द्वादशांग श्रुत और भावश्रुत की उपलब्धि के लिये चारों अनुयोगरूपी समुद्र में मेरा मन नित्य ही अवगाहन करता रहे।
(जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से निर्गत पूर्वापर विरोधरहित जो वचन हैं उन्हें आगम कहते हैं। उसके ही प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ये चार भेद हैं। इन चारों अनुयोगों को ‘चार वेद’ भी कहते हैं। ये चारों ही अनुयोग सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिये कारण हैं। सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व को मल आदि दोषों से रहित निर्दोष करने वाले हैं और उसकी रक्षा करने में भी पूर्ण सहायक हैं। ऐसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भी प्रकट करने वाले हैं तथा इनकी वृद्धि और रक्षा करके अंत में समाधि की सिद्धि कराने वाले हैं। ये चारों अनुयोग मोक्षमार्ग में चलने के लिये दीपक हैं। यह अनुपयोगरूप द्रव्यश्रुत ही भावश्रुत के लिये कारण है और यह भावश्रुत केवलज्ञान के लिये बीजभूत है। अतएव इस श्रुतज्ञान की उपासना का फल केवलज्ञान का प्राप्त होना ही है। ‘‘इस शास्त्ररूपी अग्नि में भव्यजीव तपकर विशुद्ध हो जाता है और दुष्टजन अंगार के समान तप्त हो जाते हैं अथवा भस्म के समान भस्मीभूत हो जाते हैं।१’’ अर्थात् वे शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करके उसे शस्त्र बना लेते हैं अत: क्रम से और गुरुपरम्परा से शास्त्रों को पढ़ना चाहिये। उनके अर्थ को सही समझकर अपनी आत्मा को शुद्ध कर लेना चाहिए।)
सम्पूर्ण जिनागम द्वादशांगरूप है इसे शब्दब्रह्म भी कहते हैं। भगवान् महावीर स्वामी की प्रथम देशना विपुलाचल पर्वत पर श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन हुई थी उस समय सप्तऋद्धि से समन्वित गौतम गणधर को पूर्वाण्ह में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। उसी दिन अपराण्ह में अनुक्रम से उन्हें पूर्वों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। पुन: मन:पर्यय ज्ञानधारी श्री गणधर देव ने उसी दिन रात्रि के पूर्ण भाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की ग्रंथ रचना की।’’१
इस ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूप श्रुतसमुद्र में कोई विषय अपूर्ण नहीं है। अष्टांग निमित्त, अष्टांग आयुर्वेद, मंत्र, तंत्र आदि सभी विषय इसमें आ जाते हैं। आज द्वादशांगरूप से श्रुतज्ञान उपलब्ध नहीं है। हाँ, अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के चयनलब्धि Sनामक चतुर्थ अधिकार का ज्ञान श्री धरसेनाचार्य को था जिनके प्रसाद से वह षट्खण्डागमरूप ग्रंथ में निबद्ध हुआ है। इस द्वादशांगरूप शास्त्र को आचार्यों ने चार अनुयोगों में विभक्त किया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। ये चारों ही अनुयोग भव्य जीवों को रत्नत्रय की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारण हैं। इन अनुयोगरूप द्रव्यश्रुत से उत्पन्न हुआ भावश्रुत परम्परा से केवलज्ञान का कारण है।