‘ध्यै’ धातु चिंतवन करने अर्थ में है। ‘ध्यायति अनेनेति ध्यानं ध्यायतीति ध्यानं अथवा ध्यातिर्वाध्यानं’’ आत्मा जिस परिणाम से पदार्थों का िंचतवन करता है। वह परिणाम ध्यान है अथवा आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का िंचतवन करता है उसको ध्यान कहते हैं या चिंतवन करना ही ध्यान का अर्थ है। ये तीनों व्युत्पत्ति करणसाधन, कर्तृसाधन और भावसाधन की अपेक्षा से हैं।
श्री उमास्वामी आचार्य ने भी कहा है—‘‘उत्तमसंहननस्यैकाग्रिंचतानिरोधो—ध्यान—मान्तर्मुहूर्तात्’’ उत्तम संहनन वाले पुरुष के एकाग्र-एक विषय में िंचता का निरोध होना ही ध्यान है, यह अंतर्मुहूर्त पर्यंत ही होता है। अर्थात् उत्तम संहनन वालों के ही यह ध्यान अधिक से अधिक अंतर्मुहूर्त तक रह सकता है। हीन संहनन वालों के तो बहुत ही अल्प समय तक हो सकता है ऐसा समझना।
एक वस्तु पर चित्त का स्थिर हो जाना सो तो ध्यान है और इससे भिन्न जो परिणामों की चंचलता है उसे अनुप्रेक्षा, िंचता, भावना अथवा चित्त कहते हैं।
यह सब शास्त्रीय भाषा में ध्यान का वर्णन है। आगे लौकिक भाषा में अप्रशस्तध्यान-िंचता से बचने का तथा प्रशस्तध्यान—शांति प्राप्त करने का उपाय बताया जा रहा है।
गृहस्थाश्रम में पुरुष व महिलाओं को प्रायः किसी न किसी प्रकार की चिंता बनी ही रहती है। किसी के पास धन नहीं है तो किसी के व्यापार में घाटा लग रहा है, किसी का धन चोर लूट रहे हैं तो किसी को सरकारी बंधन व कानूनों से धन का संरक्षण करना कठिन हो रहा है। इन निमित्तों से चिंता होना सहज है। किसी के पुत्र या पुत्री आज्ञापालक नहीं हैं, प्रतिकूल हैं या दुर्व्यसनी हैं, अथवा रोगी हैं या युवावस्था में मरण को प्राप्त हो गये हैं, अथवा वे अत्यंत प्रिय और अनुकूल हैं फिर भी किसी निमित्त से उनका बिछोह हो गया है। किसी के शरीर में अनेक प्रकार के रोग लगे हुए हैं, पेट भर भोजन अथवा उत्तम-उत्तम पकवान खाने को नहीं मिल पा रहा है। डॉक्टर ने परहेज में घी, नमक आदि बन्द कर दिये हैं। इत्यादि अनेक प्रकार के और भी कारण हैं जिनसे अंतरंग में चिंता घर बनाये रखती है और मन सदैव खिन्न रहने से न उन्हें इह लौकिक सुख ही मिल पा रहा है न परलोक के सुख की ही आशा की जा सकती है, क्योंकि संक्लेश परिणामों से उत्तम गति का मिलना असंभव ही है। ऐसी अवस्था में क्या करना चाहिए ? किसी की चिंता को वैâसे दूर कर सकते हैं ?
यदि आप सम्यग्दृष्टी हैं तो आपको वैâसी भी भयंकर चिंता क्यों न हो, दुख हो, वेदना क्यों न हो अर्थात् आपको वैâसा भी शारीरिक या मानसिक संताप क्यों न हो किंतु फिर भी आप उसे बहुत शीघ्र ही घटा सकते हैं, जड़मूल से निर्मूलन करके आत्मिक शांति प्राप्त कर सकते हैं, कैसे ? इन चार महौषधियों के द्वारा ।
कर्म सिद्धांत-अर्थात् होनी को स्वीकार करना।
वैराग्य-अर्थात् वस्तु के स्वभाव का विचार करना।
भक्ति-अर्थात् ईश्वर में विश्वास कर उनकी कृपा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना।
अध्यात्म भावना-अर्थात् अपनी अनंत शक्ति को पहचान कर उसे विकसित करने का प्रयत्न करना।
उदाहरण के लिये देखिये-यदि आपके पुत्र, मित्र, स्त्री, बंधु या शिष्य कोई भी आपके प्रतिकूल आचरण कर रहे हों, आपके साथ विश्वासघात कर रहे हों, आपकी झूठी निन्दा कर रहे हों, आपको व्यापार आदि प्रसंगों में कष्ट दे रहे हों, आपकी उन्नति से ईर्ष्या कर रहे हों, अकारण ही आपके लिए दुःखदायी हों तो उस समय आप उनके साथ वैसे ही मत बनिये। सोचिये कि पूर्वभव में या इस भव में इनके साथ मैंने कोई गलत व्यवहार किया होगा, इन्हें कष्ट दिया होगा उसके फलस्वरूप ये स्वजन होकर भी शत्रु बने हुए हैं। अथवा अकारण ही ये मुझे त्रास देकर स्वयं अशुभ कर्म बंध कर रहे हैं। मेरा कर्तव्य है कि मैं शांति से सहन करूं। आप पार्श्वनाथ का चरित पढ़िये और जीवंधर स्वामी की भी जीवनी देखिये आपको मानसिक शांति मिलेगी। पहले तो आप इन प्रतिकूल वस्तुओं को व प्रसंगों को अपने से दूर करने की कोशिश कीजिए। यदि उनसे नहीं बच सकते तो कर्म सिद्धांत पर दृढ़ विश्वास कीजिए कि इनका कुछ भी दोष नहीं है, मेरे पूर्वकर्मों का ही फल मुझे इनके निमित्त से मिल रहा है। श्री अमितगतिसूरि ने कहा है-
स्वयं कृतं येन यदात्मनापुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थंक तदा।।
‘यदि स्वयं के द्वारा किये हुए कर्मों के अतिरिक्त भी कोई अन्य मुझे सुख या दुःख देने में समर्थ हो सकता है तो फिर मेरे द्वारा किये गये कर्म व्यर्थ हो जायेंगे।’ इसीलिये यह सिद्धांत अटल है कि अपने द्वारा किये हुए कर्मों का फल ही अपने को मिलता है अन्य सब निमित्त मात्र हैं उन्हें दोष देना व्यर्थ है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र के इतिहास को पढ़िये। कहाँ तो राज्याभिषेक होने की तैयारी और कहां वैâकेयी के निमित्त से वन-वन में भटकना। महासती शिरोमणि सीता को ही देखिये कि कहाँ तो जिनके वियोग में रामचंद्र का अश्रु बहाना, दुःखी होना और कहां प्रजा के संदेहमात्र से गर्भवती अवस्था में सीता को घोर निर्जनवन में छुड़वा देना। अहो! इष्ट के द्वारा ही ऐसे-ऐसे भयंकर कष्टों का प्रसंग आ जाना यह स्व कर्मोदय का ही माहात्म्य है अन्य कुछ नहीं है इत्यादि उदाहरणों के द्वारा अपने मन में संक्लेश न करके शांति बनाये रखना ही उभयलोक के लिये हितकर है।
यदि आपके किसी इष्ट बंधु, पुत्र, स्त्री, पति या शिष्य का वियोग हो गया है, असमय में उनका मरण हो गया है या वे तुमसे प्रतिकूल हो रहे हैं अथवा धन, मकान, आदि प्रिय वस्तुओं की हानि हो रही है ऐसे प्रसंग में कर्म सिद्धांत ही शांति प्रदान करेगा। अरे! जो वस्तु जितने काल तक मेरे पास रहने वाली है उतने काल तक ही रहेगी। संसार में कोई किसी के साथ हमेशा नहीं रह सका है। हमें प्रत्येक इष्ट वस्तु अपने अनुरूप चाहिये किंतु ऐसा कब होता है ? वह तो मिलती है भाग्य के ही अनुरूप। यदि आपका भाग्य अनुकूल नहीं है तो कितना भी प्रयत्न कीजिए किंतु वह वस्तु आपको नहीं मिल सकेगी। मिलकर भी आपसे दूर हो जायेगी उसके लिये आपको चिंता करने से, दुःख करने से हानि के सिवाय लाभ नहीं है। सुकौशल की माता ने पति के दीक्षित हो जाने पर बहुत दुःख माना। पुत्र भी दीक्षित न हो जावे, मेरी आँखों से ओझल न हो जावे इसलिये उसने अपने शहर में मुनियों का आना रोक दिया किंतु जब पुत्र भी दीक्षित हो गया तो पति और पुत्र के मोह में पागल हो गई, रो-रोकर आर्तध्यान में मरकर व्याघ्री हो गई तथा जिनके प्रति अत्यंत मोह था उन्हीं के प्रति प्रतिकूलता से द्वेष भावना बन जाने से उन्हीं को खाने लगी। इन उदाहरणों को देखकर इष्ट में आसक्ति व उनके वियोग में शोक नहीं करना चाहिए। देखो! धर्मात्मा सेठ जिनदत्त मरते समय अपनी पत्नी में अत्यंत मोह को प्राप्त हो गया, मरकर अपने घर की बावड़ी में मेंढ़क हो गया और पानी भरते समय सेठानी के ऊपर उछल-उछलकर आने लगा। जब सेठानी को मुनि के मुख से मालूम हुआ कि यह मेंढ़क मेरे पति का जीव है तो उसे महान् आश्चर्य हुआ और दुःख भी।
अतएव इस श्लोक को बड़े अक्षर में लिखकर प्रेम में जड़वाकर अपने विश्रांति के स्थान में लगाना चाहिए और प्रतिदिन उसको पढ़ते रहना चाहिए।
उत्तमा स्वात्मचिंता स्यात् , मोहचिंता च मध्यमा।
अधमा कामचिंता स्यात् , परचिंता धमाधमा: ।।
अर्थात् अपनी आत्मा की चिंता उत्तम है, मोहचिंता मध्यम है, पंचेन्द्रिय विषयों की चिंता अधम है और पर की चिंता करना अधम से भी अधम है।
ऐसा ही शरीर में रोगों के निमित्त से कितनी भी भयंकर वेदना हो उस समय यही सोचना चाहिए कि क्या नरक में जैसी वेदनायें होती हैं वैसी यहां हो सकती हैं ? क्या तिर्यंच योनि के दुःखों से बढ़कर भी यह दुःख है ? नहीं-नहीं। यह तो उनके आगे तिल तुष मात्र भी नहीं है। अन्य जीवों को दुःख देने से, पीड़ा देने से, सताने से ही ये वेदनायें होती हैं। कर्म बांधते समय दूसरों को कष्ट देते समय मैंने जब कुछ नहीं विचारा तो अब उस कर्म के उदय के समय घबड़ाने से क्या होगा ? अभी भी ऐसा करने से तो आगे के लिए असाताकर्म बंधता चला जावेगा। अत: धैर्य से निर्दोष प्रासुक औषधि से रोग का उपचार करना चाहिए। श्री गुणभद्रसूरि कहते हैं-
यावदस्ति प्रतीकार: तावत्कुर्यात्प्रतिक्रियां।
तथाप्यनुपशांतानामनुद्वेग: प्रतिक्रिया ।।
जब तक इलाज हो सके इलाज करना और जब नहीं हो सके तो उद्विग्न नहीं होना ही उस रोग का इलाज है। अपने से अधिक दुःखी व रोगी जीवों की तरफ दृष्टि डालिये। जो सब तरफ से साधन हीन हैं, दीन हैं, अनाथ हैं उनकी तरफ देखिये आपकी वेदना हलकी होगी दुःख कम महसूस होगा।
आपको संसार के अच्छे-अच्छे भोग साधन सुखकर मालूम होते हैं या आपको स्वर्ग का वैभव, राज्य वैभव अच्छा लगता है अथवा बड़े-बड़े पद अच्छे लगते हैं तो शायद आप उन प्रलोभनों में आकर यही इच्छा करेंगे कि मुझे ये वस्तुयें भविष्य में अवश्य मिलें या आप पुनः पुनः उसके मिलने की चिन्ता करते रहेंगे किन्तु क्या आपने सोचा है कि यह भोगाकांक्षा भविष्य में दुर्गति का कारण है। देखो जितने भी नारायण होते हैं भोगों की आकांक्षा के निदान से ही होते हैं पुन: वे इस भव में चन्द दिनों तक अर्ध चक्रवर्ती पद के वैभव का उपभोग करके पूर्व के संस्कारवश भोगों की आसक्ति से मरकर नियम से नरक में ही जाते हैं। दूसरी बात यह है कि आपने इतना अधिक पुण्य नहीं किया है तो आपको मनचाही इच्छित वस्तु मिलेगी ही नहीं और यदि मिल भी गई तो राख के लिये हीरे को भस्म कर देने के सदृश वह निदान भावना मूर्खतापूर्ण ही है क्योंकि जो धर्म, तप, दान या पूजन आपको त्रैलोक्य का धनी बना सकता है उससे आपने विनाशीक पुत्र, पत्नी या धन वैभव को खरीदकर कोदों बोने के लिये चन्दनवन को जला डालने सदृश ही कार्य कर लिया है। इसलिये निदान करके अपने पुण्य को क्षीणकर आप स्वयं अपने को भविष्य में दुःख के गर्त में मत डालिये। यह हुआ कर्म सिद्धांत का चिंतवन, यह यह सभी के लिये महौषधि है।
वैâसा भी कष्टकर प्रसंग हो, आपके इष्ट का वियोग व अनिष्ट का संयोग हो गया है या वेदना से आप तड़प रहे हों। वैराग्य औषधि लेते ही आपका दुःख हलका हो जायेगा। संसार में जो जन्मा है वह मरेगा ही मरेगा, जिसका संयोग हुआ है उसका वियोग होगा ही होगा अर्थात् जन्म के पीछे मरण, जवानी के प्ाीछे बुढ़ापा, संयोग के पीछे वियोग, सुख के पीछे दु:ख और सम्पत्ति के पीछे विपत्ति नियम से आती ही आती हैं। संसार की स्थिति यही है तथा इस जगत में कौन किसका है ?
अनादिकाल से लेकर अब तक अनंतानंत काल व्यतीत हो गया है, इस जगत में कौन ऐसा जीव है जो मेरी माता नहीं हुआ, मेरा पिता नहीं हुआ, पुत्र, मित्र या शत्रु नहीं हुआ है। अथवा मैं किसी का मित्र या शत्रु नहीं हुआ हूँ फिर भला अब किससे प्रेम करना? किसको अपना समझना? अथवा किससे द्वेष करना या किसको अपना शत्रु समझना? संसार तो इसी का नाम है तथा शरीर जो मेरा है मेरा आत्म प्रदेशों से एकमेक हो रहा है। क्या वह मेरा है? यदि है तो मेरे अनुकूल क्यों नहीं है? मेरे साथ क्यों नहीं जाता है? यदि एक दिन इसे भोजन न मिले तो यह मेरे कार्य में विघ्न क्यों डाल देता है अथवा मुझे पूर्णतया जवाब दे देता है फिर यह मेरा वैâसे है? यह तो महाकृतघ्नी है। असंख्य रोगों का घर है, दुःखों की खान है और इसी के मोह में तो जीव अनंत संसार में परिभ्रमण करते हैं।
श्री पूज्यपाद स्वामी के इस श्लोक को प्रतिदिन पढ़ना चाहिए और अपने उठने-बैठने के स्थान पर ऊंचे पर इसे लिखकर रखना चाहिए-
यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकं।
यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकं।।
अर्थात् जिस कार्य से जीव का उपकार होता है उससे शरीर का अपकार होता है और जिससे शरीर का उपकार होता है उससे जीव का अपकार होता है।
इत्यादिरूप से संसार और शरीर का विचार करते हुए संसार के भोगों को भी किंपाक फल के समान देखने में ही मधुर समझना क्योंकि ये भोग हालाहल विष से भी भयंकर हैं ऐसी भावना भाना नित्य ही ‘वैराग्य भावना’ और कोई एक ‘बारह भावना’ का पाठ करना चाहिए। इससे शारीरिक और मानसिक शांति का अनुभव अवश्य होता है।
व्यक्ति के मन में जब तक किसी सुन्दर आदर्श के प्रति या किसी महान व्यक्ति के प्रति श्रद्धा और प्रेम के स्थायी भाव नहीं होते तब तक दुराचार से हटकर सदाचार में उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। संसार में जिनेन्द्रदेव एक महान आदर्श हैं। उनके प्रतीक दिगम्बर जैन आचार्य, उपाध्याय और साधु भी महान आदर्श हैं। अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पंच परमेष्ठियों को आदर्श मानकर इनकी भक्ति करना। संकट के समय इनकी पूजा, उपासना, आराधना, जाप्य आदि करना वैसे ही है कि जैसे दावानल अग्नि के बुझाने में मेघ की वर्षा। यदि आप अधिक व्याकुलता में कुछ भी करने में असमर्थ हैं तो भी विश्वास के साथ मन-मन में णमोकार मंत्र जपते ही रहिये। यदि पूरा मंत्र नहीं जप सकते तो इतना अवश्य जपिये ‘अरहंत सिद्ध, भव रोग वैद्य’ यह मंत्र रामबाण औषधि है, अमोघ मंत्र है यह निरर्थक हो ही नहीं सकता है। आपके अशुभ कर्मों के पर्वत सौ-सौ खंड रूप हो जावेंगे, असाता कर्म गल-गल कर समाप्त हो जावेंगे। वैâसा संकट क्यों न हो उससे आप छुटकारा पा लेंगे। सभी आस्तिकवादी दुःखों के नाशहेतु अपने इष्टदेव का स्मरण करते हैं। यहां तक कि नास्तिक लोग भी प्रार्थना करते हैं और उससे संकट का नाश, इच्छित फल की प्राप्ति होना स्वीकार करते हैं। फिर जब आप सच्चे वीतराग देव की सच्चे मन से जाप्य करेंगे तो आपके दुःख दूर क्यों नहीं होंगे ? निर्जन वन में, श्मशान में, समुद्र में, युद्ध भूमि में, सिंह और डाकू वगैरह के समीप आने पर ही यह महामंत्र आपकी रक्षा करने में पूर्णतया सक्षम है। श्रीमानतुंगाचार्य के भक्तामर स्तोत्र के प्रभाव से ४८ ताले टूट गये। सीता की जिनेन्द्र भक्ति ने अग्नि को जल बना दिया, चंदना की बेड़ी टूट गई, श्रीपाल ने समुद्र को पार कर लिया और अनंतमती ने अपने शील की रक्षा कर ली। अनेक उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है, पढ़िये महापुरुषों के इतिहास को और अर्हंतदेव की भक्ति में तन्मय हो जाइये फिर देखिये क्या नहीं होता है ? सब कुछ सिद्ध होता है यहां तक कि आप भक्ति करते-करते एक न एक दिन परम्परा से भगवान बन सकते हैं तब संसार के सर्व दुःखों से सदा-सदा के लिये छूट जायेंगे।
यह सर्व दुःखों को जड़मूल से नष्ट करने वाली है। अनादिकाल से मेरी आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध हो रहा है फिर भी शुद्ध निश्चयनय से मेरी आत्मा ज्ञान दर्शन स्वरूप है, एक है, शुद्ध है, पुद्गल का एक परमाणु मात्र मेरा नहीं है। मेरे में अनंतदर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य ये चतुष्टय विद्यमान हैं, मैं अनंतगुणों का पूंज हूूँ परमानंद स्वरूप हूँ, सिद्ध हूँ। ये कर्मजन्य पर्यायें मेरी आत्मा की नहीं है अर्थात् मैं नारकी, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव नहीं हूँ। मैं स्त्री, पुरुष या नपुंसक नहीं हूँ। मैं बाल, वृद्ध या युवा नहीं हूँ। मैं पंडित, मूर्ख, कुरूप, सुरूप, धनी, निर्धन आदि नहीं हूँ। किंतु मैं चित्चैतन्य स्वरूप हूँ, परंज्योति स्वरूप हूँ। अनादि काल से मिथ्यात्व के निमित्त से मैंने अपने आप को नहीं पहिचाना इसीलिये शरीर को ही आत्मा मानकर बहिरात्मा बना रहा अब मैं जिनेन्द्रदेव की कृपा प्रसाद से सम्यक्त्व निधि को पाकर संतुष्ट हो गया हूँ। मेरी रत्नत्रय निधि ही मेरी अटूट सम्पत्ति है। मैं अनंत शक्तिमान हूँ । इत्यादि भावना के भाने से यह आत्मा अपने आप को दुःखी, दीन, रोगी, असमर्थ या अस्वस्थ नहीं समझता है प्रत्युत उतने क्षण तो अपने आपको कर्म बंधन से रहित, संसार दुःखों से रहित समझने लगता है। यही भावना आगे चल कर जब दृढ़ हो जाती है तभी यह आत्मा अंतरात्मा होता हुआ एक देश और पूर्ण चरित्र को ग्रहण कर अपने आपको साधु, आचार्य, उपाध्याय बना लेता है, जगद्वंद्य पूज्य हो जाता है पुनः क्रम-क्रम से शक्ति संचित करके परमात्मा बन जाता है। वास्तव में जो भी हमारी संसारी अवस्था है वह व्यवहारनय का विषय है निश्चयनय तो वस्तु के सहज स्वभाव का ही वर्णन करता है। इस प्रकार से इष्ट वियोग आदि प्रसंगों पर या वेदना आदि के समय अथवा अनिष्ट उपद्रव, उपसर्गों के समय इस अध्यात्म भावना के अवलंबन से ही आत्मा में एक प्रकार का आनंद उत्पन्न होता है। वह आनंद क्षणमात्र में तमाम कर्म ईंधन को भस्मसात् कर देता है जिससे इस लोक में भी शारीरिक व मानसिक शांति मिल जाती है और परलोक में तो स्वर्ग व परंपरा से मोक्ष निश्चित ही है। इस अध्यात्म भावना में आत्मा की भक्ति होती है। ध्यान सूत्रों को पढ़ते हुए भी इसे भाना चाहिए। अध्यात्म भावना के बिना ध्यान की सिद्धि असंभव है अतः इसका अवलंबन लेना ही चाहिए। इस भावना से यह जीव शरीर से निर्मम हो जाता है अतः उस पर आये दु:खों को सहने का अभ्यासी हो जाता है तथा वह उपवास, कायक्लेश आदि द्वारा दु:खों को बुला-बुलाकर अध्यात्म की भावना भाता है क्योंकि समाधिशतक में कहा है कि-
अदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ।
तस्माद् यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनि:।।
अर्थात् सुखिया जीवन में किया गया तत्व का अभ्यास दुःख के आ जाने पर पलायमान हो जाता है। अतएव मुनि दुःखों में भी आत्मा की भावना करे यह परमौषधि है।
यदि किसी के प्रति आपने असीम उपकार किये हैं किंतु उनका बदला वह अपकार से चुका रहा है अथवा उन उपकारों को अपकार ही मान रहा है या वह आपके उपकारों को मानने को तैयार नहीं है तो न सही। आप तो सोचिये कि मैंने उसका कुछ नहीं किया है उसके उत्तम भाग्य से ही उसका भला हुआ है, मैं तो एक निमित्त मात्र था ऐसा सोच कर आप अहंकार व कर्तृत्व की बुद्धि को दूर कीजिए। यदि उसके अशुभ कर्म का उदय होता तो आपके द्वारा किये गये उपकारोंं का निमित्त उसे नहीं भी मिलता इत्यादि। दूसरी बात यह है कि श्री भट्टाकलंकदेव ने भी कहा है कि ‘कृतज्ञता गुण-किये हुये के उपकार को मानना’ यह गुण अत्यन्त दुर्लभ है जैसे निगोद से स्थावर होना अत्यंत कठिन है पुन: स्थावर से त्रस पर्याय मिलना कठिन है, पुन: त्रस में भी विकलत्रय जीवों की बहुलता होने से पंचेन्द्रिय पर्याय पाना उतना ही कठिन है जितना कि गुणों में कृतज्ञता गुण मिलना कठिन है।
अथवा यदि अकारण ही कोई आपके प्रति द्वेष कर रहा है, आपकी झूठी निंदा या अवर्णवाद कर रहा है या आपके प्रति बुरा कर रहा है तो भी आपको कर्म सिद्धांत का विचार करते हुए उस पर क्षमा भाव रखना ही उचित है। आप जीवंधर के जीवन चरित्र को पढ़कर काष्ठांगार की कृतघ्नता का उदाहरण सामने रखिये और उस कुत्ते के द्वारा जीवंधर स्वामी के प्रति किये गये प्रत्युपकार को भी देखिये एवं व्यवहारिक जनों की सूक्ति का भी विचार कीजिए कि ‘नेकी कर कुंये में डाल’। इस सूक्ति से भी आपको क्लेश नहीं होगा।
इस तरह से जितने भी संक्लेश के कारण हैं वे सब आर्तध्यान के ही अंदर आ जाते हैं। तथा जितने भी बुरे विचार हैं वे सब रौद्रध्यान में गर्भित हो जाते हैं। जैसे प्रिय वस्तुओं के प्राप्त करने की चिंता, नष्ट हो जाने पर उनके मिलने की बार-बार उत्कंठा, चिंता, अप्रिय वस्तुओंं के मिल जाने पर उनसे दूर होने की चिंता या अप्रिय समागम न होने की भावना, रोग जनित पीड़ा से बेचैनी व पंचेन्द्रियों के विषयों की आकांक्षा, उनके प्राप्त होने की चिंता-उपाय आदि ये सब आर्तध्यान हैं। किसी को अप्रिय शत्रु समझकर उनके मारने, नष्ट करने आदि की चिंता, असत्य, मायाचारी आदि के द्वारा दूसरों को वंचित करने की चिंता, किसी की वस्तु को अपहरण करने की चिंता या परिग्रह के अर्जन, संरक्षण आदि की अधिक चिंता ये सब रौद्र ध्यान हैं। इनसे छूटने के उपायों में चार कारण बताये हैं-कर्म सिद्धान्त विचार, वैराग्य भावना, भक्ति भावना और अध्यात्म भावना, ये चारों ही उपाय चारों धर्मध्यान में गर्भित हैंं। कर्म सिद्धांत विपाकविचय नामक तृतीय धर्मध्यान में, वैराग्य भावना अपायविचय में, भक्ति भावना आज्ञाविचय में और अध्यात्म भावना आज्ञाविचय तथा संस्थानविचय धर्मध्यान में ही गर्भित हैं अर्थात् ये चारों धर्मध्यान ही क्रम से सभी दुर्ध्यानों को समाप्त करके मानसिक, आत्मिक शांति देने में समर्थ हैं।श्री अमितगतिसूरि ने कहा है-
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं।
माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।
इसी प्रकार से सब जीवों के प्रति मैत्री भाव, गुणीजनों में प्रमोद, दुःखी जीवों के प्रति करुणा और विपरीत वृत्ति वालों के प्रति मध्यस्थभाव ये चार भावनायें भी हमेशा सुख शांति प्रदान करने वाली हैं। इनको भी नित्य ही भाते रहना चाहिए।’ अपना मानव जीवन सदाचारी होना चाहिए। इसके लिए जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन नरक के द्वार हैं इन्हें सबसे पहले गुरु की साक्षी से त्याग कर देना और मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करके सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेना चाहिए। पुन: संकल्पी हिंसा का त्याग, असत्य का त्याग, चोरी का त्याग, कुशील का त्याग और परिग्रह का परिमाण इन पांच अणुव्रतों को धारण कर लेना चाहिए क्योंकि ये अणुव्रत नियम से देवगति के ही कारण हैं। अणुव्रत धारण के पश्चात् यह जीव नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति में नहीं जा सकता है तथा देवपूजा, गुरू की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह आवश्यक क्रियाओं को नित्य करना चाहिए। इन छहों में भी ‘दाणं पूजा मुक्खो सावयधम्मो ण सावया तेण विणा’ इस कुंदकुंददेव की वाणी के अनुसार दान और पूजा को श्रावक का मुख्य कर्तव्य मानकर अवश्य करना चाहिए क्योंकि इनके बिना कोई गृहस्थ श्रावक नहीं हो सकता है।
इसी प्रकार महिलाओं को भी उपर्युक्त कथित अनुसार चिंतायें छोड़नी चाहिए। यदि घर में सास या पति अथवा पुत्र या पुत्रवधुयें, पुत्रियां आदि अनुकूल नहीं हैं तो भी उनके साथ उचित व्यवहार करते हुए आप मन में शांति धारण करें क्योंकि ये चंद दिनों के सम्बन्ध हैं। प्रत्येक जीव अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा। अतः किसी के लिए संक्लेश या चिंता करके अपने स्वास्थ्य और परलोक को नहीं बिगाड़ना चाहिए। आत्मा स्त्री नहीं है, पुरुष या नपुंसक भी नहीं है। वह तो शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध, सिद्ध सदृश है उसी का अवलंबन लेकर पराधीन स्त्री पर्याय से छूटने का उपाय करना चाहिए। यदि स्त्री पर्याय में सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है तो नियम से आगे स्त्री पर्याय नहीं प्राप्त होगी। अपने शील धर्म को तीन लोक में श्रेष्ठ रत्न समझना चाहिए। क्षणिक भौतिक चमत्कार व प्रलोभनों में पड़कर अपने शीलरत्न को नहीं गंवाना चाहिए। हमेशा सीता, अंजना, चंदना, अनंतमती आदि के उदाहरण सामने रखना चाहिए। पति और पुत्रों को धर्मनिष्ठ बनाने में चेलना के समान बनना चाहिए। निर्धनता, बीमारी आदि संकट के समय धैर्य नहीं छोड़ना चाहिए। स्त्री पर्याय को सर्वथा निंद्य समझकर खेद करना, पराधीनता के पिजड़े में बंद रहना अथवा आधुनिक वातावरण से प्रभावित होकर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करना ये सभी बातें ठीक नहीं हैं। तीर्थंकर की मातायें, चंदना आदि सतियां ये भी महिलायें थीं फिर भी ये गुणों की खान मानी जाती हैं। पुरुष तो क्या देव इंद्र भी इनके सामने नत हुए हैं। महासती सीता ने आर्यिका दीक्षा लेकर रामचंद्र को भी नत मस्तक कर दिया था उन्होंने भी आर्यिका वेष में सीता को नमस्कार किया था। अत: अपने को हीन-दीन भी नहीं मानना चाहिए और स्वैरवृत्ति करके अपने कुल को, धर्म को कलंकित भी नहीं करना चाहिए। चारों प्रकार के अनुयोगों का हमेशा स्वाध्याय करके अपने ज्ञान को निर्मल बनाना चाहिए। सुख और वैभव को पाकर फूलना नहीं और दुःख तथा विपत्ति के समय घबड़ाना नहीं चाहिए। अपना संतुलन बना कर हमेशा प्रसन्नचित्त व प्रसन्नमुख रहना चाहिए, इससे सदैव शान्ति मिलती है।