चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्पदा है। विश्व में अवतरित होने वाले महापुरुषों की महानता का आधार उनका श्रेष्ठ चारित्र है। मनुष्य इस अक्षुण्ण सम्पदा के आधार पर युगपुरुष , देवदूत अथवा अवतार स्तर पर उँचा उठने में समर्थ होता है, ऐसे ही चरित्र निष्ठ व्यक्तियों ने विश्व वसुन्धरा को अभिसिंचित कर इस विश्व उद्यान की श्री वृद्धि की है। उन्होंने मानवीय गरीमा को बढ़ाकर महान कार्य संपादित किये हैं। ऐसे ही व्यक्ति प्रकाश एवं प्रेरणा देने में सक्षम होते हैं । उनके पार्थिव शरीर भले ही जीवित न हों पर उनका अमर यश सर्व साधारण के लिये हमेशा प्रकाशदीप बनकर युग—युग तक मार्गदर्शन करता रहेगा, वे जन श्रद्धा के अधिकारी बने रहेंगे। ऐसे ही चरित्रवान पुरुषों को भगवान की, देवमानव की संज्ञा दी गई है। नारद पुराण (पूर्व खण्ड अ. ७) में कहा है— ‘‘अन्यों के दुख में दुखी, दूसरों के हर्ष में जो हर्षित होता है, वह चारित्रवान व्यक्ति नर के रूप में ईश्वर है।’’ कभी इस धरा पर ऐसे चरित्रवान महामानवों की बहुलता थी जो अपने आचरणों के द्वारा सामान्य जनता के प्रेरणा स्त्रोत थे। उदात्त, चारित्रवान, आदर्शभूत संतों, आचार्यों, ऋषियों के पुनीत आचरण से प्रेरित प्रभावित होकर उनके शिष्यों के मन में ऐसी पवित्र श्रद्धा एवं धारणा उत्पन्न होती थी। कि— ‘‘हम भी इन्हीं के समान बन जाये।’’ तब वे भी उन्हीं के समान बनने का प्रयत्न करते थे क्योंकि ‘‘महाजन: येन गता सा पंथा। ’’ अर्थात् महापुरुष जिस मार्ग पर गमन करते हैं। एक तथ्य यह भी है कि मनुष्य का स्वभाव अनुकरण प्रिय है। जैसा उसको आदर्श मिलता है, जैसा वह सोचता और करता है, वैसा ही बन जाता है। मानवीय गरिमा की वृद्धि करने वाली सम्पत्ति में चरित्र की सम्पदा का ही नाम अग्रणी है। अन्य सम्पत्ति इससे कम महत्व की है। कहा है— धन तो आता जाता रहता है, उसकी क्षति कोई बड़ी नहीं मानी जा सकती परंतु कोई मनुष्य चारित्रहीन है तो समझना चाहिये उसका सर्वनाश हो गया। अत: बुद्धिमान पुरुष को, विवेकवान व्यक्ति को अनीति एवं दुराचरण का त्याग कर सदैव अपने चरित्र की रक्षा करना चाहिये। इस सम्पत्ति के धनी व्यक्ति ही अन्य प्रकार की भौतिक सम्पत्तिवानों को हृदय पर अपना प्रभुत्व जमा सकता है। चरित्रवान व्यक्ति मौन भाषा से ही समाज के उपदेश देता है । ऐसे व्यक्तियों के सम्पर्व में आने वाले व्यक्ति संतोष का अनुभव करते हैं । ऐसे व्यक्ति ही जनश्रद्धा के पात्र बनते हैं। गांधी, विनोबा, विवेकानंद, दयानंद , आदि सदाचारी महामानवों के धवल चरित्र इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आत्मोत्कर्ष के मार्ग में चरित्र निष्ठा का सम्बल पाकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। इसमें बाधक बनने वाले तत्वों के इंद्रिय लिप्सा तथा वासनायें प्रमुख हैं। इनके ऊपर अंकुशंन रखा गया तो चरित्र भ्रष्ट होने की संभावना बनी रहती है। वासना के थोड़े से झोंके में आचरण की नींव न हिले, इसके लिये इंद्रियों पर अंकुश रखा जाये। इंद्रियों पर अंकुश रखा जाना चारित्रिक उत्कृष्टता का आधार है । जिसके कारण श्रेष्ठतम् स्तर का बना जा सकता है शास्त्रों में इसकी महत्ता स्वीकार की गई है, और कहा गया है कि कामेन्द्रिय और जिव्हा, ये दोनों जिनके वश में हैं, उनकी तुलना परमेश्वर से की जा सकती है। जैन धर्म में चरित्र निष्ठा को मानवीय उत्कर्ष का एक प्रमुख आधार माना गया है।
कहा है — ‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’ अर्थात् चारित्र ही यर्थात् से धर्म है । चारित्र की गणना त्रिरत्न (रत्नत्रय) में की गई है। इसके अनुसार मनुष्य की धार्मिकता उसके चारित्र से जानी जाती है। चारित्र ज्ञान से बनता है, ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन से मिलता है। चरित्र निर्माण के लिये भगवान महावीर ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह नामक पंच महाव्रतों के परिपालन को अनिवार्य बताया है। चीन के प्रख्यात् दार्शनिक कन्फ्यूशियश कहा करते थे कि — ‘‘हृदय की पवित्रता हो तो चरित्र में सौंदर्य होगा। परिवार में संतुलन रहेगा तो समाज में राष्ट्र में सुव्यवस्था होगी और इससे संसार में शांति का वातावरण बनेगा।’’ वे युवकों को सदैव चारित्र वान बनने की प्रेरणा दिया करते थे। वे उनसे कहा करते थे जब कोई अपने से बड़ा अच्छा आदमी देखो तो सोचों कि मैं उससे क्या सीख सकता हूँ। किंतु जब कोई बुरा या छोटा आदमी देखों तो अपने चरित्र के भीतर झांककर देखो कि कहीं वह बुराई या भ्रष्टता अपने अंदर तो नहीं छिपी पड़ी है। यदि है तो उसे उखाड़ फैकों । महानता की गगन चुम्बी दीवार सच्चरित्रता की नींव पर ही खड़ी होती है। मानव की सर्वोच्च सम्पदा यही है इसके बिना मनुष्य नैतिक नहीं रह सकता । बुद्ध, ईसा मसीह, मुहम्मद, जरथुस्त्र आदि सभी मनस्वी चरित्र के धनी थे उसी के बल पर महापुरुष कहलाये। आज के तथाकथित उपदेशक धर्म प्रचारक आकर्षित प्रवचन भर देते हैं, और लोग उनकी इस कला की प्रशंसा भी कर देते हैं, पर उनमें से ऐसे कोई नहीं होते जो उन उपदेशों पर चलने को तैयार हों। कारण स्पष्ट है कि उसमें प्रतिपाद्य विषय का दोष नहीं वरन् उस मनोबल की प्राण ऊर्जा की कमी ही वह प्रधान कारण है जो चारित्रिक निर्मलता से प्राप्त होती है, और जिसके बिना सुनने वालों के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न किया जा सकता, अंत:करण को छू सकना संभव नहीं। समर्थ गुरु रामदास, रामकृष्ण परमहंस, गुरुगोविन्द सिंह, कबीर आदि मनस्वी महामानवों ने अपने सदाचरण से ही असंख्यों को उपयोगी प्रेरणायें दी और अभीष्ट पथ पर चलने के लिये साहस उत्पन्न किया। गांधीजी की प्रेरणा से स्वतंत्रता संग्राम में सफलता अर्जित की गई। चरित्र ही जीवन की आधारशिला है। आध्यात्मिक सफलताओं का मूल भी चरित्र ही है। लोग विश्वास भी उन्हीं का करते हैं, जिनके पास चरित्र रूपी संपदा है। चरित्रवान साधक की ही साधनायें सफल होती हैं। मर्यादाओं का पालन करने वाले साधकों का उत्साह और मनोबल देखते ही बनता है।
आचरण हैवान को इंसान बना देता है।
माली वीरान को गुलिस्तां बना देता है।
मैं आप बीती कहती हूँ दूसरों की नहीं।
चरित्र इंसान को भगवान बना देता है।।
चारित्र विकास ही जीवन का परम उद्देश्य होना चाहिये। इसी के आधार पर जीवन लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। इस सम्पदा के हस्तगत होने पर ही जीवन का वास्तविक आनंद प्राप्त किया जा सकता है। यही सम्पत्ति वास्तविक सुदृढ़ और चिरस्थाई होती है। अत: हर स्थिति में इस संजीवनी की रक्षा की जानी चाहिये।
चरित्र समाज को देश—व्यक्ति, यह सबका सम्बल होता है,