द्वादशांग श्रुत और भावश्रुत की उपलब्धि के लिये चारों अनुयोगरूपी समुद्र में मेरा मन नित्य ही अवगाहन करता रहे। जिनेन्द्र भगवान के मुखकमल से निर्गत पूर्वापर विरोधरहित जो वचन हैं उन्हें आगम कहते हैं। उसके ही प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ये चार भेद हैं। इन चारों अनुयोगों को ‘चार वेद’ भी कहते हैं। ये चारों ही अनुयोग सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिये कारण हैं। सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व को मल आदि दोषों से रहित निर्दोष करने वाले हैं और उसकी रक्षा करने में भी पूर्ण सहायक हैं। ऐसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भी प्रकट करने वाले हैं तथा इनकी वृद्धि और रक्षा करके अंत में समाधि की सिद्धि कराने वाले हैं। ये चारों अनुयोग मोक्षमार्ग में चलने के लिये दीपक हैं। यह अनुपयोगरूप द्रव्यश्रुत ही भावश्रुत के लिये कारण है और यह भावश्रुत केवलज्ञान के लिये बीजभूत है। अतएव इस श्रुतज्ञान की उपासना का फल केवलज्ञान का प्राप्त होना ही है। ‘‘इस शास्त्ररूपी अग्नि में भव्यजीव तपकर विशुद्ध हो जाता है और दुष्टजन अंगार के समान तप्त हो जाते हैं अथवा भस्म के समान भस्मीभूत हो जाते हैं। शास्त्रागनौ मणिवद् भव्यो विशुद्धो भाति निर्वृत्त:। अंगारवत् खलो दीप्तो मली वाभस्य वा भवेत्।।(आत्मानुशासन)’’ अर्थात् वे शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करके उसे शस्त्र बना लेते हैं अत: क्रम से और गुरुपरम्परा से शास्त्रों को पढ़ना चाहिये। उनके अर्थ को सही समझकर अपनी आत्मा को शुद्ध कर लेना चाहिए।) सम्पूर्ण जिनागम द्वादशांगरूप है इसे शब्दब्रह्म भी कहते हैं। भगवान् महावीर स्वामी की प्रथम देशना विपुलाचल पर्वत पर श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन हुई थी उस समय सप्तऋद्धि से समन्वित गौतम गणधर को पूर्वाण्ह में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। उसी दिन अपराण्ह में अनुक्रम से उन्हें पूर्वों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। पुन: मन:पर्यय ज्ञानधारी श्री गणधर देव ने उसी दिन रात्रि के पूर्ण भाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की ग्रंथ रचना की ।उत्तरपुराण पर्व ७४, धवला पु.प्र., पृ.६६। इस ग्यारह अंग चौदह पूर्व रूप श्रुतसमुद्र में कोई विषय अपूर्ण नहीं है। अष्टांग निमित्त, अष्टांग आयुर्वेद, मंत्र, तंत्र आदि सभी विषय इसमें आ जाते हैं। आज द्वादशांगरूप से श्रुतज्ञान उपलब्ध नहीं है। हाँ, अग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के चयनलब्धि नामक चतुर्थ अधिकार का ज्ञान श्री धरसेनाचार्य को था जिनके प्रसाद से वह षट्खण्डागमरूप ग्रंथ में निबद्ध हुआ है। इस द्वादशांगरूप शास्त्र को आचार्यों ने चार अनुयोगों में विभक्त किया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। ये चारों ही अनुयोग भव्य जीवों को रत्नत्रय की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के कारण हैं। इन अनुयोगरूप द्रव्यश्रुत से उत्पन्न हुआ भावश्रुत परम्परा से केवलज्ञान का कारण है। कहा भी है-
‘विणयेण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं।
तमुअवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि।।मूलाचार गा. २८६।
विनयपूर्वक पढ़ा हुआ शास्त्र यदि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाता है तो भी जन्मांतर में पूरा का पूरा उपस्थित हो जाता है और अंत में केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है। यह समस्त श्रुतज्ञान की महिमा है न कि एक किसी अनुयोग की। श्री कुन्दकुन्द देव कहते हैं-
जिनेन्द्रदेव के वचन औषधिरूप हैं, ये विषयसुखों का विरेचन कराने वाले हैं, अमृतस्वरूप हैं, इसीलिये ये जन्म-मरणरूप व्याधि का नाश करने वाले हैं और सर्वदु:खों का क्षय करने वाले हैं।
श्रुतज्ञान महान् वृक्ष सदृश है
अनादिकाल की अविद्या के संस्कार से प्रत्येक मनुष्य का मन मर्कट के समान अतीव चंचल है, उसको रमाने के लिये श्री गुणभद्रसूरि इस श्रुतज्ञान को महान् वृक्ष की उपमा देते हुये कहते हैं-
जो श्रुतस्कंधरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनोंरूप पत्ते से व्याप्त है, विस्तृत नयों रूप सैकड़ों शाखाओं से युक्त है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है उस श्रुतस्कन्ध वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधु अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमण करावे। इस श्रुतस्कंध वृक्ष में चारों ही अनुयोग समाविष्ट हैं। चूँकि एक अनुयोग से होने वाला ज्ञान अपूर्ण ही है।
समीचीन ज्ञान चारों पुरुषार्थों को कहने वाले चरित-पुराणों को प्रथमानुयोग कहता है। यह प्रथमानुयोग स्वयं पुण्यस्वरूप है और बोधिरत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि का खजाना है। टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य कहते हैं-वह प्रथमानुयोग अर्थाख्यान अर्थात् परमार्थ विषय का प्रतिपादन करने वाला है, इसके सुनने से पुण्य उत्पन्न होता है अत: पुण्य का हेतु होने से यह ‘पुण्य’ कहलाता है। नहीं प्राप्त हुये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है, प्राप्त हुये रत्नत्रय को अंतपर्यंत पहुँचा देना समाधि है अथवा धर्म-शुक्ल ध्यान को भी समाधि कहते हैं अर्थात् इस अनुयोग को सुनने वालों को सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है और धर्मध्यान आदि भी होते हैं।
तीर्थंकर प्रमाण हैं यह प्रथमानुयोग ही बतायेगा
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव अयोध्या में हुये हैं। उन्होेंने असि, मसि आदि छह प्रकार से आजीविका का उपाय बतलाया था। दीक्षा लेकर मुनिमार्ग को दिखाया था। भगवान महावीर स्वामी अंतिम तीर्थंकर थे। वे आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व इस भारत वसुन्धरा पर जन्मे थे, उन्होंने बारह वर्ष तक तपश्चरण करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। इत्यादि रूप से तीर्थंकरों के आदर्श जीवन को जाने बगैर उनके वचनों में श्रद्धा कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। अतएव जिनागम को प्रमाण मानने के लिए प्रथमानुयोग का अध्ययन अतीव आवश्यक हो जाता है। शंका-इन कथा पुराणों से सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? समाधान-सम्यक्त्व के दश भेदों में जो ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ नाम का तीसरा भेद है उसका लक्षण यही है कि ‘तीर्थंकर आदि शलाका पुरुषों के उपदेश को सुनकर जो तत्त्व श्रद्धान होता है उसे ‘उपदेश सम्यग्दर्शन’ कहते हैं आत्मानुशासन श्लोक १२।। इसी प्रकार से जातिस्मरण आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्व के उदाहरणों को प्रथमानुयोग में ही देखा जा सकता है। विदेह क्षेत्र में प्रभाकरी नगरी के समीप पर्वत पर राजा प्रीतिवर्धन ठहरे हुए थे। वहाँ पर मासोपवासी पिहितास्रव मुनिराज को आहारदान दिया। उस समय देवों द्वारा पंचाश्चर्य किये गये। इस दृश्य को देखकर वहीं पर्वत पर एक सिंह था उसे जातिस्मरण हो गया उसने सम्यक्त्व और श्रावक के व्रत ग्रहण कर चतुराहार त्यागकर सल्लेखना ग्रहण कर ली। कालान्तर में वही सिंह का जीव भरत चक्रवर्ती हुआ है आदि पुराण पर्व ८, श्लोक २०१ से २०७।। नकुल, सिंह, वानर और सूकर इन चारों जीवों को भी आहारदान देखने से जातिस्मरण हो गया जिससे वे सभी संसार से विरक्त हो दान की अनुमोदना के फल से भोगभूमि में आर्य हुये। अनंतर आठवें भव में श्री वृषभदेव के पुत्र होकर मोक्ष चले गये ।आदि पु., पर्व ८।। मारीचि कुमार ने मान कषाय से मिथ्यात्व का प्रचार करके असंख्य भवों तक त्रस स्थावर योनियों में परिभ्रमण किया। अनंतर सिंह की पर्याय में जब वह हरिण का शिकार कर रहा था। उस समय अजितंजय और अमितगुण नामक चारण मुनियों के द्वारा धर्मोपदेश को प्राप्तकर सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया। श्रीगुणभद्रसूरि कहते हैं कि-‘सिंह की आँखों से बहुत देर तक अश्रुरूपी जल गिरता रहा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो हृदय में सम्यक्त्व को स्थान देने के लिए मिथ्यात्व ही बाहर निकल रहा है । उत्तर पुराण पर्व. ७४, श्लोक १९६। इस पर्याय में सम्यक्त्व, देशसंयम और बालपण्डितमरणरूप सल्लेखना को ग्रहण कर उस िंसह ने देव पद प्राप्त किया। इस सिंह से दशवें भव में वह भगवान महावीर हुआ। इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि मुनियों का दर्शन, उनका उपदेश सम्यक्त्वोत्पत्ति में कारण बन गया। किसी समय अरिंवद महाराज ने विरक्त होकर दीक्षा ले ली और संघ सहित सम्मेदशिखर की यात्रा को जा रहे थे। मार्ग में एक वन में प्रतिमायोग से वे मुनि विराजमान हो गये। उन्हें देखकर मदोन्मत्त हाथी (मरुभूति का जीव) उन्हें मारने के लिए दौड़ा। किन्तु उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह देखते ही उसे जातिस्मरण हो गया। पुन: उसने शांतचित्त होकर मुनिराज के मुख से धर्मोपदेश श्रवण कर श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये। इस हाथी की पर्याय में सम्यक्त्व को प्राप्त कर वह जीव उससे आठवें भव में श्री पाश्र्वनाथ तीर्थंकर हुआ। इन उदाहरणों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि गुरुओं के उपदेश से मनुष्य ही नहीं तिर्यंच भी लाभ लेते थे तथा आचार्य भी संघ सहित सम्मेदशिखर की यात्रा करते थे। इन अचेतन भी तीर्थस्वरूप सम्मेदशिखर आदि की भक्ति में श्री गौतमस्वामी ने बहुत ही सुंदर सूत्रवाक्यों का उच्चारण किया है यथा-
‘ऊर्ध्व, अधो, मध्यलोक में जो सिद्धायतन हैं-कृत्रिम-अकृत्रिम जिनमंदिर हैं और जो सिद्धों की निषीधिकायें हैं अर्थात् निर्वाण क्षेत्र हैं, ये कौन-कौन हैं ? अष्टापद-वैâलाशपर्वत, सम्मेदपर्वत, ऊर्जयंत-गिरनारपर्वत, चम्पानगरी, पावानगरी, मध्ययानगरी और हस्तिवालिकामंडप ये मुक्त जीवों की निर्वाणभूमि हैं, इनसे अतिरिक्त और भी जो निर्वाणभूमियाँ इस ढाई द्वीप में हैं उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ। मुनियों का दैवसिक प्रतिक्रमण। शंका-मुनि तीर्थों की वंदना करें किन्तु वे किसी विधान आदि उत्सवों में तो सम्मिलित नहीं हो सकते ? समाधान-क्यों नहीं हो सकते ? देखिये गुणभद्रसूरि कहते हैं कि ‘‘अयोध्या के अधिपति, ‘आनंद’ महावैभव के धारक मण्डलेश्वर राजा हुये हैं। इन्होंने किसी समय वसंत ऋतु की आष्टान्हिका में ‘महापूजा’ कराई। उसे देखने के लिये वहाँ पर विपुलमति नाम के महामुनिराज पधारे थे। उन्होंने राजा के प्रश्नानुसार ‘अचेतन रत्नादि की मूर्तियाँ अचिन्त्य फल देने वाली हैं’ इस विषय पर बहुत ही विस्तृत उपदेश दिया था पुन: अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करते हुये सूर्य विमान में स्थित अकृत्रिम जिनालय का वर्णन किया था।’’ वह सब सुनकर आनंदराजा ने भक्ति से विभोर हो सूर्यविमान बनवाकर उसमें स्थित चैत्यालय बनवाया और उसमें जिनप्रतिमायें विराजमान करके उसकी नित्यपूजा करने लगा। राजा को उस सूर्य के मंदिर की पूजा करते देख अज्ञानी लोग उसके रहस्य को न समझकर सूर्य को अघ्र्य चढ़ाना आदि पूजा करने लगे यह ‘सूर्य पूजा’ तभी से चल पड़ी हैउत्तरपुराण पर्व ७३। इत्यादि।’’ ये ही आनंद महाराज तृतीय भव में पाश्र्वनाथ तीर्थंकर हुये हैं। यदि हम प्रथमानुयोग का स्वाध्याय न करें तो हमारी इन शंकाओं का समाधान कैसे हो ? इन पुराणों के पढ़ने से तत्काल में महान् पुण्य का संचय होता है और अशुभकर्मों की निर्जरा हो जाती है। चूँकि ये भी जिनवचन हैं। बारहवें अंग के पाँचपरिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। भेदों में से यह ‘प्रथमानुयोग’ तृतीय भेदरूप है इसलिये द्वादशांग के अंतर्गत ही है। पद्मपुराण में मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्र का जीवन पढ़कर सहज ही भावना उत्पन्न हो जाती है कि उनके गुणों में से कुछ भी गुणों का अंश मुझे प्राप्त होने का सौभाग्य मिले। रावण के दुराग्रह को पढ़कर कोई भी मनुष्य रावण बनने का इच्छुक नहीं होता है प्रत्युत् रामचंद्र के जीवन को ही अपने में उतारने की भावना करता है। पिता के आदेश को पालन करने के लिये अपने लिये उचित और योग्य ऐसे राज्य का मोह छोड़ना व वन में विचरण करना यह उदाहरण हर किसी को पिता की आज्ञा पालने की शिक्षा देता है। सीता के आदर्श जीवन से महिलायें अपने सतीत्व की रक्षा के प्रति उत्साहित होती हैं। अहो! शील का माहात्म्य क्या है ? कि जिसने अग्नि को क्षणमात्र में जल का सरोवर बना दिया। कुलीन महिलायें इन पुराणों के आधार से ही अपने शील रत्न को सुरक्षित रख लेती हैंं। ‘पिता के लिये अपने सर्वस्व को तिलांजलि दे देना यह भीष्म पितामह का आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतरूप कठोर त्याग पितृभक्ति को उद्वेलित किये बिना नहीं रहता है।’पांडवपुराण। लक्ष्मण की भ्रातृभक्ति देखकर भाई-भाई आपस में प्रेम करने का उदाहरण ग्रहण करते हैं। ब्राह्मी, सुंदरी, अनंतमती, चंदना आदि के उदाहरण बालिकाओं को ब्रह्मचर्य व्रत की प्रेरणा के स्रोत बन जाते हैं। इन आदर्श नारियों का इतिहास पढ़ने वाली महिलायें कभी भी सूर्पनखा बनने की भावना नहीं करती हैं प्रत्युत् चंदना, मनोरमा बनने की ही भावना भाती हैं। अकलंक निकलंक नाटक देखने वाले नवयुवकों में धर्म की रक्षा के लिए बलिदान का भाव जाग्रत हो उठता है। जैसे-आजकल सिनेमा और टेलीविजन के अश्लील दृश्य तथा रेडियो के अश्लील गाने सुनकर नवयुवक व नवयुवतियाँ चारित्र च्युत होते हुये दिखाई देते हैं ऐसे ही धार्मिक कथायें और नाटक भी बेमालूम कुछ न कुछ संस्कार अवश्य ही छोड़ देते हैं। यद्यपि यह नियम है कि पानी का प्रवाह स्वभावत: नीचे की ओर ही जाता है। प्रयोग से, यंत्रों के निमित्त से ही वह ऊपर जाता है। उसी प्रकार से मन अनादिकालीन अविद्या के संस्कार से सदैव नीचे-अशुभ प्रवृत्तियों की ओर ही झुकता है उसको ऊपर की ओर उठाने के लिये इन महापुरुषों का आदर्श सामने रखना ही चाहिये। इसका अभिप्राय यही है कि प्रतिदिन प्रथमानुयोग ग्रंथ अवश्य पढ़ने चाहिए। इससे चारित्र की प्रेरणा मिलती है तथा अपने में अन्यों को चारित्र में स्थिर करने की युक्ति सूझती है। ‘एक बार राजा श्रेणिक ने समवसरण में एक मुनि के बारे में प्रश्न किया, उत्तर में श्री गौतमस्वामी ने कहा-राजन्! तुम शीघ्र ही वहाँ जावो, उन मुनि के ध्यान में इस समय रौद्र भावना चल रही है यदि अंतर्मुहूर्त काल यही स्थिति रही तो उनके नरकायु का बंध होे जायेगा अत: तुम जाकर उन्हें संबोधन करो। राजा श्रेणिक ने जाकर उन्हें संबोधित किया उसी समय वे मुनि रौद्रध्यान से हटकर धर्मध्यान में आये और तत्क्षण ही शुक्लध्यान में आरुढ़ हो गये, अंतर्मुहूर्त में ही उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया।’’ उत्तर पुराण पर्व ७६। सुकुमाल, गजकुमार आदि मुनियों ने उपसर्ग के समय भी धैर्य से अपने परिणामों को संभाला और सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये। सल्लेखना के समय क्षपक मुनि को निर्यापकाचार्य ऐेसे-ऐेसे उदाहरण सुनाकर धर्मभावना में स्थिर करते हैं। अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर करने के लिये श्री विष्णुकुमार महामुनि ने अपना वेष छोड़ दिया और अपनी विक्रिया ऋद्धि के बल से उन मुनियों की रक्षा की। यह घटना भी धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य का एक ज्वलंत उदाहरण ही है।
तीर्थंकर होने वाले महापुरुष भी कितने भव तक पुरुषार्थ करते हैं
सम्यग्दर्शन होते ही मोक्षप्राप्ति सुलभ नहीं है। तीर्थंकरादि महापुरुषों ने भी कई भव तक दीक्षा ले-लेकर घोर तपश्चरण किया है जब कहीं सिाqद्ध मिली है। यह बात प्रथमानुयोग से ही तो जानी जाती है। देखिये- भगवान वृषभदेव के जीव ने महाबल विद्याधर की पर्याय में स्वयंबुद्ध मंत्री के सम्बोधन से आठ दिन आष्टान्हिक पूजा करके २२ दिन की सल्लेखना ग्रहण की, पुन: ललितांग देव हुआ था। वहाँ से आकर वङ्काजंघ राजा होकर श्रीमती रानी के साथ चारण मुनियों को आहार देकर जो पुण्य संचित किया उसके फलस्वरूप भोगभूमि में उत्पन्न हुये, तब तक उन्हें सम्यक्त्व नहीं था। भोगभूमि में मुनियों के उपदेश से सम्यक्त्व प्राप्त किया पुन: श्रीधर देव हुये, अनंतर सुविधि राजा होकर पुत्र (श्रीमती के जीव केशव) के मोह में पड़कर दीक्षा न ले सकने के कारण श्रावक के उत्कृष्ट व्रत (क्षुल्लक) तक धारण करके अंत में दीक्षा लेकर सल्लेखना से मरण कर अच्युतेन्द्र हुये। पुन: वङ्कानाभि चक्रवर्ती होकर छह खंड का राज्य भोगकर उसका त्याग करके दीक्षित हो गये। उनके पिता वङ्कासेन तीर्थंकर थे उनके समवसरण में दीक्षा लेकर ‘सम्पूर्ण द्वादशांगरूप’ आदिपुराण, पर्व ११, श्लोक ११०, १११। श्रुत का अध्ययन करके सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति बांध ली व जिनकल्पी मुनि होकर विचरण करने लगे। एक समय ध्यान में आरुढ़ थे उस समय उपशम श्रेणी पर चढ़ गये और ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचकर यथाख्यात चारित्र के धारक पूर्ण वीतरागी हो गये। पुन: वहाँ से उतरकर वापस सातवें-छठे गुणस्थान में आ गये। ‘पुनरपि द्वितीय बार उपशम श्रेणी में आरोहण करके पृथक्त्ववितर्वâ शुक्लध्यान को पूर्णकर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुये। उसी समय उनकी आयु पूर्ण हो गई और उस ग्यारहवें गुणस्थान में मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये।’ वहाँ से चयकर भगवान वृषभदेव हुये हैं। इस प्रकार से भगवान के इन दश भवों को पढ़ने के बाद यह निश्चित हो जाता है कि जब तीर्थंकर होने वाले महापुरुषों को इतनी तैयारी करनी पड़ती है। अहो! पूर्वभव में दो बार उपशम श्रेणी में आरोहण करने की उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त कर लेना पुन: अविरति हो जाना कितनी विचित्रता है। फिर तीर्थंकर के भव में भी हजार वर्ष तक तपश्चरण करना पड़ा तब कहीं जाकर घातिया कर्मों के नाश हेतु क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर पाये और उत्कृष्ट आत्मध्यान के ध्याता हो पाये। ‘महाबल विद्याधर के चार मंत्रियों में तीन मंत्री मिथ्यादृष्टि थे उनमें से संभिन्नमति और महामति तो मिथ्यात्व के पाप से निगोद में चले गये और शतमति नरक में चला गया। उस नरक में जाने वाले मंत्री के जीव को तो श्रीधर देव ने धर्म का उपदेश देकर सम्यक्त्व ग्रहण करा दिया किन्तु निगोद में कैसे सम्बोधन दिया जा सकता है ?आदिपुराण, पर्व १०। इस उदाहरण को पढ़कर मिथ्यात्व से कितना भय उत्पन्न होता है, अहो! यदि मैं िंकचित् भी जिनवाणी के प्रति अश्रद्धा करके मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाऊँगा तो पुन: यदि निगोद में चला गया तो क्या होगा ? मुझे कौन उपदेश देगा ? इसलिये शास्त्र के वाक्यों पर अश्रद्धा करके अपने सम्यक्त्व को नहीं गंवाना चाहिये। जिनप्रतिमा के अपमान से अंजना ने बाईस वर्ष तक पति वियोग का दु:ख सहन किया। िंकचित् मुनिनिंदा के पाप से वेदवती ने जो निकाचित बंध किया उसके फलस्वरूप सीता की पर्याय में लोकापवाद को प्राप्त होकर देश निष्कासन का दु:ख सहन किया। लक्ष्मीमती आदि अनेकों महिलाओं ने मुनियों का अपमान करके कुष्ट रोग से पीड़ित होकर तिर्यंच योनियों के और नरकों के घोर दु:ख सहे हैं। पुन: मुनियों के उपदेश से रोहिणी व्रत, सुगंधदशमी व्रत आदि के अनुष्ठान से उत्तम गति पाई है। मैनासुंदरी ने पति के कुष्ट रोग को दूर करने के लिए मुनि के उपदेश से सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान किया था। मैनासुंदरी भी सम्यग्दृष्टि थी और वैसा संकट दूर करने का उपाय बतलाने वाले मुनि भी सम्यग्दृष्टि भावश्रमण ही थे। राजा सुभौम ने जीवन के लोभ से महामंत्र का अपमान कर सप्तम नरक को प्राप्त कर लिया। जीवंधर के द्वारा दिये गये महामंत्र को सुनकर कुत्ते ने प्राण छोड़े तो यक्षेन्द्र हो गया और जीवन भर जीवंधर स्वामी के प्रति कृतज्ञ होकर उपकार करता रहा। रात्रि भोजन त्याग करने मात्र से सियार ने तिर्यंच योनि छोड़कर मनुष्य पर्याय पाकर प्रीतिंकर कुमार होकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लिया। इस प्रकार से पुण्य और पाप के फलस्वरूप नाना उदाहरणों को देखकर सहज ही पाप से भय उत्पन्न होता है तथा धर्म में श्रद्धा, अनुराग और गाढ़ भक्ति जाग्रत हो जाती है। अत: श्रावकों को ही नहीं, मुनि आर्यिकाओं को भी प्रतिदिन प्रथमानुयोग का स्वाध्याय करना चाहिए।
जो श्रुतज्ञान लोक-अलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन को और चतुर्गतियों के परिवर्तन को दर्पण के समान जानता है उसे करणानुयोग कहते हैं। जिसमें जीव, पुद्गल आदि छहों द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं। यह तीन सौ तेतालीस राजू प्रमाण है। इससे परे चारों तरफ अनंतानंत अलोकाकाश है। इस लोक के मध्य में एक राजू की चौड़ाई में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। सबसे प्रथम बीचोंबीच में जम्बूद्वीप है। इत्यादि रूप से जो लोक का वर्णन तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में वर्णित है, नरक, स्वर्ग, सिद्धशिला आदि का जो भी वर्णन है उसको पढ़कर पूर्ण आस्तिक्य भावना रखना ही सम्यग्दर्शन है। इस मध्यलोक के अंतर्गत ढाईद्वीप में पंद्रह कर्मभूमियाँ हैं। वहीं पर जन्म लेने वाले मनुष्य मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि कर सकते हैं अन्य नहीं। सुषमासुषमा आदि छह कालरूप युग परिवर्तन को समझकर, चतुर्गतियों के परिभ्रमण को तथा पंच परावर्तन को पढ़कर संसार से भय उत्पन्न होता है। जीवों के कुल, योनि, जीवसमास, मार्गणा आदि को भी समझना चाहिए। तभी तो जीवों की दया का पूर्णतया पालन किया जा सकता है। अध्यात्म गं्रथ नियमसार में श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं-
कुल, योनि, जीव समास और मार्गणा आदि स्थानों में जीवों को जान करके उनके आरंभ में निवृत्तिरूप परिणाम का होना प्रथम अहिंसा महाव्रत है। यह सब वर्णन इस करणानुयोग के अध्ययन से ही जाना जा सकता है। खेद है कि आजकल कुछ लोग गुणस्थानों के लक्षण को भी नहीं समझते हैं और समयसार जैसे महान् ग्रंथों को बगल में दबाए रहते हैं। सचमुच में वे लोग अध्यात्म के मर्म को न समझकर अपनी आत्मा की ही वंचना कर लेते हैं। गुणस्थानों को समझने से ही सराग चारित्र कहाँ तक हैै और वीतराग चारित्र कहाँ से शुरू होता है इसकी जानकारी मिलती है। श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने जीवों की विभाव पर्यायों का वर्णन करते हुये कहा है कि मनुष्य के दो भेद हैं-कर्मभूमिज और भोगभूमिज। नारकी सात पृथिवियों के भेद से सात प्रकार के हैं, तिर्यंच चौदह जीवसमास की अपेक्षा चौदह प्रकार के हैं तथा चतुर्णिकाय की अपेक्षा देव चार प्रकार के हैं। इन सबका विस्तार से वर्णन लोकविभाग ग्रंथों से जान लेना चाहिये। ‘एदेसिं वित्थारं लोयविभायेसु णादव्वं’।। नियमसार। संस्थानविचय धर्मध्यान भी करणानुयोग के अध्ययन से ही किया जाता है। सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए जो करण लब्धि होती है तथा चारित्र के लिये जो लब्धि होती है, इनका सविस्तार वर्णन भी करणानुयोग ही बतलाता है। किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियाँ बंधती हैं, कितनी उदय में रहती हैं और कितने की सत्ता रहती है इत्यादि विवरण भी इसी अनुयोग से जाना जाता है। करणसूत्रों के द्वारा गणित का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन परिणामों की एकाग्रता के लिए सर्वोत्कृष्ट साधन है। आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की पीठ में एक बार अदीठ नाम का भयंकर फोड़ा हुआ था। उसकी शल्य चिकित्सा के समय सभी चिन्तित थे कि महाराज इतनी वेदना को वैâसे झेलेंगे। आचार्यश्री ने अपना उपयोग कर्म प्रकृतियों के बंध-उदय आदि के गणित में लगा लिया जिससे उन्हें उस विषय में तन्मयता हो जाने से डाक्टर ने सफलतापूर्वक आपरेशन कर दिया। इन प्रकृतियों के उदय आदि के चिंतन के समय विपाकविचय धर्मध्यान होता है। यह जीव सम्यक्त्व व संयम को प्राप्त कर भावलिंगी श्रमण शुद्धोपयोगी आत्मध्यानी बनकर ग्यारहवें गुणस्थान तक भी चला जाता है। पुन: वहाँ से गिरकर कदाचित् मिथ्यात्व में आकर यदि एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में चला जाता है तो वह पुन: संसार में कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करता रहता है। इन सब प्रकरणों को पढ़कर बोधि को प्राप्त कर उसकी सुरक्षा के लिये पुरुषार्थ जाग्रत होता है और मिथ्यात्व से भय उत्पन्न होता है। इस प्रकार से यह करणानुयोग भी सम्यक्त्व व संयम का कारण है। इसके प्रसाद से रत्नत्रय की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा होती रहती है। इस विषय में भी प्रमाद न करके इस अनुयोग का सतत अध्ययन करना चाहिये।
जो सम्यग्ज्ञान श्रावक और अनगार के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा का साधन है ऐसे शास्त्रों को आचार्य चरणानुयोग आगम कहते हैं। श्री गौतमस्वामी ने मुनियों के पाक्षिक प्रतिक्रमण में ‘श्रुतं मे आयुष्मन्त:।’ ऐसा संबोधन करके स्पष्ट कहा है कि मुनियों के महाव्रत आदि मुनिधर्म का तथा श्रावक-श्राविकाओं के बारह व्रत, सप्त व्यसन त्याग, ग्यारह प्रतिमा आदि श्रावक धर्म का भगवान महावीर ने उपदेश दिया है और हे आयुष्मान् भव्यों! मैंने स्वयं सुना है। श्री कुन्दकुन्ददेव भी चारित्रपाहुड़ में कहते हैं-
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये आत्मा के गुण हैं। वह चारित्र इनकी शुद्धि को करने वाला है और मोक्ष आराधना का कारण है ऐसे चारित्र प्राभृत को मैं कहूूँगा। पुन: सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण ऐसे दो भेद करके सम्यक्त्वचरण में सम्यक्त्व के आठ अंग आदि को लिया है तथा संयमचरण के मुनिधर्म और गृहस्थ धर्म की अपेक्षा दो भेद करके श्रावकों के बारह व्रतों का वर्णन किया है। और तो क्या द्वादशांग में भी आचारांग नामक अंग सबसे प्रथम अंग है जिसमें मुनियों के चारित्र का सांगोपांग वर्णन रहता है। भगवान के समवसरण में भी बारह सभाओं में से भगवान के सन्मुख पहली सभा में मुनिगण ही विराजते हैं चूँकि भगवान के उपदेश को साक्षात् ग्रहण करके मोक्ष की सिद्धि करने वाले वे ही हैं। बिना सम्यक्त्व व बिना चारित्र के किसी को ‘पात्र’ संज्ञा नहीं है। जीवंधर स्वामी वन में विचरण कर रहे थे। अकस्मात् उनके मन में अपने बहुमूल्य वस्त्र और अलंकारों को दान कर देने का भाव जाग्रत हुआ उस समय उन्होंने सामने आते हुए एक कृषक को धर्म का उपदेश देकर पाँच अणुव्रत ग्रहण कराये पुन: उसे आभूषणों का दान कर दिया क्षत्रचूड़ामणि।। चूँकि अपात्र में दिया गया दान निरर्थक है और कुपात्र में दिया गया दान कुफल को देने वाला है। यह चारित्र ही ज्ञान को परमावधि, सर्वावधि तथा मन:पर्यय ज्ञान बना सकता है पुन: आगे केवलज्ञान भी करा सकता है। इस चारित्र के बिना असंयमी मोक्षमार्गस्थ नहीं है।
असंयत के मोक्षमार्ग नहीं है
श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं कहते हैं-
ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु।
सद्दहणादो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादिप्रवचनसार। ।।२३७।।
यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो आगम में सिद्धि नहीं होती है और पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत है तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता है। श्री अमृतचंद्र सूरि के वचन देखिये- ‘‘……तत: संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धि:। अत: आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयौगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव ।’’ प्रवचनसार गा.२३७ की टीका। इसलिये संयमशून्य श्रद्धान व ज्ञान से सिद्धि नहीं होती है। इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतपना ये तीनों ही युगपत् जिनके पास नहीं हैं उनके मोक्षमार्गत्व विघटित ही हो जाता है।
चतुर्थकाल में मुनि हजार वर्ष तपस्या करके जितने कर्मों की निर्जरा करते थे। आज पंचमकाल में हीन संहनन होेने से एक वर्ष में उतने कर्मों की निर्जरा हो जाती है। इस चरणानुयोग के बिना चारित्र के महत्त्व को कौन बता सकता है ? व्रतों में लगे हुये अतिचारों का शोधन, गुरु, विनय, वैयावृत्य, सोलह कारण भावनायें, दशलक्षण धर्म आदि का उपदेश चरणानुयोग ही देता है। व्रतों के भंग हो जाने पर उनमें पुन: उपस्थापना का आदेश इसी अनुयोग का है। प्रायश्चित्त विधि द्वारा व्रतों का प्रतिपादन करके दोषों का विशोधन यही अनुयोग करता है। द्रव्यलिंगी मुनि भी इस चारित्र के सम्पर्क से लोक में पूजे जाते हैं। जैसे कि ‘पुष्पडाल’ मुनि व ‘भवदेव मुनि’ पूजे जाते थे। श्रावक उन्हें आहार देने में कोई अंतर नहीं करते थे।
व्रत और तप से स्वर्ग प्राप्त कर लेना श्रेष्ठ है किन्तु अव्रत और अतप से नरकगति में दु:ख उठाना ठीक नहीं है। किसी की प्रतीक्षा में छाया और आतप में बैठने वाले जीवों के समान व्रत और अव्रत में महान अंतर है। आगे कहते हैं कि-‘जो देव और गुरु के भक्त हैं, साधर्मी और संयतों में अनुरागी हैं, सम्यक्त्व से सहित हैं ऐसे योगी ही ध्यान में रत हो सकते हैं ।मोक्षपाहुड़ गा.५२। जो अतिचार या अनाचार के भय से चारित्र ग्रहण नहीं करते हैं वे अपनी आत्मा की ही वंचना कर लेते हैं। सागार धर्मामृत में कहते हैं-
देश, काल, शक्ति आदि का विचार करके व्रत लेना चाहिए, ग्रहण किये हुये व्रतों का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये तथा यदि दर्प से अथवा प्रमाद से कदाचित् व्रत भंग हो जावे तो शीघ्र ही गुरु के पास प्रायश्चित लेकर पुन: व्रत ग्रहण कर लेना चाहिए। ग्रंथकारों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि- ‘जब तक आप किसी वस्तु का सेवन नहीं करते हैं तब तक के लिये भी आप यदि उसका त्याग कर देते हैं तो यदि कदाचित् कर्मवश उस त्याग सहित अवस्था में मरण हो गया तो वह परलोक में सुखी हो जाता है ।सागार ध.अ.२, श्लोक ७७। ‘वसुभूति ब्राह्मण को दयामित्र सेठ ने धन के लोभ में मुनि बना दिया, कालान्तर में वह सच्चा भाविंलगी बन गया।धर्मामृत। सूर्यमित्र ब्राह्मण ने भी गिरी पड़ी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिये दीक्षा ली थी किन्तु उस चारित्र के प्रसाद से वे भावलिंगी महाश्रमण हो गये।आराधना कथाकोश, कथा ५७। शंका-आत्मतत्त्व के जान लेने से ही सिद्धि होती है तप आदि से शरीर को शोषण करने से आत्मा की सिद्धि नहीं हो सकती है ? चूँकि तप आदि में आकुलता होती है। समाधान-तप में प्रारम्भ में अभ्यास के समय आकुलता अवश्य होती है। किन्तु अभ्यास के द्वारा वे सरल हो जाते हैं। फिर बिना कष्ट सहन किये मुक्ति असम्भव है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं-
तपरहित ज्ञान और ज्ञानरहित तप दोनों भी अकार्यकारी हैं अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कराने में असमर्थ हैं अत: ज्ञान और तप से संयुक्त योगी ही निर्वाण प्राप्त करते हैं। पुन: उसी बात को दृढ़ करते हुये कहते हैं।
जिनको नियम से मोक्ष होना है ऐसे तीर्थंकर भी जो कि दीक्षा लेते ही अंतर्मुहूर्त में मन:पर्ययज्ञान से सहित हो जाते हैं तो भी वे तपश्चरण करते हैं ऐसा समझकर ज्ञानयुक्त होकर भी तपश्चरण करना चाहिये। तपश्चरण आदि से जो शरीर को कष्ट नहीं देना चाहते उनके प्रति श्री कुन्दकुन्ददेव क्या कहते हैं-
सुख में भाया गया ज्ञान दु:ख के आने पर नष्ट हो जाता है इसलिये योगी यथाशक्ति दु:खों के द्वारा अर्थात् अनशन-कायक्लेश आदि तपों के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करे। आगे और भी कहते हैं कि ‘आहार, आसन और निद्रा को जीतकर तथा जिनमत के अनुसार गुरु के प्रसाद से समझकर निज आत्मा का ध्यान करना चाहिये ।मोक्षपाहुड़। चारित्र की उपेक्षा करके आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने की जो बात है वह कहाँ तक ठीक है। देखिये-जाम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए ताम। विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं ।।६६।।मोक्षपाहुड़।जब तक मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करता रहता है तब तक वह आत्मा को नहीं जानता है। विषयों से विरक्त हुआ योगी ही आत्मा को जानता है।
चारित्र सभी के द्वारा और सदा पूज्य है ।
रामचंद्र जैसे महापुरुष क्षायिक सम्यग्दृष्टि थे फिर भी क्षयोपशम सम्यक्त्वी किन्तु उपचार से महाव्रतिनी ऐसी आर्यिकाओं की भी पूजा करते थे। त्याग की ही सर्वत्र पूजा देखी जाती है। गृहस्थी चाहे जितना ज्ञानी हो परन्तु उसकी पूजा का विधान आगम में नहीं है। मूलाचार में भी श्री कुन्दकुन्द ने कहा है कि-‘जो धीर पुरुष वैराग्य सहित हैं वे अल्प भी पढ़कर सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं किन्तु वैराग्य शून्य मनुष्य सर्व शास्त्र को पढ़कर भी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं ।’मूलाचार समयसार अधिकार। श्री समन्तभद्रस्वामी ने भी आप्तमीमांसा में ज्ञान के एकान्त का निरसन बहुत ही सुंदर शब्दों में किया है- ‘यदि कहा जाय कि अज्ञान से नियम से बंध होता है, तो ज्ञेय वस्तु अनंत हैं, उनका ज्ञान न हो सकने से कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकेगा। यदि कहा जाय कि अल्पज्ञान से मोक्ष होता है, तब तो जो उसके साथ बहुत-सा अज्ञान है वह बंध का कारण रहेगा, उससे भी मोक्ष नहीं हो पायेगा ।आप्तमीमांसा कारिका ९६। पुन: समाधान करते हुए कहते हैं कि—
मोहयुक्त अज्ञान से बंध होता है, वीतमोह पुरुष के अज्ञान से बंध नहीं होता है। उसे (मोहरहित) अल्पज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है किन्तु मोहयुक्त ज्ञान से बंध ही होता है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि वीतरागता को प्राप्त करने के लिये चारित्र ही आवश्यक है। उसके बिना आज तक कोई वीतरागी नहीं हुये हैं। ऐसा समझकर इस चरणानुयोग के आश्रय से चारित्र को ग्रहण करना चाहिये। पुन: सतत उसका मनन करते हुये चारित्र को निर्दोष निरतिचार बनाना चाहिए। श्रावकों का भी कर्तव्य है कि पहले देशचारित्र को ग्रहण कर सकल चारित्र की भावना भाते रहें यही क्रम मोक्ष का साधक है।
द्रव्यानुयोगरूपी दीपक जीव-अजीव तत्त्व का, पुण्य-पाप का और बंध-मोक्ष का श्रुत विद्या के प्रकाश से विस्तार रूप से प्रकाशन करता है। यह द्रव्यानुयोग जीव के बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा रूप से तीन भेद करता है। अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल का विस्तार से कथन करता है। पुण्य और पापरूप प्रकृतियों का वर्णन करता है और बंध-मोक्ष की व्यवस्था बतलाता है। समयसार, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथ इसी अनुयोग में आते हैं। शंका-पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष की व्यवस्था को जानने से आत्महित कैसे होगा ? क्योंकि ये चर्चायें तो हमेशा करते ही आये हैं आत्महित तो आत्मा के ज्ञान से ही होगा ? कहा भी है-
‘सभी को काम, भोग और बंध की कथा हमेशा सुनने में, परिचय में और अनुभव में आई हुई हैं अत: वह सुलभ हैं किन्तु भिन्न आत्मा के एकत्व की उपलब्धि सुलभ नहीं है।’ अत: उसी की कथा करनी चाहिये। समाधान-जब तक पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष पदार्थों को नहीं समझेंगे तब तक पाप से व बंध के कारणों से बचने का उपाय भी कैसे करेंगे तथा पुण्यरूप साधन सामग्री के बिना मोक्ष की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अत: इनका ज्ञान भी आवश्यक ही है। पुण्य में तीर्थंकर प्रकृति, वज्रवृषभनाराच संहनन आदि मोक्ष में सहायक हैं। यहाँ गाथा में काम, भोग, बंध से विषयभोग संबंधी कथा का भी अभिप्राय है अथवा बंध की कथा उन्हीं के लिए वर्जित है जो बंध के स्वरूप को पहले अच्छी तरह समझ चुके हैं। इस प्रकार से प्रथमानुयोग से महापुरुषों का आदर्श ग्रहण कर करणानुयोग से संसार से भयभीत होकर चरणानुयोग के अवलम्बन से चारित्र को धारण कर द्रव्यानुयोग के बल से शुद्ध आत्मा का ध्यान करके श्रुतज्ञान का फल जो अच्युत (मोक्ष) पद की प्राप्ति है उसे हस्तगत करना चाहिये।