‘‘भगवन्! धर्म क्या है ?’’
‘‘वत्स! चारित्र१ ही धर्म है और वह साम्यभाव या शमभावरूप है।’’
‘‘यह साम्य या शमभाव क्या है ?’’
‘‘यह आत्मा का मोह और क्षोभ रहित परिणाम है।’’
‘‘मोह और क्षोभ क्या बला है ?’’
‘‘दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ जो अतत्त्व श्रद्धानरूप परिणाम है अथवा पर वस्तु में अपनत्व करना ऐसा विपरीत अभिप्रायरूप परिणाम है उसे मोह कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न हुये अचारित्र हिंसा आदि पापरूप अथवा अपनी शुद्धात्मा में अविचल स्थिरता न होने रूप या आकुलतारूप जो आत्मा का परिणाम है वह ‘क्षोभ’ इस नाम से कहा जाता है।’’
‘‘साम्य और शम में क्या अंतर है ?’
‘‘दोनों ही एक भाव को कहने वाले हैं फिर भी शब्दों से अर्थ में जो अंतर हो जाता है उसे देखिये-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उदय से होने वाले संपूर्ण मोह और क्षोभ का अभाव हो जाने से जो आत्मा का अत्यन्त निर्विकार परिणाम है-परिपूर्ण स्वच्छता है उसी का नाम साम्य भाव है तथा अपनी आत्मा की भावना से उत्पन्न हुये सुखरूप अमृतमयी शीतल जल से काम, क्रोधादि रूप अग्नि से उत्पन्न हुये संसार दु:खों के दाह को जो उपशम करने वाला है वह ‘शमभाव’ है। मोह और क्षोभ का परिपूर्णतया विध्वंस करने वाला होने से शुद्धात्मा का शुद्ध परिणाम ही ‘शम’ इस नाम से कहा जाता है। दोनों ही सर्वथा मोहनीय के अभाव से होते हैं इसलिये दोनों का अभिप्राय एक ही है फिर भी शब्दों से अर्थ में अंतर दिख रहा है।’’
‘‘यह साम्य अवस्था कहाँ प्रगट होती है ?’’
‘‘दशवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का निर्मूल नाश कर देने के बाद बारहवें गुणस्थान में यह निर्विकार साम्य अवस्था प्रगट होती है।’’
‘‘तो पुन: आज इस पंचमकाल में चारित्र है ही नहीं, ऐसा अर्थ हो जाता है ?’’
‘‘नहीं, सर्वथा ऐसी बात नहीं है। आगे स्वयं भगवान कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि ‘धर्म२ से परिणत हुआ यह आत्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त है तो वह निर्वाण सौख्य को प्राप्त कर लेता है और यदि शुभोपयोग से युक्त होता है तो वह स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है।’ उसका स्पष्टीकरण श्रीजयसेनाचार्य करते हैं। यथा-‘धर्म शब्द से अहिंसा लक्षण धर्म, सागार और अनगार रूप धर्म तथा उत्तम क्षमादि रूप धर्म या रत्नत्रयरूप धर्म कहा जाता है तथा वस्तु स्वभाव को भी धर्म कहते हैं और वह मोह, क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही शुद्ध वस्तु स्वभावरूप है अर्थात् यहाँ पर धर्म के पाँच लक्षण किये हैं-
१. अिंहसा लक्षण धर्म है,
२. श्रावक और मुनि का जो कर्तृत्व है-अनुष्ठान है वह धर्म है,
३. उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश भेद रूप धर्म है,
४. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धर्म है तथा
५. वस्तु का स्वभाव धर्म है।’’
भगवन्! क्या ये पाँचों लक्षणरूप धर्म पूर्वोक्त साम्य भावरूप चारित्र में घटित हो सकते हैं ?
’‘हाँ, अवश्य ही ये सभी लक्षण उस पूर्वोेक्त वीतराग चारित्र में घटित हो जाते हैं, सो ही देखिये-‘अप्रादुर्भाव:१ खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति’ रागादि परिणामों का उत्पन्न न होना ही अहिंसा है जो कि बारहवें गुणस्थान के वीतराग चारित्र में ही घटित होता है
तथा ‘रागद्वेषनिवृत्त्यै२ चरणं प्रतिपद्यते साधु:।
सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानां।
अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानां।।’’
राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए भव्य जीव चारित्र का आश्रय लेते हैं। चारित्र के सकल चारित्र और विकल चारित्र की अपेक्षा दो भेद हैं, उसमें से सम्पूर्ण परिग्रह से रहित मुनियों के सकल चारित्र और परिग्रह सहित गृहस्थों के विकल चारित्र होता है एवं सकल चारित्र में भी सराग, वीतराग की अपेक्षा दो भेद होकर वीतराग चारित्र बारहवें गुणस्थान में होता है जो ‘साम्य’ रूप है। उत्तम क्षमादि धर्मों की पूर्णता भी सर्वथा कषायों के अभाव में ही होती है जो कि बारहवें में ही संभव है तथा रत्नत्रय धर्म में निश्चय रत्नत्रय की पूर्णावस्था वीतराग चारित्र में होती है एवं धर्म का वस्तु स्वभाव लक्षण भी मोह, क्षोभ से रहित आत्मा की निर्विकार अवस्था में ही प्रगट होता है।’’
इन पाँच लक्षणों को आप चारों अनुयोगों की अपेक्षा भी घटित कर सकते हैं। जैसे कि अहिंसा लक्षण धर्म प्रथमानुयोग की अपेक्षा रखता है, सागार-अनगार धर्म और उत्तम क्षमादि धर्म चरणानुयोग की अपेक्षा रखते हैं, रत्नत्रयात्मक धर्म करणानुयोग की अपेक्षा हो सकता है और वस्तु स्वभाव धर्म द्रव्यानुयोग की प्रधानता से कहा जाता है।
हाँ तो तुम्हें बताना यह था कि आज के युग में चारित्र है या नहीं ? यदि है तो वैसे और कौन सा ?’’
‘हाँ, हाँ गुरुदेव! मुझे यही समझना है।’
‘आचार्य जयसेन जी कहते हैं कि उपर्युक्त पाँच प्रकार के लक्षण वाला धर्म ही पर्यायांतर अन्य नाम से चारित्र कहा जाता है। वह चारित्र अपहृतसंयम और उपेक्षासंयम के भेद से या सराग-वीतराग के भेद से अथवा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से दो प्रकार का हो जाता है अर्थात् अपहृतसंयम, सरागसंयम और शुभोपयोग चारित्र ये पर्यायवाची नाम हैं एवं उपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र और शुद्धोपयोग ये पर्यायवाची नाम हैं। आज के युग में अपहृतसंयम सरागचारित्र और शुभोपयोग तो मुख्यरूप से होता ही है किन्तु सप्तम गुणस्थान में शुद्धोपयोग माना है और आज भी सप्तम गुणस्थान है ही अत: यह शुद्धोपयोग रूप चारित्र भी होता है लेकिन वह अतीव जघन्य अंश में है, उत्कृष्ट रूप से तो बारहवें में ही होता है।’
‘क्या सप्तम गुणस्थान आज हो सकता है ?’
‘अवश्य, चूँकि सप्तम के बिना छठा गुणस्थान असंभव है। सप्तम गुणस्थान से उतरने पर ही छठा होता है, कभी भी पाँचवें या चौथे आदि से छठा गुणस्थान नहीं हो सकता है, ऐसा सिद्धांत का कथन है अत: भावलिंगी मुनि सातवें से छठे में और छठे से सातवें में ऐसा परिवर्तन किया ही करते हैं।’
‘सरागचारित्र और वीतराग चारित्र का लक्षण संक्षेप में मुझे बताइये ?’
‘सुनो! ३‘अशुभ से हटना और शुभ में प्रवृत्त होना यह चारित्र है। यह पांच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप है जो कि जिनेन्द्रदेव द्वारा व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा गया है’ अर्थात् यह व्यवहार चारित्र है इसी का नाम सराग चारित्र या शुभोपयोग चारित्र है तथा ४‘बाह्य और अभ्यंतर क्रिया को रोककर आत्मा में निश्चल हो जाना यह निश्चय चारित्र है, यह संसार के कारणों का नाश करने वाला है और ज्ञानी जीव के होता है इसी का नाम परम चारित्र है जो कि जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है।’ इसे ही निश्चय चारित्र, वीतराग चारित्र, और शुद्धोपयोग संज्ञा है अत: वर्तमान में जितने भी मुनि हैं सभी में सराग चारित्र की प्रधानता है ऐसा समझो जो कि स्वर्गसुख का कारण है चूँकि इस काल में साक्षात् मोक्ष संभव ही नहीं है इसलिये वीतराग चारित्र की पूर्ण प्राप्ति होने पर्यंत यह सरागचारित्र उसको प्राप्त कराने वाला होने से उपादेय है चूूँकि यह कारण का कारण है अर्थात् निर्वाण का साक्षात् कारण तो वीतराग चारित्र है और वीतराग चारित्र को प्राप्त कराने वाला होने से व्यवहार चारित्र परम्परा से मोक्ष का कारण है क्योंकि आज तक भी किसी को सराग चारित्र के बिना वीतराग चारित्र न हुआ है और न होगा ही अत: ‘चारित्तं खलु धम्मो’ चारित्र ही धर्म है, ऐसा समझो।