत नहीं करते थे। यही कारण है कि विकृत आचरण करने वाले साधु को उन्होंने नटश्रमण तक कहा है। प्रस्तुत आलेख में श्रमणाचार विषयक साहित्य में सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रणीत श्रमणाचार विषयक ग्रंथों का परिचय दिया जाना अपेक्षित है।
प्रवचनसार—
यद्यपि प्रवचनसार श्रमणाचार विषयक ग्रंथ नहीं है फिर भी उसमें जो ज्ञानाधिकार, ज्ञेयाधिकार तथा चारित्राधिकार के भेद से तीन श्रुतस्कंध प्राप्त हैं, उसमें अंतिम चारित्र अधिकार में अमृतचन्द्राचार्य के मतानुसार ७५ गाथाएं और जयसेनाचार्य के अनुसार ९७ गाथाएं हैं। इस अधिकार में श्रामण्य के चिह्न, छेदोपस्थापक श्रमण, छेद का स्वरूप, युक्त आहार, वास्तविक संयत का लक्षण, शुभोपयोगी श्रमण का लक्षण, उत्सर्ग और अपवाद मार्ग, श्रमणाभास का परिचय, लौकिकजन का लक्षण आदि विषयों की विवेचना की गई है।
चारित्राधिकार का प्रारंभ करते हुए कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि दु:खों से परिमोक्ष—पूर्णमुक्ति चाहते हो तो श्रामण्य मुनिपद को धारण करो। सम्यग्दर्शन से मोक्षमार्ग शुरू होता है और सम्यक््â चारित्र से उसकी पूर्णता होती है। चारित्र गुण का पूर्ण विकास मुनिपद में होता है। मुनिपद धारण करने के लिए जो उन्मुख होता है उसे सर्वप्रथम क्या करना चाहिए, इसकी विवेचना के साथ साधु के २८ मूलगुणों की चर्चा जो अमृतचन्द्राचार्य ने की है वह अन्यत्र पढ़ने को नहीं मिलती है। उनका कहना है कि वस्तुत: आत्मा के केवलज्ञानादि अनन्तगुण मूलगुण हैं और वे मूलगुण निर्विकल्प समाधिरूप सामायिक नाम निश्चय एक व्रतरूप मोक्ष के कारण होने से मोक्ष के होने पर सभी प्रकट होते हैं। अत: वह सामायिक मूलगुण केवलज्ञानादि गुणों की प्रकटता में कारण होने से सामायिक को ही निश्चय से श्रमण का एक ही मूलगुण कहा गया है, परन्तु जब वह श्रमण निर्विकल्प समाधिस्थ की सामर्थ्य नहीं रख पाता है तब उसकी बहिरंग प्रवृत्ति भी इस प्रकार की होती है, जिससे उसे अंतरंग मूलगुण रूप सामायिक की ओर प्रेरित रख सके। अत: उसकी बहिरंग सर्वाङ्गीण प्रवृत्ति २८ मूलगुणों के प्रति सन्मुख होती है। क्योंकि २८ मूलगुणों के द्वारा आत्मा का शुद्ध स्वरूप साध्य है। २८ मूलगुण उसके यथार्थ स्वरूप के नियामक नहीं। परन्तु सामायिक च्युत श्रमण की बहिरंग प्रवृत्ति २८ मूलगुणों से हीनाधिक नहीं होती। अत: २८ मूलगुण श्रमण का यथार्थ स्वरूप नहीं है अपितु सामायिक च्युत श्रमण की ये २८ ही गतिविधियाँ होती हैं, यह त्रिकाल नियम है। अंतरंग सामायिक इच्छुक को निरन्तर सामायिक में न ठहर सकने के कारण उत्कृष्ट निष्कलंक बहिरंग प्रवृत्तिरूप २८ मूलगुणात्मक स्वरूप को स्वीकारना ही होगा परन्तु बहिरंग प्रवृत्ति की अंतरंग प्रवृत्ति के साथ नियामकता नहीं है।
इस ग्रंथ में श्री अमृतचन्द्रसूरि, श्री कुंदकुंद के भावों को अपनी शैली से एक अनोखी पद्धति से बताते हैं। जब—जब कोई गाथा का अवतार हुआ है तो उस अवतार होने से पहले रचयिता का क्या आशय था और किस ढंग से गाथा का वर्णन करना चाहते थे, इन बातों को अमृतचंद्र जी सूरि ने अपने बड़े पाण्डित्य के साथ वर्णन किया है। जैसे किसी भी बात को कहने के लिए साधारण भाषा में तो ऐसा बोला जाता है कि अब यह कहते हैं। ‘‘यह कहते हैं’’ इस बात को श्री अमृतचन्द्र सूरि ने करीब ४०—५० ढंगों से वर्णन किया है, जैसे उन्होंने चारित्र के स्वरूप का वर्णन किया तो कहा है कि अब चारित्र स्वरूप को विभावित करते हैं। चारित्र स्वरूप को भावित करते हैं अर्थात् अपनी भावना में उतारते हैं और विभावित करते हैं अर्थात् अपनी भावना में विशेष रूप से उतारते हैं। जैसे इसमें ७वीं गाथा कही तो सीधा तो यों कहना था कि अब चारित्र का स्वरूप कहते हैं, उसको यों बताया कि चारित्र स्वरूप को विशेष रूप से भावित करते हैं फिर गाथा बोलते हैं यह है उनका अनोखा ढंग। उस बात को किस अर्थ को लेकर सुनना चाहिए और वैâसी अपनी तैयारी बनाकर उस गाथा को सुनना चाहिए। इस ग्रंथ के टीकाकार ने भी गाथा के मर्म को खोलकर दर्पण की तरह रख दिया है। इसी प्रकार जो शब्द गाथा की उत्थानिका में आये हैं वे सभी गंभीर अर्थ को लेकर रखे गये हैं। जैसे निश्चिनोति, आलोचयति, अभिष्टौति, निरूपयति, अभिनन्दयति, विभावयति, अभिप्रेति, उद्योतयति, चिन्तयति, प्रतिहन्ति, संभावयति, क्षोभं क्षपयति, उपन्यस्यति, आख्याति, उत्क्षिपति, उद्भावयति, अधिवसति, उतिष्ठते, प्रयतते, प्रतिहन्ति, धुनोति आदि शब्दों के द्वारा ग्रंथ के हृदय को खोला है। वस्तुत: प्रवचनसार में श्रमणाचार विषयक मूलभूत सिद्धान्त कह दिया गया है।
अष्टपाहुड़—
आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित अष्टपाहुड़ों में श्रमणचर्या की स्पष्ट विवेचना है। संक्षेप में प्रत्येक पाहुड़ में यथास्थान कहे विषय का दिग्दर्शन इस प्रकार है—
दंसणपाहुड़—इसमें कहा है कि असंयमी की वन्दना नहीं करना चाहिए और बाह्यसंयम से रहित बाह्यरूप को धारण करने वाला भी वन्दनीय नहीं है क्योंकि वे दोनों ही समान हैं। गा. २६
सुत्तपाहुड़—मुनियों के बाल के अग्रभाग के बराबर भी परिग्रह का ग्रहण नहीं होता वे एक ही स्थान में दूसरों के द्वारा दिये गये प्रासुक अन्न को अपने हाथरूपी पात्र में ग्रहण करते हैं। गा. १७, १८, १९
चारित्रपाहुड़—सागार और निरागार भेद करके श्रमणचर्या का वर्णन किया है। गा. २१, ४०
बोधपाहुड़—इस पाहुड़ में मुनिराजों को किस—किस स्थान पर निवास करना चाहिए, इसका विस्तार से वर्णन है। गा. ४१, ४२, ४३ से ५६ तक।
भावपाहुड़—इसमें कहा है कि निश्चय से भाव जिनदीक्षा का प्रथम िंलग है। इसमें भावों की विशुद्धि के बिना त्याग सब निष्फल बताया है। स्पष्ट किया है कि भावरहित मुनियों का बाह्य परिग्रह का त्याग पर्वत, नदी, गुफा, खोह आदि में निवास और ज्ञान के लिए शास्त्रों का अध्ययन यह सब व्यर्थ है। इस पाहुड़ में सभी पाहुड़ों से ज्यादा गाथाएँ हैं जिसमें कहा है कि भावों की विशुद्धि श्रमणचर्या में आवश्यक है।
मोक्खपाहुड़—इस पाहुड़ में १०६ गाथाएँ उद्धृत हैं। परमपद प्राप्ति हेतु परमात्मा के ध्यान की बात कही है। वे कहते हैं कि जो साधु बाह्य परिग्रह से तो छूट गया है परन्तु मिथ्याभाव से नहीं छूटा, उसका कायोत्सर्ग के लिए खड़ा होना अथवा मौन से रहना क्या है ? कुछ भी नहीं है क्योंकि वह आत्मा के स्वरूप को तो जानता ही नहीं है।
लिंगगपाहुड़—इस पाहुड़ में कहा है कि धर्म से िंलग होता है, अर्थात् शरीर का वेष धर्म से होता है जिसने भाव के बिना शरीर का वेष धारण किया है उसको धर्म की प्राप्ति नहीं होती, इसलिए भाव ही धर्म है। भाव के बिना वेष कार्यकारी नहीं है। इस पाहुड़ में कठोर शब्दों में निर्देशित किया है।
शीलपाहुड़—इस पाहुड़ में बताया गया है कि यदि कोई साधु चारित्ररहित ज्ञान का, सम्यग्दर्शनरहित िंलग का, संयमरहित तप का आचरण करता है तो इसका यह आचरण निरर्थक है। गा. ५, ६, ७
रयणसार—
रयणसार कृति आचार्य कुन्दकुन्द की रचना मानी जाती है। इसमें कुल १६६ प्राकृत गाथायें हैं। इसमें गृहस्थधर्म एवं मुनि—धर्म का संक्षेप में वर्णन है।
प्रारम्भ की ९८ गाथाओं में गृहस्थ का मुख्य रूप से ‘दान—पूजा—शील—उपवास’ इन चारों का कथन किया गया है।
मुनिधर्म के वर्णन में ५० गाथाएं लिखी गयी हैंं जिसमें यतीश्वर का स्वरूप, मिथ्यादृष्टि मुनि का स्वरूप, मुनि किन—किन कारणों से जिनधर्म के विरोधी कहलाते हैं। मुनि आहारचर्या के भेद, आहारचर्या में परिणामों की विशुद्धि की आवश्यकता, परिणामों की विशुद्धि के अभाव में जो साधु क्रोध से, कलह से एवं रौद्र परिणामों से आहार लेता है वह साधु न होकर व्यन्तर है। सम्यग्दर्शन की आवश्यकता बताकर बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान कराकर अन्तरात्मा और परमात्मा को जानने का उपदेश दिया है।
मूलाचार—
आचार्य कुन्दकुन्द के श्रमणाचार विषयक साहित्य के परिचय के साथ उनके द्वारा रचित मूलाचार नामक ग्रंथराज दिगम्बर आम्नाय में मुनिधर्म के प्रतिपादक शास्त्रों में प्राय: सर्वाधिक प्राचीन तथा सर्वोपरि प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम सिद्धान्त की अपनी सुप्रसिद्ध ‘धवला’ टीका उक्त मूलाचार के उद्धरण ‘आचारांग’ नाम से देकर उसका आगमिक महत्त्व बताने का प्रयत्न किया है। इसी प्रकार से भगवती आराधना की टीका में मूलाचार के कतिपय उद्धरण प्राप्त हैं और तिलोयपण्णत्ती में भी मूलाचार का नामोल्लेख है। मूलाचार के सर्वप्रथम टीकाकार आचार्य वसुनन्दि सैद्धान्तिक ने अपनी आचारवृत्ति नाम की संस्कृत टीका की उत्थानिका में कहा है कि आचार्य देव ने गणधरदेव रचित श्रुत के आचारांग नामक प्रथम अंग का लघुशिष्यों के हितार्थ बारह अधिकारों में उपसंहार करके मूलाचार रूप दिया है।
मूल शब्द के अनेक अर्थ हैं परन्तु यहाँ मूल शब्द का अर्थ प्रधान लिया गया है। साधुओं का प्रमुख आचार वैâसा होना चाहिए, इसका दिग्दर्शन ग्रंथकार ने मूलाचार में किया है। ग्रंथकार ने मूल शब्द ‘मूलगुणों’ से लिया है, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि प्रतिपाद्य बारह अधिकारों में प्रथम मूलगुण अधिकार रखा गया है।
सिद्धान्त चक्रवर्ती वसुनन्दि ने पृथक््â रूप से मूलगुणों को भी नमस्कार किया। देखें—
मूलगुण संयतानामयं नमस्कारो मूलगुणान् सुविशुद्धान्।
संयताश्च वन्दित्वा मूलगुणान् कीर्तयिष्यामि।।
यहाँ मूलगुणों एवं सुविशुद्ध चारित्र को अलग—अलग नमस्कार करने का कारण यह है कि श्रमण का मूलस्वरूप तो सप्तगुणस्थान की दशा से युक्त भाव है, जो कि शुद्ध परिणति में होता है। यही सुविशुद्ध चारित्र है। परन्तु जब इन भावों से च्युत होकर विकल्प की भूमिकारूप छठवें गुणस्थान में आता है—तब उसे २८ प्रकार तक के भाव हो सकते हैं, जो २८ मूलगुण कहलाते हैं। इस ग्रंथ के टीकाकार कहते हैं यह भाव भी चूँकि परिणति के साथ होते हैं, अत: ये भी पूज्य हैं। इस कारण दोनों भावों को शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग को नमस्कार किया है।
मूलाचार में १२ अधिकार और १२५२ गाथाएं हैं। पहले मूलगुण अधिकार में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पंच इन्द्रियों का निरोध, षट्आवश्यक, केशलुञ्च, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थित—भोजन और एक बार भोजन, इस प्रकार मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों का निरूपण किया है। वृहत् प्रत्याख्यान संस्तव अधिकार में क्षपक को समस्त पापों का त्याग कर मृत्यु के समय में दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओं में स्थिर रहने और क्षुधादि परिषहों को जीतकर निष्कषाय होने का कथन किया है। संक्षेप में प्रत्याख्यानाधिकार में िंसह, व्याघ्र आदि के द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित होने पर कषाय और आहार का त्यागकर समताभाव धारण करने का निर्देश किया है। सम्यक््â आचाराधिकार में दश प्रकार के आचारों का वर्णन है। आर्यिकाओं के लिए भी विशेष नियम वर्णित हैं। पंचाचाराधिकार में दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों और उनके प्रभेदों का विस्तार सहित वर्णन है। लोकादि मूढ़ताओं में प्रसिद्ध होने वालों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। स्वाध्याय—संबंधी नियमों में आगम और सूत्रग्रंथों के स्वरूप भी बतलाये गये हैं। पिण्डशुद्धि—अधिकार के आठ भेद हैं। इन सभी भेदों का विस्तारपूर्वक कथन किया है। मुनियों के आहार संबंधी नियम उसके दोष तथा उन दोषों के भेद—प्रभेदों का कथन आया है। मुनि शरीर धारण के हेतु आहार ग्रहण करते हैं और शरीर धर्मसाधन का कारण है। अत: उसका भरणपोषण कर आत्म साधना के मार्ग में गतिशील होना परमावश्यक है। एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करने की प्रवृत्ति—विशेष आदि का भी वर्णन आया है।
सप्तम षडावश्यकाधिकार है। आवश्यक शब्द की निरुक्ति, सामायिक के छ: भेद, भावसामायिक और द्रव्यसामायिक की व्याख्याएँ, छेदोपस्थापना का स्वरूप, चतुा\वशतिस्तव, नाम और भाव स्तवन, तीर्थ का स्वरूप, वन्दनीय साधु, कृतिकर्म, कायोत्सर्ग के दोष आदि का वर्णन है। आठवें अनगार—भावनाधिकार में िंलग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीरसंस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यान संबंधी शुद्धियों के पालन पर जोर दिया गया है। नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार है। इसमें अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, संवर, निर्जरा, धर्म, बोधि आदि अनुप्रेक्षाओं के िंचतवन का वर्णन है।
दशम समयसाराधिकार है। इसमें शास्त्र के सार का प्रतिपादन करते हुए चारित्र को सर्वश्रेष्ठ कहा है। तप ध्यान का वर्णन भी इसी अधिकार के अन्तर्गत है। अचेलकत्व, अनौदेशिकाहार, शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ प्रतिक्रमण, मासस्थितिकल्प और पर्यायस्थितिकल्प का भी प्रतिपादन आया है। प्रतिलेखन क्रिया का वर्णन करते हुए पाँच गुणों का चित्रण किया है। आहार शुद्धि के प्रकरण में विभिन्न प्रकार की शुद्धियों का निरूपण आया है। यह अधिकार बहुत विस्तृत है। ग्यारहवें पर्याप्ति अधिकार में षड्पर्याप्तियों का निरूपण है। पर्याप्ति के संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व संख्या, परिमाण निवृत्ति और स्थिति काल के छ: भेद हैं। इन सभी भेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। बारहवें शील गुणाधिकार में शीलों के उत्पत्ति का क्रम, पृथिव्यादि भेदों का विवेचन, श्रमणधर्म का स्वरूप विवेचन, अक्ष संक्रमण के द्वारा शील का उच्चारण, गुणों की उत्पत्ति का क्रम, आलोचना के दोष, गुणों की उत्पत्ति का प्रकार, संख्या और प्रस्तार के निकालने की विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नष्टोदिष्ट द्वारा अक्षानयन की विधि का भी निरूपण है।
इस प्रकार इस महाग्रंथ में मुनि के आचार का बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्म को अवगत करने के लिए एक स्थान पर इससे अधिक सामग्री का मिलना दुष्कर है। भाषा और शैली की दृष्टि से भी यह ग्रंथ प्राचीन प्रतीत होता है। उत्तरवर्ती अनेक ग्रंथकारों ने इसकी गाथाओं के उद्धरणपूर्वक उसकी प्रामाणिकता प्रकट की है।
भगवती आराधना (मूलाराधना)—
श्रमणाचार विषयक साहित्य में शिवार्य या शिवकोटि आचार्य द्वारा रचित भगवती आराधना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। लिंगाधिकार में आचेलक्य, लोच, देह से ममत्व त्याग और प्रतिलेखन ये चार निर्ग्रन्थिंलग के चिह्न बताये हैं। अनयिताधिकार में नाना देशों में विहार करने के गुणों के साथ अनेक रीति—रिवाज, भाषा और शास्त्र आदि की कुशलता प्राप्त करने का विधान है। भावनाधिकार में, तपोभावना, श्रुतभावना, सत्यभावना, एकत्वभावना और धृतिबलभावना का प्ररूपण है। सल्लेखनाधिकार में सल्लेखना के साथ बाह्य और अन्तरंग तपों का वर्णन किया है। आर्यिकाओं को संघ में किस प्रव्ाâार रहना चाहिए, उनके लिए कौन—कौन विधेय कर्तव्य हैं तथा कौन—कौन से कार्य त्याज्य हैं आदि का प्रतिपादन किया है। मार्गणाधिकार में आचार्य जीत और कल्प का वर्णन है। इस अधिकार में आचेलक्य का भी समर्थन किया है।
इस ग्रंथ में श्रमणाचार संहिता बतलायी तो गई है परन्तु मूलाचार से ज्यादा मतभेद नहीं है।
चारित्रसार—
यह कृति वीर मार्तण्ड चामुण्डराय देव विरचित है। इसका हिन्दी अनुवाद पं. लालाराम जी जैन शास्त्री द्वारा किया गया है।
इस कृति में श्रावकधर्म और मुनिधर्म का संक्षेप में कथन किया है। मुनिचर्या के विषय में दशधर्म के अन्तर्गत ही सम्बन्धित चर्या का वर्णन कर दिया है।
संयमधर्म की विवेचना करते समय संयम के दो भेद किये हैं—उपेक्षा संयम दूसरा अपहृत संयम। अपहृत संयम में पाँच समितियों का विस्तार से चर्चाकर एषणा समिति में ही आहारचर्या और उसमें आने वाले छियालीस दोषों का विवेचन किया है। जो मूलाचार के अनुसार है। पृथक््â से कोई विशेष बात नहीं कही है।
इस ग्रंथ में परिषह जय प्रकरण विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि इसकी विस्तार से विवेचना है। ग्रंथकार का कहना है कि संयमी तपस्वी को सम्यग्दर्शन और सम्यक््â चारित्र की रक्षा के लिए परिषहों को सहन करना चाहिए। क्योंकि ये परिषह संयम और तप का विशेष रूप है तथा उन्हीं दोनों का एकदेश है। इस ग्रंथ में परिषह का वर्णन संयम और तप के बीच में किया गया है। ग्रंथकार का कहना है कि परिषहों को जीतकर जो कभी परिषहों से तिरस्तकृत नहीं होते वे मुख्य संवर का आश्रय लेकर बिना किसी रुकावट क्षपक श्रेणी चढ़ने की सामर्थ्य प्राप्त करते हैं।
बारह प्रकार के तपों के वर्णन में बाह्यतपों का कथन संक्षेप में किया है परन्तु अन्तरंग तपों का विवेचन विस्तार से किया है और प्रायश्चित्त तप का वर्णन भेद—प्रभेद करके काफी व्यवस्थित रूप से किया है।
इसी प्रकार ध्यान का वर्णन श्रमणाचार विषयक एवं तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों से भिन्न किया है। ग्रंथकार ने ध्यान के दो भेद किये हैं। एक अशुभ ध्यान और दूसरा शुभ ध्यान। अशुभ ध्यान के दो भेद हैं—आर्त और रौद्र। उसमें भी बाह्य और अध्यात्म के भेद से आर्तध्यान भी दो प्रकार का है। अध्यात्म आर्तध्यान चार प्रकार का है। रौद्र के भी इसी प्रकार भेद किये हैं। शुभ ध्यान दो प्रकार का है—एक धर्मध्यान दूसरा शुक्लध्यान। उनमें भी बाह्य और आभ्यन्तर भेद से धर्मध्यान भी दो प्रकार का है, और आभ्यन्तर धर्मध्यान दस प्रकार का है। धर्मध्यान का आठवां संस्थान विषय नाम का ध्यान है। उसके भी बारह भेद किये गये।
इस प्रकार ग्रंथकार ने काफी नया प्रभेद दिया है, जो श्रमणाचार विषयक है।
आचारसार—
वीरनन्दिसिद्धान्त चक्रवर्ति प्रणीत आचारसार मुनिधर्म की विशुद्धि हेतु लिखा गया। यह ग्रंथ १२वीं शताब्दी का है। इसके बारह अधिकारों में मुनियों के चारित्र का विस्तार से पूर्ण विवरण प्राप्त है।
प्रथम अधिकार में ५१ पद्य हैं। इसमें शिष्य द्वारा निर्गंथ की दीक्षा लेने की प्रार्थना करना। गुरु द्वारा सम्यक््â प्रकार परीक्षा कर दीक्षा देना फिर २८ मूलगुणों का स्वरूप समझाना आदि का वर्णन है।
द्वितीय अधिकार में समाचारनीति का कथन है। इसमें एकल विहारी कौन हो सकता है तथा एकल विहारी के दोष, साधु किन्हें वन्दना करें आदि का विवेचन है।
तृतीय अधिकार में दर्शनाचार, चतुर्थ अधिकार में ज्ञानाचार, पञ्चमाधिकार में चारित्राधिकार, षष्ठाधिकार में तपाचार, सप्तम में वीर्याचार, अष्टम में अष्टशुद्धियों का वर्णन, नवम में षडावश्यकों का विवेचन, दशम में ध्यान का वर्णन, एकादश में जीवकर्म प्ररूपणाधिकार और द्वादश अधिकार में शीलगुण का वर्णन किया गया है।
मूलाचार प्रदीप—
आचार्यवर्य सकलकीर्ति द्वारा विरचित ३२४८ श्लोकों में निबद्ध विशालकाय रचना है। यह १४ वीं शताब्दी की महत्त्वपूर्ण कृति है। मूलाचार के बाद मुनि आचारसंहिता का सांगोपांग वर्णन करने वाली यह कृति अभूतपूर्व है। उक्त दोनों कृतियों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि अनेक प्रकरणों में अन्तर एवं विस्तार है। जैसे प्रथम अधिकार में २६४ श्लोकों के माध्यम से मात्र पञ्चमहाव्रतों का वर्णन है और दूसरे अधिकार के ३३६ श्लोकों में पाँच समितियों की विवेचना है। इसी प्रकार तीसरे अधिकार में पञ्चेन्द्रियों का वर्णन और उसका क्रम बिलकुल भिन्न है। जैसे चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, स्पर्शन इस प्रकार क्रम रखकर चक्षु इन्द्रिय को मुनिचर्या की निर्दोष पालन में सर्वप्रथम बाधक माना है। इसके बाद क्रमश: अन्य इन्द्रियाँ मानी हैं। इस प्रकार १२ अधिकारों में श्रमणचर्या का सरल—सुबोध शैली में विवेचन है। इस ग्रंथ में विषय की प्रस्तुति पूर्वाचार्यों से बहुत कुछ भिन्न है।
अनगार धर्मामृत—
दिगम्बर जैन परम्परा के साधुवर्ग और श्रावकवर्ग में जिस आचारधर्म का पालन किया जाता है उसके लिए पण्डितप्रवर आशाधर का धर्मामृत एक विद्वत्तापूर्ण कृति है। विद्वान् ग्रंथकार ने प्रकृत विषय से सम्बद्ध पूर्ववर्ती साहित्य का गम्भीरता से अध्ययन किया था। उन्होंने अपने ग्रंथ में पूर्वाचार्यों के ग्रंथों का उल्लेख प्रमाणिक एवं सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया है। ग्रंथकार ने इस ग्रंथ की एक टीका एवं एक पंजिका की रचना की थी।
मूलग्रंथ से अधिक इनकी टीकाओं का महत्त्व है क्योंकि इसमें विशेषरूप से समझाया गया और विषय का खुलासा भी हुआ है। इस ग्रंथ के कुल नौ अध्यायों में ६८१ श्लोक हैं।
इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय में श्रोता का स्वरूप, धर्म का स्वरूप, निश्चय—व्यवहार और अभेद समाधि की चर्चा की है। द्वितीय अध्याय में मिथ्यात्व का लक्षण, ३६३ मतों का विवेचन, परम आप्त का लक्षण सम्यग्दर्शन आदि का वर्णन है। तृतीय अध्याय ज्ञान की विवेचना में लिखा गया। तृतीय अध्याय में चारों अनुयोगों का कथन है। चौथे अध्याय में चारित्राराधना की प्रेरणा, व्रत का लक्षण, महाव्रत, गुप्ति, समिति, चारित्र आदि की विवेचना है। पञ्चम अध्याय, षष्ठाध्याय, सप्तम, अष्टम एवं नवम अध्याय में श्रमणचर्या की विस्तृत विवेचना है।
श्रमणाचार विषयक साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रमणचर्या के विषय को प्रतिपादन करने वाले प्रमुख ग्रंथ तो उक्त नौ प्राप्त हैं परन्तु छुटपुट प्रकरणों का प्रतिपादन अन्य ग्रंथों में भी मिलता है जैसे समयसार, नियमसार, तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि।
चारित्र पाहुड़—
दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है। यहाँ प्रश्न उठता है कि आपने आचारांग का उपसंहार करके मूलाचार की रचना की है, तब उपासकाध्ययन अंग का उपसंहार करके किसी स्वतंत्र उपासकाध्ययन की रचना क्यों नहीं की ? इसका उत्तर यह है कि उनके समय में साधु लोग शिथिलाचारी होने लगे थे और अपने आचार को भूल गये थे। उनको उनका जिनप्रणीत मार्ग बताने के लिए मूलाचार रचा। किन्तु उस समय श्रावक अपने कर्तव्यों को जानते थे एवं तदनुसार आचरण भी करते थे। अत: उनके लिए स्वतंत्र उपासकाध्ययन की रचना करना आवश्यक प्रतीत नहीं हुआ, केवल चारित्र पाहुड़ के भीतर चारित्र के सकल और विकल भेद करके छठे भाग की गाथाओं में विकल चारित्र का वर्णन करना उचित माना।
तत्त्वार्थसूत्र—
श्री उमास्वामी द्वारा संस्कृत में निबद्ध तत्त्वार्थसूत्र में श्रावकधर्म का वर्णन सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होता है। सूत्रकार ने सातवें अध्याय में व्रत का स्वरूप भेद, एवं उनकी भावनायें और अतिचारों का वर्णन विस्तार से किया। इसका आधार क्या है ? विचारणीय है। परन्तु आपने भी कुन्दकुन्द और स्वामी कार्तिकेय के अष्टमूलगुणों का वर्णन नहीं किया। इससे ज्ञात होता है कि उस समय तक अष्टमूलगुणों की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार—
तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् श्रावकाचार का स्वतंत्र ग्रंथ लिखने वाले दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र हैं। रत्नकरण्ड की विशेषता है कि उसके समकक्ष अभी तक कोई भी श्रावकाचार नहीं लिखा गया। श्रावकों के आठ मूलगुणों का वर्णन सर्वप्रथम इसी ग्रंथ में प्राप्त होता है।
समन्तभद्राचार्य तार्किक तो थे ही साथ में परीक्षाप्रधानी भी थे, अत: उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र और आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य का अवगाहन कर अपनी परीक्षा प्रधान दृष्टि से गुणव्रत—शिक्षाव्रतों एवं अतिचारों पर विचार कर अपनी तार्किक दृष्टि से यथोचित परिवर्तन किया। अर्हत् पूजन को वैयावृत्य के अन्तर्गत वर्णन करना रत्नकरण्ड की सबसे बड़ी विशेषता है। इससे पूर्व पूजन को श्रावकव्रतों में किसी ने नहीं कहा। सम्यक्त्व के आठ अंगों में, पाँच अणुव्रतों में, पाँच पापों में और चारों दानों के देने वालों में प्रसिद्धि को प्राप्त करने वालों के नामों का उल्लेख भी रत्नकरण्ड की एक खास विशेषता है।
इससे स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्र ने श्रावकधर्म को पर्याप्त पल्लवित और विकसित किया है और उसे एक व्यवस्थित रूप देकर उत्तरवर्ती आचार्यों का मार्ग प्रशस्त किया है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा—
यह ग्रंथ दूसरी—तीसरी शताब्दी के स्वामी कार्तिकेय ने श्रावक के आचार पर लिखा है। इस ग्रंथ की अनेक विशेषतायें हैं। आपने ११वीं प्रतिमा के भेदों का उल्लेख नहीं किया। इससे प्रतीत होता है कि उस समय तक इस प्रतिमा के भेद नहीं हुए थे।
रत्नमाला—
आचार्य शिवकोटि द्वारा रचित श्रावकधर्म का वर्णन करने वाला लघु ग्रंथ है। इस ग्रंथ में श्रावकोचित क्रियाओं का वर्णन है। इसका समय दूसरी शताब्दी मान्य है।
पद्मचरित—
आचार्य रविषेण ने वि. सं. ७३४ में पद्मपुराण की रचना की है। इसके १४वें पर्व में श्रावकधर्म का वर्णन पर्याप्त किया गया है।
वरांगचरित—
आचार्य जयिंसह नन्दि ने वरांगचरित महाकाव्य की रचना की है। उसके १५वें सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन कर उसके धारण करने से क्या फल मिलता है। इसका भी वर्णन किया।
हरिवंशपुराण—
आचार्य जिनसेन प्रथम ने हरिवंशपुराण ५३९ सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन किया। आपने तत्त्वार्थसूत्र और पुरुषार्थसिद्धयुपाय को आदर्श मानकर वर्णन किया है।
महापुराण—
आचार्य जिनसेन ने अपने प्रसिद्ध महापुराण ग्रंथ के ३८, ३९, ४०वें पर्व में श्रावकधर्म का वर्णन किया है। इसमें श्रावक द्वारा करणीय विभिन्न प्रकार की पूजन—विधानों का भी वर्णन है।
इस प्रकार ९ ग्रंथों में श्रावकाचार का वर्णन है परन्तु अन्य विषयों का भी वर्णन है अत: उनका विशेष परिचय दिया गया। इनके अतिरिक्त जिन ग्रंथों में पूरा वर्णन श्रावकाचार से सम्बन्धित है, उनका उल्लेख निम्न प्रकार है—
पुरुषार्थसिद्धयुपाय (आ. अमृतचन्द्र वि. सं. १०५५)
उपासकाध्ययन (आ. सोमदेव वि. सं. १०१६)
अमितगति श्रावकाचार (आ. अमितगति वि. सं. १०७०)।
चारित्रसारगत—श्रावकाचार (श्री चामुण्डराय)।
वसुनन्दि श्रावकाचार (आ. वसुनन्दि वि. सं. ११००)।
सावयधम्म्ाद्रोहा (आ. देवसेन वि. सं. १०वीं)।
सागारधर्मामृत (पं. आशाधर वि. सं. १३००)।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार (पं. मेधावी वि. सं. १५४१)।
प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (आ. सकलकीर्ति वि. सं. १४४३)।
गुणभूषण श्रावकाचार (आ. गुणभूषण)।
धर्मोपदेश पीयूषवर्ष श्रावकाचार (श्री ब्रह्मनेमिदत्त वि. सं. १६००)।
लाटी संहिता (श्री राजमल्ल वि. सं. १६३२)।
उमास्वामी श्रावकाचार (आ. श्री उमास्वामी)।
पूज्यपाद श्रावकाचार (आ. श्री पूज्यपाद)।
व्रतसार श्रावकाचार (अज्ञात)।
व्रतोद्योतन श्रावकाचार (श्री अभ्रदेव वि. सं. १५००)।
श्रावकाचार सारोद्धार (श्री पद्मनन्दि भट्टारक)।
भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन (आ. श्री जिनदेव)।
पञ्चिंवशतिकागत श्रावकाचार (आ. श्री पद्मनन्दि) (द्वितीय पद्मनन्दि)
प्राकृत भावसंग्रहगत श्रावकाचार (आ. श्री देवसेन वि. सं. १०१२)।
संस्कृत भावसंग्रहगत श्रावकाचार (पं. वामदेव वि. सं. १४३६)।
रयणसार (आ. श्री कुन्दकुन्द)।
पुरुषार्थानुशासनगत श्रावकाचार (पं. गोविन्द वि. सं. १६००)।
कुन्दकुन्द श्रावकाचार (आ. श्री कुन्दकुन्द)।
श्रावकाचार (श्री पद्मकवि)।
क्रियाकोश (श्री किशन सिंह)।
क्रियाकोष (पं. दौलतराम जी)।
श्रावकाचार (पं. टोडरमल जी)।
धर्मानन्द श्रावकाचार (आ. श्री महावीर कीर्ति)।
सुधर्मश्रावकाचार सुधर्मश्रावकाचार (आ. श्री सुधर्मसागर)
सम्यक््âचारित्र चिन्तामणि (पं. पन्नालाल)।
चरणानुयोग के साहित्य की विवेचना से स्पष्ट है कि इस अनुयोग के साहित्य का विपुल भण्डार है। यही कारण है कि चरणानुयोग में श्रमणाचार विषयक विशाल नौ ग्रंथ उपलब्ध हैं और ४० ग्रंथ श्रावकाचार विषयक है। चरणानुयोग के ग्रंथों पर शोधकार्य एवं संगोष्ठी निरन्तर होना चाहिए क्योंकि सभी धर्मों में आचरण का कथन किया गया है। परन्तु जैनधर्म में वर्णित आचरण अन्य धर्मों से भिन्न है। जैनधर्म बाह्य क्रियाओं की अपेक्षा आन्तरिक परिणामों की प्रधानता मानता है। अिंहसा और वीतरागता की नींव पर ही जैन साधकों का आचरण निर्दिष्ट है। अणुव्रती और महाव्रती साधक चरणानुयोग के निर्देशों के अनुसार शुद्ध आचरण करते हैं। जिस शुद्ध आचरण का पालन अणुव्रती और महाव्रती करते हैं उनका संकलन चरणानुयोग में है। चरणानुयोग में दो प्रकार का उपदेश है—व्यवहार एवं निश्चय सहित व्यवहार। इस अनुयोग के उपदेश की विशिष्टता न समझने पर भ्रम का अवकाश रहता है। मन्दकषाय में प्रवृत्ति के उपदेश को सुनकर ऐसा न विचारना कि अन्तत: हुआ तो कषाय का ही उपदेश न। वहाँ उद्देश्य तो तीव्र कषाय छुड़ाने का है। व्यवहार में इस प्रकार ढील देने पर भी चरणानुयोग में श्रद्धान के आधार पर कोई समझौता नहीं किया जाता है। श्रद्धान तो वीतराग मार्ग का ही होना चाहिए। मिथ्यामतियों के मार्ग का अनुसरण करने का उपदेश इस अनुयोग में नहीं दिया जाता है।
गृहस्थों एवं मुनियों के आचरण का आरम्भ, उत्तरोत्तर विशुद्धि एवं उसकी रक्षा आदि अपने अपने सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान पर निर्भर है। उनका सही सही आकलन इस अनुयोग की विशिष्ट सम्पदा है। चरणानुयोग की शैली लगभग नीतिशास्त्रों की तरह है। इस अनुयोग की भाषा कुछ विशिष्ट शैली की है। करो, करना चाहिए, यह योग्य है, ऐसा मत करो, यह अनुचित है आदि रूप में आदेशात्मक भाषा रहती है। पात्र की शक्ति को जानकर उसके योग्य उपदेश देना इस अनुयोग की विशिष्टता है। इसलिए कभी अणुव्रत का उपदेश और कभी दो प्रतिमा का उपदेश और कभी महाव्रत का उपदेश दिया जाता है। जैसे माँसभक्षी भील को काक माँस छोड़ने का, ग्वाले को नमस्कार मंत्र जपने का उपदेश देना आदि पात्र को ध्यान में रखकर ही दिया गया उपदेश है। यथोक्त रीति से चरणानुयोग को समझना ही कल्याणप्रद है।
धर्म को साधने की अपेक्षा श्रद्धा रखने वालों को सन्मार्ग में लगाने का कार्य चरणानुयोग करता है। सदाचरण, व्रत, तप आदि द्वारा जीव को धर्म की ओर उन्मुख करना इस अनुयोग का कार्य है।
चारित्र के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। चारित्र पालने से ही कर्मों का बन्ध कटता है। धर्म आत्मा का परिणाम है, उसे देखा नहीं जा सकता, उसके व्यवहारिक रूपों का परिचय हमें प्राप्त हो सकता है और वह चरणानुयोग से ही सम्भव है।
कर्मबन्धन से मुक्ति के लिए, व्रत, नियम, संयम, तप आदि के द्वारा आत्मशुद्धि का मार्ग चरणानुयोग में है। व्रत, नियम से ध्यान तक इस अनुयोग की प्रक्रिया है। धर्म का साक्षात् रूप लोक में इसी अनुयोग के आश्रित चलता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक में कहा गया है कि जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर चरणानुयोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें यह सर्व आचरण अपने वीतरागभाव के अनुसार भासित होते हैं। एक देश व सर्व देश वीतरागता होने पर भी ऐसी श्रावकदशा—मुनिदशा होती है क्योंकि इनके निमित्त नैमित्तिकपना पाया जाता है। चरणानुयोग के अभ्यास बिना कोई स्वयमेव वीतराग आचरण को जान ले यह कठिन है। गुरु—समीप संघ में रहकर पठन न करें तो भी श्रवण तो करना ही पड़ेगा। स्वयमेव चारित्र का ज्ञान सबको नहीं होता। गृहस्थ एवं मुनियों का जो स्वरूप इस अनुयोग के शास्त्रों में वर्णित है, उसे जाने बिना सच्चा गृहस्थ अथवा सच्चा साधु बनना कठिन है। जब कोई तत्त्वज्ञान की पिपासा से चरणानुयोग शास्त्रों का मनोयोगपूर्वक अभ्यास करता है तब उसे एक देश या सकल चारित्र का ज्ञान होता है।
आचरण में दोष अज्ञानवश और प्रमादवश भी सम्भव है। अज्ञानवश दोष उत्पन्न न हो इस हेतु चरणानुयोग शास्त्रों का अभ्यास कार्यकारी है। प्रमादवश दोष उत्पन्न हो तो भी शास्त्रों में वर्णित नियमानुसार दोष निवारण करना चाहिए।
पं. वैâलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं कि बाह्यक्रियाओं में शुद्धि के बिना परिणाम शुद्ध न होगा, अत: उन बाह्यक्रिया नियमों को जानने हेतु चरणानुयोग का अभ्यास करना चाहिए। इन बाह्यक्रियाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
चरणानुयोग की कृतियों का उद्देश्य सात्विक एवं शक्तिशाली समाज का निर्माण है। ये ग्रंथ धार्मिक दृष्टि से तो उपयोगी हैं ही और सामाजिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि चरणानुयोगों के ग्रंथों के अध्ययन से व्यक्ति व्रत धारण करता है और व्रत व्यक्ति को अपनी परिधि से बाहर विचलित नहीं होने देते।
चरणानुयोग की प्रत्येक शिक्षा अिंहसा के बलबूते पर खड़ी है। और अिंहसा केवल धार्मिक एवं आध्यात्मिक स्तर तक ही सीमित नहीं हैं अपितु ये तो राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पालने एवं आचरण के योग्य है। यही कारण है कि इसे १९० देशों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया।
चरणानुयोग के ग्रंथों का लक्ष्य व्यक्ति के आत्मकल्याण तक ही सीमित नहीं है अपितु प्राणीमात्र के कल्याण की शिक्षा देना है।