(जैनेन्द्र व्रत कथा संग्रह मराठी पुस्तक से)
आश्विन शुक्ला पूर्णिमा-शरत् पूर्णिमा को उपवास करके यह व्रत किया जाता है। इस व्रत में पंचपरमेष्ठी की प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करें। पुन: अष्टदल कमल बनाकर उसके चारों तरफ चौकोन मंडल बनावें। आठ दिशा में आठ मंगल कुंभ स्थापित करके मध्य में एक बड़ा मंगल कुंभ स्थापित करें। ये सभी कुंभ-कलश पंचवर्णी सूत्र से वेष्टित होवें। मध्य में सिंहासन पर पंचपरमेष्ठी की प्रतिमा विराजमान करके पंचपरमेष्ठी विधान करना चाहिए।
इस व्रत में चार बार पंचामृत अभिषेक करने का विधान है। प्रात:, मध्यान्ह, सायं और अर्द्धरात्रि में ऐसे चार महाभिषेक करना है।
व्रत मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्यो नम: स्वाहा।
इस मंत्र का १०८ बार सुगंधित पुष्पों से जाप्य करके पुन: णमोकार मंत्र की एक माला जपें।
इस दिवस ब्रह्मचर्य व्रत पालन कर रात्रि जागरण आदि करके धर्माराधना करें। यह व्रत २७ वर्ष करना उत्कृष्ट है, १६ वर्ष मध्यम है और कम से कम सात वर्ष करना जघन्य है। यदि उपवास की शक्ति नहीं है तो एक बार शुद्ध भोजन करके भी व्रत कर सकते हैं।
व्रत की दूसरी विधि इस प्रकार है–शरत् पूर्णिमा के दिन व्रत करके चन्द्रप्रभ भगवान की पूजा करके रात्रि में श्री चंद्रप्रभ प्रतिमा का दूध से महाभिषेक करना चाहिए। उसका मंत्र निम्न प्रकार है-
ॐ ह्रीं अर्हं विजययक्ष-ज्वालामालिनीयक्षीसहिताय श्रीचन्द्रप्रभतीर्थंकराय नम:।
इस व्रत के प्रभाव से पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल कीर्ति पैâलती है। चारित्र दिन-प्रतिदिन उज्ज्वल होता जाता है। इसके प्रभाव से समस्त लौकिक सुख प्राप्त कर परम्परा से मोक्ष सुख प्राप्त होता है। संसार में रहते हुए पुत्र, पौत्र, सुख, संतति और धन-सम्पत्ति की वृद्धि होती रहती है। अतएव यह व्रत चारित्र की पूर्ति करके नियम से परमात्मपद को प्राप्त कराने वाला है।
विशेष–इनमें से एक व्रत भी कर सकते हैं अथवा दोनों व्रत करके भी पुण्योपार्जन कर सकते हैं।