चन्दनामती – पूज्य माताजी! वंदामि, माताजी! मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि मोक्ष की प्राप्त का कारण क्या है?
श्री ज्ञानमती माताजी –दर्शन, ज्ञान हैं प्रधान जिसमें ऐसा चारित्र इस जीव को देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती के वैभव के साथ-साथ निर्वाण को प्राप्त करा देता है।’
चन्दनामती –‘तो क्या चारित्र सांसारिक अभ्युदय और निःश्रेयस इन दोनों फलों को दे सकता है?’
श्री ज्ञानमती माताजी – ‘हां, चूंकि उस चारित्र के दो भेद किये गये हैं-सराग और वीतराग। इसमें से जो सराग चारित्र है उसका फल तो देवेन्द्र, अहमिंद्र, धरणेंद्र और मनुजराज का वैभव ही है तथा परंपरा से मोक्ष भी है किंतु वीतराग चारित्र मोक्ष का ही कारण है।’
चन्दनामती – सराग चारित्र सम्यग्दर्शन सहित होता है या रहित ?
श्री ज्ञानमती माताजी – यह तो ऊपर ही कहा है कि जिसमें दर्शन और ज्ञान प्रमुख है वही चारित्र मोक्ष का कारण है तथा सरागचारित्र की परम्परा से मोक्ष का कारण है अतः यह भी दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन से सहित ही होता है।’
चन्दनामती – माताजी! यह चारित्र किस-किस गुणस्थान में होता है सो भी बतलाइये?’
श्री ज्ञानमती माताजी – तुम इस प्रश्न का उत्तर ध्यानपूर्वक सुनो! चौथे गुणस्थान मे मात्र सम्यक्त्व है अत: उसे असंयत या अविरत कहते हैं अत: वहां संयम अर्थात् चारित्र नहीं है। पंचम गुणस्थान में देशचारित्र अर्थात् अणुव्रत होते हैं अत: उसमें संयमासंयम या देश संयम होता है। छठे गुणस्थान में सराग चारित्र होता है चूंकि यहाँ देव, धर्म, गुरू आदि के विषय में प्रशस्त राग विद्यमान है। सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग तरतम भाव से माना गया है। इस अपेक्षा से वीतराग चारित्र भी सप्तम से प्रारंभ होकर बारहवें तक पाया जाता है, आगे चारित्र का फल है सो ही देखिये-‘मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से अशुभोपयोग होता है, असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तरतमता से शुभोपयोग होता है, अप्रमत्तसंयत आदि सप्तम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग होता है, आगे सयोेगीजिन और अयोगीजिन अर्थात् तेरहवें गुणस्थानवर्ती अर्हंत अवस्था में और चौदहवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग का फल माना गया है।’ सर्वथा वीतरागता की दृष्टि से अर्थात् सिद्धांत गं्रथों की अपेक्षा से ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती को ही वीतराग संज्ञा है, क्योंकि दशवें गुणस्थान तक कषायों का उदय विद्यमान है। इसलिए वहां तक का चारित्र भी सराग चारित्र कहा जा सकता है। उपर्युक्त अध्यात्म का कथन जो कि सप्तम से वीतराग चारित्र को मानता है उसमें बुद्धिपूर्वक रागादि का न होना ही विवक्षित है क्योंकि वहां ध्यान में निर्विकल्प अवस्था होने से उपयोग में राग आदि परिणाम नहीं पाये जाते हैं। इसलिये कथंचित् बुद्धिपूर्वक राग न होने की अपेक्षा सप्तम गुणस्थान से बारहवें तक वीतराग चारित्र है और कथंचित् किसी अपेक्षा अर्थात् सर्वथा राग के न होने से चारित्र मोहनीय जन्य कषायों का उदय न होने से पूर्ण निर्मल ऐसा वीतराग चारित्र ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में ही है।’
चन्दनामती –‘‘आजकल पंचमकाल में कितने गुणस्थान तक होते हैं ?’’
श्री ज्ञानमती माताजी – ‘‘आजकल सप्तम गुणस्थान तक हो सकते हैं। आगे के गुणस्थान उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी वालों के ही हैं।’’
चन्दनामती –‘‘ऐसा क्यों ?’’
श्री ज्ञानमती माताजी – ‘‘क्योंकि क्षपक श्रेणी चढ़ने वाले मुनि के तो नियम से वङ्कावृषभनाराच नाम का उत्तम संहनन ही होना चाहिये और उपशम श्रेणी वाले के नाराच संहनन, वङ्कानाराच संहनन और वङ्कावृषभनाराचसंहनन इन उत्तम संहननों में से ही कोई होना चाहिए। और ये तीनों संहनन इस पंचमकाल में पुरूषों में हो नहीं सकते हैं किंतु अर्धनाराच कीलित और असंप्राप्तसृपाटिका ये तीन हीन संहनन ही होते हैं। अतएव आजकल के मुनि उपशम या क्षपकश्रेणी पर नहीं चढ़ सकते हैं’’। ‘
चन्दनामती – ये श्रेणी क्या हैं ?’’
श्री ज्ञानमती माताजी – ‘‘चढ़ते हुये परिणामों का अर्थात् विशुद्धि से वृद्धिंगत होते हुए परिणामों का नाम ही श्रेणी है। आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय की प्रकृतियों का उपशम करते हुए जाना, यह उपशम श्रेणी है और आठवें, नवमें, दशवे गुणस्थान में कषायों का क्षय करते हुये जाना क्षपकश्रेणी है। इस श्रेणी वाला जीव दशवें में मोहनीय का समूल नाशकर बारहवें गुणस्थान में जाकर ज्ञानावरण आदि तीन घातिया कर्मों का नाशकर केवली हो जाता है अत: ये चार गुणस्थान क्षपक श्रेणी के हैं। उपशमश्रेणी वाला जीव नियम से नीचे गिरता है।’’ चन्दनामती – पूज्य माताजी! कृपया एक बात और बताएं ?
श्री ज्ञानमती माताजी – ‘‘कहिये! वह क्या है ?’’
चन्दनामती – ‘‘यहां भगवान् कुन्दकुन्द देव स्वयं ऐसा कह रहे हैं कि ‘चारित्र से सुरराज- असुरराज धरणेन्द्र और मनुजराग का वैभव मिलता है और अन्यत्र गंरथों में ऐसा कथन है कि सम्यग्दृष्टी जीव मरकर भवनवासी, व्यंतरवासी और ज्योतिषी देवों में जन्म नहीं ले सकता है पुन: असुरराज से भवनवासी देवों में जन्म लेने की बात कैसे कही ?’’
श्री ज्ञानमती माताजी – ‘‘हाँ, तुमने शंका बहुत ही सुंदर उठाई है, इस विषय में श्री जयसेनाचार्य ने शंका उठाकर समाधान किया है। यथा-‘असुरेषु मध्ये सम्यग्दृष्टिः कथमुत्पद्यते इतिचेत् निदानबंधेन सम्यक्त्व विराधनां कृत्वा तत्रोत्पद्यते इति ज्ञातव्यं।’ असुरों मे सम्यग्दृष्टि जीव कैसे उत्पन्न होते हैं? यदि कोई निदानबंध के द्वारा सम्यक्त्व की विराधना करते हैं तो वहां पर उत्पन्न हो जाता है ऐसा जानना चाहिये। इसी प्रकार से सराग चारित्र युत भावलिंगी मुनि तपश्चरण करते हुए कदाचित् नारायण या प्रतिनारायण होने का निदान कर लेते हैं तो सम्यक्त्व की विराधना करके इन शलाका पुरूषों में जन्म ले लेते हैं। फिर भी सामान्य कथन की अपेक्षा से इस चारित्र को सराग चारित्र कह दिया गया है। ऐसे ही जो वीतराग चारित्र को साक्षात् मोक्षमार्ग का कारण कहा है उसमें भी यदि अधिक बारीकी से करणानुयोग की अपेक्षा देखें तो ग्यारहवें गुणस्थान में निश्चित ही वीतराग चारित्र है फिर भी वह गिरता है। यदि उसी गुणस्थान से मरण करे तो सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो जाता है वहां पर देवराज के वैभव को प्राप्त कर लेता है। अथवा यदि नीचे उतर आता है और मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है तथा मरकर एवेंद्रिय आदि में चला जाता है तो कुछ अन्तर्मुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तन तक संसार में परिभ्रमण कर लेता है। पुनः वीतराग चारित्र भी साक्षात् मोक्ष का कारण कहां रहा ? यहां पर भी यही समाधान है कि क्षपकश्रेणी वाले वीतराग चारित्र की प्रधानता है। अतः इस अध्यात्म शास्त्र में जो ‘भगवान् कुन्दकुन्द देव का कथन है और टीकाकार अमृतचंद्र सूरि का कथन है वह सामान्य की अपेक्षा से है। यह विशेष विवक्षा करणानुयोग की अपेक्षा रखती है। करणानुयोग हीरे के कांटे जैसा तोल करने वाला है क्योंकि इसमें अणुमात्र की भी हानि-वृद्धि का प्रमाण बता दिया है तथा अध्यात्म आदि गंरथों में इतना बारीक विवेचन नहीं होता है। जैसे कि किसी ने कहा यह सहस्रदल कमल हैं तो उसमें हजार ही दल हों ऐसा नहीं किंतु एक दो कम या एक दो अधिक भी हो सकते हैं फिर भी वह कमल सहस्रदल ही कहा जाता है। इसी तरह यह कथन समझना चाहिए। भगवन्!‘संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुय राय विहवेहिं। जीवस्य चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।।६।।’यदि इस गाथा में द्वितीय चरण को ‘देव सुरमणुचरायविहवेिंह।’ ऐसा बदलकर पढ़ें तो अर्थ ठीक हो जाता है अर्थात् देवों में जन्म लेते हैं तथा सुरराज एवं मनुजराज के वैभवों को प्राप्त करते हैं। इस अर्थ में असुरराज अर्थ नहीं आता है।’ ‘नहीं नहीं, ऐसा गाथा का चरण बदलना उपयुक्त नहीं है। देखो! श्री अमृतचंद्र सूरि ने भी वैसा ही अर्थ किया है किंतु गाथा को बदलने का अतिसाहस नहीं किया यथा-‘सरागा देवासुरमनुजराजविभवक्लेश रूपो बन्धः।’ सराग चारित्र से देवराज, असुरराज और मनुराज के वैभव रूप क्लेश का कारण ऐसा बन्ध होता है। ऐसे ही श्री जयसेनाचार्य भी ‘देवासुर मनुष्यराज विभूतिजनक को’ ऐसा पाठ रखते हैं। पुन: शंका उठाकर समाधान भी कर देते हैं। अत: जब इन उभय टीकाकारों ने गाथा को परिवर्तित करना नहीं सोचा तो हम और आप ऐसा क्यों सोचें।’’
चन्दनामती- ‘ठीक है माताजी! आपकी आज्ञानुसार आचार्यों के वचनों को अपेक्षाकृत समझने का प्रयत्न करना चाहिए। जैसा कि यहां पर सामान्य कथन की विवक्षा है उसी दृष्टि से अर्थ संगत हो जाता है।’
श्री ज्ञानमती माताजी –हां! इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि सरागचारित्र से निर्वाणसुख नहीं मिल सकता है। यदि मोक्ष मिलेगा तो वीतराग चारित्र से, सिद्धांत भाषा में शुक्ल ध्यान से ही मिलेगा क्योंकि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करना शुक्ल ध्यान का ही काम है। ऐसे ही वीतराग चारित्र होगा तो सरागचारित्र वाले निग्र्रन्थ मुनि के ही होगा न कि अव्रती या देशव्रती वस्त्रधारी के। यद्यपि वीतराग चारित्र की अपेक्षा सराग चारित्र हेय है फिर भी प्रारम्भिक अवस्था में धारण किया जाने वाला होने से और वीतराग को प्राप्त कराने वाला होने से कथंचित् उपादेय भी है ऐसा समझना।’
चन्दनामती-ठीक है माताजी! आपकी आगमसम्मत यह जानकारी प्रत्येक भव्यात्मा के लिए ग्राह्य है और मोक्ष की प्राप्ति में कारणभूत है। इस जानकारी के साथ ही मैं अपनी लेखनी को विराम देती हू।