परमपूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी के जीवन परिचय को प्रारंभ करते हुए मुझे अत्यन्त गौरव हो रहा है कि एक ही माँ से उत्पन्न हम तीन बहनें (गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी, पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी, मैं-आर्यिका चन्दनामती) पूर्व जन्म के किसी विशेष पुण्य के कारण दीक्षा लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करने में तत्पर हैं।
किसी कवि ने कहा है-
सत् नारी का बलिदान कभी, इस जग में व्यर्थ नहीं जाता।
उनके बलिदानों के बल पर, हर देश नया गौरव पाता।।
वास्तव में जब-जब नारी ने अपनी बलिदानी शक्तियों का उपयोग किया, तब-तब इस धरती पर क्रान्तिकारी परिवर्तन देखने को मिले हैं, युद्धक्षेत्र में बलिदान, सामाजिक क्षेत्र में कर्तव्य एवं पारिवारिक स्थिति में पातिव्रत्य धर्म का परिपालन करके जहाँ नारी ने अपने सम-सामयिक धर्म का परिचय प्रदान किया है, वहीं त्याग के क्षेत्र में भी अनेक गौरवमयी उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इसी शृँखला में पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना करते हुए महान आदर्श उपस्थित किया है।माता मोहिनी के द्वारा प्रदत्त १३ रत्नों में से अभयमती माताजी पाँचवीं सन्तान हैं। सन् १९४२ में आपका जन्म हुआ। पिता श्री छोटेलाल जी को प्रारंभ से ही कन्याओं के प्रति अत्यन्त स्नेह था। उनके हृदय में हमेशा यह भाव रहता था कि पुत्र तो कदापि आगे चलकर माँ-बाप से नाता तोड़ सकता है किन्तु कन्या के हृदय में पराये घर जाकर भी माँ-बाप के प्रति जो स्नेह होता है, वह सच्चा होता है। अपनी इस पुत्री का नाम भी उन्होंने बड़े प्यार से ‘मनोवती’ रखा।मनोवती ज्यों-ज्यों बड़ी होती गई, माँ के धार्मिक संस्कारों को ग्रहण करने लगी। गाँव का प्राकृतिक वातावरण, घर का स्नेहिल वातावरण, पाठशाला का धार्मिक वातावरण सब कुछ उसके हृदय में प्रवेश कर गया। ४-५ क्लास तक लौकिक अध्ययन के बाद वहाँ उस समय कोई साधन नहीं था अत: दस-ग्यारह वर्ष की उम्र के बाद लड़की के लिए घर ही विद्यालय के रूप में होता था। घर के कामकाज से जब फुर्सत मिलती तो माँ कहतीं कि शीलकथा, दर्शनकथा पढ़ो। उनको पढ़ते-पढ़ते ही मानों आपने अपने मनोवती नाम को सार्थक करने का दृढ़ निश्चय कर लिया था कि ‘‘अपनी प्रतिज्ञा पर हमेशा दृढ़ रहना।’’
जब १९५२ में आपकी बड़ी बहन मैना ने अनेक संघर्षों को सहन करके त्यागमार्ग पर कदम रखा, उस समय उनके इस साहस को आपने भी देखा था। आपका जीवन प्रारंभ से ही अत्यन्त सादगीपूर्ण रहा। बच्चों की स्वाभाविक चंचलता से दूर हमेशा गंभीर मुद्रा, शान्त स्वभावी, धार्मिक अध्ययन ही आपके जीवन का मूल अंग बन चुका था। हमेशा मन में यही भावना रहती कि किसी तरह ज्ञानमती माताजी के पद चिन्हों पर मैं भी चलूँ।समय बीतता जा रहा था। आपकी भावनाओं को साकार रूप मिलने की काललब्धि आई। सन् १९६२ में आप अपनी माँ और सबसे छोटे भाई रवीन्द्र कुमार के साथ लाडनू (राज.) में आचार्य शिवसागर जी महाराज के संघ के दर्शन करने गर्ईं। पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी उसी संघ में थीं। फिर क्या था, आपने दृढ़तापूर्वक आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेने का कदम उठाया। माँ ने बहुत समझाया, लेकिन सब बेकार, ऐसे स्वर्ण अवसर को पाकर आप कब चूकने वाली थीं अत: ब्रह्मचर्य व्रत लेकर पूज्य माताजी के पास ही स्वाध्याय-अध्ययन-वैयावृत्ति आदि करने लगीं।सन् १९६२ में ही आर्यिका ज्ञानमती माताजी आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से आज्ञा लेकर सम्मेदशिखर यात्रा के लिए निकल पड़ीं। साथ में आर्यिका जिनमती जी, पद्मावती जी, आदिमती जी एवं क्षुल्लिका श्रेयासंमती जी, ये ४ साध्वियाँ थीं जो पूज्य माताजी की ही शिष्याएँ थीं। साधु के विहार में कुशल संघ संचालक की भी आवश्यकता होती है। बिना श्रावकों के उनकी गाड़ी सुचारूरूप से नहीं चल सकती इसीलिए साधु और श्रावक ये दोनों धर्मरूपी गाड़ी के दो पहिये कहे गये हैं। सम्मेदशिखर की यात्रा के समय ब्रह्मचारी श्री सुगनचंद जी एवं ब्रह्मचारिणी मनोवती जी ने कुशलतापूर्वक संघ संचालन किया।
सम्मेदशिखर की यात्रा-उस यात्रा के मध्य एक दिन घर में मनोवती का पत्र आया। उसे पहले पिताजी ने पढ़ा पुन: सबको सुनाया। उसमें विस्तार से लिखा हुआ था कि-
पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सम्मेदशिखर जी की यात्रा के लिए विहार कर चुका है। संघ में आर्यिका पद्मावती जी, आर्यिका जिनमती जी, आर्यिका आदिमती जी, क्षुल्लिका श्रेयांसमती माताजी ऐसी चार साध्वियाँ हैं। ब्र. सुगनचंद जी संघ की व्यवस्था में प्रमुख हैं। उनकी एक बहन ब्रह्मचारिणी जी साथ में हैं। एक महिला मूलीबाई और ब्र.भंवरीबाई भी साथ में हैं। जयपुर से एक श्रावक सरदारमल जी साथ में हैं। एक चौका ब्र.सुगनचंद जी का है और एक मेरा है। हम लोग कल यहाँ मथुरा में पहुँचे हैं। संघ यहाँ से आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, कन्नौज, कानपुर, लखनऊ होते हुए अयोध्या पहुँचेगा। टिवैâतनगर यद्यपि कुछ बाजू में है फिर भी मेरी इच्छा है कि संघ का पदार्पण टिवैâतनगर अवश्य हो। संघ में मुझे कुछ असुविधाएँ हो जाती हैं, चूँकि सरदारमल जी माताजी के साथ चलते हैं अत: मैं चाहती हूँ कि यात्रा में भाई प्रकाशचंद को आप भेज दें तो मुझे बहुत ही सुविधा रहेगी। माताजी ने भी ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों को नियम दे दिया है कि शिखर जी पहुँचने तक रास्ते में कोई किसी श्रावक से पैसा या कोई वस्तु नहीं लेना। कोई कुछ देना चाहे तो कह देना कि आप संघ में दो-चार दिन रहकर स्वयं कुछ कर सकते हैं, हम लोग कुछ नहीं लेंगे। मात्र बैलगाड़ी की व्यवस्था इस गाँव से अगले गाँव तक गाँव वालों से ही कराने की छूट कर दी है। इसलिए मेरी सारी व्यवस्था संभालने के लिए प्रकाश का आना आवश्यक है।’’
साथ ही प्रकाशचंद को भेजने के लिए एक तार भी घर में पहुँचा।
पत्र और तार का समाचार सुनने के बाद माँ मोहिनी ने सोचा-
‘‘ये प्रकाश को क्या भेजेंगे, मैं कुछ न कुछ प्रयत्न कर भेजने का प्रयास करूँ।’’
किन्तु हुआ इससे विपरीत, पिताजी बहुत ही प्रसन्न थे और बोले-
‘‘देखो, कुछ नाश्ता-वाश्ता बना दो, प्रकाश जल्दी चला जाये। बिटिया मनोवती को रास्ते में बहुत कष्ट होता होगा।’’
माँ का हृदय गद्गद हो गया। पिता ने उसी समय प्रकाश को बुलाकर सारी बात समझा दी और बोले-
‘‘जाओ, कुछ दिन मनोवती के साथ विहार की व्यवस्था में भाग लेवो। बाद में व्यवस्था अच्छी हो जाने के बाद जल्दी से चले आना।’’
साथ में रुपयों की व्यवस्था भी कर दी और बोले-
‘‘बेटा! अपने खेत का चावल एक बोरी लेते जाना।’’
सारी व्यवस्था लेकर प्रकाश मथुरा पहुँच गये। पुन: संघ वहाँ से विहार करते-करते लखनऊ पहुँचा। टिवैâतनगर के श्रावकों ने इस आर्यिका संघ को टिवैâतनगर चलने का आग्रह किया। माताजी ने स्वीकार कर टिवैâतनगर पदार्पण किया। वहाँ माँ और पिताजी बहुत ही प्रसन्न हुए। आर्यिका अवस्था में ज्ञानमती माताजी अपनी जन्मभूमि में दस वर्ष बाद पहुँची थीं। संघ वहाँ ५-६ दिन रहा, अच्छी प्रभावना हुई। जैनेतरों ने भी माताजी के दर्शन कर अपने को और अपने गाँव को धन्य माना। यहाँ पर मनोवती और प्रकाश अपने घर में ही ठहरे थे, वहीं चौका चल रहा था। अब पिताजी का मोह पुन: जाग्रत हुआ, उन्होंने कु. मनोवती और प्रकाश दोनों को भी आगे नहीं जाने के लिए कहा और रोकना चाहा।
तब पूज्य ज्ञानमती माताजी ने कहा-
‘‘बीच में अधूरी यात्रा में इन्हें क्या पुण्य मिलेगा? पूरी यात्रा तो करा देने दो।’’
एक दिन पिता ने दोनों को (प्रकाशचंद और मनोवती) बिठाकर रास्ते के अनुभव पूछना शुरू किया। अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों के मध्य ही मनोवती ने बताया-
‘‘प्रतिदिन प्रात: जब हमारी बैलगाड़ी ७-८ बजे गंतव्य स्थान पर पहुँचती है, तब कपड़े सुखाते हैं पुन: कपड़े सूखने पर चौका बनाते हैं और कई बार देर हो जाने पर हम लोग इतनी भयंकर सर्दी में भी गीले कपड़े पहनकर ही रसोई बनाते हैं।’’
मनोवती की संघ सेवा, कुशलता और योग्यता को देखकर पिताजी बहुत ही प्रसन्न थे, उन्होंने पूछा-
‘‘बिटिया! तुम्हें खाना कितने बजे मिलता है?’’
‘‘खाना प्रतिदिन १२-१ बजे खाती हूँ।’’
तब पिताजी ने कहा-
‘‘बेटी! तुम घर में ४-५ बार खाती थीं और रास्ते में केवल एक बार भोजन मिलता है अत: अब संघ में नहीं जाना, नहीं तो बहुत कमजोर हो जाओगी।’’
किन्तु मनोवती जिद करके पुन: संघ के साथ चल दीं और जगह-जगह के प्राकृतिक वातावरण में आत्मसाधना करते हुए संघ ६ महीने में सम्मेदशिखर पहुँच गया। २० तीर्थंकरों तथा करोड़ों मुनियों की निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर का तो कण-कण पवित्र है ही, पूज्य माताजी के साथ सभी लोग वहाँ के दर्शनों का व विशाल पर्वत की वंदना का पुण्य अर्जित करने लगे।
मैंने पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी से कई बार सुना है कि आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहा करते थे कि सम्मेदशिखर से बढ़कर अन्य कोई तीर्थ नहीं है, गोम्मटेश्वर भगवान बाहुबलि से सुन्दर अन्य कोई मूर्ति नहीं है और आचार्यश्री शांतिसागर जी से बढ़कर इस युग में अन्य कोई साधु नहीं हुआ अत: कु. मनोवती ने भी पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के साथ सम्मेदशिखर तीर्थ पर रहकर बहुत सी वन्दनाएँ कीं।
मोह से पिता की विक्षिप्तता-सम्मेदशिखर में एक दिन कु. मनोवती के विशेष आग्रह से माताजी ने उनके केशों का लोंच करना शुरू कर दिया। वह चाहती थी कि मुझे दीक्षा लेना है तो केशलोंच का एक दो बार अभ्यास कर लूँ, इसी भाव से वह केशलोंच करा रही थीं। संयोग से उस समय उनके माता-पिता भी दर्शन करने शिखर जी गये हुए थे अत: माताजी ने सोचा-
‘‘ये लोग यहाँ ठहरे हुए हैं तो बुला लूँ। केशलोंच देख लें………।’’
ऐसा सोचकर माताजी ने उन्हें सूचना भिजवा दी। पिताजी वहाँ कमरे में आये, देखा कु. मनोवती के केशों का लोंच, वे एकदम घबरा गये और हल्ला मचाते हुए जल्दी से अपने कमरे में भागे। वहाँ पहुँचकर अपनी पत्नी मोहिनी जी से बोले-
‘‘अरे! देखो, देखो, माताजी हमारी बिटिया मनोवती के शिर के केश नोचें डाल रही हैं। चलो, चलो, जल्दी से रोको।’ और ऐसा कहते हुए वे रो पड़े। माँ दौड़ी हुई वहाँ आईं और बोलीं-
‘‘माताजी! आपने यह क्या किया? देखो, इसके पिताजी तो पागल जैसे हो रहे हैं और रो रहे हैं। उनके सामने आप इसका लोंच न करके बाद में भी कर सकती थीं।’’
उनकी ऐसी बातें सुनकर सभी माताजी हँसने लगीं और बोलीं-
‘‘भला केशलोंच देखने में घबराने की क्या बात है? मैं भी सदा अपने केशलोंच करती हूँ।….’’
पुन: पिताजी वहीं आ गये और बोले-
‘‘अरे, अरे, छोड़ दो माताजी! मेरी बिटिया मनोवती को छोड़ दो, इसके बाल न नोंचो, देखो तो इसका सिर लाल-लाल हो गया है।…….’’
परन्तु उनकी बातों पर लक्ष्य न देकर माताजी हँसती रहीं, कु. मनोवती के केशों का लोेंच करती रहीं। मनोवती भी हँस रही थीं और मौन से ही संकेत से पिताजी को सान्त्वना दे रही थी कि-
‘‘पिताजी! मुझे कष्ट नहीं हो रहा है। मैं तो हँस रही हूँ फिर आप क्यों दु:खी हो रहे हो और क्यों अश्रु गिरा रहे हो?’’
माताजी ने भी उन्हें सान्त्वना दी। लोंच पूरा होने के बाद मनोवती ने कहा-
‘‘मैंने तो स्वयं ही आग्रह किया था। मैं एक वर्ष से माताजी से प्रार्थना कर रही थी। बड़े भाग्य से ही आज तीर्थराज पर ऐसा अवसर मिला है। अब मुझे विश्वास हो गया है कि मैं भी एक दिन आर्यिका बन सकती हूँ।’’
पिताजी उसे अपने कमरे में ले गये, खूब समझाया और बोले-
‘‘बिटिया! तुम अब इनके साथ मत रहो, थोड़े दिन घर चलो। बाद में फिर जब कहोगी, तब वैâलाश के साथ भेज देंगे……..।’’
लेकिन इधर माताजी के संघ का श्रवणबेलगोल यात्रा के लिए प्रोग्राम बन चुका था अत: वो पिताजी के साथ घर जाने को राजी नहीं हुईं और पिताजी को समझाकर संघ में ही रह गईं, पुन: माता-पिता वापस घर चले गये।
क्षुल्लिका दीक्षा-सन् १९६३ में ज्ञानमती माताजी का संघ सहित चातुर्मास कलकत्ता में हुआ। मनोवती के हृदय में दीक्षा लेने की इच्छा तो प्रारंभ से ही थी लेकिन अभी तक कोई योग नहीं मिल रहा था। पूज्य माताजी की आज्ञानुसार आप कलकत्ता से गिरनार यात्रा को गईं। वहाँ से आने के बाद कुछ ही दिनों में संघ कलकत्ता से विहार करके हैदराबाद आया। आपकी दीक्षा की अति उत्कृष्ट भावना को देखते हुए पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सन् १९६४ में श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन हैदराबाद में आपको क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान की। उस समय आपकी दीक्षा का दृश्य भी अद्भुत एवं अद्वितीय था जो हैदराबाद के इतिहास में अविस्मरणीय हो गया। अब आप कु. मनोवती से क्षुल्लिका अभयमती बन गईं। संघ विहार करके भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य श्रवणबेलगोल में पहुँच गया। इस प्रथम पदयात्रा में आपको विशेष शारीरिक कष्ट रहा और वहाँ आप गंभीररूप से बीमार रहीं। पूज्य ज्ञानमती माताजी ने संघ सहित एक वर्ष तक वहाँ विराजमान रहकर बाहुबली के चरणों में खूब ध्यान किया। यह वही भूमि है, जहाँ उनके मस्तिष्क में जम्बूद्वीप रचना को साकार करने की भावना जागृत हुई थी। अपनी यात्रा पूर्ण करके माताजी कुछ दिनों बाद ही आचार्य शिवसागर जी महाराज के संघ में आ गईं। क्षुल्लिका अभयमती जी भी उन्हीं के साथ रहकर अध्ययन तथा रत्नत्रय साधना करती रहीं।
आचार्य शिवसागर जी महाराज की उदारता-सन् १९६८, प्रतापगढ़ (राज.) में चातुर्मास के मध्य एक दिन क्षुल्लिका अभयमती की किन्हीं माताजी के साथ कुछ कहा-सुनी हो गई। बात उसी क्षण महाराज जी के पास आ गई। आचार्य महाराज ने दोनों साध्वियों को ७-७ दिन के लिए रसों का परित्याग करा दिया। उस समय माँ मोहिनी वहाँ संघ में चौका लेकर गई हुई थीं, इस घटना के दो दिन बाद माँ मोहिनी सहसा आचार्य महाराज के पास जाकर बैठ गईं और काफी देर तक बैठी ही रहीं किन्तु कुछ भी बोली नहीं।दूसरे दिन आचार्य महाराज ने आहार को निकलते समय क्षुल्लिका अभयमती को अपने साथ आने का संकेत कर दिया। वह आचार्यश्री के पीछे-पीछे चली गईं। महाराज जी सीधे माँ मोहिनी के सामने जाकर खड़े हो गये। अभयमती जी भी वहीं खड़ी हो गईं। माँ-पिता ने बड़ी भक्ति से आचार्यश्री की प्रदक्षिणा देकर उन्हें चौके में ले जाकर नवधाभक्ति की। क्षुल्लिका अभयमती को भी पड़गाहन कर चौके में बिठाया। आचार्यश्री की थाली परोस जाने के बाद उन्होंने दूसरी थाली परोसने को भी संकेत किया। माँ को उनके रस परित्याग की बात मालूम थी अत: वे नीरस परोसने लगीं। तभी महाराज ने संकेत कर उस थाली में दूध, घी आदि रस रखवा दिया। पुन: महाराज जी का आहार शुरू हो गया। बाद में महाराज ने अभयमती जी को भी दूध, घी, नमक, लेने का संकेत किया। गुरुदेव की आज्ञानुसार अभयमती जी ने आहार में दूध, घी आदि रस ले लिया। माता-पिता आचार्यदेव की इस उदारता को देखकर बहुत ही आश्चर्यान्वित हुए। मध्यान्ह में जाकर माँ मोहिनी ने सारी बातें पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को सुना दीं और बोलीं-
‘‘देखो माताजी, आचार्यश्री ने गलती पर अनुशासन भी किया और मैं कल मध्यान्ह में देर तक उनके पास बैठी रही थी। शायद इससे मेरे हृदय में इसके त्याग का दुख जानकर ही आज स्वयं मेरे चौके में आचार्य महाराज भी आये और अभयमती को भी लाकर उन्हें आहार में घी-दूध आदि रस दिला दिया। सच में गुरु का हृदय कितना करुणार्द्र होता है!’’
आर्यिका दीक्षा-सन् १९६९ फाल्गुन का महीना था, आचार्य श्री शिवसागर महाराज का संघ विहार करता हुआ ‘‘श्री महावीर जी’’ अतिशय क्षेत्र पर पहुँच गया। वहाँ ‘‘शांतिवीर नगर’’ में विशाल जिनबिंब पंचकल्याणक होने वाला था। आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज उस समय संघ के अधिनायक थे। पंचकल्याणक का अवसर निकट आ रहा था कि आचार्यश्री बीमार पड़ गये। उन्हें बुखार आ गया और देखते ही देखते फाल्गुन वदी अमावस्या को वे बड़ी शांतिपूर्वक स्वर्गस्थ हो गये। इस आकस्मिक निधन से संघ में खलबली मच गई, सारे साधु निराश हो गये किन्तु फाल्गुन सुदी अष्टमी को मुनि धर्मसागर जी को आचार्यपट्ट प्रदान किया गया और उन्होंने सारा भार संभाला, पंचकल्याणक सम्पन्न कराया। उसी दिन आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज के करकमलों से कई दीक्षाएँ सम्पन्न हुईं, उसी में क्षुल्लिका अभयमती जी को आर्यिका अभयमती के रूप में सर्वप्रथम आचार्यश्री ने दीक्षा प्रदान की थी। तब से आर्यिका अभयमती माताजी अपने २८ मूलगुणों का पालन करती हुई आत्मकल्याण में तत्पर हैं।
पिता छोटेलाल जी ने भी उनकी आर्यिका दीक्षा देखी-यहाँ पाठकों के लिए यह विशेष ज्ञातव्य है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी ने जब क्षुल्लिका दीक्षा तथा आर्यिका दीक्षा ली, तब घर में किसी प्रकार की सूचना न होने से माता-पिता आदि कोई भी परिवारीजन उनकी दीक्षा देखने का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर सके थे तथा कु. मनोवती की क्षुल्लिका दीक्षा के समय भी घर में कोई समाचार नहीं भेजा गया था परन्तु जब क्षुल्लिका अभयमती जी की आर्यिका दीक्षा होने वाली थी, तब संघस्थ ब्र. मोतीचंद जी (वर्तमान में क्षुल्लक मोतीसागर जी) ने एक पत्र वैâलाशचंद जी (टिवैâतनगर) के नाम लिखा था कि-
‘‘संघ यहाँ महावीर जी क्षेत्र पर विराजमान है, फाल्गुन सुदी में शांतिवीर नगर में भगवान शांतिनाथ की विशालकाय प्रतिमा का पंचकल्याणक महोत्सव होने जा रहा है। इस अवसर पर अनेक दीक्षाओं के मध्य क्षुल्लिका अभयमती जी की आर्यिका दीक्षा अवश्य होगी अत: आप माँ और पिताजी को अंतिम बार उनकी इस दीक्षा के माता-पिता बनने का लाभ न चुकावें। अवश्य आ जावें।’’
उस समय यद्यपि पिताजी को पीलिया के रोग से काफी कमजोरी चल रही थी, वे प्रवास में जाने के लिए समर्थ नहीं थे, फिर भी माँ ने आग्रह किया कि-
‘‘यह अंतिम पुण्य अवसर नहीं चुकाना है। भगवान महावीर स्वामी की कृपा से आपको स्वास्थ्य लाभ होगा। हिम्मत करो, भगवान, तीर्थ और गुरुओं की शरण में जो होगा, सो ठीक ही होगा…….।’’
वैâलाशचंद जी ने भी साहस किया। रुग्णावस्था में पिता को साथ लेकर माँ की मनोकामना पूर्ण करने के लिए महावीर जी पहुँच गये।
माँ मोहिनी की मनोभावना पूर्ण हुई-यहाँ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को भगवान के तपकल्याणक दिवस संघस्थ ज्येष्ठ मुनिश्री धर्मसागर जी को चतुर्विध संघ के समक्ष आचार्यपद प्रदान किया गया और नवीन आचार्य के करकमलों से उसी दिन ग्यारह दीक्षाएँ हुईं। वैâलाशचंद जी इतनी भीड़ में भी पिताजी को सभा में ले आये। उन्होंने दीक्षाएँ देखीं और क्षुल्लिका अभयमती की आर्यिका दीक्षा में माता-पिता के पद को स्वीकार कर उनके हाथ से पीताक्षत, सुपारी, नारियल आदि भेंट में प्राप्त किये, इस लाभ से वे बहुत ही प्रसन्न हुए।
पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने २ वर्ष तक आचार्य संघ एवं पूज्य ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में रहते हुए रत्नत्रयसाधना एवं ज्ञानाराधना की पुन: सन् १९७१ में अपनी माँ मोहिनी की दीक्षा देखने के पश्चात् अजमेर (राज.) से बुंदेलखण्ड की यात्रा हेतु संघ से पृथक् विहार किया। कई वर्षों तक बुंदेलखण्ड की यात्रा करते हुए वहाँ स्थान-स्थान पर महिला मण्डल एवं स्वाध्याय मण्डल की स्थापना की और कई पुस्तकों का लेखन व पद्यानुवाद कार्य भी किया।निरन्तर ४३-४४ वर्षों से अपनी साध्वी चर्या का पालन करते हुए आप अपने रुग्ण शरीर से भी धर्मप्रभावना एवं ग्रंथ लेखन आदि कार्य करती रहती हैं। पूज्य माताजी स्वस्थ एवं चिरायु होकर इसी प्रकार दीर्घकाल तक सभी को अपना सानिध्य प्रदान करती रहें, यही भगवान जिनेन्द्र से प्रार्थना है।पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी का किस प्रकार संघ में प्रवेश हुआ तथा उनकी दीक्षाग्रहण करने की उत्कट भावना वैâसे सफल हुई? इसका वर्णन पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘‘मेरी स्मृतियाँ’’ ग्रंथ में सजीवता से किया है, वह प्रकरण भी यहाँ ज्यों की त्यों उद्धृत किया जा रहा है-
मनोवती के मनोरथ फले-
मनोवती अस्वस्थ चल रही थी। डाक्टर का इलाज चल रहा था किन्तु कोई खास फायदा नहीं दिख रहा था। माँ मोहिनी एक बार लखनऊ गईं। वहाँ चौक के मंदिर में दर्शन करने पहुँचीं तो देखा, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की कुंकुमपत्रिका मंदिर जी में लगी हुई है। बारीकी से पढ़ने लगीं। विदित हुआ, इस समय आचार्य शिवसागर जी का संघ लाडनूं राजस्थान में है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का अवसर है, वहाँ पर आर्यिका ज्ञानमती जी भी हैं। मन में सोचने लगीं-
‘‘यह मनोवती पाँच वर्ष से माताजी के लिए तड़फ रही है। इसका शरीर स्वास्थ्य इस मानसिक चिंता से ही खराब हो रहा है। इसको जब तक माताजी के दर्शन नहीं मिलेंगे, तब तक इसे कोई भी दवाई नहीं लगेगी।……यह मौका अच्छा है। पति से पूछने पर, पता नहीं वे कितने मोही जीव हैं, इसे संघ में ले जाने की अनुमति नहीं देंगे। मेरी समझ से तो अब मुझे इस मनोवती को माताजी के दर्शन करा देना चाहिए।’’
माँ मोहिनी के साथ उस समय रवीन्द्र कुमार नाम का सबसे छोटा पुत्र था। सोचा-
‘‘इसे ही साथ लेकर मैं क्यों न लाडनूं चली जाऊँ?’’
यद्यपि माँ मोहिनी ने Dााज तक कभी अकेले इस तरह रेल का सफर नहीं किया था, फिर भी साहस बटोर कर भगवान का नाम लेकर उन्होंने किसी विश्वस्त व्यक्ति से लाडनूं आने-जाने का मार्ग पूछ लिया और मनोवती पुत्री तथा रवीन्द्र पुत्र को साथ लेकर लाडनूं आ गईं, आचार्यश्री, संघस्थ साधुओं तथा मेरे दर्शन किये, मन शांत हुआ पुनः दूसरे ही क्षण घबराहट में मुझसे बोलीं-
‘‘मैं तुम्हारे पिता से न बताकर लखनऊ से ही सीधे इधर आ गई हूँ। अगर मैं घर नहीं पहुँचूँगी, तब लोग चिंता करेंगे।’’
मैंने सारी स्थिति समझ ली। शीघ्र ही ब्र. श्रीलाल जी को बुलाया और सारी बात बता दी तथा घर का पता बताकर कहा कि-
‘‘इनके घर तार दे दो कि ये लोग सकुशल यहाँ प्रतिष्ठा देखने आ गई हैं, चिंता न करें।’’
ब्र. श्रीलालजी ने उनके घर तार दे दिया। अब उन्होंने यहाँ रहकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा देखी और प्रतिदिन आहार दान का लाभ लेने लगीं।
मनोवती की खुशी का क्या ठिकाना? मानों उसे सब कुछ मिल गया है। वह मेरे दर्शन कर अपने को धन्य मानने लगी। मेरे पास बैठकर उसने अपने ४-५ वर्ष के मनोभाव सुनाये और कहने लगी-
‘‘माताजी! अब मैं घर नहीं जाऊँगी। अब तो आप मुझे यहीं पर दीक्षा दिला दो।
मैंने समझाया, सान्त्वना दी और कहा-
‘‘बेटी मनोवती! अब तुम संघ में आ गई हो, खूब धार्मिक अध्ययन करो, व्याकरण पढ़ो, दीक्षा भी मिल जायेगी। धीरे-धीरे सब काम हो जावेगा।’’
उस समय संघ में वयोवृद्धा और दीक्षा में भी सबसे पुरानी आर्यिका धर्ममती माताजी थीं। उनका मेरे प्रfित विशेष वात्सल्य था। उन्होंने इस कन्या मनोवती के ज्ञान की और वैराग्य की बहुत ही सराहना की तथा बार-बार माँ मोहिनी से कहने लगीं-
‘‘माँ जी! तुम्हारी कूँख धन्य है कि जो तुमने ऐसी-ऐसी कन्यारत्न को जन्म दिया है। देखो! ज्ञानमती माताजी के ज्ञान से सभी साधुवर्ग प्रभावित हैं। ये इतनी कमजोर होकर भी रात-दिन संघ में आर्यिकाओं को पढ़ाती ही रहती हैं। यह कन्या मनोवती भी देखो, कितने अच्छे भावों को लिये हुए है। सिवाय दीक्षा लेने के और कोई बात ही नहीं करती है। इसे भी तत्त्वार्थसूत्र आदि का अर्थ मालूम है, अच्छा ज्ञान है और क्षयोपशम भी बहुत अच्छा है, खूब पढ़ जायेगी। अब इसे हम लोग संघ में ही रखेंगे, घर नहीं भेजेंगे।’’
इन बातों को सुनकर मनोवती खुश हो जाती थी। एक दिन मेरे साथ आचार्य शिवसागर महाराज के पास पहुँचकर उसने नारियल चढ़ाकर दीक्षा के लिए प्रार्थना की। महाराज जी ने कहा-
‘‘अभी तुम आई हो, संघ में रहो, कुछ दिनों में दीक्षा भी मिल जायेगी।’’
किन्तु माँ मोहिनी घबराने लगीं, उन्होंने कहा-
‘‘यदि यह वापस घर नहीं चलेगी तो मुझे घर में रहना भी मुश्किल हो जायेगा। इसके पिता बहुत उपद्रव करेंगे।’’
तब सभी माताजी ने माँ को समझा-बुझाकर शांत कर दिया।
कुछ दिन संघ में रहने के बाद अब माँ मोहिनी घर वापस जाना चाहती थीं लेकिन मनोवती किसी भी तरह माँ के साथ घर जाने को तैयार नहीं थीं।
मनोवती का संघ में रहना-
अब मनोवती ने जिद पकड़ ली-
‘‘चाहे जो हो जाये, अब मैं घर नहीं जा सकती। कितनी मुश्किल से मुझे माताजी मिली हैं, अब मैं इन्हें नहीं छोड़ने की, मैं तो यहीं रहूँगी।’’
तब ब्र. श्रीलालजी ने माता मोहिनीजी को जैसे-तैसे समझाकर उनसे स्वीकृति दिलाकर कु. मनोवती को एक वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत आचार्य शिवसागरजी से दिला दिया और एक वर्ष तक उसे संघ में रहने की स्वीकृति दिला दी तथा मोहिनी जी को सान्त्वना देकर घर भेज दिया।
मोहिनीजी के पास लगभग २ वर्ष की छोटी सी कन्या थी। उसका नाम मैंने ‘‘त्रिशला’’ रखा था। मोहिनीजी अपनी इस कन्या को और रवीन्द्र कुमार को साथ लेकर ब्रह्मचारी जी के साथ अपने घर वापस चली गईं। सारे पुत्र-पुत्रियाँ माँ को देखते ही उनसे चिपट गये और कहने लगे-
‘‘माँ! तुम हमें छोड़कर माताजी के पास क्यों चली गयी थीं? बताओ, हम माताजी के दर्शन वैâसे करेंगे?’’
इधर जब पिता ने मनोवती को नहीं देखा, तो उनका पारा गरम हो गया और वे गुस्से से बोले-
‘‘अरे! मेरी बिटिया मनोवती कहाँ है? क्या तुम उसे ज्ञानमती के पास छोड़ आईं?’’
मोहिनीजी ने शांति से जवाब दिया-
‘‘वह पाँच वर्ष से रोते-रोते बीमार हो गयी थी, आखिर मैं कब तक अपना कलेजा पत्थर का रखती? अब मैं क्या करूँ?……..संघ की आर्यिकाओं ने मुझे खूब समझाया और उसे एक वर्ष तक के लिए संघ में रख लिया है। जब चाहे आप संघ में चले जाना, सब साधु-साध्वियों के और ज्ञानमती माताजी के दर्शन भी कर आना तथा जैसे प्रकाश को वापस बुला लिया था, वैसे ही उसे भी ले आना……….।’’
मनोवती की मनोभावना सफल हुई-
इधर हैदराबाद से किसी श्रावक का लिखा हुआ एक पत्र टिवैâतनगर पहुँचा-
‘‘आर्यिका ज्ञानमती माताजी अत्यधिक बीमार हैं।’’ माता-पिता बहुत दुःखी हुए। वैâलाशचंद जी को भेजा, ‘‘जाओ समाचार लेकर आओ, वैâसी तबियत है? वैâलाशचंद आये-देखा, मैं पाटे पर लेटी हुई हूँ और बोलने अथवा करवट बदलने की भी मेरी हिम्मत नहीं है पुनः दो-चार दिन बाद कुछ सुधार होने पर एक दिन मध्यान्ह में कु. मनोवती भाई वैâलाशचंद के पास बैठी-बैठी रोने लगी, बोली-
‘‘भाई साहब! मुझे दीक्षा दिला दो, अभी ८ दिन पूर्व भी माताजी वेâ बारे में सभी डाक्टर-वैद्यों ने जवाब दे दिया था, बोले थे, कि अब ये बचेंगी नहीं…..यदि माताजी को कुछ हो गया, तो मैं क्या करूँगी?
वैâलाशचंद जी ने बहुत कुछ सान्त्वना दी किन्तु उसे शान्ति नहीं मिली पुनः वह आकर मेरे पास रोने लगी और बोली-
‘‘मेरे भाग्य में दीक्षा है या नहीं? मैं कितने वर्षों से तड़प रही हूँ।’’ इतना कहकर उसने दीक्षा न मिलने तक छहों रस त्याग कर दिये। दो दिनों तक वह नीरस भोजन करती रही, तब वैâलाशचंद मेरे पास बैठे और बोले-
‘‘माताजी! इसे वैâसे समझाना?……’’
मैं धीरे-धीरे बोली-
‘‘वैâलाश! मैंने देखा है कि संघ में जिसके भाव दीक्षा के नहीं होते हैं, उसे वैâसी-वैâसी प्रेरणा देकर दीक्षा दी जाती है? किन्तु…..पता नहीं इसके किस कर्म का उदय है।……जो भी हो, यह बेचारी दीक्षा के लिए रो-रोकर आँखें सुजा लेती है। अब मुझे भी इसके ऊपर करुणा आ रही है।…. जब मेरे दीक्षा के भाव थे, तब मैंने भी तो पुरुषार्थ करके छह महीने के अंदर ही दीक्षा प्राप्त कर ली थी किन्तु इसे आज २-३ वर्ष हो गये हैंं। न इसके ज्ञान में कमी है न वैराग्य में, मात्र इसका शरीर अवश्य कमजोर है, फिर भी यह चारित्र में बहुत ही दृढ़ है, यह मैंने अनुभव कर लिया है अतः मेरी इच्छा है कि तुम अब इसके सच्चे भ्राता बनो…..।’
इतना सुनकर वैâलाशचंद का भी हृदय पिघल गया। वे बोले-
‘‘माताजी! आप जो भी आज्ञा दें, मैं करने को तैयार हूँ।…..मैं इसका रस परित्याग पूर्ण कराकर ही घर जाऊँगा।’’
मैंने कहा-
‘‘तुम आज ही पपौराजी (टीकमगढ़) चले जावो और इसकी दीक्षा हेतु आचार्य श्री शिवसागर जी से आज्ञा ले आवो। यह मेरे से ही दीक्षा लेना चाहती है।’’
वैâलाशचंद ने मेरी आज्ञा शिरोधार्य की। वहाँ से रवाना होकर टीकमगढ़ पहुँचे। आचार्यश्री को नमोऽस्तु करके यहाँ की सारी स्थिति सुना दी। सन् १९६४ का आचार्य संघ का यह चातुर्मास पपौरा तीर्थ पर हुआ था।
आचार्यश्री ने कहा-
‘‘मेरी आज्ञा है कि आर्यिका ज्ञानमती माताजी उसे क्षुल्लिका दीक्षा दे दें।
आज्ञा लेकर वैâलाशचंद वापस हैदराबाद आ गये। कु. मनोवती की खुशी का भला अब क्या ठिकाना!
मैंने श्रावण शुक्ला सप्तमी को भगवान पार्श्वनाथ का मोक्ष कल्याणक होने से उसी दिन दीक्षा देने के लिए सूचना कर दी। फिर क्या था, हैदराबाद के श्रावकों के लिए यहाँ दीक्षा देखने का पहला अवसर था। भक्तों ने बड़े उत्साह से प्रोग्राम बनाया, तीन दिन ही शेष थे। वैâलाशचंद ने खुली जीप में मनोवती की शोभायात्रा निकाली पुन: वहाँ के श्रावकों ने हाथी पर बिंदोरी निकाली थी। कु. मनोवती को रात्रि के १-२ बजे तक सारे शहर में घुमाया गया। श्रावक-श्राविकाएँ चन्दन के हार, नोटों की मालाएँ और पुष्पमालाओं से मनोवती को सम्मानित करते गये।
जाप्य का प्रभाव-
श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: से ही मूसलाधार बारिश चालू हो गई। ऐसा लगा-
‘‘खुले मैदान में दीक्षा का मंच बना है, दीक्षा वहाँ वैâसे होगी? जनता वैâसे देखेगी?….।’’
वैâलाश ने मेरे सामने समस्या रखी। मैंने एक छोटा सा मंत्र वैâलाश को दिया और बोली-
‘‘एक घंटा जाप्य कर लो और निश्चिंत हो जाओ, दीक्षा प्रभावना के साथ होगी।’’
ऐसा ही हुआ, दीक्षा के समय दिगम्बर जैन, श्वेताम्बर जैन और जैनेतर समाज की भीड़ बहुत ही अधिक थी।
इधर दीक्षा के एक घंटे पहले ही बादल साफ हो गये और आश्चर्य तो इस बात का रहा कि मुझमें बैठने की भी शक्ति नहीं थी, सो पता नहीं उस समय स्फूर्ति कहाँ से आ गई कि मैंने विधिवत् दीक्षा की क्रियायें एक घंटे तक स्वयं अपने हाथ से कीं और नवदीक्षिता क्षुल्लिका का नाम ‘‘अभयमती’’ घोषित किया, अनन्तर ५ मिनट तक जनता को आशीर्वाद भी दिया। दीक्षा विधि सम्पन्न होने के एक घंटे पश्चात् पुनः मूसलाधार वर्षा चालू हो गयी। तब सभी लोगों ने एक स्वर से यही कहा-
‘‘माताजी में बहुत ही अतिशय है।
तब मैंने कहा-‘‘मेरे में कुछ भी अतिशय नहीं है, अतिशय तो धर्म में है। वास्तव में, धर्म के प्रसाद से ही सर्व अमंगल दूर होते हैं और तो क्या? धर्म से ही मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है अतः धर्म पर ही श्रद्धा रखो।’’अगले दिन वैâलाशचंद ने सजल नेत्रों से क्षुल्लिका अभयमती माताजी को आहार दिया, उन्हें दूध, घी आदि रस देकर अपना मन संतुष्ट किया। अब उन्हें यह समाचार माता-पिता को सुनाने की आकुलता थी अतः मेरी आज्ञा लेकर उधर से भगवान बाहुबलि की (श्रवणबेलगोल) वन्दना करके वापस अपने घर पहुँच गये।
इधर मुझे भी स्वास्थ्य लाभ होता गया। उधर वैâलाशचंद के मुख से माता-पिता ने मेरी स्वस्थता सुनी तो खुश हुए किन्तु जब मनोवती की दीक्षा के समाचार सुने, तब माँ मोहिनी रो पड़ीं। वे बोलीं-
‘‘मैंने कौन से पापकर्म संचित किये थे कि जो अपनी दोनों पुत्रियों की दीक्षा देखने का अवसर नहीं मिल सका…..।’’
पिताजी को भी बहुत खेद हुआ किन्तु उस समय जाने-आने की इतनी परम्परा नहीं थी कि जो झट ही रेल से यात्रा करके आकर दर्शन कर जाते……अस्तु।’’
इस प्रकार के अनेकों संस्मरणों से समन्वित पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित ‘‘मेरी स्मृतियाँ’’ नामक आत्मकथारूप ग्रंथ समस्त पाठकों के लिए पठनीय है।