चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के जीवन से संबंधित एक परिचर्चा
(गणिनी_प्रमुख_ज्ञानमती_माताजी)
(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी की)
क्षुल्लक मोतीसागर जी- वंदामि, माताजी!
गणिनी ज्ञानमती माताजी- बोधिलाभोऽस्तु!
मोतीसागर– पूज्य माताजी! आज मैं आपसे बीसवीं शताब्दी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज से संबंधित कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूँ।
वर्तमान में आप उस परम्परा की सबसे वरिष्ठ और प्राचीन दीक्षित आर्यिका जी हैं तथा आपने आचार्यश्री के साक्षात् दर्शन करके उनकी अमूल्य शिक्षाएँ भी प्राप्त की हैं अत: मैं आपके माध्यम से प्राप्त कुछ आवश्यक जानकारियों से प्रबुद्ध जैन समाज को भी अवगत कराना चाहता हूँ।
माताजी- ठीक है, पूछो! मेरी जानकारी में आचार्यश्री से संबंधित जो भी विषय हैं, मैं अवश्य बतलाऊँगी।
मोतीसागर-आपने आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के प्रथम दर्शन किस सन् में किए थे?
माताजी-सन् १९५४ में नीरा (महाराष्ट्र) में मैंने क्षुल्लिका अवस्था में आचार्यश्री के प्रथम दर्शन किए थे।
मोतीसागर- उस समय आपको कैसा लगा और आचार्यश्री ने आपसे क्या वार्तालाप किया था?
माताजी- मुझे तो बहुत अच्छा लगा था क्योंकि आचार्यश्री की तपस्वी छवि में चतुर्थकालीन मुनि के दर्शन होते थे। मैं उस समय बहुत छोटी मात्र २० वर्ष की थी फिर भी आचार्यश्री ने जब मेरे साथ गई क्षुल्लिका वीरमती जी से मेरा परिचय प्राप्त किया, तो बड़े खुश होकर मुझे ‘‘उत्तर की अम्मा’’ कहकर खूब वात्सल्यभाव से आशीर्वाद दिया था।
उन्होंने मुझसे सबसे पहली बात यही कही थी कि ‘‘अम्मा! अभी तुम्हारी उम्र बहुत ही छोटी है, तीस वर्ष तक किसी न किसी के साथ ही रहना, अकेली नहीं रहना। खूब धार्मिक अध्ययन करना, अनगार धर्मामृत, भगवती आराधना और समयसार अवश्य पढ़ना। मैंने भगवती आराधना ३६ बार पढ़ी है।’’ इसके अतिरिक्त और भी कई चर्चाएं उपगूहन अंग आदि के बारे में की थी, जो मैं कई बार प्रवचनों में बताया करती हूँ। कुल मिलाकर उस समय मुझे ऐसा लगा कि मैंने मानो अमृत से ही स्नान कर लिया है
और अब मुझे संसार का अंत करने वाले महान् गुरु प्राप्त हो गये हैं पुन: उनके पास ३ दिन रुककर मैं क्षुल्लिका विशालमती जी के साथ वापस जयपुर आ गई। उसके बाद मैंने बारामती (महाराष्ट्र) में आचार्यश्री के दर्शन सन् १९५५ में किए और उसी सन् में आचार्यश्री की समाधि मुझे वुंथलगिरि में साक्षात् देखने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था।
मोतीसागर- पूज्य माताजी! उस समय देशभर में लगभग कितने साधु-साध्वी थे? कुछ को तो आपने भी देखा ही होगा?
माताजी- इस संबंध में मैं बताती हूँ कि उत्तर से दक्षिण भारत तक पूरे देश में उस समय लगभग २५ मुनिराज, १५-२० आर्यिकाएं थीं। (दक्षिण में कोई आर्यिका नहीं थीं), करीब २०-२५ क्षुल्लक और २५ ही क्षुल्लिकाएं रही होंगी अर्थात् कुल मिलाकर १०० से अधिक पिच्छीधारी तो थे ही नहीं।
मैंने तब सन् १९५५ में विशालमती अम्मा के साथ महाराष्ट्र के गांव रुकड़ी में (आचार्यश्री शांतिसागर जी के बड़े भाई) मुनि श्री वर्धमानसागर जी के दर्शन किये और निपाणी में मुनि श्री अनन्तकीर्ति जी के, सोलापुर में आचार्यश्री पायसागर जी के, मुम्बई में मुनि श्री नेमिसागर जी के, कोल्हापुर के पास एक गाँव में मुनि श्री महाबल जी के तथा चाकसू (राज.) में आचार्यकल्प श्री वीरसागर महाराज के संघ सहित दर्शन किये।
इन संतों से मैंने कई अनुभवपूर्ण बातें भी सीखीं पुन: आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की आज्ञा से सन् १९५६ में मैंने उन्हीं के प्रथम पट्टशिष्य आचार्यश्री वीरसागर जी से आर्यिका दीक्षा प्राप्त की है।
मोतीसागर –उन आचार्यश्री के जन्म, दीक्षा, गुरु आदि के संबंध में भी कुछ संक्षिप्त जानकारी चाहता हूँ।
माताजी-ठीक है, मैं बताती हूँ उसे ध्यानपूर्वक सुनो- सन् १८७२ में आषाढ़ कृष्णा षष्ठी के दिन महाराष्ट्र प्र्रान्त में कोल्हापुर जिले के ‘येळगुळ’ ग्राम में इनका जन्म हुआ था। पिता का नाम भीमगौंडा और माता का नाम सत्यवती था। सन् १९१४ में ‘‘उत्तूर’’ ग्राम में उन्होंने मुनिश्री देवेन्द्रकीर्ति जी से ज्येष्ठ शुक्ला तेरस को क्षुल्लक दीक्षा ली तथा सन् १९२० में ‘‘यरनाल’’ में उनसे ही फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी को मुनिदीक्षा धारण की थी।
पुन: सन् १९२४ में ‘‘समडोली’’ ग्राम में चतुर्विध संघ द्वारा उन्हें आचार्यपद प्रदान किया गया। यही आचार्यश्री का संक्षिप्त परिचय है। आचार्य बनने के बाद उनका सन् १९२८ में सम्मेदशिखर यात्रा के निमित्त उत्तरभारत में विहार हुआ, तब से यतिपरम्परा में निरन्तर वृद्धि हुई है उसी के फलस्वरूप आज लगभग ११०० साधु-साध्वी भारत में विचरण कर रहे हैं।
मोतीसागर-पूज्य माताजी! अभी कुछ दिन पूर्व नई चर्चा सामने आई कि शांतिसागर महाराज के गुरु मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी ने अपने शिष्य शांतिसागर जी से पुनर्दीक्षा ग्रहण की थी, तब उनका नाम मुनि सिद्धसागर रखा गया था। क्या यह बात सच है?
श्री ज्ञानमती माताजी- मैंने तो ऐसा कभी सुना नहीं। सन् १९५४-५५ में दक्षिण भारत में आचार्यश्री शांतिसागर महाराज से दीक्षित क्षुल्लिका श्री अजितमती अम्मा से भी मेरी मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी के बारे में बात हुई थी, तब उन्होंने मात्र इतना बताया था कि देवेन्द्रकीर्ति महाराज की आहारचर्या मात्र थोड़ी सी सदोष थी कि वे मंदिर के उपाध्याय के कहे अनुसार निमंत्रणपूर्वक श्रावक के घर में आहार को चले जाते थे
और उधर की परम्परानुसार आहार के बाद श्रावक से दक्षिणा स्वरूप पैसे ले लेते थे, जो कि उपाध्याय को दे दिया करते थे। सो बाद में शांतिसागर जी की देखी गई आगमोक्त चर्यानुसार उसमें संशोधन करके निर्दोष मुनिचर्या का पालन करने लगे। बाकी न तो वे शांतिसागर महाराज के शिष्य बने थे और न पुनर्दीक्षा ली थी। इसलिए मेरा तो कहना यही है कि ऐसी भ्रान्त धारणाओं को प्रचार में नहीं लाना चाहिए।
मोतीसागर- माताजी! पूज्य आचार्यश्री ने अपने जीवन में व्यक्तिगत तपस्या के अतिरिक्त समाज को भी कुछ देन अवश्य दी होगी? माताजी उन महापुरुष की देन तो भला शब्दों में क्या बताऊँ मैं? मानो उनके जीवन का प्रत्येक क्षण आत्मकल्याण के साथ-साथ समाजकल्याण के लिए ही बना था।
जैसे-चतुर्विध संघ बनाकर अनेक दीक्षाएं देकर जैन मुनिपरम्परा को पुनरुज्जीवित किया।
कुम्भोज बाहुबली आदि अनेक तीर्थों पर जिनप्रतिमा स्थापित करने की प्रेरणा दी,षट्खण्डागम ग्रंथ को ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण कराकर जिनवाणी को स्थायित्व प्रदान किया एवं देशभर में मंगलविहार के द्वारा अपूर्व धर्मप्रभावना के कार्य किए हैं। एक बात इसमें और ध्यान देने की है कि इतने महान कार्यों को करने के बाद भी आचार्यश्री का तप अविस्मरणीय रहा है, उन्होंने अपने ३६ वर्षीय दीक्षित जीवन में २५ वर्ष ६ माह उपवास अनेक व्रतों के माध्यम से किये थे।
मोतीसागर- सुना है शांतिसागर महाराज से पूर्व कोई आचार्य नहीं थे?
माताजी- हाँ, बात तो सही है। उससे पूर्व कुछ मुनिराज तो थे लेकिन उनमें से कोई आचार्य पदवी के धारक नहीं थे। इसके अतिरिक्त भी पहले मुनियों की चर्या जो कुछ दोषास्पद थी उसे आचार्यश्री ने मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों के आधार से संशोधित किया था, इसके लिए उन्हें काफी कष्ट सहन करने पड़े क्योंकि उस समय गृहस्थ श्रावकों को भी मुनियों की निर्दोष आहारचर्या आदि का ज्ञान नहीं था, वे एक घर में चौका लगाकर साधु को आहार के लिए निमंत्रणपूर्वक ले जाते थे।
मोतीसागर– इस बारे में तो मैंने भी कई बार सुना है कि आचार्यश्री प्रारंभ में केवल चावल और दूध ही आहार में लेते थे फिर धीरे-धीरे काफी पूछताछ के बाद गेहूँ की रोटी, सब्जी, फल आदि श्रावकों ने देना शुरू किया था। माताजी! लोग कहते हैं कि इस पंचमकाल में उपसर्ग सहन करने वाले सच्चे साधु होते ही नहीं हैं, तो उनके लिए आप क्या कहना चाहेगी?
माताजी-देखो! दुराग्रही लोगों के लिए तो कोई भी प्रमाण देना बेकार है, वे तो बेचारे खुद ही कर्म के मारे होते हैं क्योंकि सच्चे को झूठा कहने वालों की गति कर्म सिद्धान्त के दर्पण में स्वयं झलक जाती है। आचार्यश्री कुन्दकुन्द स्वामी आदि आचार्यों ने भी पंचमकाल के अन्त तक सच्चे भावलिंगी साधु होना स्वीकार किया है। कहा भी है-
‘‘भरहे दुस्समकाले, धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे, णहु मण्णइ सो वि अण्णाणी।।’’
अर्थात् ‘‘इस दु:षमकाल में भरतक्षेत्र के अन्दर धर्मध्यान से युक्त साधु आत्मस्वभाव में स्थिर हुए रहते हैं, जो ऐसा नहीं मानते हैं वे अज्ञानी हैं।’’
परमपूज्य आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के ऊपर आये उपसर्गों को देखने और दूर करने वाले कतिपय श्रावक-श्राविकाएं आदि तो आज भी दक्षिण भारत में विद्यमान हैं।
मैंने तो लोगों के मुँह से सुना और ‘‘चारित्रचक्रवर्ती’’ पुस्तक में पढ़ा है कि ‘‘आचार्यश्री एक बार कोन्नूर की गुफा में ध्यान कर रहे थे तो भयंकर सर्प उनके शरीर पर घंटों क्रीडा करके चला गया।
एक बार उनके शरीर पर चीटियों का बड़ा भारी उपसर्ग रहा, तो भी वे गजकुमार मुनि के समान ध्यान में निश्चल रहे। दो-तीन दिन गुफा से बाहर नहीं निकलने पर श्रावकों ने वहाँ जाकर देखा, तब चीटियाँ हटार्इं और आचार्यश्री के लहूलुहान शरीर को साफ किया। अब तुम खुद ही बताओ कि ये आचार्य महाराज तो अभी लगभग ८०-९० वर्ष पूर्व ही हुए हैं और ऐसे तिर्यंचकृत कई उपसर्ग सहन किए हैं। उन्हें नहींr मानने वालों को कर्महीन या अभागे से ज्यादा और क्या कहा जा सकता है?
मोतीसागर- माताजी! प्रतिवर्ष भादों शुक्ला दूज को आचार्यश्री की पुण्यतिथि आती है, उसे मनाने के लिए आपका समाज के लिए क्या संदेश है?
माताजी- मुझे तो सन् १९५५ का वह दृश्य याद करके आज एकदम विह्वलता सी आ रही है। जब एक माह तक वुंथलगिरि में रहकर मैंने रोज आचार्यश्री के दर्शन के साथ-साथ उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति, जिनेन्द्रभक्ति और आत्मा के प्रति लगन देखने का जो सौभाग्य प्राप्त किया है उसके आधार पर मैं भारत की समस्त दिगम्बर जैन समाज को यही प्रेरणा देना चाहती हूँ
कि ‘‘चारित्रचक्रवर्ती पदवी को सार्थक करने वाले आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की प्रतिमाएँ और उनके श्रीचरण अपने-अपने मंदिरों में विराजमान करें, प्रतिदिन उनकी पूजा-अर्चना- गुरुभक्ति करें और उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर खूब प्रभावनात्मक वैराग्यसभाएं आयोजित करें, उनके जीवन परिचय पर भाषण प्रतियोगिता, प्रश्नमंच, आरती, चालीसा, सामूहिक पूजन आदि
कार्यक्रम रखें और आचार्यश्री के गुणों का स्मरण कर गुरुनिंदा न करने का संकल्प लेवें तथा पं. सुमेरचन्द्र जैन दिवाकर द्वारा लिखित ‘‘चारित्रचक्रवर्ती’’ पुस्तक का स्वाध्याय बच्चे-बूढ़े सभी को अवश्य ही करना चाहिए।
पूज्य गुरूणांगुरु आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के चरणों में मेरी तो यही विनम्र श्रद्धांजलि है कि आपके समान मुझे भी वीरमरण करने का अवसर प्राप्त हो तथा वैसी ही कुछ शारीरिक-आत्मिक दृढ़ता मिले ताकि स्त्रीपर्याय का छेदकर शीघ्र मोक्ष की प्राप्ति हो।
मोतीसागर-आज आपसे पूज्य आचार्यश्री के बारे में अनेक जानकारियाँ मिली हैं, मैं समझता हूँ कि इन बातों से समाज अवश्य मार्गदर्शन प्राप्त करेगी। आपके चरणों में वंदामि करते हुए मैं इस वार्ता को विराम देता हूँ।