(हरिवंशपुराण के आधार से)
-अनुष्टुप्-
चतुर्दशस्वहिंसार्थं जीवस्थानेषु भाविता:।
त्रियोगनवकोटिघ्ना, ते षड्विंशं शतं स्फुटम्।।१००।।
भीर्ष्यास्वपक्षपैशुन्यक्रोधलोभात्मशंसनै: ।
द्वासप्ततिर्नवघ्नैस्ते परनिन्दान्वितैरिति।।१०१।।
ग्रामारण्यखलैकान्तैरन्यत्रोपध्यभुक्तवै: ।
सपुष्टग्रहणै: प्राग्वद्द्वासप्ततिरमी मता:।।१०२।।
नृदेवाचित्ततिर्यक्स्त्रीरूपै: पञ्चेन्द्रियाहतै:।
नवघ्नै: ब्रह्मचर्यै: स्यु:, शतं तेऽशीतिमिश्रितम्।।१०३।।
-उपजाति:-
चतुष्कषाया नव नोकषाया, मिथ्यात्वमेते द्विचतु:पदे च।
क्षेत्रं च धान्यं च हि कुप्यभाण्डे, धनं च यानं शयनासनं च।।१०४।।
अन्तर्बहिर्भेदपरिग्रहास्ते, रन्धैश्चतुर्विंशतिराहतास्तु।
ते द्वे शते षोडशसंयुते स्युर्महाव्रते स्यादुपवासभेदा:।।१०५।।
-अनुष्टुप्-
षष्ठे दशोपवासा: स्युरनिच्छा नव कोटिभि:।
प्रत्येकं नव विज्ञेया, त्रिगुप्तिसमितित्रिके।।१०६।।
-आर्या-
भावोपमाव्यवहारप्रतीत्यसंभावनासुभाषायाम्।
जनपदसंवृतिनामस्थापनारूपा दश नवघ्ना:।।१०७।।
-अनुष्टुप् –
षट्चत्वारिंशद्दोषानेषणासमितौ मतान् ।
नवघ्नान् विघ्नितुं कार्यास्तावन्त उपवासका:।।१०८।।
त्रयोदशविधस्यैव चारित्रस्य विशुद्धये।
विधौ चारित्रशुद्धौ स्युरुपवासा: प्रकीर्तिता:।।१०९।।
पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति के भेद से चारित्र के तेरह भेद हैं। चारित्रशुद्धि विधि में इन सबकी शुद्धि के लिए पृथक्-पृथक् उपवास करने की प्रेरणा दी गई है। प्रथम ही अहिंसा महाव्रत है सो १. बादर एकेन्द्रियपर्याप्तक २. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक ३. सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक ४. सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक ५. द्वीन्द्रिय पर्याप्तक ६. द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक ७. त्रीन्द्रिय पर्याप्तक ८. त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक ९. चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक १०. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक ११. असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक १२. असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक १३. संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक और १४. संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक। इन चौदह प्रकार के जीवस्थानों की हिंसा का त्याग मन-वचन-काययोग तथा कृत्कारित- अनुमोदना इन नौ कोटियों से करना चाहिए। इस अभिप्राय को लेकर प्रथम अहिंसा व्रत के एक सौ छब्बीस उपवास होते हैं और एक-एक उपवास के बाद एक-एक पारणा होने से एक सौ छब्बीस ही पारणाएँ होती हैं।।१००।।
दूसरा सत्य महाव्रत है सो १. भय २. ईर्ष्या ३. स्वपक्ष पुष्टि ४. पैशुन्य ५. क्रोध ६. लोभ ७. आत्मप्रशंसा और ८. परनिन्दा। इन आठ निमित्तों से बोले जाने वाले असत्य का पूर्वोक्त नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए। इस अभिप्राय को लेकर द्वितीय सत्य महाव्रत के बहत्तर उपवास होते हैं तथा उपवास के बाद एक-एक पारणा होने से बहत्तर ही पारणाएँ होती हैं।।१०१।।
तीसरा अचौर्य महाव्रत है सो १. ग्राम २. अरण्य ३. खलिहान ४. एकान्त ५. अन्यत्र ६. उपधि ७. अभुक्तक और ८. सपुष्टग्रहण। इन आठ भेदों से होने वाली चोरी का पूर्वोक्त नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए। इस अभिप्राय को लेकर तृतीय अचौर्य महाव्रत में बहत्तर उपवास होते हैं तथा प्रत्येक उपवास की एक-एक पारणा होने से बहत्तर ही पारणाएँ होती हैं।।१०२।।
चौथा ब्रह्मचर्य महाव्रत है सो मनुष्य, देव, अचित्त और तिर्यंच इन चार प्रकार की स्त्रियों का प्रथम ही स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों और तदनन्तर पूर्वोक्त नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए। इस अभिप्राय को लेकर ५²४·२०²९·१८० एक सौ अस्सी उपवास होते हैं और इतनी ही पारणाएँ होती हैं।।१०३।।
पाँचवाँ परिग्रह त्याग महाव्रत है। सो चार कषाय, नौ नो कषाय और एक मिथ्यात्व इन चौदह प्रकार के अन्तरंग और दोपाये, (दासी-दास आदि) चौपाये, (हाथी-घोड़ा आदि) खेत, अनाज, वस्त्र, बर्तन, सुवर्णादि धन, यान (सवारी), शयन और आसन-इन दस प्रकार के बाह्य, दोनों मिलाकर चौबीस प्रकार के परिग्रह का नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए। इस अभिप्राय को लेकर परिग्रहत्याग महाव्रत में दो सौ सोलह उपवास होते हैं और इतनी ही पारणाएँ होती हैं।।१०४-१०५।।
छठा रात्रिभोजन त्याग अणुव्रत यद्यपि तेरह प्रकार के चारित्रों में परिगणित नहीं है तथापि गृहस्थ के संबंध से मुनियों पर भी असर आ सकता है अर्थात् गृहस्थ द्वारा रात्रि में बनायी हुई वस्तु को मुनि जानबूझकर ग्रहण करे तो उन्हें रात्रिभोजन का दोष लग सकता है। इस प्रकार के रात्रिभोजन का नौ कोटियों से त्याग करना चाहिए तथा अनिच्छा-दूसरे की जबर्दस्ती से भी रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। इस भावना को लेकर रात्रिभोजन त्याग व्रत में दश उपवास होते हैं और दश ही पारणाएँ होती हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन तीन गुप्तियों तथा ईर्या, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन समिति इन तीन समितियों में प्रत्येक के नौ कोटियों की अपेक्षा नौ-नौ उपवास होते हैं अर्थात् तीन गुप्तियों के सत्ताईस उपवास और सत्ताईस पारणाएँ हैं तथा उपरिकथित तीन समितियों के भी सत्ताईस उपवास और सत्ताईस पारणाएँ जाननी चाहिए।।१०६।।
भाषा समिति में १. भाव सत्य २. उपमा सत्य ३. व्यवहार सत्य ४. प्रतीत सत्य ४. सम्भावना सत्य ६. जनापद सत्य ७. संवृत्ति सत्य ८. नाम सत्य ९. स्थापना सत्य और १०. रूप सत्य इन दश प्रकार के सत्य वचनों का नौ कोटियों से पालन करना पड़ता है। इस अभिप्राय को लेकर भाषा समिति में नब्बे उपवास होते हैं तथा इतनी ही पारणाएँ होती हैं।।१०७।।
और एषणा समिति में नौ कोटियों से लगने वाले छियालिस दोषों को नष्ट करने के लिए चार सौ चौदह उपवास होते हैं तथा उतनी ही पारणाएँ होती हैं।।१०८।।
इस प्रकार तेरह प्रकार के चारित्र को शुद्ध रखने के लिए चारित्रशुद्धि व्रत में सब मिलाकर एक हजार दो सौ चौंतीस उपवास कहे हैं तथा इतनी ही पारणाएँ कही गई हैं। इस व्रत में छह वर्ष दश माह आठ दिन लगते हैं।।१०९।।
इस प्रकार १२३४ उपवास व इतने ही पारणे होते हैं।
विधि-प्रथम उपवास प्रथम पारणा, द्वितीय उपवास द्वितीय पारणा, तीसरा उपवास तीसरा पारणा, इस प्रकार आगे-आगे करते रहने से यह व्रत ६ वर्ष १० महीने और ८ दिन में पूर्ण होता है और महीने में १० उपवास करने पर १० वर्ष साढ़े तीन मास में पूर्ण होते हैं।
कदाचित् ऐसी शक्ति न हो तो बीच-बीच में भी उपवास किये जा सकते हैं और २५-३० वर्ष में समाप्त किये जा सकते हैं पर उपवासों की संख्या कुल १२३४ होनी चाहिए।
जो महानुभाव इस व्रत को निरतिचार पालन करते हैं उनके १३ प्रकार का निर्मल चारित्र पलता है। इस व्रत का विधान हरिवंशपुराण के ३४वें सर्ग से लिया गया है।
मगध देश में राजगृही नगर का स्वामी राजा श्रेणिक न्यायपूर्वक राज्य शासन करता था। उसकी परम सुन्दरी और जिनधर्मपरायण श्रीमती चेलना पट्टरानी थी, सो जब विपुलाचल पर महावीर भगवान का समवसरण आया, तब राजा प्रजा सहित वंदना को गया और वंदना-स्तुति करके मनुष्यों की सभा में बैठकर धर्मोपदेश सुनने लगा।
पश्चात् राजा ने पूछा-हे प्रभु! षोडशकारण व्रत से तो तीर्थंकर पद मिलता ही है, परन्तु क्या अन्य प्रकार से भी मिल सकता है, सो कृपाकर कहिए। तब गौतम स्वामी ने कहा-राजन् सुनो! जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अवन्ती देश है, वहाँ उज्जयिनी नगरी है, जहाँ हेमवर्र्मा राजा अपनी शिवसुन्दरी रानी सहित राज्य करता था।
एक दिन राजा वनक्रीड़ा करने को वन में गया था और वहाँ चारण मुनिराज को देखकर नमस्कार किया तथा मन में समताभाव धरकर विनय सहित पूछने लगा-भगवन्! कृपा करके बताइये कि मैं किस प्रकार तीर्थंकर पद प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करूँ? तब श्री गुरु ने कहा-राजन्! तुम बारह सौ चौंतीस व्रत करो। यह व्रत भादों सुदी १ से प्रारंभ होता है इसमें १२३४ उपवास करना चाहिए। एक महीने में १० उपवास करने पर यह व्रत दश वर्ष और साढ़े तीन माह में पूरा होता है। व्रत के दिन आरंभ परिग्रह का त्याग कर भक्ति और पूजन में निमग्न रहे और ‘ॐ ह्रीं असिआउसा चारित्रशुद्धिव्रतेभ्यो नम:’ इस मंत्र का १०८ बार जाप करें। जब व्रत पूरा हो जावे, तब उद्यापन करें।
झारी, थाली, कलश आदि उपकरण चैत्यालय में भेंट करें, चौंसठ ग्रंथ बांटे, चार प्रकार का दान करे तथा १२३४ लाडू श्रावकों के घर बांटे, पाठशालादि स्थापन करे इत्यादि और यदि उद्यापन की शक्ति न होवे तो दूना व्रत करें।
इस प्रकार राजा ने व्रत की विधि सुनकर उसे यथाविधि पालन किया व उद्यापन भी किया।अन्त में समाधिमरण करके अच्युत स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से चयकर वह विदेह क्षेत्र के विजयापुरी में धनंजय राजा के चन्द्रभानु नाम का तीर्थंकर पदधारी पुत्र हुआ। उसके गर्भादिक पाँच कल्याणक हुए।इस प्रकार राजा हेमवर्मा स्वर्ग के सुख भोगकर तीर्थंकर पद प्राप्त करके इस व्रत के प्रभाव से मोक्ष गया। इसलिए हे श्रेणिक! तीर्थंकर पद प्राप्त करने के लिए यह व्रत भी एक साधन है।यह सुनकर राजा श्रेणिक ने भी श्रद्धासहित इस व्रत को धारण किया और षोडशकारण भावनाएँ भी भायीं सो तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अब आगामी चौबीसी में वे प्रथम तीर्थंकर होकर मोक्ष जावेंगे। इस प्रकार और भी जो भव्य जीव इस व्रत का पालन करेंगे, वे भी उत्तमोत्तम सुखों को पाकर मोक्षपद प्राप्त करेंगे।