चिन्तामणि १००८ भगवान पार्श्वनाथ के जीवन से हमें क्या शिक्षा ग्रहण करना चाहिए?
लेखिका—ब्र. कु. बीना जैन (संघस्थ)
‘‘भव संकट हर्ता पाश्र्वनाथ विघ्नों के संहारक तुम हो।
हे महामना है क्षमाशील मुझमें भी पूर्ण क्षमा भर दोे।।
यद्यपि मैंने शिवपथ पाया पर यह विघ्नों से भरा हुआ।
इन विघ्नों को अब दूर करो सब सिद्धि लहूँ निर्विघ्न तया।।’’
भगवान पाश्र्वनाथ का जीवन एक अलौकिक जीवन रहा है। जिन्होंने दस भव तक कमठ के उपसर्ग को सहन किया, दस भव तक कमठ ने प्रति क्षमा-भाव धारण किया। कहते हैं-‘ताली दोनों हाथों से बजती है’ लेकिन भगवान पाश्र्वनाथ के जीवन में ताली एक थाल से बजी है। कमठ का एक तरफा बैर भगवान पाश्र्वनाथ के प्रति दस भव तक चलता रहा। भगवान पाश्र्वनाथ के दस भव इस प्रकार हैं— १. मरुभूति २. हाथी ३. सहस्रारस्वर्ग में शशिप्रभ देव ४. अग्निवेग विद्याधर ५. अच्युत स्वर्ग में देव ६. वङ्कानाभि चक्रवर्ती ७. मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र ८. अयोध्या के आनंदराजा ९. आनत स्वर्ग में इंद्र १०. भगवान पाश्र्वनाथ कमठ के दस भव इस प्रकार हैं— १. कमठ २. कुक्कुटसर्प ३. पाँचवे नरक ४. अजगर ५. छठे नरक ६. भील ७. सातवें नरक ८. सिंह ९. महीपाल राजा १०. शंवर देव भगवान पाश्र्वनाथ ने क्षमाभाव को धारण करके स्वर्ग के सुखों को भोगा, चक्रवर्ती पद को प्राप्त किया, राजा बने और फिर एक दिन तीन लोक के नाथ भगवान बन गए। जिसकी देवगण, चक्रवर्ती, राजा, महाराजा सभी नमन, भक्ति, पूजन आदि करके अपने कर्मों को निर्जीर्ण करते हैं। कमठ के जीव ने क्रोध को अंगीकार किया फलस्वरूप उसने तिर्यंच, नरक के दुख भोगे। जहाँ पर कष्ट ही कष्ट मिलता है। छहढाला में पं. श्री दौलतराम जी ने नरक गति के दु:खों का बहुत अच्छी तरह से वर्णन किया है—
जहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसे निंह तिसो।
तहाँ राध शोणित वाहिनी, कृमि कुल कलित देह दाहिनी।।१।।
सेमर तरु दल जुत असि पत्र असि ज्यो देह विदारे तत्र।
मेरु समान लोह गल जाय ऐसी भीत उष्णता धाय।।२।।
तिल-तिल करे देह के खंड असुर भिड़ावे दुष्टप्रचण्ड।
सिंधु नीर ते प्यास न जाए ते पण एक न बूँद लहाए।।३।।
तीन लोक को नाजजु खाय मिटे न भूख कजान लहाय।
यह दुख बहु सागर लो सह्यो करम जोगते नरगति लह्यों।।४।।
नरक के दुखों को जानकर हमें भयभीत होना चाहिए। हमें ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। जिससे हमें नरक, तिर्यंच गति प्राप्त हो। पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माता जी ने दशलक्षण धर्म की पूजा में लिखा है—‘क्रोध कषाय महाविष है, भव भव में दुख दायक है।’’अत: हमें अपने जीवन में क्रोध कषाय का त्याग कर क्षमाभाव को धारण करना है। ‘तुंकारी’ की कथा बहुत प्रसिद्ध है क्रोध के कारण ही उसका नाम तुंकारी पड़ गया था और जब उसने क्रोध का फल भोग लिया तब उसे सीख मिली एक दिन वह गुस्से में घर से निकल कर जंगल में चली गई वहाँ चोरों ने उसके गहने छीन लिए शील भंग करना चाहा तो देवीय शक्ति ने रक्षा की। लेकिन वह एक रंगरेज के हाथ में पड़ी जो ाqक उसके शरीर से खून निकाल कर कंबल रंगता था। अत: उसे लकवें की बीमारी हो गई। पुण्योदय से एक दिन उसके भाई ने उसे देख लिया तब वह उसे घर लाया और खूब इलाज किया तब एक वैद्य जी ने लक्षपाक तेल बताकर उसे धीरे-धीरे स्वस्थ किया। तब उसने अपने मन में नियम कर लिया कि अब कभी क्रोध नहीं करूँगी। क्षमा, सहिष्णुता, कृतज्ञता, विनय, सरलता, शुचिता आदि ऐसे गुण हैं जिनसे मानव महान बनता है। ऊपर उठता है, उध्र्वगमन करता है और नियम से एक दिन सिद्ध शिला को—मोक्षधाम को प्राप्त करता है। इसके विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, ईष्र्या, मत्सर आदि से व्यक्ति अधोगमन करता है नरक तिर्यंच गतियों के दुख भोगता है। न स्वयं सुखी रह सकता है न दूसरों को सुखी देख सकता है। अत: हमें अपने जीवन में क्या धारण करना है? क्षमाभाव- पूज्य माताजी ने पूजा में लिखा है—
क्षमा निजात्मा का गुण है क्रोध भाव अग्नि कण है।
क्षमा पूर्ण शीतल जल है सभी गुणों में उज्ज्वल ऐसे पावन क्षमा
धर्म को हृदय कमल में ध्याते हैं। समरस हेतू क्षमाधर्म को हर्षित अर्घ चढ़ाते हैं।।
प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने दशधर्मों के ऊपर सुन्दर भजन लिखे हैं। क्षमा धर्म पर भजन है-क्षमा धर्म से अपनी बगिया सजाओ। गुणों की सुरभि अपने जीवन में लाओ।।क्षमाधर्म को हृदय में धारण करने से परिणामों में शांति होती है। जीवन स्वस्थ निरोग रहता है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव क्षमा गुण है। क्रोध तो विभाव परिणाम है। भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव वर्ष के अंतर्गत जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी युगप्रवर्तिका चारित्र—चंद्रिका, वाग्देवी, क्षमा की प्रतिमूर्ति, २५० ग्रंथों की प्रणेत्री, जम्बूद्वीप रचना, तेरहद्वीप रचना की पावन प्रेरिका, तीर्थंकरों की जन्मभूमियों की उद्धारिका, मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पर निर्माणाधीन १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा निर्माण की प्रेरणास्रोत गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने भगवान पाश्र्वनाथ का एक वृहद् ग्रंथ छपाने की प्रेरणा प्रदान की है। यह विशाल ग्रंथ जन-जन के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। व्रत करने के इच्छुक महानुभावों के लिए अनेक नए-नए व्रतों का संग्रह इस पुस्तक में मिलेगा। भगवान पाश्र्वनाथ के जीवन से मैं यही शिक्षा ग्रहण करती हूँ कि हे भगवान्! मैं अपने जीवन में क्रोध कषाय को दूर करके क्षमा भाव को धारण करूँ। प्राणीमात्र के प्रति मेरा क्षमा भाव हो। भगवान पाश्र्वनाथ के समान अपने जीवन को समुन्नत बना सकू। इन्हीं भावनाओं के साथ भगवान पाश्र्वनाथ के चरणकमलों में कोटि-कोटि नमन।