प्रश्न-क्या श्रावक मुनियों के आहारदान हेतु अन्यत्र से आकर चातुर्मास में मुनियों को आहारदान दे सकते हैं?
उत्तर-अवश्य दे सकते हैं। यदि श्रावक आहारदान में भक्ति रखते हैं और उनके गाँव में उस समय मुुनि आदि नहीं हैं अथवा किन्हीं संघ या आचार्य आदि के प्रति उन्हें विशेष अनुराग है, तो उनके निकट जाकर भी आहारदान देते हैं अथवा कदाचिद् किन्हीं मुनियों की आहारादि व्यवस्था के अभाव में भी उनके पास जाकर आहार-दान देकर पुण्य लाभ लेते हैं। पद्मपुराण में एक उदाहरण बहुत ही सुन्दर मिलता है। यथा-
‘‘अयोध्या नगरी में राजा के समान वैभव को धारण करने वाला अनेक करोड़ सम्पत्ति का धनी वङ्काांक नाम का एक सेठ रहता था। सीता के निर्वासन समाचार को सुनकर वह इस प्रकार चिंता को प्राप्त हुआ कि ‘अत्यंत सुकुमारांगी तथा दिव्य गुणों से अलंकृत सीता वन में किस अवस्था को प्राप्त हुई होगी? इस चिंता से वह अत्यंत दुखी हुआ और परम वैराग्य को प्राप्त होकर अयोध्या में ही विराजमान द्युति नामक आचार्य के पास दैगंबरी दीक्षा ग्रहण कर ली। इसकी दीक्षा का हाल घर के लोगों को विदित नहीं हुआ था। सेठ वङ्काांक के अशोक और तिलक नाम के दो विनयवान पुत्र थे सो वे किसी समय निमित्तज्ञानी द्युति मुनिराज के पास अपने पिता का हाल पूछने के लिए आये। वहीं पिता को देखकर स्नेह अथवा वैराग्य के कारण अशोक और तिलक ने भी उन्हीं द्युति आचार्य के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। द्युति मुनिराज परम तपश्चरण कर तथा आयु के अंत में शिष्यजनों को उत्कंठा प्रदान करते हुये ऊर्ध्व ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गये।
अनंतर पिता और दोनों पुत्र ये तीनों ही मुनि मिलकर गुरू के कहे अनुसार प्रवृत्ति करते हुये जिनेंद्र भगवान की वंदना के लिए ताम्रचूड़पुर की ओर चले। बीच में पचास योजन प्रमाण बालू का समुद्र (रेगिस्तान) मिलता था सो वे इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच पाए। बीच में वर्षाकाल आ गया। उस रेगिस्तान में जिसका मिलना अत्यंत कठिन था तथा जो अनेक शाखाओं उपशाखाओं से युक्त था ऐसे एक वृक्ष को पाकर उसके आश्रययुक्त तीनों मुनिराज ठहर गये। जहाँ पर आहार का कोई ठिकाना नहीं था।
उसी काल में अयोध्यापुरी को जाते समय जनक के पुत्र भामंडल ने उन तीनों मुुनिराजों को वहाँ रेगिस्तान में देखा। तत्क्षण ही उस पुण्यात्मा के मन में विचार आया कि ये मुनि आचार की रक्षा के निमित्त इस निर्जन वन में ठहर गये हैं परन्तु प्राणधारण के लिए ये आहार कहाँ ग्रहण करेंगे? ऐसा विचार कर सद्विद्या की उत्तम शक्ति से युक्त भामंडल ने बिल्कुल पास में एक सुन्दर नगर बसाया अर्थात् विद्या के प्रभाव से एक सुन्दर नगर की रचना कर ली। जो सब प्रकार की सामग्री से सहित था, उसमें स्थान-स्थान पर अहीर आदि के रहने के ठिकाने दिखलाये। तदनंतर अपने स्वाभाविक रूप में स्थित होकर उसने विनयपूर्वक मुनियों को नमस्कार किया। वह अपने परिजनों के साथ वहीं रहने लगा तथा योग्य देश-काल में दृष्टिगोचर हुए सत्पुरुषों को भावपूर्वक न्याय के साथ हर्षसहित आहार कराने लगा।
इस निर्जन वन में जो मुनिराज थे उन्हें तथा पृथ्वी पर उत्कृष्ट संयम को धारण करने वाले जो अन्य विपत्ति से ग्रसित साधु थे, उन सबको वह आहार आदि देकर संतुष्ट करने लगा। मुनिजन तो पुण्यरूपी सागर में व्यापार करने वाले हैं और भामंडल उनके सेवक के समान हैं।कतिपय दिनों के अनंतर किसी समय भामंडल उद्यान में अपनी मालिनी नामक भार्या के साथ शय्या पर शयन कर रहे थे कि अकस्मात् वङ्कापात से उनकी मृत्यु हो गई। वे भामंडल मुनिदान के माहात्म्य से मेरू पर्वत के दक्षिण में विद्यमान देवकुरू नामक उत्तम भोगभूमि में अपनी पत्नी के साथ युगलिया हो गये। उनकी आयु तीन पल्य की थी और उनका शरीर दिव्य लक्षणों से युक्त था। जो मनुष्य उत्तम पात्रोेंं को आहार आदि दान देते हैं वे उत्तम भोगभूमि के सुखों का अनुभव कर नियम से देव पर्याय को प्राप्त होते हैं। पश्चात् क्रम से मोक्ष सुख को भी प्राप्त कर लेते हैं।इस प्रकार से भाक्तिक श्रावकगण कहीं भी जाकर मुनियों को आहारदान देकर अपने संसार की स्थिति को कम करते हुए परम्परा से निर्वाण लाभ करते ही हैं।