क्रियां कुर्वाणो वीर्योपगूहनमकृत्वा शक्त्यनुरूपत: स्थितेनाशक्त: सन् पर्यंकासनेन वा त्रिकरणशुद्ध्या संपुटीकृतकर: क्रियाविज्ञापनपूर्वकं सामायिक-दंडकमुच्चारयेत् , तदावर्त्तत्रयं यथाजातं शिरोन्नमनमेकं भवति, अनेन प्रकारेण सामायिकदंडकसमाप्तावपि प्रवर्त्य यथोक्तकालं जिनगुणानुस्मरणसहितं कायव्युत्सर्गं कृत्वा द्वितीयदण्डकस्यादावन्ते च तथैव प्रवर्त्तनं, एवमेवैकस्य कायोत्सर्गस्य द्वादाशावर्त्ताश्चत्वारि शिरोवनमनानि भवन्ति । अथवैकस्मिन् प्रदक्षिणीकरणे चैत्यादीनामभिमुखीभूतस्यावर्त्तत्रयैकावनमने कृते चतसृष्वपि दिक्षु द्वादशावर्त्ताश्चतस्र: शिरोवनतयो भवन्ति । आवर्त्तानां शिर:प्रणतीनामुक्तप्रमाणा-दाधिक्यमिति न दोषाय। उक्तं च –
दुउणदं जहाजादं वारसावत्तमेव च ।
चदुस्सिरं तिसुिंद्ध च किदियम्मं पउंजदे।।
परायत्तस्य सत: क्रियां कुर्वाणस्य कर्मक्षयो न घटते ,तस्मादात्माधीन: सच्चैत्यादीन् प्रतिवन्दनार्थं गत्वा धौतपादस्त्रिप्रदक्षिणीकृत्येर्यापथकायोत्सर्गं कृत्वा प्रथममुपविश्यालोच्य चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय जिनेन्द्र-चन्द्रदर्शनमात्रान्निजनयनचन्द्रकांतोपलविगलदानन्दाश्रुजलधारापूरपरिप्लावित-पक्ष्मपुटोऽनादिभवदुर्लभभगवदर्हत्परमेश्वरपरमभट्टारकप्रतिबिंबदर्शनजनित-हर्षोत्कर्षपुलकिततनुरतिभक्तिभरावनतमस्तकन्यस्तहस्तकुशेशयकुड्मलो दण्डकद्वयस्यादावन्ते च प्राक्तनक्रमेण प्रवृत्त्य चैत्यस्तवनेन त्रि:परीत्य द्वितीयवारे-ऽप्युपविश्याऽऽलोच्य पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय पंचपरमेष्ठिन: स्तुत्वा तृतीयबारेऽप्युपविश्याऽऽलोचनीय: । एवमात्माधीनता, प्रदक्षिणीकरणं, त्रिवारं, निष्पन्नत्रयं, चतु:शिरो, द्वादशावर्त्तकमिति क्रियाकर्म षड्विधं भवति । तत्र चतु:शिरो दंडकद्वयान्ते प्रणतौ प्रदक्षिणीकरणे च दिक्चतुष्टयावनतौ चतु:शिरो भवति अथवा शिर:शब्द: प्रधानवाची वन्दनाप्रधानभूता अर्हत्सिद्धसाधुधर्मा इति। उक्तं च राद्धान्तसूत्रे । ’’आदाहीणं पदाहीणं तिखुत्तं तिऊणदं चदुस्सिरं वारसावत्तं चेति।’’ एवं देवतास्तवनक्रियायां चैत्यभक्ति-पंचगुरुभक्तिं च कुर्यात्।
क्रिया करते समय अपनी शक्ति को कभी नहीं छिपाना चाहिये, अपनी शक्ति के अनुसार खड़े होकर कायोत्सर्ग करना चाहिये । यदि खड़े होने की सामर्थ्य न हो तो पर्यंकासन से बैठकर करना चाहिये । मन, वचन,काय तीनों की शुद्धतापूर्वक दोनों हाथों का संपुट बांधकर करने योग्य क्रियाओं की प्रतिज्ञा कर सामायिक दंडक के (सामायिक पाठ का) उच्चारण करना चाहिये । उस समय तीन आवर्त, यथाजात अवस्था धारण कर एक शिरोनति करना चाहिये । इसी प्रकार सामायिक दंडक के समाप्त होने पर भी सब क्रियाएं करनी चाहिये । इस तरह शास्त्रों में लिखे हुए समय तक भगवान् जिनेन्द्रदेव के गुणों का स्मरण करते हुए कायोत्सर्ग करना चाहिये । इसी प्रकार दूसरे दंडक के प्रारंभ और अंत में करना चाहिये। इस प्रकार एक-एक कायोत्सर्ग के बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं अथवा एक-एक प्रदक्षिणा में (दिशा बदलते समय ) उस दिशा संबंधी चैत्य-चैत्यालय के सन्मुख तीन आवर्त और एक शिरोनति करनी चाहिये । इस प्रकार चारों दिशाओं में बारह आवर्त और चार शिरोनति करनी चाहिये । आवर्त और शिरोनति का जो प्रमाण ऊपर लिखा है उससे अधिक करना कुछ दोष नहीं गिना जाता । कहा भी है-दुउणदं इत्यादि ।
अर्थात्-दो आसनों से यथाजात अवस्था धारण कर बारह आवर्त, चार शिरोनति और मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक काल का नियम कर प्रभु की वंदना करनी चाहिये।
जो पराधीन होकर क्रियाएं करता है उसके कर्मों का नाश कभी नहीं होता इसलिये केवल आत्मा के आधीन होकर जिनबिंब आदिकों की प्रतिवंदना के लिये जाना चाहिये । पैर धोकर, तीन प्रदक्षिणा देकर ईर्यापथ कायोत्सर्ग करना चाहिये । और फिर बैठकर आलोचना करनी चाहिये । तदनन्तर ‘‘मैं चैत्यभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ’’ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा खड़े होकर श्री जिनेन्द्रदेव रूपी चंद्रमा के दर्शन करने मात्र से अपने नेत्ररूपी चंद्रकांतमणि से निकलते हुए आनंदाश्रु की जलधारा के पूर से जिसके नेत्रों के दोनों पलक भीग गये हैं, अनादि संसार में दुर्लभ ऐसे भगवान अरहंत परमेश्वर परम भट्टारक के प्रतिबिंब के दर्शन करने से उत्पन्न हुए उत्कृष्ट हर्ष से जिसका शरीर पुलकित हो गया है तथा अत्यन्त भक्ति के भार से नम्रीभूत मस्तक पर जिसने अपने दोनों हाथरूपी कमलों का कुड्मल (जुड़े हुए हाथ) रख लिया है ऐसे उस कायोत्सर्ग करने वाले को दोनों दंडकों के आदि-अंत में पहिले कहे हुए क्रम से सब क्रियाएं करनी चाहिये । अर्थात् तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करनी चाहिये । फिर जिनबिंब की स्तुति करनी चाहिये । दूसरी बार भी बैठकर आलोचना करनी चाहिये तथा ‘‘मैं पंचगुरुभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ ’’ ऐसी प्रतिज्ञा कर खड़े होकर पांचों परमेष्ठियों की स्तुति करनी चाहिये । तीसरी बार भी बैठकर आलोचना करनी चाहिये । इस प्रकार आत्मा की स्वाधीनता, तीन प्रदक्षिणा करना, तीन बार बैठना, तीन शुद्धि, चार शिरोनति और बारह आवर्त इस प्रकार छह प्रकार का क्रियाकर्म कहलाता है। उसमें भी चार शिरोनति दोनों दंडकों के आदि-अंत में, प्रणाम करते समय, प्रदक्षिणा करते समय चारों दिशाओं में नमस्कार करते समय, इस तरह चार-चार करनी चाहिये । अथवा शिर शब्द का प्रधान है अरहंत, सिद्ध,साधु और धर्म । वंदना के योग्य ये चार ही प्रधान हैं। इन छह कर्मों के लिये राद्धांत सूत्र में भी लिखा है-‘‘आदाहीणं पदाहीणं तिखुत्तं तिऊणदं चदुस्सिरं वारसावत्तं चेति’’ अर्थात् आत्मा की स्वाधीनता (पदाहीणं) प्रदक्षिणा करना, (तिखुत्तं) त्रिबारशुद्धि, (तिऊणदं) तीन बार निषद्या या बैठना, (चदुस्सिरं) चार शिरोनति, (वारसावत्तं) बारह आवर्त-ये छह कर्म हैं। इस प्रकार देवता की स्तवन क्रिया करते समय चैत्यभक्ति और पंचगुरु की भक्ति करनी चाहिये।